Friday, 17 July 2015

माँ और मुल्क बदले नहीं जाते ...



सुनील यादव

ज़ख्म हिन्दी सिनेमा की एक महत्त्वपूर्ण फिल्म है, पर इस फिल्म का जिक्र हिन्दी सिनेमा के इतिहास में न के बराबर है । सन् 1998 में यह फिल्म प्रदर्शित हुई, इस वर्ष की फिल्मों में कुछ कुछ होता है’, दिल से’, हजार चौरासी की माँ की तो खूब चर्चा होती है, पर ज़ख्म की चर्चा कोई नहीं करता, यहाँ तक कि हिन्दूमुस्लिम संबंध तथा सांप्रदायिक दंगे जैसे मुद्दों पर बनी फिल्मों की चर्चा में भी ज़ख्म का नाम कहीं नहीं आता । महेश भट्ट के निर्देशन में बनी यह फिल्म एक तरफ धर्म राजनीति तथा सांप्रदायिकता जैसे गंभीर मुद्दे को उठाती है तो दूसरी तरफ अंतरधर्म विवाह तथा उससे उपजे पति-पत्नी के द्वंद के बीच सिसकते बचपन के कारुणिक दास्तान को ।
अपनी माँ की लाश पर चढ़कर राजनीति का खेल खेलने नहीं दूँगा...

      फिल्म शुरू होती है, न्यूज रिपोर्टर की आवाज़ शहर के मिज़ाज को बताती है– “शहर में पिछले कई दिनों से शुरू हुए सांप्रदायिक दंगो ने धीरे-धीरे एक गंभीर रूप ले लिया है .....बंबई में दंगो की असली शुरुआत तब हुई जब बाबरी मस्जिद विध्वंस से नाराज कुछ लोंगों ने राधा बाई चाल जोगेश्वरी में आग लगा दी ।  कर्फ़्यू में साँय-साँय करता शहर, सायरन बजाती पुलिस की गाड़ियाँ ...ऐसे ही बारूद भरे समय को व्यक्त करने के लिए कमलेश्वर ने कितने पाकिस्तान में ये पंक्तियाँ रखी होगी  इन बंद कमरों में मेरी सांस घुटी जाती है/ खिड़कियाँ खोलता हूँ तो जहरीली हवा आती है।
      6 दिसंबर, 1992 भाजपा के शीर्षस्थ नेताओं की उपस्थिति में हिन्दुत्व के स्वयं सेवकों ने बाबरी मस्जिद गिरा दी । यह भारत में हिन्दुत्व का खूनी उत्सव था जिसमें देश भर में लगभग 3000 लोग मारे गए । मुंबई शहर दो हफ़्तों तक सांप्रदायिक दंगो में झुलसता रहा जिसमें लगभग 900 लोंगों ने अपनी जान गंवाई । इस घटना के पीछे खतरनाक राजनीतिक ताकतें काम कर रहीं थी, इतिहास गवाह है जब-जब राजनीति ने सत्ता प्राप्ति के लिए धर्म का सहारा लिया है ऐसे ही सांप्रदायिकता ने अपना फन उठाया है । पर यह ध्यान रखना चाहिए कि नफ़रत और खून से सिंची जमीन पर फसले नहीं उगती । धर्म का इस्तेमाल राजनीति तभी करती है जब वह विकृत होकर निम्न अवस्था में पहुँच जाती है । इसी विकृत अवस्था में कभी जिन्ना ने मुस्लिम लीग को वोट देने का मतलब इस्लाम को वोट देने का नारा दिया था । सन 1940-41 में  आर. एस. एस. के प्रमुख गोवलकर ने मुस्लिम लीग के इस्लाम खतरे में है, के तर्ज पर यह कहा कि हिंदुत्व खतरे में है । हिन्दू तथा मुस्लिम दोनों संप्रदायवादियों ने कहा - हिन्दू और मुस्लिम दो अलग-अलग धर्म ही नहीं बल्कि दो राष्ट्र हैं । हिंदुस्तान का बंटवारा सिर्फ एक देश का बंटवारा नहीं था बल्कि एक जिस्म का बंटवारा था जिससे आज भी लहू टपक रहा है । विभाजन हमारे