उर्मिलेश
बिहार विधानसभा चुनाव में इस बार जिस एक जुमले का सबसे अधिक प्रयोग हुआ, वह है-‘जंगलराज’। भाजपा ने इसे अपना अहम चुनाव मुद्दा बनाकर जोर-शोर से प्रचारित किया कि ‘महागठबंधन’ के जीतने का मतलब होगा-बिहार में ‘जंगलराज’ की वापसी। उसके मुताबिक नीतीश कुमार भले ही गठबंधन के मुख्यमंत्री हों, सत्ता की मुख्य शक्ति होंगे लालू प्रसाद यादव, जो जंगलराज के प्रतीक हैं।’ मीडियाकर्मियों और प्रतिपक्षी-राजनीतिज्ञों के बाद इधर कुछ लेखक-इतिहासकारों में भी लालू प्रसाद यादव और राबड़ी देवी के शासनकाल को इसी जुमले से संबोधित करने का फैशन सा चल गया है। अभी कुछ दिनों पहले इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने लालू-राबड़ी राज के लिये इस जुमले का इस्तेमाल किया। सवाल उठना लाजिमी है, जिस पैमाने या आधार पर उन्होंने उक्त कार्यकाल को ‘जंगलराज’ का विशेषण दिया, क्या वे आधार या पैमाने देश के अन्य राज्यों में मौजूद नहीं हैं, जिन्हें उन्होंने शायद ही कभी जंगलराज के रूप में संबोधित किया हो? फिर यह विशेषण सिर्फ बिहार के लिये क्यों? यह इतिहासकार की तथ्य-आधारित सोच है या मनोगत व्याख्या?
‘जंगलराज’ के विशेषण को सही और जायज ठहराने के लिये रामचंद्र गुहा ने अपने लेख में एक बहुचर्चित हत्याकांड का उल्लेख किया है। वह नृशंस हत्या थी-पटना विश्वविद्यालय की प्रोफेसर और इतिहासकार पापिया घोष की। 3 दिसम्बर,2006 को हुई इस नृशंस हत्या के लिये लिये गुहा ने लालू-राबड़ी के ‘जंगलराज’ को जिम्मेदार ठहराया। गत 17 अक्तूबर को दिल्ली सहित कई राज्यों से छपने वाले एक अखबार में उन्होंने पापिया के नामोल्लेख के बगैर महिला इतिहासकार हत्याकांड की चर्चा की है। संभवतः यही लेख कुछ अंगरेजी अखबारों में भी छपा। निस्संदेह, यह संदर्भ इतिहासकार पापिया घोष की हत्या का ही है, क्योंकि उस दौर में पापिया के अलावा किसी अन्य इतिहासकार की पटना में हत्या नहीं हुई। लेकिन गुहा जिस हत्याकांड का जिक्र कर रहे हैं, वह लालू-राबड़ी के ‘जंगलराज’ के दौरान हुआ ही नहीं। आश्चर्यजनक कि पेशेवर इतिहासकार होने के बावजूद गुहा ने सन 2006 के दौरान हुए पापिया हत्याकांड को ‘लालू-राबड़ी जंगलराज’ के दौरान हुआ बता दिया, जबकि उस वक्त नीतीश कुमार की सरकार थी! अगर यह इतिहासकार की तथ्य-पड़ताल सम्बन्धी लापरवाही नहीं तो फिर बहुत तुच्छ किस्म की बौद्धिक बेईमानी है! बेहतर होगा, गुहा इतिहास पर शोधपरक लेखन करें या क्रिकेट पर लिखें, समकालीन राजनीति पर अपनी अधकचरी समझ का कचरा न फैलायें!
