Tuesday 2 June 2015

लिखने का जोखिम



वीरेंद्र यादव


इन  दिनों  भारतीय भाषाओँ के  कई  लेखक   अभिव्यक्ति की आज़ादी की रक्षा के लिए जिस तरह   सीधे मुठभेड़ करने को विवश हुए हैं  वह   देश में  बढ़ती धार्मिक कट्टरपंथी  असहिष्णुता का परिचायक होने के साथ साथ   इन  लेखकों की सामर्थ्य का भी परिचायक है .  तमिल लेखक पी. मुरुगन ने अपने उपन्यास ‘माधोरुबागन’  के लिए किसी भी प्रकार की क्षमायाचना से इनकार करते हुए अपने लेखक की मृत्यु की घोषणा करके अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मुद्दे को  एक नया आयाम दिया है. तसलीमा नसरीन को  जिस तरह पहले  बँगला देश और बाद में पश्चिम बंगाल से  बहिष्कृत होकर निर्वासन में जीना पड़ रहा है वह भी उनकी लेखकीय सामर्थ्य का ही परिचायक है. मराठी लेखक और वामपंथी जननेता  गोविन्द पानसरे को तो अपने लेखन और तर्कशक्ति  के लिए जान की कीमत तक चुकानी पडी. कन्नड़ ,मराठी ,उर्दू ,मलायलम सहित अन्य भारतीय भाषाओँ में भी पिछले दिनों अभिव्यक्ति के जोखिम के कई उदाहरण देखने में आये हैं.  यू.आर.अनन्तमूर्ति तो अपनी बेबाक अभिव्यक्ति के चलते मृत्युशैय्या पर भी पुलिस के पहरे में रहे .  दो राय नहीं कि अभिव्यक्ति पर खतरे भी वहीं हैं जहाँ अभिव्यक्ति के जोखिम उठाये जा रहे  हैं. हिन्दी के लेखक को अभिव्यक्ति की अबाध आजादी शायद  इसीलिये है कि उसकी अभिव्यक्ति से किसी को कोई  डर नही है.  जबकि सच यह है कि  बहुसंख्यकवाद का दिनोदिन कसता  शिकंजा और जनतंत्र के अभिजनतन्त्र में बदलने की प्रक्रिया जिस निर्लज्ज ढंग से हमलावर है वह लेखकीय अभिव्यक्ति  के लिए अत्यधिक उर्वर और चुनौतीपूर्ण है.  तो क्या यह समझा जाय कि प्रेमचंद, निराला , राहुल ,नागार्जुन, रेणु, यशपाल ,राही मासूम रज़ा और जगदीश चन्द्र सरीखे लेखकों ने वर्ण और वर्ग से मुक्त होकर अपने लेखन में  हाशिये के समाज को जो केन्द्रीयता प्रदान की थी हिन्दी की मुख्य धारा के लेखन में आज उससे विमुख होने  का दौर है ?  या कि  हिन्दी का लेखक बकौल धूमिल ‘कांख भी ढकी रहे और मुठ्ठी भी तनी रहे’   की सुरक्षित भूमिका का ‘समझधारी भरा’  निर्वहन कर रहा है. विचारणीय  यह भी है कि आखिर क्यों इस समूचे दौर में  हिन्दी के एक भी शिखर के   लेखक की छवि ऐसे सार्वजानिक बुद्धिजीवी  की क्यों नहीं बन पाई जैसी   यू आर अनंतमूर्ति, महाश्वेता देवी या अरुंधति राय सरीखों की बन सकी ?
      ये  प्रश्न और चिंताएं  इसलिए जरूरी है क्योंकि स्वाधीनता आन्दोलन के दौर में आधुनिक  हिन्दी साहित्य की निर्मिति ही सामाजिक  हलचलों और स्वाधीनता आन्दोलन से जुड़कर हुयी थी . तत्कालीन राजनीतिक और सामाजिक परिदृश्य  पर जो मुद्दे  दृश्यओझल थे साहित्य उनकी निशानदेही कर रहा था. जिन दिनों जवाहरलाल नेहरु जैसे राजनेता का ग्रामीण भारत और उनके मुद्दों से अपरिचय था उन दिनों प्रेमचंद किसान समस्याओं पर आधारित ‘प्रेमाश्रम’ सरीखा उपन्यास लिख चुके थे .  .प्रेमचंद के उपन्यास ‘गबन’ के दलित देवीदीन   या नागार्जुन के ‘बलचनमा’ की गांधी के ‘सुराज’ को प्रश्नांकित करती  अभिव्यक्तियों में    स्वाधीनता आन्दोलन की उन अनुपस्थितियों की अनुगूंज को  सुना जा सकता है जो भगत सिंह और  डॉ.आंबेडकर के सरोकारों में शामिल थीं .  यह अकारण नही है कि फणीश्वरनाथ रेणु ने ‘मैला आँचल’ में आज़ाद देश का क्रिटीक जिन बालदेव और बामनदास की जुबानी रचा  वे वर्णाश्रमी जातिगत संरचना के निम्न वर्गीय और हाशिये के समाज के पात्र हैं. शायद इसके मूल में प्रेमचंद, निराला, राहुल, नागार्जुन आदि सरीखे लेखकों का आवयविक या सामाजिक बुद्धिजीवी होना था . ये सामजिक जीवन में रचे बसे और प्रगतिशील जीवनमूल्यों से लैस लेखक थे .  बाद के वर्षों में  क्षीण होने के बावजूद  कमोबेश यह परम्परा कुछ दशकों तक जारी रही जिसके फलस्वरूप ‘आधा गाँव’, ‘धरती धन न अपना’, महाभोज’ ,’एक टुकड़ा इतिहास’, ‘परिशिष्ट’ , ‘गगन घटा घहरानी’ आदि  सरीखी रचनाएं संभव हो सकीं . लेकिन ज्यों ज्यों मुख्य धारा के लेखकों का समाज से पार्थक्य बढ़ा उनका  अनुभव संसार भी  सीमित हुआ और सरोकार भी. जिन कुछ लेखकों ने अपने सरोकारों को बचाकर रखा वे अपनी सीमित अनुभव सम्पदा के चलते ‘सेरेब्रल’ (इल्मी) लेखन की और उन्मुख हुए  .विनोद कुमार शुक्ल, उदयप्रकाश और अलका सरावगी सरीखे सेलेब्रिटी  लेखकों  का अधिकांश  कथा-लेखन इसका ज्वलंत उदाहरण है. निम्नवर्गीय जीवन प्रसंग और हाशिये के समाज का जीवन भी यहाँ जो कुछ और जितना है एक रूपक में तिरोहित हो जाता है. ‘नौकर की कमीज’ , ‘खिलेगा तो देखेंगें’, ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’ सरीखे  उपन्यास  और  ‘मोहनदास’ और ‘मैन्गोसिल’ सरीखी कथा-रचनाएँ  हाशिये के समाज के  सरोकारों की  किस सीमा तक कथात्मक अन्विति कर पाती हैं ,यह विचार का विषय है.  कहीं यह  सरोकारों के अमूर्तन का लेखन तो नहीं  है किसी भी जोखिम से मुक्त और अछूता ?. अलका सरावगी भी  उपभोक्तावाद का क्रिटिक रचते हुए अपने उपन्यासों में अंततः अपने वर्ग के पक्ष में ‘क्लास अपोलोजिया’ ही रचती नज़र आती हैं. दरअसल सारे नेक इरादों और लेखकीय कौशल के बावजूद इन चर्चित लेखकों की रचनाएँ  हिन्दी समाज के ज्वलंत मुद्दों और व्यापक  पाठक वर्ग को संबोधित न होकर एक  स्वायत्त रचनात्मक दुनिया गढ़ती  और सीमित पाठक वर्ग  से संवाद  करती नज़र आती हैं. कहना न होगा कि यहाँ अभिव्यक्ति का कौशल तो है लेकिन जोखिम की दुनिया में आवाजाही नहीं . यहाँ इस  चर्चा के पीछे हिन्दी साहित्य  की उस प्रभुत्वशाली  धारा को रेखांकित करना है जिसे लेकर हिन्दी साहित्य के  छवि -निर्माताओं में  लगभग सर्वसहमति है. इस बीच यह भी हुआ कि जिन साहित्यिक कृतियों में जन सरोकारों या हाशिये के समाज  की केन्द्रीयता  थी वे प्रायः चर्चा से बहिष्कृत रहीं. दलित जीवन