इतिहास का सबसे काला अध्याय है, जिसमें लगभग 80 लाख लोंगों को अपना घर बार छोड़कर सीमा पार जाना पड़ा, तकरीबन 5 से 10 लाख लोंगों ने जान गवाई । नफरत और खौफ की यह बुनियाद जो आज़ादी से पहले धर्मान्ध हिंदुत्ववादी और मुस्लिम सांप्रदायिक राजनीतिक ताकतों द्वारा रखी गई थी, उसका परिणाम हम आज तक भुगत रहें है, बाबरी विध्वंस और गुजरात का दंगा उसी खूनी यात्रा का विकास है । इस फ़िल्म में सुबोध जैसे हिंदुत्ववादी नेताओं का चरित्र इसी तरह की राजनीति का प्रतिनिधित्व करता है, जो अपने ही युवा नेता आनंद (अजय का छोटा भाई) की माँ के लाश पर राजनीति का खेल खेलने को उतारू है, उसके इस खेल में साथ देती है इस सेकुलर राष्ट्र की पुलिस भी। अजय जैसे सांप्रदायिकता विरोधी लोग ऐसे लोंगों का निशाना बनते हैं क्योंकि वे इनके चरित्र को जान रहे होते हैं, तभी तो अजय कहता है सुबोध जी मैं अपनी माँ के लाश पर चढ़कर आपको राजनीति का खेल खेलने नहीं दूँगा  क्या आज़ादी की लड़ाई ऐसे ही हिंदुस्तान के लिए लड़ी गई थी ? मशहूर इंकलाबी शायर फैज अहमद फैज ने लिखा   ये दाग दाग उजाला, ये शबगजीदा सहर/ वो इंतजार था जिसका, ये वो सहर तो नहीं।
पाकिस्तान जाओ या कब्रिस्तान जाओ...
      मुस्लिम अस्मिता का प्रश्न आज के हिन्दुस्तान में एक सुलगता हुआ प्रश्न है, इस फिल्म में ईसा भाई का दर्द हर उस मुसलमान का दर्द है जो हिन्दुस्तान का बेटा है, दंगे के दौरान ईसा भाई के घर पर पत्थर फेंका जाता है, साथ ही वह पर्चा भी फेका जाता है जिस पर लिखा है- ‘‘पाकिस्तान जाओ या कब्रिस्तान जाओ’’। ईसा भाई कहते हैं कि ‘‘वे मुझे बोल रहे हैं, ईसा भाई को बोल रहे हैं, जिसके तीन-तीन पीढ़ियों ने आजादी के लड़ाई में अपनी जान गवां दी’’ कुछ ऐसा ही दर्द राही मासूम रजा ने अपने उपन्यास आधा गांव की भूमिका में व्यक्त किया था कि जनसंघ का कहना है कि मुसलमान यहां के नहीं है। मेरी क्या मजाल कि मैं उन्हें झुठलाऊँ। मगर यह कहना ही पड़ता है कि मै गाजीपुर का हूँ , गंगौली से मेरा संबंध अटूट है, वह एक गांव ही नहीं है, वह मेरा घर भी है। घरयह शब्द दुनिया के हर बोली में और भाषा में है, और हर बोली और भाषा में यह उसका सबसे खूबसूरत शब्द है, इसलिए मैं फिर दोहराता हॅू कि मैं गंगौली का हूँ । क्योंकि वह केवल एक गांव ही नहीं है। क्योंकि वह मेरा घर भी है। क्योंकि यह शब्द कितना मजबूत है और इस तरह के हजारों-हजार क्योंकि...... और हैं। कोई तलवार इतनी तेज नहीं हो सकती कि इस क्योंकि को काट दे।’’
