Thursday, 28 January 2016

सांस्कृतिक जनवाद की मुहिम और चौथीराम यादव का सर्जनात्मक चिंतन (संदर्भ-लोकधर्मी साहित्य की दूसरी धारा)



सुनील यादव
 







चौथीराम यादव के आलोचनात्मक दृष्टि की खोजबीन की प्रक्रिया में मुझे एक सूत्र नजर आया और उस सूत्र ने उनकी सांस्कृतिक जनवाद की मुहिम को समझने तथा उनके आलोचनात्मक दृष्टि का सटीक पता लगाने में काफी मदद की । चौथीराम जी ने नामवर जी को पत्र लिखते हुए एक बहुत ही महत्वपूर्ण बात लिखी थी कि “मैं तो कबीर की तरह शास्त्र-वंचित हूँ”...अपने संदर्भ में कबीर को याद किया जाना क्या अकारण है?, क्योंकि पोथी पढ़कर पंडित हो जाना एक बात है और बिना पोथी पढ़े कबीर जैसा स्वतंत्र चिंतक हो जाना बिलकुल दूसरी बात। क्या यह अकारण है कि सभा गोष्ठियों के मंचों से लेकर साहित्य की अकादमिक दुनिया में कुंजी लेखकों के वक्तव्यों का तो जिक्र हो जाता है पर चौथीराम जी की आलोचकीय दृष्टि और उसकी मौलिक स्थापनाओं का जिक्र नहीं होता? क्या अनायास ही चौथीराम जी हिंदी आलोचना की वर्चस्ववादी परंपरा से लगभग बहिष्कृत कर दिए जाते हैं ? इसके उत्तर के लिए उस जमीन तक पहुँचना होगा जहां चौथीराम जी खड़े होकर तथाकथित कुलीनतावादियों को ललकारते हैं। वह जमीन बहुत ही ठोस तर्कों से निर्मित है जो बहुजन के पसीने से सीची गई है।  इसीलिए उनमें कबीर की अक्खड़ता तथा तनकर खड़े होने की ताकत है। अगर  कबीर की कविता धर्म समाज के ठेकेदारों से खतरनाक सवाल पुछने की कविता है। तो चौथीराम जी के  सर्जनात्मक चिंतन को हिंदी आलोचना के वर्चस्ववादी तेवर के विरुद्ध काउंटर क्रिटिक के रूप में देखा जाना चाहिए ।
            यह अकारण नहीं है कि नामवर जी की किताब दूसरी परंपरा की खोज पर लिखा गया चौथीराम जी का लेख सही इतिहास-बोध को रेखांकित करती दूसरी परंपरा की खोज जो स्थानीय आज में छपा था, कहीं भी छपा उनका पहला लेख है । इस लेख के पीछे के कारकों को समझने के लिए उनके मन में उठने वाले इन सवालों को देखना जरूरी है –यदि तुलसीदास लोकधर्मी कवि हैं तो कबीर लोक धर्म विरोधी क्यों ? क्या लोकधर्म को वर्ण-धर्म का पर्याय माने बिना कबीर को लोकधर्म विरोधी कहा जा सकता है ? रामभक्ति की एक ही शाखा से जुड़े होने के बावजूद इनके सामाजिक चिंतन में इतना अंतर क्यों है ? यदि सगुण धारा के तुलसीदास में लोक-संग्रह का पूरा विस्तार है तो उसी धारा के सूरदास में लोक संग्रह का अभाव क्यों है ?’ इस तरह के बहुत से सवाल हैं जिनके संदर्भ में वे कहते हैं कि मुझे आचार्य शुक्ल की अपेक्षा आचार्य द्विवेदी के साहित्य में इन प्रश्नों का उत्तर पाने की कहीं ज्यादा संभावना नजर आई। यहीं से उस दूसरी परंपरा के मूल्यांकन का दौर शुरू होता है, पर यह ध्यान रहे कि चौथीराम जी जिस दूसरी परंपरा के मूल्यांकन को आगे बढ़ाते हैं, उसे वे लोकधर्मी परंपरा कहते हैं, यह परंपरा हजारी प्रसाद द्विवेदी और नामवर जी की दूसरी परंपरा का विकास तो है पर इसमें कई संदर्भ ऐसे हैं जिन्हे चौथीराम जी ने अपने चिंतन में विकाशित किया। इस लोकधर्मी परंपरा के मूल्यांकन के लिए चौथीराम जी की किताब लोकधर्मी साहित्य की दूसरी धारा अपना खासा महत्व रखती है । लोकधर्मी साहित्य की यह दूसरी धारा वही है जो वर्चस्ववादी परंपरा के प्रतिरोध के रूप में हमेशा से चलती रही है, इस धारा को मुख्यधारा की ब्राह्मणवादी ताक़तों द्वारा जान बुझ कर नजर अंदाज करने तथा उसे खत्म करने की साजिस चलती रही । इसी लोकधर्मी साहित्य का मूल्यांकन चौथीराम जी के चिंतन का केंद्र बिन्दु रहा है ।   इसी कारण कबीर के संदर्भ में चौथीराम जी का यह वक्तव्य उनकी खुद की दृष्टि के बारें में दिया गया वक्तव्य की तरह लगता है - “कबीर मध्ययुगीन सामंती पुरोहिती जाति व्यवस्था के प्रभा मण्डल का सबसे बड़ा आलोचक है। उसकी आलोचना दृष्टि समेकित , संतुलित और सर्जनात्मक है और शैली आक्रामक । वह अपने समय में प्रचलित सभी परम्पराओं के सामने पूरी सप्रश्नता और चुनौतियों के साथ खड़ा है – निडर और अडिग। चाहे वह भारतीय वेदान्त हो चाहे सूफियों का एकेश्वरवाद और चाहे बौद्ध चिंतन से अनुभावित सिद्धों – नाथों का चिंतन। वह किसी भी ज्ञान परंपरा का न तो अंध समर्थक है और न ही अंध विरोधी। वह सार्थक मानव- मूल्यों की खोज में सभी ज्ञान परम्पराओं के साथ सार्थक संवाद स्थापित करना चाहता है, इसलिए उसके वाद-विवाद में विरोध सामंजस्य का युगपत संबंध है । वह पूर्व स्थापित मान्यताओं और सुनी सुनाई बातों का ज्यों का त्यों मान लेने का कायल नहीं है । अपने अनुभव की कसौटी पर ही वह किसी विचार को स्वीकार या अस्वीकार करता है। सहमति और असहमति का उसका अपना प्रतिमान है, और वह है उसका अनभै साँचा व्याहारिक ज्ञान।” यह पूरी बात जितना कबीर के संदर्भ में महत्व की है उससे कम चौथीराम जी के नहीं । अगर कबीर अपने समय में प्रचलित सभी परम्पराओं के सामने पूरी सप्रश्नता और चुनौतियों के साथ निडर और अडिग खड़े नजर आते हैं तो चौथीराम जी भी अपनी गुरु हजारी प्रसाद द्विवेदी के गुरु मंत्र किसी से न डरना ,गुरु से भी नहीं, मंत्र से भी नहीं, लोक से भी नहीं, वेद से भी नहीं।’(बाणभट्ट की आत्मकथा पृ.85) के साथ अपने समय की प्रचलित आलोकतांत्रिक आलोचना के रवैये का क्रिटिक पेश करते हुए आलोचना के लोकतन्त्र के लिए संघर्ष करते दिखते हैं । चौथीराम जी इस आलोकतांत्रिक आलोचना के संदर्भ में लिखते हैं कि हिंदी साहित्य जितना लोकतान्त्रिक है, उसकी आलोचना उतनी ही आलोकतांत्रिक । यदि ऐसा न होता तो मध्यकाल के सबसे विद्रोही और लोकधर्मी कवि कबीर और मीरा न तो आचार्य शुक्ल के कविता जनपद के सीमांत पर खड़े दिखाई देते और न ही प्रतिरोध के लोकधर्मी कवि नागार्जुन, आलोचना के लोकतन्त्र पर लंबी बहस चलाने वाले अशोक वाजपेयी के कविता जनपद से एक दम बेदखल हो जाते ।आचार्य शुक्ल तो कबीर पर लोकधर्म विरोधी होने का आरोप भी लगाते हैं, क्योंकि कबीर वर्णाश्रम धर्म के प्रति अश्रद्धा पैदा करता है । तुलसी इसलिए प्रिय हैं कि वे वर्णाश्रम धर्म के पक्के समर्थक थे।