पर केन्द्रित जगदीशचंद्र की  ‘धरती धन न अपना’ उपन्यास त्रयी या मदन दीक्षित के ‘मोरी की ईंट’ सरीखे उपन्यासों का  उपेक्षित रह जाना और विनोद कुमार शुक्ल , मनोहरश्याम जोशी और सुरेन्द्र वर्मा  की औपन्यासिक रचनाओं का चर्चा के केंद्र में होना हिन्दी के उस परिदृश्य-बदलाव (पैराडाईम शिफ्ट) का परिणाम थी जहाँ ‘सरोकार’, ‘पक्षधरता’ और ‘राजनीति’ कटघरे में थी और  आस्वादपरकता एक मूल्य के रूप में स्वीकृत  हुयी. इस दौर में स्त्री और दलित विमर्श ने साहित्य का  जनतांत्रिक विस्तार तो किया लेकिन वह जिन भिन्न वजहों से आज समस्याग्रस्त है उस पर चर्चा का फिलहाल यहाँ अवकाश नही है. यह अकारण नही है कि इस दौर में जहाँ एक ओर  प्रेमचंद की परम्परा  को अप्रासंगिक करार दिए जाने के प्रयास हुए वहीं तुलसी के लोकवाद के कसीदे भी गढ़े गए. कबीर को सन्दर्भ-च्युत कर  कवि के रूप में पढ़े जाने की मांग भी इसी दौर में बढी. उल्लेखनीय यह भी है कि यह सब करते हुए विचार और विचारधारा के बंधन भी टूट गए .कहना न होगा कि ऐसी वैचारिक धुरी-विहीनता संभवतः हिन्दी में पहली बार दिखी. डॉ.नामवर सिंह द्वारा अज्ञेय को ‘अपने दौर के कवियों में सर्वश्रेष्ठ’ कहा जाना मुक्तिबोध के ‘पार्टनर की पालिटिक्स’ के सवाल का नकार ही  है.
        दरअसल यह सब हिन्दी लेखक की उस मध्यवर्गीय मनोरचना के अनुकूल था जहाँ  जरूरत न जाति-मुक्त  होने की  थी , न वर्ग-मुक्त  और न ही सरोकार-युक्त होने की.   .यहाँ ‘मैला आँचल’ और ‘अंधेरे में’ को संदर्भविछिन्न कर मनोनुकूल  पाठ में रूपांतरित किया जा सकता था .  साहित्य का उत्पाद के रूप में बदलना इस दौर की सबसे बड़ी त्रासदी है. इसके  साथ रचना में अनुस्यूत वह ‘भीतरी नैतिक आग्रह’ भी तिरोहित हो गया  जिसे मुक्तिबोध रचनात्मकता की अनिवार्य शर्त मानते थे . यही कारण है कि लेखक अवसर व मंचों की शुचिता और आयोजकों की पात्रता  से बेपरवाह साहित्य के नाम पर जुटाए जाने वाले हर उन उत्सवों और फेस्टिवलों के प्रतिभागी होने लगे जहाँ   पंचसितारा आतिथ्य और हवाई यात्राओं की सुख सुविधा मुहैय्या हो. यह गंभीर  विचार का मुद्दा है कि  हमारी रचनाएँ जिनके विरुद्ध होनी थीं या हैं वे ही हमारा साहित्यिक अधिग्रहण करके और हमारे मेज़बान बनकर हमें नख-दन्त विहीन क्यों करते जा रहे हैं ? उनकी ‘असहमति के सम्मान’ के दावे  में क्या हमारी कुछ कीमत और रीढ़विहीनता  भी शमिल है? मुक्तिबोध जिस ‘घृणा की ईमानदारी’ के पैरोकार थे और प्रेमचंद जीवन में जिस घृणा को जरूरी मानते थे उसका ‘लाभ-लोभ की समझदारी’ में बदल जाना क्या हिन्दी लेखक की दुनिया  का निस्तेज   हो जाना नहीं है. यह गहरी  चिंता की बात इसलिए भी है कि वर्तमान दौर में लेखक की रोजी रोटी का प्रश्न उसके लेखन से जुड़ा हुआ नही है. लेखन उसका पेशा नहीं उसकी पसंद   है. फिर छोटे छोटे अवसरों और प्रलोभनों के लिए यह समर्पण  क्यों ?   
       