      आखिर वो कौन लोग हैं ? जो भारतीय मुसलमानों से उनके भारतीयपन का प्रमाण पत्र चाहते हैं ? क्या वे हिन्दू हैं इसलिए वे एक मुसलमान से ज्यादा भारतीय है और वे इस देश के बुनियादी तौर पर अपने को नागरिक मानते हैं ? इस फिल्म में सुबोध जैसे हिन्दुत्ववादी नेता भाषण देता है कि ‘‘अब वक्त आ गया है, सफाई का शुद्धि का, राष्ट्र शुद्धि का, अपनी आंखो में उग आए इन कांटो को ऐसे ही उगने देंगे या उन्हें उखाड़ फेक देंगे।’’ ऐसे हिन्दुत्ववादी नेताओं को राही ने एक और जबाव दिया था कि –“ मेरा नाम मुसलमानों जैसा है/ मुझको कत्ल करो/ और मेरे घर में आग लगा दो/ लेकिन मेरी नस-नस में गंगा का पानी दौड़ रहा है/ मेरे लहू से चुल्लू भर कर महादेव के मुँह पर मारो/ और उस जोगी से यह कह दो/ महादेव/ अब इस गंगा को वापस ले लो / यह मलिक्ष तुर्को के बदन में गाढ़ा गर्म लहू बनकर दौड़ रही है।
      राही मासूम रजा की तरह फिल्म में अजय (जो एक हिन्दू पिता एवं मुस्लिम मां का पुत्र है) भी अपने भाई (जो हिन्दू वाहिनी का युवा नेता है) से कहता है- ‘’तेरे बाप का मुल्क है। तू कौन होता है किसी को बाहर निकालने वाला। खत्म करना चाहता है न तू इन लोगों को। तो ले खत्म कर मुझे। तुझसे इनका गंदा खून बर्दाश्त नहीं होता न, तो पहले निकाल अपने अंदर के गंदे खून को, जो आधा मुसलमान का है, जिस मां के लिए तू इनकी जान लेने पर तुला हुआ है, वह हिन्दू नहीं मुसलमान है। नफरत करता है न तू इन लोगों से, बाहर निकालना चाहता है न तू इन लोगों को, तो जा निकाल अपनी मरी हुई मां की लाश को बाहर, जो एक मुसलमान है।’’
      महेश भट्ट फिल्म में जिस हिन्दुस्तान की साझी संस्कृति का प्रत्याख्यान रचते हैं। उस संस्कृति को बनाने में हिन्दू और मुस्लिम दोनों ने एक समान भीगीदारी निभाई है। हिन्दुस्तान के मुसलमानों ने हिन्दू संस्कृति और सभ्यता को अपने खूने दिल से सींचकर भारतीय संस्कृति और सभ्यता बनाने में बड़ा योगदान किया हैइसलिए मुस्लिमों को इस संस्कृति से काटकर किसी भारतीय संस्कृति की कल्पना की ही नहीं जा सकती।
क्या हिन्दू की शादी मुसलमान से नहीं हो सकती?
      जख्ममें साम्प्रदायिकता, मुस्लिम अस्मिता का प्रश्न के बाद जो तीसरा और सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न है, वह अंतरधर्मी विवाह का है| अजय जिसकी मां मुसलमान है, पिता हिन्दू है, उसका पिता उसके मां को इसलिए नहीं अपना पाता कि यह उसके हिन्दू दादी को मंजूर नहीं है, इस मुद्दे को फिल्म के उस दृश्य से समझा जा सकता है, जिसमें पति के आकस्मिक मौत के बाद अजय की मां उसके छोटे भाई को लेकर अपने पति के घर अंतिम दर्शन के लिए जाती है, वह अपने बच्चे को मृतपति के तस्वीर से स्पर्श कराने ही वाली रहती है कि अजय की दादी चिल्ला उठती है ‘‘अरे करमजली यह मुसलमान है, इस बच्चे में मुसलमान का खून है.....मेरे बेटे की शुद्धि अब कैसे होगी’’        
      इस दृश्य के बाद अजय अपने मां के साथ घर आता है, वहां वह मां से संवाद करता है, यह मां- बेटे का संवाद इस फिल्म का केन्द्रीय चरित्र है-
अजय - डैडी आपसे इसलिए शादी नहीं कर सके न, क्योंकि आप मुसलमान थी। क्या हिन्दू की मुसलमान से शादी नहीं हो सकती ?