             भक्तिकालीन साहित्य के संदर्भ में चिंतन चौथीराम जी की आलोचना की मूल विशेषता है। भक्तिकाल के संदर्भ में चौथीराम जी ने हजारीप्रसाद द्विवेदी और मुक्तिबोध की दृष्टि को सिर्फ अपनाया भर नहीं बल्कि उसका सर्जनात्मक विकास किया । मुक्तिबोध ने अपने प्रसिद्ध लेख मध्ययुगीन भक्ति आंदोलन का एक पहलू में जिस दृष्टि से भक्तिकालीन कविता को देखा और समझा था, उसका विस्तार में मूल्यांकन चौथीराम यादव ने किया । चौथीराम जी की वैचारिकी का निर्माण मार्क्स से होते हुए बुद्ध, अंबेडकर, फुले, पेरियार तथा ललई सिंह यादव जैसे बहुजन हीरो के वैचरिकी को भी अपने अंदर समेटते हुए हुई  है, इसलिए उनकी आलोचनात्मक दृष्टि को सिर्फ हजारी प्रसाद द्विवेदी या मुक्तिबोध के आगे की कड़ी में ही नहीं देखा जा सकता, क्योंकि उनका चिंतन सिर्फ वर्ग संघर्ष को अपने केंद्र में नहीं रखता बल्कि इस देश की ब्राह्मणवादी वर्चस्व का भंडाफोड़ भी करता है । डॉ. अंबेडकर जहां पूंजीवाद के विरोध में कार्ल मार्क्स के साथ खड़े हैं वहीं ब्राह्मणवाद विरोधी अभियान में बुद्ध के साथ। और चौथीराम जी अपने चिंतन में इन तीनों के साथ खड़े दिखाई देते हैं । इसलिए उनकी चिंता उस हाशिये पर धकेल दी गई बहुजन विरासत को केन्द्रीयता प्रदान करने की है जो वर्चस्ववादियों के खिलाफ हमेशा तनकर खड़ी रही। वे लिखते हैं कि “यह मनुवादियों का बड़ा पुराना हथकंडा है-महापुरुषों के क्रांतिकारी विचारो की धार को कुन्द बनाकर उन्हें अपने अनुकूल बनाकर आत्मसात कर लेना। शंकर और कुमारिल ने बुद्ध के क्रांतिकारी विचारों के साथ किया,यही हथकंडा अपनाते हुए तुलसीदास ने सिद्धो-नाथों और कबीर-रैदास के क्रांतिकारी विचारों की धार को कुन्द बनाकर मानस में आत्मसात कर लिया और और अब यही सलूक दलित आंदोलन और उनके नायकों के साथ किया जा रहा है । हमारे पास प्रतिरोध की शानदार परम्परा है जिसमे बुद्ध, सरहपा, कबीर, रैदास, फुले, पेरियार, शाहूजी, नारायण गुरु, ललई सिंह यादव, रामस्वरूप वर्मा, जगदेव कुशवाहा आदि चमकते रत्न हैं, जिसे वर्चस्ववादियों ने हाशिए पर ढकेल दिया है।” यही कारण है कि चौथीराम जी का अधिकांश लेखन इस परंपरा के सटीक  मूल्यांकन तथा उसके महत्व को रेखांकित करने का रहा है ।  इसलिए उनकी इस विचार यात्रा को  भौतिकवादी चिंतकों चार्वाको, लोकायतों, आजीवकों और बौद्ध आंदोलनों की तरह ही एक स्वाभाविक विकास के रूप में देखा जाना चाहिए, क्योंकि इनकी तरह ही चौथीराम जी ने भी अपने चिंतन में ब्राह्मण विरोधी समानता के लिए वर्ण व्यवस्था, ब्राह्मण श्रेष्ठता और धार्मिक रूढ़ियों पर कड़े प्रहार किए हैं ।      अद्वैत वेदान्त के अंतर्विरोध तथा शंकराचार्य के संदर्भ में चौथीराम जी की मौलिक स्थापनाएँ उनके चिंतन की गहराई को रेखांकित करने के लिए पर्याप्त हैं। शंकराचार्य के अनुसार ब्रह्म ही एक मात्र यथार्थ है और ब्रह्म के अतिरिक्त कहीं कुछ नहीं है । इस सिद्धान्त के चलते यदि ब्रह्म जगत की सभी घटनाएँ और मानव प्राणियों सहित सभी वस्तुएँ ब्रह्म ही हैं तो क्या इससे यह निष्कर्ष नहीं निकलता कि वही ब्रह्म ब्राह्मण में भी है और शूद्र में भी, स्त्री में भी और पुरुष में भी, हिंदू में भी है और  मुसलमान में भी है। इस प्रकार जब मानव मात्र में ही ब्रह्म का अस्तित्व स्वीकार कर लिया गया तब उंच-नीच के भेदभाव पर आधारित वर्ण व्यवस्था और उसमें व्याप्त असमानता को किस आधार पर न्याय संगत ठहराया जा सकता है ?....शंकराचार्य को यह समझने में देर नहीं लगी कि जीव, जगत और ब्रह्म सबंधी उनका अद्वैत सिद्धान्त जातिवादी और सामंती हितों के विरुद्ध जा रहा है । अतः सामंती पुरोहिती हितों की विरुद्धगामी इस वर्ण विरोधी संभावना को निरस्त करने के लिए उनको नस्लवादी चेहरा लगाकर यह कहना पड़ा कि उच्च वर्णों में  उत्पन्न लोग ही ब्रह्म और आत्मा की अभिन्नता को समझ सकते हैं । इस प्रकार भारतीय  वेदान्त की सबसे बड़ी विडम्बना यही है कि वह वर्ण व्यवस्था के पोषक धर्मशास्त्रों की संकीर्ण मान्यताओं से कभी मुक्त न हो सका। यही कारण है कि अपने तमाम पांडित्य और विलक्षण प्रतिभा के बावजूद शंकराचार्य बहुजन समाज के हितों के विरुद्ध हिंदू शास्त्रकारों की घिनौनी साजिश में सम्मिलित होकर वर्ण-व्यवस्था के पक्के समर्थक बन गए । एक उच्च कोटि का दार्शनिक जब जाति-धर्म का लबादा ओढ़ लेता है तो कितना कुरूप लगने लगता है, शंकराचार्य इसके सुंदर उदाहरण हैं। इसी क्रम में चौथीराम जी शंकर के वेदान्त और निर्गुण भक्ति कवियों द्वारा स्वीकार किए गए वेदान्त में स्पष्ट विभाजन करते हुए लिखते है कि सिद्धान्त और व्यवहार की अंतर्विरोधी स्थितियों को पहचानते हुए निर्गुण आंदोलन के संत कवियों ने अद्वैत वेदांत को उसी सीमा तक स्वीकार किया है जहां तक वह उनके जाति विरोधी भक्ति आंदोलन के अनुकूल हो सकता था ।