             यह भी विचारणीय है कि आखिर  क्यों  आज  का अधिकाँश हिन्दी  लेखन सुरक्षित इलाके का लेखन है ?   न वह सामाजिक सत्ता  संरचना  से सीधे मुठभेड़ की मुद्रा में है और न ही धार्मिक सत्ता संरचना से. बेलछी के दलित हत्याकांड से प्रेरित ‘महाभोज’ सरीखे उपन्यास के लिखे जाने के तीन दशक बाद भी  आखिर क्यों विगत वर्षों में  मुख्य धारा के गैर-दलित लेखकों द्वारा  जातिगत शोषण संरचना  पर केन्द्रित  एक भी मुक्कमल उपन्यास   नही लिखा गया  ?.  ‘मैला आँचल’ और ‘बलचनमा’ सरीखी कृतियाँ  मंडल पूर्व के जिस उत्तर-भारतीय समाज की वर्णाश्रमी-जाति आधारित शोषण  संरचना की  शिनाख्त करती हैं  वह उत्तर-मंडल के दौर में   कितनी कथा-रचनाओं में उपलब्द्ध है ? नागार्जुन की ‘हरिजन-गाथा’ के बाद कितनी दलित-गाथाएं लिखी गयीं ? क्या यह दुर्भाग्यपूर्ण नही है कि हिन्दी समाज की रचनात्मक चिंताओं के केंद्र में न आत्महत्या करते किसान हैं और न ही देशद्रोह का दंश झेलते वे आदिवासी, दलित और अल्पसंख्यक ही जिनसे देश की जेलें उफन रही हैं. हाल के वर्षों में ‘लाल गलियारे’ पर एक भी मुक्कम्मल कथाकृति का न लिखा जाना सचमुच विस्मयकारी है. ऐसे में  आदिवासी जीवन की छलकन और विकास के माडल को प्रश्नांकित करते ‘मरंग गोड़ा नीलकंठ हुआ’ और ‘गायब होता देश’ सरीखी इक्का दुक्का कथा-कृतियों  का होना ही उम्मीद की किरण है. इस सन्दर्भ में  विदर्भ के किसानों की दुर्दशा को लेकर संजीव के नए उपन्यास ‘फांस’ के प्रकाशन का समाचार  आश्वस्तकारी है.
       यह सब लिखने का यह अर्थ नही है कि हिन्दी का लेखक  अपने समय और समाज की चुनौतियों या खतरों से अनजान है या उनसे पूरी तरह विमुख है. स्वीकार करना होगा कि साम्प्रदायिकता के खतरनाक उभार और भारतीय राष्ट्र-राज्य की धर्मनिरपेक्ष संरचना पर आसन्न संकट को जिस शिद्दत के साथ हिन्दी साहित्य की सभी विधाओं में दर्ज किया गया है उतना इस दौर  के पूर्व शायद पहले कभी नहीं . ‘अयोध्या प्रसंग’ और ’सोलह मई के बाद कविता’ सरीखे अभियान  साम्प्रदायिकता विरोध का ही परिणाम हैं.  लेकिन साम्प्रदायिकता विरोध और धर्मनिरपेक्षता की यह पक्षधरता जब तक  ‘जल, जंगल ,जमीन’ की जंग और ‘विकास बनाम विनाश’ के मौजूदा माडल को अपने सरोकारों में शामिल नहीं करती तब तक हम उन अभिजन सरोकारों तक ही सीमित रहेंगें जहाँ न कोई  जोखिम है और न अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर कोई पहरा.  स्वीकार किया जाना चाहिए कि वृहत्तर भारतीय समाज के धधकते यथार्थ की उपस्थिति और पड़ताल जिस संश्लिष्टता के साथ आज के हिन्दी साहित्य में की जानी चाहिए थी वह अभी शेष है. जरूरत है सर्वसहमति के लेखन से मुक्त होकर  जोखिम के इलाके के लेखन की. कहना न होगा कि साहित्य के हाशिये पर जाने की चिंता तब तक निष्प्रयोज्य रहेगी  जब तक हाशिये का समाज साहित्य की मुख्यधारा में शामिल होने से वंचित रहेगा.
वीरेंद्र यादव ,सी -855, इंदिरा नगर ,लखनऊ -226016 ,  mo. 09415371872. Email- virendralitt@gmail.com .  
. (शुक्रवार पाक्षिक से साभार)

1 comment:

  1. बहुत ज़रूरी सवाल उठाये हैं इस लेख ने

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