अजय की मां (श्रीमती देसाई) - हो सकती है बेटे, पर तेरी दादी जैसे कुछ लोंगों को यह मंजूर नहीं है, तेरे डैडी ने अपने मां को समझाने की बहुत कोशिश की, पर हम दोनों का प्यार उनके नफरत के सामने बहुत कम पड़ गया बेटा। मजहब के ऊँची दिवारो को लांघने के लिए हम दोनों का कद बहुत छोटा पड़ गया बेटा। ....अजय बेटा यह हम दोनों के बीच की बात है, तू इसे किसी को नहीं बतायेगा, अपने भाई को भी नहीं, इससे ये असलियत जाहिर नहीं होने देना कि यह मुसलमान का बेटा है, यह अपने बाप की तरह हिन्दू बनेगा ताकि उसे वह जिल्लत न उठानी पड़े, जो हम दोनों ने उठाई है। मेरी पहचान तुम दोनों के जिंदगी में एक जख्म है।’’
      अजय की मां की कहानी एक ऐसी औरत की कहानी है, जो इस समाज से लड़ती तो रहती है लेकिन विद्रोह नहीं कर पाती, पर उसके प्रतिरोध के तरीके अपने है, एक औरत के प्रतिरोध के स्तर कितने हो सकते है, उसके चरित्र में देखा जा सकता है। किसी औरत के लिए रखैलशब्द कितना पीड़ादाई हो सकता है, इसकी कल्पना नहीं की जा सकती, रात भर पति के इंतजार में गुजार देने वाली स्त्री- के छलछलाती आंखों के पीर को समझना मुश्किल है- रात सारी बेकरारी में गुजरी/ सौ दफे दरवाजे पर गई। बेटे के बहुत सारे सवालों का जबाव उसके पास नहीं है, वह अकेले दम पर सड़ी-गली-सामाजिक मान्यताओं के खिलाफ जिन्दगी के हर मोर्चे पर जूझ रही है, उसके इस संघर्ष को किसी पश्चिम के नारीवादी सिद्धांत से नहीं समझा जा सकता है, उसके संघर्ष को समझने के लिए भारतीय नारी के अंतर्मन को समझना होगा। अजय की दादी सिर्फ एक औरत नहीं बल्कि आज के कट्टरवादी समाज उन्नायकों तथा खाप पंचायतों का एक प्रतिरूप है, जो धर्म तथा सामाजिक सड़ी गली मान्यताओं के नाम पर, रोज के रोज कितनी मासूम जिंदगियां उजाड़ देती है। कितनी श्रीमती देसाईयां श्रीमती का तमगा लिए दर-दर की ठोकर खाने के मजबूर हैं।
      अजय की मां के रूप में पूजा भट्ट ने बेहद संजीदा अभिनय किया है। पूजा भट्ट श्रीमती देसाई का यह चरित्र निभाया भर नहीं बल्कि उसे जिया है और ऐसे जिया है कि उनका मां का यह किरदार हिंदी सिने इतिहास में अमर हो गया है।
इस जख्म को अपने सिने में छिपा ले बेटा...
     कुणाल खेमू ने जिस तरह अजय के बचपन के किरदार को जिया है वह लाजबाव है। यह हिंदी सिने इतिहास का एक खूबसूरत किरदार है, एक ऐसा मासूम जिसे दुनिया रखैलकी औलाद कहती है, रखैल उसके जिंदगी में कील की तरह चुभता ऐसा शब्द है जिसे वो नैतिक मान्यता दिलाने के लिए, अपने पिता से तथा इस समाज से लड़ रहा है, उसकी जितनी औकात है उस औकात से ज्यादा लड़ रहा है, खेलने-खाने की उम्र में वह मां के सुख- दुख का साझीदार है, एक ऐसा साझीदार जो मां की पहचान के जख्म को खुद के सिने में छिपाए जी रहा है, वह मां को खुशी में गुनगुनाते नाचते देख खुद भी नाचने लगता है।
रात सारी बेकरारी में गुजरी
सौ दफे दरवाजे पर गई.....