            पुनर्जन्म के सिद्धान्त को चौथीराम जी ने  इतिहास का सबसे घिनौना षड्यंत्र कहा है। वे अपने चिंतन से इस सवर्णवादी साजिस पर न सिर्फ सवाल उठाते हैं बल्कि उसे बेनकाब भी कर देते हैं। उन्होने इस पर जो लिखा है उसे यहाँ विस्तृत रूप से उल्लेख किया जाना जरूरी है - धर्मशास्त्रीय विधानों भौतिक ताकत के बल पर निम्न वर्ण और स्त्रियॉं का शोषण और उत्पीड़न करने वाले ब्राह्मण और क्षत्रिय यदि स्वर्ग और पृथ्वी के स्वामी बन बैठे थे तो इसलिए कि पूर्वजन्म में उन्होने ढेर सारे पुण्य कमाए थे, जबकि प्रमुख उत्पादक वर्ग से सम्बद्ध नीचे के दोनों वर्ण कड़ी मेहनत के बावजूद दुखों और अभावों- भरा जीवन जी रहे हैं तो ये इनके पूर्व जन्मों के पापों का फल है। लिहाजा इस जन्म में तो उनकी मुक्ति संभव नहीं, हाँ, सुख-समृद्धि का उच्च-जीवन जीने के लिए बस इतना कर सकते हैं कि कष्टों का अनुभव किए बिना अपने उच्च वर्णों की सेवा कर अगले जन्म में मेवा खाने का पुण्य अर्जित करें ताकि वर्णक्रम से उन्हें उच्चतर जाति में पैदा होने का अधिकार मिल सके, तात्पर्य यह है कि जीवन में एश्वर्य-वैभव और सुख- भोग का संबंध केवल उच्च वर्णों से है । ......अतः सेवा धर्म ही शूद्र का सबसे बड़ा धर्म और पुण्य का कर्म था। यानि हाड़ तोड़ परिश्रम करने वाले पापी और उनकी कमाई पर गुलछर्रे उड़ाने वाले पुण्यात्मा हैं जो अकर्मण्यता और उपभोक्ता संस्कृति का प्रचार कर रहे थे। चातुर्वर्ण व्यवस्था को दुर्भेद बनाने वाले पुनर्जन्म और कर्मफल का यही मूल सिद्धान्त था, जिसके द्वारा द्विज संस्कृति ने शूद्र संस्कृति(कर्म संस्कृति) के खिलाफ इतिहास का सबसे घिनौना षड्यंत्र किया है ।    भक्तिकालीन कविता की वर्चस्व और प्रतिरोध की दो धाराओं के द्वंद को दिखाने के लिए चौथीरम जी ने  कबीर, रैदास और तुलसी की जिन पंक्तियों का प्रयोग किया है, वह गहरी छानबिन का नतीजा है, एक उदारण के माध्यम से इसे देखा जाय तो – “जन्मना के प्रश्न पर बुद्ध से सहमत होते हुए रैदास ने लिखा –
रविदास ब्राह्मण मत पुजिए, जौ होवे गुनहीन ।
पुजीही चरन चंडाल के,  जौ होवे गुन प्रबीन॥
इससे आहत होकर तुलसीदास ने पलटवार करते हुए जन्मना का समर्थन करते हुए ब्राह्मण श्रेष्ठता को पुंरप्रतिष्ठित किया –पूजिय विप्र सील गुनहीना,सूद्र न गुन-गन ज्ञान प्रवीना ।”
            चौथीराम जी का लेख अवतारवाद का समाजशास्त्र और लोक धर्म को उनके चिंतन के  उत्कर्ष के रूप में देखा जाना चाहिए । इस लेख में उनकी स्थापनाओं को देखते हुए यह अकारण नहीं है कि से. तोकारेव की प्रसिद्ध पुस्तक धर्म का इतिहास और डी. डी. कोसंबी की पुस्तक प्राचीन भारत की संस्कृति और सभ्यता बार-बार याद आएँ । इसका कारण यह कि अवतारवाद के समाजशास्त्र को समझने समझाने की प्रक्रिया में चौथीराम जी की दृष्टि  से. तोकारेव और डी. डी. कोसंबी के करीब खड़ी दिखती है ।  डी. डी. कोसंबी अपनी पुस्तक में जिस कृष्ण के मिथक की विकास यात्रा की पड़ताल करते हैं उसी चर्चा को चौथीराम जी ने अपने इस लेख में विस्तार दिया है,  वे लिखते हैं कि अवतारवाद की अवधारणा पुराणकारों की मौलिक प्रतिभा, विराट कल्पना और उनके स्वतंत्र चिंतन की भविष्योंमुखी दृष्टि का प्रमाण है, जिसकी सहायता से उन्होने छिन्न- भिन्न हो चुकी वर्णव्यवस्था को पुनरव्यवस्थित कर वर्ण-धर्म की रक्षा  करने में सफलता अर्जित की थी, इसी प्रक्रिया में कृष्ण को पूर्णावातार माना गया ? ..... मिथकीय संश्लिष्टताओं में उलझा हुआ कृष्ण का चमत्कारी व्यक्तित्व आर्य और अनार्य, निगम और आगम, ब्राह्मण और अब्राह्मण आदि न जाने कितने परस्पर विरोधी युग्मों के बीच सामंजस्य सेतु बनता आया है । वैदिक काल के नर देवता, पुराण काल में विष्णु का पूर्णावातार, द्वापर युग का निर्माता, गीता का महान कर्मयोगी, नटखट बालगोपाल, गोपियों का प्रेमी, राधा का अनन्य अनुरागी, अप्सराओं के साथ रमण करने वाला ....आश्चर्य होता है इतने सारे चेहरे क्या एक ही कृष्ण के हैं ?परस्पर विरोधी गुणो वाला ऐसा विलक्षण व्यक्तितत्व ही परस्पर विरोधी परम्पराओं में सामञ्जसय स्थापित कर सकता था, कितना मिथकीयकरण किया गया है यदु कबीले के नर देवता का, यज्ञ विरोधी गो रक्षक कृष्ण का, इन्द्र को अपदस्त करने वाले जन नायक का ! वह जिस रूप में आया मनुष्यता सदैव उसके साथ रही। वैदिक काल से लेकर मध्यकालीन सूरदास के गोचारी काव्य तक कृष्ण की ऐतिहासिक यात्रा जननायक से लोकनायक बनने की ही अंतर्रयात्रा है, भले ही समय समय पर उसे ईश्वर का मुकुट पहनाया जाता रहा हो । लेकिन सूरदास के लिए वह मुकुट किसान संस्कृति के किसी प्रभावशाली मुखिया की पगड़ी से ज्यादा अहमियत नहीं रखता।" कृष्ण के संदर्भ में चौथीराम जी का यह मूल्यांकन हिंदू धर्म के अवतारवाद की संकल्पना का क्रिटिक पेश करते हुए ही विकाशित हुआ है। वे आगे लिखते हैं कि यज्ञ और इन्द्र का विरोध करने के कारण गोरक्षक कृष्ण ने किसानों का प्रवक्ता बन, जन नायक का गौरव अर्जित कर लिया और लगातार बढ़ती लोकप्रियता ने उसे पूज्य बना दिया । यही कारण है कि इन्द्र पूजा को अपदस्थ कर कृष्ण पूजा का प्रचलन आरंभ हुआ। पुराण काल तक आते-आते इन्द्र का वर्चस्व टूटने लगा और ऋग्वेद के उपेक्षित देवता विष्णु सहसा महत्वपूर्ण  हो उठे । ...बुद्ध के प्रभाव के चलते ब्राह्मण धर्म काफी कमजोर हो चला था । बुद्ध ने वैदिक यज्ञ प्रणाली और उसके जटिल कर्मकांड का विरोध किया और वर्णव्यवस्था की असंगतियों  और ब्राह्मण श्रेष्ठता को चुनौती देते हुए दो वर्णों का क्रम ही उलट दिया ।....अतः पूरी तरह छिन्न-भिन्न हो चुकी वर्ण व्यवस्था की रक्षा और श्रेष्ठता का गौरव पुनः अर्जित करना वर्णाश्रम समर्थक बुद्धिजीवियों की प्राथमिक चिंता थी। इस प्रसंग पर से. तोकारेव ने बहुत स्पष्ट लिखा कि बौद्ध धर्म के विरुद्ध ब्राहमणों का संघर्ष वर्ण व्यवस्था और आबादी पर अपना प्रभुत्व बनाए रखने के लिए किया जाने वाला संघर्ष था। इस संघर्ष में ब्राहमण धर्म के लिए जरूरी था कि वे अपने हथियारों को बदले। अभिजातमूलक रूप वाले पुराने ब्राहमण धर्म का जन सामान्य पर प्रभाव कम था। उसे अपनी शिक्षा और कर्मकांड को लोगों की जरूरत के मुताबिक ढालना पड़ा, ताकि बौद्ध धर्म से सफल टक्कर ले सके। धर्म के क्षेत्र में इन नए परिवर्तनों के साथ एक नया युग आरंभ हुआ, जिसे हिंदू काल या हिंदू धर्म का काल कहा जाने लगा ।इस युग की की लाक्षणिक विशेषता यह थी कि कर्मकांड जनपरक बन गया। व्यापक जनसामान्य पर प्रभाव डालने के नए तरीके निकाले गए। सबसे पहले जनता को कर्मकांड में भाग लेने की संभावना देना आवश्यक था और सार्वजनिक सामाजिक समारोह, अनुष्ठान, पूजास्थल, मंदिर, तीर्थस्थान आदि भी आवश्यक थे ।... भारत में इस युग में पहली बार मंदिरों का निर्माण आरंभ हुआ। भारत में सबसे पुराने मंदिर बौद्धों के हैं । आरंभ में ये समाधि-स्तूप तथा गुफ़ानुमा चैत्य थे। उनकी देखि देखा हिंदू मंदिर बने, जिन्हे अपने विराट आकार और भव्य तथा विलक्षण वास्तु से जनसमान्य कि कल्पना से अभिभूत कर डालना था और श्रद्धा युक्त भय का संचार करना था।... दूसरी ओर देवताओं से संबन्धित धारणाओं का स्वरूप भी अधिक जनवादी बन गया । समझ में न आने के कारण देवताओं के बिम्ब जन समान्य को कम प्रभावित करते थे । अतः यह जरूरी हो गया कि उन्हे जन समान्य के निकट लाया जाय, लोक देवताओं की लोक रक्षक देवताओं की कल्पना की जाय । इस तरह अवतारों की संकल्पना हुई। ...कुछ अवतार जन सामान्य के प्रिय देवता बन गए । उनमें से कुछ का निर्माण जनता पर अधिक प्रबल प्रभाव डालने के लिए बौद्ध देवमण्डल की नकल पर किया गया था। अवतार पार्थिव देवता थे । उनमें जो सबसे लोकप्रिय था, विष्णु का अवतार कृष्ण था। बुद्ध जन्म के मिथक की भांति और संभवतः ईसा के मिथक के प्रभाव से भी पृथ्वी पर कृष्ण के जन्म के मिथक की रचना हुई । उसके पराक्रमों उसके जनहित में किए गए कार्यो और उसकी मृत्यु के बारे में कहानियाँ कही जाने लगी ।” [धर्म का इतिहास - से. तोकारेव, पृ.226] चौथीराम जी अवतारवाद की पौराणिक कल्पना पर बात करते हुए कहते कि यह  हिंदू शास्त्रकारों के शातिर दिमाग का शतरंजनुमा एक खेल है जिसमें कभी महावीर को, कभी बुद्ध को तो कभी कृष्ण को कारगर मोहरे के रूप में इस्तेमाल किया गया है । इस खेल कि विशिष्टता यह है कि  मोहरे काले हो या सफ़ेद, जीत हमेशा ईश्वर कि होती है । वस्तुतः यह वर्चस्व और प्रतिरोध कि संस्कृति के बीच शह और मात का ऐसा खेल है जो धरती कि पुकार पर ईश्वर और असुरों के बीच खेला जाता है और रिमोट कंट्रोल गगन विहारी देवताओं के हाथ में होता है ।  
            अवतारवाद के समाजशास्त्र पर चर्चा के उपरांत चौथीराम जी ने समन्वय के दर्शन कि पड़ताल कि है -  “समन्वय का दर्शन अपने आप में बड़ा खतरनाक दर्शन है। वर्णाश्रम विरोधी क्रांतिकारी विचारों को निरस्त करने के लिए यह वर्णाश्रम समर्थक बुद्धिजीवियों का पुराना हथकंडा है। इसके अनुसार पहले तो विरोधी विचारों का जमकर विरोध करना, फिर उसे विकृत करके प्रचारित करनाऔर इसके बाद भी यदि वे जीवित रह जाते हैं तो उनकी धार को कुंद बनाकर आत्मसात कर लेना । गोस्वामी तुलसीदास ने भी शंकर और कुमारिल की तरह इसी अमोघ अस्त्र का इस्तेमाल करते हुए अलख जगाने वालों साखी सबदी दोहरा एवं कहनी उपखान कहने वालों के साथ वही सलूक किया है ।जब समन्वय की विराट चेष्टा में सबकुछ समाहित हो गया तो अलग से उनके साहित्य का क्या महत्व ? अतः तुलसी तुलसी के पौराणिक मतवाद से पूरी तरह सहमत आचार्य रामचन्द्र शुक्ल यदि उसे साहित्य ही न मानें तो क्या आश्चर्य ?.... वर्णाश्रम धर्म की रक्षा और यथास्थितिवाद को बनाए रखना ही पौराणिक अवतारवाद का प्रमुख उद्देश्य है जिसे चरितार्थ करने के लिए तुलसीदास ने एक पुराण काव्य ही लिख डाला।”