      इस गीत के फिल्मांकन को याद करिए, अजय का पिता आने वाला है, उसकी मां उसके इंतजार में यह गीत गुनगुना रही है, नाच रही है, अजय मां को देखता है और फिर वह भी छुप कर नाचने लगता है। यह दृश्य ममता एवं मुहब्बत के संगम का अद्भुत दृश्य है, जिसे महेश भट्ट ने बहुत खूबसूरती से बुना है। इंतजार में रात गुजर जाती है, पर उसका पिता नहीं आता। इस दर्द का इंतहा क्या होगा -  कौन जानेगा इन जागती आंखो के पीर को/ वे अपने हादसे के अकेले गवाह हैं। पिता की दूसरी औरत से शादी की खबर जितना अजय की मां को तोड़ देने वाली नहीं है, उससे ज्यादा अजय को तोड़ देती है- मां ने कहा मुझसे सदा/ तू फूल मेरा चांद है/ ना चांद ना फूल हूँ। रास्ते की धूल हूँ मैं ......
      अजय अपने पिता के पास जाता है, उससे घर आने का वादा लेकर लौटता है। पिता घर आने वाला है, उस वक़्त उसकी मनःस्थिति देखना अद्भुत है। वह चुपके से गाना बजा देता है-
तुम आये तो आया मुझे याद
गली में आज चांद निकला....
      इस गीत के परिदृश्य में जो चीजे घट रही होती हैं, वह एक पति-पत्नी के संवाद तक सीमित नहीं रहती, वह अजय के उस मासूम मन तक विस्तार पाती है, जिसमें वो मां को खुश देखकर, अपने दोस्त गणपति को रात भर धन्यवाद देता रहता है। आचानक पिता की मुत्यु, और मां को मृत्यु के उपरांत दफनाये जाने की इच्छा को पूरा करने के वादे के साथ वह बड़ा होता है।
      यहां से अजय के किरदार को अजय देवगन ने अपने कंधे पर संभाला है, उन्हें इस फिल्म के अभिनय के लिए फिल्म फेयर का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था। अजय देवगन ने एक ऐसे बेटे का किरदार निभाया है, जिसका बचपना तो कभी आया ही नहीं, वह माँ की लोरियां नहीं सिसकियां सुनकर सोया था, उसने कलम के साथ मां के दुःखों को भी थामा था, ऐसे ही किरदार को जीना था अजय देवगन को, जिसके साथ उन्होंने पूरा न्याय किया है। उनके आंखो में दुःख, पीड़ा तथा संत्रास को झेलकर बड़े हुए आदमी का दर्द देखा जा सकता है। अजय इस ट्रेजडी से बेचैन है कि उसकी मां को, जो एक मुसलमान थी और उसे मुसलमान होने के कारण जीवन भर पीड़ा एवं संत्रास सहना पड़ा था, उसे ही दंगे में मुसलमान दंगाईयों द्वारा हिन्दू समझकर जला दिया जाता है। यह दंगे का वास्तविक चरित्र है जिसमे दंगाई न हिन्दू होता है न मुसलमान वह सिर्फ दंगाई होता है ।
      अजय हिन्दुस्तान के साझा इतिहास का प्रतीक पुरूष है, जो अपने भाई को हिन्दुत्व के खतरनाक रास्ते पर जाने से रोकता है। अपनी पत्नी से कहता है कि यह मेरा देश है ,यह मेरा घर है इसमे आग लगेगी तो हम बुझाएंगे ...इसे छोड़कर भागेंगे नहीं..,क्योंकि माँ और मुल्क बदले नहीं जाते।कुल मिलाकर अजय एक ऐसा किरदार है, जिसने जिंदगी को जिया नहीं जहर की तरह पिया है, उसके इस तरह के जिंदगी को बनाने में किन नैतिक नियमों और लोंगो की भूमिका रही है उसकी पड़ताल करना हिन्दुस्तान की टूटती साझी सांस्कृतिक विरासत की पड़ताल करना है- माँ ने कहा छाए घटा। तो बरसे पानी/ पानी मगर आंखो में क्यों आ गया।
और अंत में...