            चौथीराम जी के चिंतन का फ़लक बहुत विस्तृत है वे लोकधर्मी प्रतिरोध की परंपरा का मूल्यांकन करते हुए  भक्तिकालीन साहित्य से लेकर नवजागरण तथा आज के विमर्शों पर अपनी बेबाक तथा तर्कपूर्ण राय रखते हैं। वे सवाल करते हैं कि नवजागरण के व्याख्याकारों ने फुले-अम्बेडकर के दलित स्त्री जागरण को क्यों नही शामिल किया? हिंदी नवजागरण के प्रसंग में स्वामी अछूतानन्द के जागरण को क्यों भुला दिया गया?’  उनका  नवजागरण  के संदर्भ में यह वक्तव्य सोचने के लिए नए गवाक्ष खोलता है – रानाडे और राम मोहन राय के सामाजिक सुधार की अपेक्षा ज्योतिबा फुले की सामाजिक क्रान्ति कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण और अग्रगामी रही है। फुले की स्त्री शिक्षा का आंदोलन 18 विद्यालय खोलकर हर वर्ग की स्त्रियों को शिक्षित किया ,वह एक मिशन था। राम मोहन राय ने कितने विद्यालय खोले? विधवा विवाह की समस्या कुलक समाज की समस्या थी जिसे राम मोहन राय ने उठाया । फुले ने उससे आगे बढ़ कर पुणे में बाकायदा पंपलेट बांटा की जो विधवाएं प्रसूति कराकर बच्चे को ले जाना चाहे ले जाय या फिर छोड़ जायँ हम पालन पोषण करेंगे। साबित्री बाई फुले उन बच्चों का नार काटने से लेकर पालन-पोषण का पूरा दायित्व निभाती थीं। इसके लिए फुले ने बाकायदा पहले ने अपने घर में बाल हत्या प्रतिबन्धक गृह खोल रखा था और विधवा केश मुंडन के खिलाफ मोर्चा भी। फुले की सामाजिक क्रान्ति के सामने राम मोहन राय,राणा डे और तिलक के समाज सुधार कहीं नहीं ठहरते जब कि भारतीय नव जागरण में उन्ही को महत्व दिया गया,फुले को नहीं। इसी क्रम में उत्तर शती के विमर्शों का महत्व रेखांकित करते हुए वे लिखते हैं कि –“स्त्री-विमर्श और दलित-विमर्श उत्तरशती के अत्यंत महत्वपूर्ण विमर्श हैं ,ये जमाने की आवाज़ हैं। अतः खण्डित विमर्श मान कर इनकी उपेक्षा नही की जा सकती बल्कि यही कि समकालीन महिला-लेखन और दलित-लेखन को उत्तरशती में हिंदी नवजागरण के अगले विकास के रूप में देखा जाना चाहिए । कारण यह कि ये विमर्श आधे-अधूरे नवजागरण को पूर्णता प्रदान करने वाले विमर्श हैं और आज का महिला-लेखन और दलित-लेखन मुख्यधारा के लेखन का ही महत्वपूर्ण अंग है। सच पूछा जाय तो स्त्री-मुक्ति और दलित-मुक्ति के प्रश्न ही मानव-मुक्ति के प्रवेश द्वार हैं क्योंकि आज भी दलित और स्त्रियाँ ही शोषण और उत्पीड़न से सर्वाधिक प्रभावित हैं। इसलिए रक्त-गोत्र की शुद्धता और यौन-शुचिता के एकपक्षीय खोखले आदर्श और श्रेष्ठता के पितृसत्तात्मक दम्भ के चलते दलितों और स्त्रियों की उपेक्षा कर न तो किसी मानव-मुक्ति की कल्पना की जा सकती है और न ही मानव-मुक्ति के वृहत्तर जीवन-मूल्यों से जुड़े बिना अस्मिताओं के ये समकालीन आंदोलन अपने व्यापक लक्ष्य को ही प्राप्त कर सकते हैं।"
            जिस प्रकार सेकुलर इतिहास को जिंदा रखने के लिए मशाल उठाना सीखने के लिए, साहसपूर्ण खतरा उठाने के लिए और खुद की प्रतिबद्धता को ठीक से पहचानने के लिए कबीर को जानना जरूरी है । उसी प्रकार भारतीय चिंतन धारा के प्रतिरोधी परंपरा को सही रूप में जानने और उसका  मूल्यांकन करने के लिए चौथीराम जी के चिंतन को समझना जरूरी है । उनके ही शब्दों में कबीर कोई चुका हुआ कवि नहीं है। वह सांस्कृतिक जनवाद की अपनी कीमती विरासत के साथ आधुनिक भी है और हमारा समकालीन भी।जब जब सामाजिक परिवर्तन के आंदोलन तेज होंगे वह जलती मशाल लिए हमारे आगे-आगे चलता दिखाई देगा। ठीक इसी प्रकार हम कह सकते हैं कि जब-जब वर्चस्ववादी चिंतन के खिलाफ आवाजें बुलंद होगी तो उसमें तर्कों तथा दृष्टि सम्पन्न एक मजबूत और दमदार आवाज के साथ चौथीराम जी हमारा नेतृत्व करते हुए मिलेंगे ।

Friday, 15 January 2016

लेफ्ट-राइट की विस्मयकारी समानता!

उर्मिलेश











वरिष्ठ पत्रकार-लेखक प्रफुल्ल बिदवई के आकस्मिक निधन के बाद उनकी अंतिम और बेहद महत्वपूर्ण किताब द फीनिक्स मोमेंटः चैलेंजेज कन्फ्रंटिंग द इंडियन लेफ्ट’  कुछ ही समय पहले छपकर आई है। कुल 586 पृष्ठों की किताब पढ़ते हुए मेरे दिमाग में एक सवाल लगातार कौंधता रहा—लगभग एक ही दौर में अपना राजनीतिक-सांगठनिक सफर शुरू करने वाले कम्युनिस्ट क्यों और कैसे राष्ट्रीय राजनीति में कामयाब नहीं हो सके और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ कैसे कामयाब हो गया! कम्युनिस्ट पार्टी और आरएसएस, दोनों की स्थापना सन 1925 में हुई थी। एक ने समाजवादी समाज का सपना देखा और दूसरे ने हिन्दू-राष्ट्र का। दोनों के सपने अब तक नहीं पूरे हुए। पर आरएसएस की राजनीतिक कामयाबी कम्युनिस्टों के मुकाबले बहुत बड़ी है। उसकी राजनीतिक संस्था-भाजपा आज केंद्रीय सत्ता में है। कई प्रांतों में भी उसकी सरकारें हैं। इसके पहले भी वह लगभग छह साल तक केंद्र में सत्तारूढ़ गठबंधन की अगुवाई कर चुकी है।
कम्युनिस्ट पार्टी(या पार्टियों) के पास बौद्धिक रूप से बहुत प्रौढ़ और ईमानदार-समझदार नेताओं की कभी कमी नहीं रही। संघ में कम्युनिस्टों के मुकाबले प्रखर बौद्धिकों की तादात ज्यादा नहीं रही। पर समर्पित कार्यकर्ताओं की कतारें उनसे जुड़ती रहीं। शुरुआती दौर में संघ-विचार से अनुप्राणित लोगों का समाज पर लंबे समय तक ज्यादा असर नहीं रहा। आजादी की लड़ाई में वैसे भी उनकी कोई उल्लेखनीय भूमिका नहीं थी। लेकिन सत्तर-अस्सी के दशक में उनका ग्राफ उठने लगा और आज वे सत्ता के केंद्र में हैं। कम्युनिस्ट एक समय संसद में मुख्य विपक्षी दल थे और तीन-तीन राज्यों में उनकी सरकारें भी बनीं। समूची दुनिया में लोकतांत्रिक ढंग से चुनी गयी पहली वामपंथी सरकार केरल(1957-59) की थी, जिसने कई महत्वपूर्ण कदम उठाये। नाराज होकर केंद्र ने उसे बर्खास्त किया। इससे केरल में कम्युनिस्टों की लोकप्रियता बढ़ी। आज भी वे वहां बड़ी ताकत हैं। लेकिन केरल-बंगाल के बाहर वे नहीं फैल सके। हिन्दी पट्टी में प्रभाव के जो सीमित आधार थे, वे भी खिसक गये। बड़ा सवाल है, ऐसा क्यों हुआ?