      महेश भट्ट के निर्देशन क्षमता से सब परिचित है, इस फिल्म का एक-एक संवाद, एक-एक दृश्य इस तरह से घुला हुआ है कि दोनों एक दूसरे को अर्थात् संवाद-दृश्य और दृश्य-संवाद को सघनता प्रदान करते हैं, पूरी फिल्म एक अजीब सा तनाव भरे माहौल में चलती है, जो कहानी की मांग है, उस माहौल को जिंदा करता है बैकग्राउन्ड का संगीत। कुल मिलाकर सिनेमाई संरचनात्मकता का यह कमाल ही है कि फिल्म दर्शक को एक-एक पल बेचैन की रहती है। यह बेचैनी ही फिल्मकार की सफलता है, महेश भट्ट को इस फिल्म की लाजवाब कहानी के लिए राष्ट्रीय फिल्म फेयर पुरस्कार दिया गया। आनंद बक्शी के दिल को छू लेने वाले गीतों को संगीत से सजाया है एम.एम. करीम ने। इस फिल्म के गीतों के लोकप्रियता का अंदाजा सिर्फ इसी गीत से लगाया जा सकता है, जिसने ख्याति के सारे प्रतिमान ध्वस्त कर दिए-
आज का दिन उम्मीद का दिन है/ आज तो मेरी ईद का दिन है/
ऐ मेरे दिल मुबारकवाद/ गली में आज चांद निकला।

Sunday, 12 July 2015

उदास कर गया अब्दुल्ला हुसैन का जाना



वीरेंद्र यादव


विगत 5 जुलाई को लाहौर में पाकिस्तान के मशहूर लेखक अब्दुला हुसैन का  निधन   सचमुच एक उदास कर देने वाली  खबर है.  भारत विभाजन पर केन्द्रित ‘उदास नस्लें’ उपन्यास के लेखक के रूप में उनकी विश्वव्यापी ख्याति  एक सुखद  परिघटना रही है.  मूलतः उर्दू में लिखित यह उपन्यास जब 1963 में ‘ दि वियरी जेनरेशन्स’ शीर्षक से अंगरेजी में प्रकाशित हुआ तो इससे जो नया  विभाजन-विमर्श शुरू  हुआ वह कमोबेश आज भी जारी है. बाद में तो यह हिन्दी सहित कई अन्य भाषाओँ में अब तक  प्रकाशित हो चुका है.  अब्दुला हुसैन  अविभाजित भारत के गुजरात में जन्में पले-बढे ऐसे लेखक थे जो विभाजन को महज राजनीतिक सन्दर्भों तक सीमित न कर इसे मानवीय अस्तित्व और त्रासदी के वृहत सन्दर्भों से जोड़ने के कायल थे. उर्दू में लिखने और पाकिस्तान के नागरिक होने के बावजूद अन्य पाकिस्तानी लेखकों की तरह उनका विभाजन विमर्श पाकिस्तान निर्माण  की औचित्य-सिद्धि  न होकर उस प्रक्रिया को समझने की ईमानदार कोशिश था ,  जिसने विभाजन को उसकी राजनीतिक परिणतियों तक पहुंचाया .लेकिन इसके बावजूद इस उपन्यास को आम पाठकों से लेकर पाकिस्तान के सत्ता प्रतिष्ठान तक से जो सहज स्वीकृति मिली वह अद्भुत  है. ‘उदास नस्लें’ के प्रकाशन वर्ष में ही इसे पाकिस्तान के सबसे बड़े ‘आदम जी अवार्ड’ से सम्मानित किया जाना पकिस्तान के साहित्यिक और राजनीतिक समाज के लिए एक महत्वपूर्ण  घटना थी . विशेषकर इसलिए कि अब्दुला हुसैन अपने शुरूवाती दौर से लेकर अंत तक कभी सत्ता प्रतिष्ठान के मुखापेक्षी नही रहे थे .  वे स्वभाव से इतने एकान्तिक और अंतर्मुखी प्रकृति के थे कि बरसों बरस इंग्लैंड में रहते  आजीविका के लिए एक पब –बार का संचालन करते हुए अपनी लेखकीय पहचान को गुमनाम बनाये रहे .उनकी बार में आने-जाने वाले कई नामी-गिरामी  लेखक भी उन्हें पब संचालक के ही रूप में बरसों बरस जानते रहे लेखक के रूप में नहीं. विगत  वर्षों  लाहौर अपनी वतन वापसी के बाद भी उन्होंने अपना यह मिज़ाज कायम रखा था .