परस्पर घोर विरोधी होने के बावजूद कम्युनिस्टों और संघियों में नेतृत्व के स्तर पर कुछ विस्मयकारी समानताएं भी हैं। एक ही दौर में कामकाज शुरू करने वाली दोनों धाराओं की अगुवाई सवर्ण हिन्दू, खासकर ब्राह्मण समुदाय से आये नेताओं के हाथ में रही है। कम्युनिस्टों में कुलीन मुस्लिम परिवारों से भी कुछ नेता उभरे। पर दलित-पिछड़े नदारद थे। संघ की अगुवाई एकाध अपवाद को छोड़कर हमेशा महाराष्ट्र के कुलीन ब्राह्मण समुदाय से आये नेता ही करते रहे। आज भी लगभग वही स्थिति है। संघ नेतृत्व ने हिन्दू धर्मावलंबियों को कट्टरता-आधारित हिन्दुत्व से जोड़कर जनसंघ और बाद के दिनों में भाजपा के लिये नया जनाधार खड़ा करने की कोशिश की। जन समस्याओं की निरंतर अनदेखी के चलते कांग्रेसी शासन लगातार अलोकप्रिय होता रहा। ढहते कांग्रेसी आधार से संघी-संगठनों को काफी मदद मिली। सवर्ण हिन्दुओं के अलावा व्यापारी समुदाय और कारपोरेट के बड़े हिस्से में भी उसने समर्थन जुटाया। अपने यहां सामंती समाज का पूंजीवादी रूपांतरण स्वाभाविक ढंग से न होकर औपनिवेशिक छाया में हुआ। विकलांग-पूंजीवाद और अंधविश्वास-ग्रस्त पिछड़े समाज का समीकरण संघ-प्रेरित संगठनों के लिये बहुत मुफीद साबित हुआ। उस दौर में भी उन्होंने समान नागरिक संहिता, मंदिर-मस्जिद और रामराज्य जैसे मुद्दे उछालकर माहौल अपने पक्ष में करने की कोशिश की। तब उनकी दाल नहीं गली। अस्सी और उसके बाद के दशक में उनके अयोध्या अभियान, शिलापूजन और मंदिर-मस्जिद विवाद ने समाज को बुरी तरह प्रभावित किया। सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के बीच अनेक दंगे हुए। हाशिये पर पड़े दलित-पिछड़ों और आदिवासियों में लगातार रोष बढ़ रहा था। उसकी अभिव्यक्ति कई विफल विद्रोहों में हुई। दूसरी तरफ, दक्षिणपंथियों की तरफ से दलित-पिछड़ों के हिन्दुत्वीकरण की कोशिश भी जारी रही। कम्युनिस्टों का एक हिस्सा इंदिरा गांधी की इमर्जेन्सी का समर्थन करके पहले ही अपनी राजनीतिक विश्वसनीयता गंवा बैठा था। संघ और उसकी अन्य संस्थाओं ने पहले की तरह अपना प्रचार-अभियान जारी रखा। हिन्दुत्व के प्रचार-प्रसार में गीता प्रेस के प्रकाशनों, बम्बइया धार्मिक फिल्मों, टीवी सीरियलों और गांव-शहर में फैले असंख्य बाबाओं-कथावाचकों का कुछ कम योगदान नहीं रहा। वरिष्ठ पत्रकार अक्षय मुकुल की हाल में प्रकाशित शोध-आधारित पुस्तक  ‘गीता प्रेस एंड मेकिंग आफ हिन्दू इंडिया’(2015) आंख खोलने वाली है कि गीता प्रेस की किताबों, कल्याण जैसी पत्रिकाओं और टीकाओं की हिन्दुत्व की जमीन तैयार करने में कितनी बड़ी भूमिका रही। अब तो यह काम ढेर सारे हिन्दी चैनलों के जरिये और तेज गति से हो रहा है। लेकिन धर्म और संस्कृति के विकृतीकरण की हिन्दुत्ववादी साजिशों की समाजवादियों-वामपंथियों के बड़े हिस्से ने लगातार अनदेखी की। उनको लगता था कि उनके समाजवाद के दायरे में ये मुद्दे आते ही नहीं!
कम्युनिस्टों ने जाति-वर्ण के सवाल की भी लगातार उपेक्षा की। यह महज सैद्धांतिक कारणों से हुआ या इसके पीछे नेतृत्व की सवर्ण-पृष्ठभूमि से बनी सोच की भी भूमिका थी? प्रफुल्ल बिदवई ने दलितों में वामपंथियों के सीमित आधार का सवाल तो उठाया है पर वह इसके कारणों की तह में नहीं जा सके। सत्तर-अस्सी के दशकों में, जब भारतीय समाज में बदलाव की बेचैनी थी, दलित-पिछड़े-आदिवासी समुदाय के बड़े सरोकारों पर वामपंथियों का क्या रवैया रहा? आरक्षण के सवाल पर वामपंथी शिविरों में जिस तरह का संकोच दिखा, वह हैरतंगेज था। वामपंथियों के बड़े हिस्से ने शुरू में आरक्षण को मुद्दा ही नहीं माना। बाद में कहना शुरू किया कि लागू करना है तो वह सामाजिक-आर्थिक आधार पर लागू हो। जबकि संविधान ने आरक्षण का आधार सिर्फ सामाजिक-शैक्षिक पिछड़ेपन को माना है। काफी बाद में भाकपा ने मंडल-आधारित आरक्षण प्रावधानों का समर्थन किया। कन्फ्यूजन में पड़ी माकपा की बंगाल इकाई विरोध में थी तो केरल इकाई समर्थन में। ऐसे में पिछड़ों को आर्थिक आधार की लकीर खींचना एक नया बखेड़ा पैदा करने वाली बात लगी। कम दिलचस्प नहीं कि संघ ने भी आरक्षण को कभी पसंद नहीं किया। नेहरू से लेकर इंदिरा युग के बीच देश के विश्वविद्यालयों और बौद्धिक निकायों/संस्थानों में वामपंथी बौद्धिकों की संख्या अच्छी खासी थी। वे प्रशासनिक स्तर पर असरदार थे। ऐसे संस्थानों में दलित-पिछड़ों से उभरते प्रथम या द्वितीय पीढ़ी के पढ़े-लिखे युवाओं की निरंतर उपेक्षा होती रही। विख्यात वामपंथी पृष्ठभूमि के बौद्धिकों-प्रशासकों के स्तर से हो रहे इस तरह के जातिगत-भेदभाव का संदेश बहुत खराब गया। उत्पीड़ित वर्गों के युवाओं ने अपने समाजों को आगाह किया कि उन्हें कांग्रेस की तरह वामपंथियों से भी ज्यादा उम्मीद नहीं करनी चाहिये। इसी दौर में देश के विभिन्न हिस्सों में मंडलवादी, बहुजनवादी या आंबेडकरवादी नेताओं-संगठनों का उभार सामने आया। कांग्रेस से नाराजगी के साथ उत्पीड़ितों के बीच से उभरते पढ़े-लिखे समूहों में कम्युनिस्टों से भी मोहभंग देखा गया। बाद के दिनों में मंडलवादी-बहुजनवादी नेतृत्व की निजी स्वार्थपरता और कूपमंडूकता भी सामने आई। दलितों-पिछड़ों के बीच पैदा इस निराशाभरे माहौल का संघ-प्रेरित हिन्दुत्व को फायदा मिला। हाशिये पर पड़े वामपंथियों को आज हिन्दुत्व-उभार के खतरे चारों तरफ दिख रहे हैं। पर उनके हाथ से विकल्प का राजनीतिक मंत्र फिसल चुका है। शायद, अतीत की विफलताओं और बेचारगी-भरे वर्तमान की ईमानदार पड़ताल से कोई रास्ता दिखे!