दरअसल ‘उदास नस्लें’ के लेखक अब्दुला हुसैन के मिज़ाज की यह उदासीनता उनकी उस बौद्धिक निर्मिति का परिणाम थी जो उन्हें भीड़ और प्रभुत्ववादी सोच से एक साथ अलग करती थी . पाकिस्तान बनने का कारण हो या कश्मीर समस्या उनके अपने अलग तर्क थे . विभाजन के तुरंत बाद के  कश्मीर घटनाक्रम के लिए वे अकेले भारत को जिम्मेदार न मानकर पाकिस्तान को भी दोषी करार देते थे .जिस मजहबी बुनियाद पर पाकिस्तान का निर्माण हुआ था अब्दुला हुसैन उसे ही विभाजक शक्ति मानते थे .उनका दो टूक कहना था कि यह मिथक है कि धर्म लोगों को जोड़ता  है .सच है कि यह विभाजित  करता है  क्योंकि हर धर्म का आधार आत्म-औचित्य है . जहाँ वे मजहबी आधार पर पाकिस्तान के बनने को सही  नही   मानते थे  वहीं अखंड भारत में अल्पसंख्यकों की भाषा ,संस्कृति और नियति को लेकर भी आश्वत नही थे . उनकी यह धारा- विरुद्ध सोच ही उन्हें मौलिक और प्रतिष्ठान निरपेक्ष बनाती थी . यहाँ यह उल्लेख दिलचस्प होगा कि फील्ड मार्शल अयूब खान ने जब आथर्स गिल्ड की संस्तुति पर उन्हें ‘उदास नस्लें’ के लिए सम्मानित किया तो उनसे यह अपेक्षा भी कि वे कोई ‘कौमी नावेल’ भी लिखें. लेकिन सच तो यह है कि उन्हें पुरस्कृत किया जाना महज़ एक संयोग था क्योंकि ‘उदास नस्लें’  को प्रतिबंधित करने की मांग भी उन्ही दिनों कुछ प्रभावशाली लोगों द्वारा उठाई जा  रही थी . उनके दूसरे उपन्यास ‘बाघ’ पर भी जिया शासन के दौरान ‘खुदा’ विरोधी होने के आरोप में प्रतिबंधित किये जाने की कोशिशें हुयी थीं. सच तो यह है कि संकीर्ण धार्मिक और प्रतिष्ठानी  प्रतिबद्धताओं से मुक्त अब्दुला हुसैन का कथात्मक लेखन अन्याय के विरुद्ध न्याय के पक्ष में जिरह सरीखा था . वैसे यह जानना दिलचस्प है कि उनका लेखक बनना और ‘उदास नस्लें’ का लिखा जाना एक सुखद संयोग ही था .   फैक्ट्री की नौकरी ने यदि    समय काटने और बोरियत की समस्या  न पैदा की होती तो शायद वे लेखक ही न बनते . लेखक होकर भी लेखक होने के अहसास और गुरूर से मुक्ति के पीछे शायद उनकी  बेफिक्र और बेपरवाह शख्सियत का यही  पहलू था .  ’उदास नस्लें’ को भी वह एक संयोग मानते थे क्योंकि इसकी शुरुवात तो उन्होंने प्रेम कथा लिखने से की थी लेकिन अंततः वह विभाजन की क्लासिक गाथा बन गया.