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14 jan,2016  



Saturday, 2 January 2016

2016 में भारत-पाक रिश्तों का भविष्य!

                                                                                                                                           उर्मिलेश
प्रधानमंत्री मोदी ने सबको चौंकाते हुए बीते 25 दिसम्बर को रूस-अफगानिस्तान के दौरे से लौटते हुए अचानक लाहौर जाने का फैसला किया। उनके दौरे से बने खुशनुमा माहौल को रौंदते हुए महज पांच दिनों बाद पठानकोट के वायु सेना केंद्र पर आतंकी हमला हो गया। अब तक इसमें भारतीय वायुसेना के तीन जवानों और चार आतंकियों के मारे जाने की खबर है। भारत-पाक के बीच औपचारिक-अनौपचारिक वार्ताओं के तुरंत बाद आतंकी हमले, घुसपैठ और संवाद के सिलसिले को पटरी पर उतराने की यह कोई पहली घटना नहीं है। बीते बीस सालों में इस तरह के घटनाक्रमों की लंबी श्रृंखला है। ऐसे में सवाल उठना लाजिमी है कि भारत-पाकिस्तान के जटिल रिश्तों का नये वर्ष-2016 में क्या भविष्य है? क्या सबकुछ वैसा रहेगा, जैसा हमने पहले देखा है या इस बार कुछ बदला सा होगा? 
25 दिसम्बर के लाहौर दौरे से शुरू कूटनीतिक पहल, जो वाकई लीक से हटकर थी, प्रधानमंत्री मोदी और नवाज शरीफ के लिये बडी चुनौती बन गयी है। देखना दिलचस्प होगा कि वे इस सिलसिले को रोकते हैं या जारी रखते हैं। इस तरह की बड़ी पहलकदमियों के अपने आकर्षण हैं तो जोखिम भी। आकर्षण का पहलू देखेः अगर प्रधानमंत्री मोदी ने काबुल से लौटते हुए अचानक कुछ घंटों के लिये पाकिस्तान जाने का कदम न उठाया होता तो वर्ष 2015 उनकी सरकार के खाते में शायद ही कोई चमकदार पहलकदमी होती। ‘सबका साथ-सबका विकास’, ‘न खायेंगे, न खाने देंगे’, ‘कालाधन वापस लायेंगे’ जैसे उनके सारे वायदों-नारों की चमक महज अठारह महीने की सरकार में फीकी पड़ चुकी थी। दिल्ली और बिहार में चुनावी हार के बाद उनकी पार्टी का उत्साह मंद पड़ गया था। रिकार्डतोड़ वैदेशिक दौरौं के बावजूद मोदी जी को निवेश-व्यापार में बहुत ठोस कामयाबी नहीं मिली। अपने शपथग्रहणसमारोह में पड़ोसी देशों के प्रमुखों को बुलाकर नये तरह के रिश्तों का संकेत देने वाले प्रधानमंत्री की नेपाल-कूटनीति की कमजोरियां तत्काल सामने आयीं। इतनी सारी नकारात्मकता के बीच प्रधानमंत्री ने वर्षांत में लीक से हटकर पाकिस्तान के साथ कूटनीति का नया शास्त्र गढ़ने की कोशिश की है। 
जोखिमः यह सिर्फ दो देशों के रिश्तों का मसला नहीं है, हमारी घरेलू राजनीति और अर्थनीति को भी यह प्रभावित करता है।
प्रधानमंत्री मोदी के आलोचक ही नहीं, उनके पारंपरिक प्रशंसकों का एक हिस्सा भी इस पहल से ज्यादा उत्साहित नहीं है। पठानकोट आतंकी हमले के बाद तो सवालों का शोर कुछ ज्यादा हो गया है। कुछ तो बेहद सख्त और नाराज हैं। दूसरी तरफ, उनके ज्यादातर आलोचक इसे ऐसी नुमायशी पहल मान रहे हैं, जिसका कोई नतीजा नहीं निकलने वाला। बहरहारल, कोशिश चाहे नुमायशी ही क्यों न हो, संभव है, काबुल से दिल्ली के रास्ते में लाहौर रूकने की योजना अचानक नहीं, कुछ पहले तय हुई हो(नये खुलासों से इस बात में दम भी दिखता है), हो सकता है  दोनों तरफ से कुछ खास कारपोरेट घरानों के व्यापारिक-हित हों, संभव है, इसके जरिये प्रधानमंत्री का राष्ट्रीय मीडिया की सुर्खियां बदलने का मकसद भी हो, पर मैं निजी तौर पर भारत-पाकिस्तान के बीच संवाद की हर कोशिश के पक्ष में हूं, आतंकी हमलों और अन्य खुराफातों के बावजूद। मैं इसीलिये प्रधानमंत्री मोदी की लौहार जाने की पहल को 2015 की एक बड़ी घटना मानता हूं। यह सही है कि उनके आकस्मिक दौरे के पीछे किसी सुसंगत कूटनीतिक पृष्ठभूमि का अभाव दिखता है पर दो प्रधानमंत्रियों के अनौपचारिक ढंग से मिलने के भी फायदे होते हैं। रिश्तों की बेहतरी की हर कोशिश को पंचर करने वाली कट्टरपंथी मानसिकता भी इस तरह की पहल से कुछ कमजोर होती है। 
दोनों देशों के रिश्तों के बीच बहुत सारे ‘विघ्न-संतोषी तत्व’ देश-विदेश में हमेशा सक्रिय रहते हैं। इसमें एक बड़ा खेमा तो स्वयं प्रधानमंत्री जी का अपना ‘राजनीतिक परिवार’ है, जिसमें उनकी पार्टी के अलावा राष्ट्रीय संघ, विहिप आदि शामिल हैं। क्या प्रधानमंत्री मोदी वर्ष 2016 में भारत-पाक रिश्तों को लेकर अपने ‘परिवार’ की दशकों की सोच को बदल पायेंगे? उनके दौरे के ऐन बाद भाजपा के महासचिव राम माधव, जिनकी संघ-पृष्ठभूमि सर्वविदित है, का भारत-पाक-बांग्लादेश पर आया विवादास्पद बयान मेरे सवाल को जायज ठहराता है। हालांकि भाजपा ने फौरन माधव के बयान को उनका निजी मंतव्य बताते हुए स्पष्टीकरण भी जारी किया। कुछ खास अंतराष्ट्रीय