     यहाँ यह उल्लेख जरूरी है कि ‘उदास नस्लें’ उपन्यास की कोई चर्चा कुर्रतुल ऐन हैदर  के उपन्यास ‘आग का दरिया’ के बिना अधूरी है. कारण  यह कि   ये दोनों उपन्यास इस तथ्य को शिद्दत के साथ रेखांकित करते हैं कि पाकिस्तान की मांग के पीछे वह मुस्लिम अभिजात वर्ग था जिसने अपने हितों को समूचे मुस्लिम समाज के हित का पर्याय बनाकर पाकिस्तान को एक अलग मुल्क बनाने  की मुहिम  में सफलता हासिल की थी . ये दोनों उपन्यास व्यापक फलक भी लिए हुए हैं. जहाँ ‘आग का दरिया’ में समूची भारतीय सांस्कृतिक पृष्ठभूमि समाहित है ,वहीं ‘उदास नस्लें’ 1857 , प्रथम विश्वयुद्ध और आजादी के आन्दोलन का विस्तार लिए हुए है. ‘उदास नस्लें’ का नईम  और ‘आग का दरिया’ की चंपा अहमद दोनों ही इतिहास के वात्याचक्र में फंसे ऐसे मानवीय चरित्र हैं जो वक्त के सैलाब में अपने अस्तित्व को विलयित करने के लिए अभिशप्त हैं. यह मात्र संयोग नही है कि ‘आग का दरिया’ के  कमाल की तरह  ‘उदास नस्लें’ का नईम  भी  वामपंथी नेशनलिस्ट होने के बावजूद अंततः पाकिस्तान के कारवां में शामिल हो जाता है. स्वीकार करना होगा कि ‘उदास नस्लें’ उपन्यास में अब्दुला हुसैन ने ‘पर्सनल’ को जिस तरह विभाजन की त्रासदी के साथ ‘पोलिटिकल’ बनाया है ,वह इसको क्लासिक ऊंचाईयों तक ले जाता है. यह सच है कि अब्दुला हुसैन की अन्य औपन्यासिक कृतियाँ ‘बाघ,’ ‘नादार लोग’, ‘कैद’ तथा कहानी संग्रह ‘नशेब’,’फरेब’  आदि  अनुपलब्ध होने के कारण  व्यापक पाठक समुदाय के बीच अपेक्षित लोकप्रियता न प्राप्त कर सकीं . लेकिन इस सच्चाई से समूचा साहित्य समाज एकमत है कि ‘उदास नस्लें’ निश्चित रूप से एक ऐसा कालजयी उपन्यास है जो अब्दुला हुसैन को सार्वकालिक और सार्वदेशिक बनाने के लिए पर्याप्त है. समूछे  भारतीय महाद्वीप का साहित्य समाज उनके न रहने से उचित ही वंचित महसूस कर रहा है. उन्हें आखिरी सलाम.
वीरेंद्र यादव ,सी -855, इंदिरा नगर, लखनऊ -226016.   मो. 09415371872’
EMAIL—virendralitt@gmail.com
(इस लेख को दैनिक भाष्कर के इस लिंक पर भी पढ़ा जा सकता है -http://epaper.bhaskar.com/magazine/rasrang/211/12072015/mpcg/1/)
 

जनता का डाक्टर: जिसने विभेद से भरे हुए समाज का इलाज भी जरुरी समझा

 सुनील यादव  डाक्टर शब्द का का नाम आते ही एक ऐसे प्रोफेसनल व्यक्ति का अक्स उभरता है जो खुद के लिए बना हो. चिकित्सा के क्षेत्र में चिकित्सक क...