शक्तियों की भी भारत-पाक रिश्तों को पेंचदार बनाने में हमेशा भूमिका रही है। अत्याधुनिक हथियार बनाने वाली कंपनियों के आर्थिक हितों के लिये लाबिंग करने वाली विदेशी सरकारें और उनके शीर्ष नेताओं की भूमिका का समय-समय पर पर्दाफाश भी होता रहा है। दोनों देशों के तूफानी रिश्तों में इनकी नौकरशाही, खासकर फौज, सुरक्षा एजेंसियों और मीडिया की भी हमेशा से अहम भूमिका रही है। अभी देखिये, 25 दिसम्बर को प्रधानमंत्री का लाहौर दौरा था। लेकिन महज दो-तीन दिनों के अंदर हमारे मीडिया के एक हिस्से में माहौल पर सवाल उठाती कहानियां शुरू हो गयीं। दरअसल, हमारे यहां कम से कम आधे दर्जन अंगरेजी-हिन्दी न्यूज चैनल भारत-पाक रिश्तों में सुधार के ‘आदि-शत्रु’ बने हुए हैं। हर शाम अपनी अग्निवर्षी बहसों में ‘देश जवाब चाहता है’ का आह्वान करने वाले एक खास अंगरेजी चैनल और उसका देखा-देखी वैचारिक रूप से दरिद्र कई हिन्दी चैनल दोनों देशों के रिश्तों को ज्यादा से ज्यादा खराब करने के जुगाड़ में कुछ यूं लगे रहते हैं, मानो रिश्ते ठीक होने से उनके ‘न्यूज आवर’ या ‘प्राइम-टाइम’ का एक स्थायी मसला ही खत्म हो जायेगा। दोनों देशों के मीडिया कवरेज को ध्यान से देखने के बाद हम आसानी से समझ सकते हैं कि भारत के मुख्यधारा मीडिया के अहम हिस्से में आज भी दोनों देशों के रिश्तों को लेकर ज्यादा उग्रता है, जबकि पाकिस्तान में ऐसी उग्रता वहां के उर्दू अखबारों में ज्यादा दिखती है। 
राजनीतिक दलों के स्तर पर भी पाकिस्तान के मुकाबले भारत में इन रिश्तों को लेकर अभी तक आम-सहमति का माहौल नहीं है। प्रधानमंत्री मोदी के लाहौर दौरे को लेकर वहां के लगभग सारे प्रमुख विपक्षी दलों ने प्रधानमंत्री नवाज शरीफ का साथ दिया। मुख्य विपक्षी-पीपीपी ने भी खुलकर समर्थन किया। यह बात किसी से छुपी नहीं कि इस दौरे में निजता-अनौपचारिकता ज्यादा थी, पर इससे वहां के विपक्षी दल नवाज शरीफ से बेवजह नहीं बिदके। जबकि भारत में हालात ऐसे नहीं दिखे। मुख्य विपक्षी कांग्रेस हो या अन्य क्षेत्रीय दल, कइयों ने मोदी के लाहौर दौरे को अलग-अलग दलीलें और वजहें गिनाकर लगभग खारिज ही किया। इनमें कुछ की सैद्दांतिक वजहें हो सकती हैं पर ज्यादातर की निजी राजनीतिक वजहें थीं। प्रधानमंत्री मोदी और उनकी पार्टी का विपक्षी दलों के साथ या अतीत के सत्ताधारी दलों से ऐसे मामलों में जिस तरह का रिश्ता रहा, उसे आज तक कोई नहीं भूला है। प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी की कूटनीतिक कोशिशों के विफल हो जाने के बाद सन 2004 में सत्ता में आने के बाद प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह ने रिश्तों को जोड़ने की नये सिरे से कोशिश की। दोनो देशों के बीच सबसे पहली शिखर-मुलाकात क्यूबा के हवाना में हुई। मनमोहन सिंह और परवेज मुशर्ऱफ के बीच मुद्दों और उनके समाधान को लेकर अच्छी समझदारी बनी। इसके साथ ही कश्मीर मसले की रोशनी में मुशर्ऱफ ने अपना 4-सूत्री फार्मूला पेश किया। बात काफी आगे बढ़ी। लेकिन उस पूरे दौर में तत्कालीन विपक्षी भाजपा डा. मनमोहन सिंह की हर पहल को ध्वस्त करने में जुटी रही। राजनीतिक दबाव कुछ इस प्रकार बनाया गया कि कांग्रेस के अंदर भी एक बड़ी लाबी पार्टी आलाकमान को भरमाने में कामयाब रही कि भारत-पाक कूटनीति का मनमोहन फार्मूला देश और पार्टी के हक मे नहीं होगा। मनमोहन पाकिस्तान जाना चाहते थे पर कांग्रेस और सरकार के अंदर से ही ऐसा दबाव बनता रहा कि उनके पाक-दौरे का कार्यक्रम नहीं बन सका। उधर, मुशर्ऱफ भी लाल-मस्जिद उग्रवादी कब्जे के बाद लगातार कमजोर होते गये और इस तरह नतीजा दिये बगैर एक बड़ी संभावना का अंत हो गया। ऐसे में प्रधानमंत्री मोदी के पास सबक लेने के लिये काफी कुछ है। क्या वर्ष 2016 एक नया प्रस्थानविन्दु बनेगा? क्या मोदी घरेलू-राजनीति में अनावश्यक टकराव पैदा करने की अपनी रणनीति खत्म कर बेहतर कामकाजी माहौल बनाने की पहल करेंगे? हमारे जैसे लोकतंत्र में विदेश नीति अंततः गृह-नीति के बिल्कुल उलट नहीं हो सकती। इसलिये मोदी अगर पड़ोसियों से रिश्तों की नई इबारत लिखना चाहते हैं तो उन्हें अपनी सरकार के घरेलू एजेंडे के कुछ खास पहलुओं में भी बदलाव करना होगा। उनकी सरकार को ज्यादा लोकतांत्रिक, सहिष्णु और पूरी तरह सेक्युलर बनना होगा। क्या मोदी यह सब कर सकेंगे?  
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जनता का डाक्टर: जिसने विभेद से भरे हुए समाज का इलाज भी जरुरी समझा

 सुनील यादव  डाक्टर शब्द का का नाम आते ही एक ऐसे प्रोफेसनल व्यक्ति का अक्स उभरता है जो खुद के लिए बना हो. चिकित्सा के क्षेत्र में चिकित्सक क...