अपने लेख में लब्धप्रतिष्ठ इतिहासकार ने बिहार भाजपा और तत्कालीन उपमुख्यमंत्री सुशील मोदी की भी जमकर तारीफ की है। लेख की मूल प्रस्थापना वही है, जो अपवादों को छोड़ दें तो इन दिनों आमतौर पर बिहार के सवर्ण हिन्दू, समृद्ध शहरी या गांव के सवर्ण भूस्वामी की दिखती है। रामचंद्र गुहा की तरह वे भी नीतीश और भाजपा गठबंधन जारी रहने के पैरोकार हैं। नीतीश-सुशील यानी जद(यू)-भाजपा गठबंधन न होने से आहत गुहा अपना दुख इन शब्दों में व्यक्त करते हैं, ‘मुझे बिहार के लोगों और बिहार राज्य से बहुत लगाव है, इसलिये मैं कुछ महीनों की घटनाओं को बहुत दुख से देखता रहा हूं। एक राज्य, जिसमें नीतीश कुमार-सुशील मोदी की जुगलबंदी बहुत कुछ कर सकती थी, वह उनके अलगाव का फल भुगत रहा है। सर्वेक्षण बता रहे हैं कि यह कांटे का चुनाव है। चुनाव में जो भी जीते, बिहार की जनता पहले ही हार चुकी है।’ शोकाकुल गुहा इस बात से दुखी हैं कि नीतीश ने जंगलराज की ‘अमंगल शक्तियों’ से क्यों हाथ मिला लिया! यह लेख इस बात का ठोस प्रमाण है कि एक विद्वान इतिहासकार भी तथ्य और ठोस साक्ष्यों की अवहेलना करके हमारे जैसे समाज में किस तरह जातिगत-वर्णगत पूर्वाग्रहों या पूर्वाग्रह भरी दलीलों से प्रभावित हो सकता है! यही नहीं, वह अपनी सेक्युलर सोच के उलट वर्णगत आग्रहों के दबाव में सांप्रदायिकता की सबसे प्रतिनिधि राजनीतिक शक्ति मानी जाने वाली सियासी जमातों को भी सुशासन की शाबासी दे सकता है! ऐसे लोग बंगलुरू से बलिया, पटियाला से पटना, मदुरै से मुजफ्फरपुर, नैनीताल से नालंदा और वाराणसी से वैशाली तक फैले हुए हैं। कई भाषाओं के अखबारों में छपे अपने लेख में गुहा आगे कहते हैं, ‘ अगर महागठबंधन जीतता है तो नीतीश कुमार मुख्यमंत्री होंगे। राजग ने किसी को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार नहीं बनाया है लेकिन वे जीते तो शायद अपने सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति को मुख्य़मंत्री बनायेंगे। लेकिन नीतीश कुमार और सुशील मोदी मिलकर जो कर सकते थे, वह अकेले-अकेले नहीं कर सकते।’(‘जनता पहले ही हार चुकी है’,‘हिन्दुस्तान’,17अक्तूबर,2015)। बिहार में भी एक तबका कह रहा है कि नीतीश अच्छे हैं पर उन्होंने लालू(या ललुवा!) से क्यों हाथ मिलाया? दरअसल, ये वहीं वर्ग हैं, जो हर हालत में भाजपा के जरिये बिहार की सत्ता पर अपना वर्चस्व बरकरार रखना चाहते हैं। उन्हें लग रहा है कि नीतीश-लालू गठबंधन के फिर से सत्ता में आने पर उनका वह वर्चस्व कायम नहीं रहेगा। वह अपने प्रभाव की ऐसी सरकार चाहते हैं जो शंकरबिघा, बथानी टोला और लक्ष्मणपुर बाथे जैसे नृशंस हत्याकांडों के लिये जिम्मेदार रणवीर सेना और उसके आकाओं को लगातार माफ करती-कराती रहे। वह ऐसी सरकार चाहते हैं, जिसके तहत भूमि सुधार की कोई भी सार्थक कोशिश कामयाब न हो सके। क्या गुहा को नहीं मालूम कि बिहार में सुशील मोदी की अगुवाई वाली भाजपा के मंत्रियों और उनसे अनुप्रेरित कुछ अफसरों के कुचक्र और दबाव के चलते ही नीतीश सरकार राज्य के तीन बड़े मामलों में ठोस फैसला नहीं ले सकी? यह तीन मामले थे-1. अमीरदास आयोग, जो शंकरबिघा, लक्ष्मणपुर बाथे और बथानी टोली जैसे नृशंस हत्याकाडों की पृष्ठभूमि मे रणवीर सेना के साथ राजनीतिज्ञों की मिलीभगत आदि की जांच के लिये पूर्ववर्ती राबड़ी देवी सरकार द्वारा गठित किया गया था 2. भूमि सुधार के लिये स्वयं नीतीश सरकार द्वारा गठित डी बंदोपाध्याय कमेटी की सिफारिशों पर अमल का मामला 3. शिक्षा में सुधार के लिये मुचकुंद दुबे कमेटी की रिपोर्ट की सिफारिशें लागू करना। यह तीनों काम नहीं हो सके। हमारी जानकारी है कि इन तीनों मामलों में भाजपा के कई दबंग मंत्रियों ने सरकारी फैसले को रोका और उसमें सुशील मोदी स्वयं भी शामिल थे। जद(यू) के कुछ मंत्रियों-विधायकों का भी इस लाबी को समर्थन मिला। नीतीश कमजोर पड़ गये और यह तीनों काम नहीं हो सके, जो बिहार का भाग्य बदल सकते थे। इसके पहले लालू के पहले कार्यकाल में भी भूमि-सुधार जैसे मुद्दे पर ज्यादा कुछ नहीं हुआ। उस सरकार को भी भूस्वामियों की मजबूत लाबी से समझौता करना पड़ा था। ऐसे मामलों में भाजपा के विरोध की वजह जानना राकेट साइंस की गुत्थी जानने जैसा नहीं है। बिहार में अब सवर्ण समुदायों, खासकर भूस्वामियों और समृद्ध लोगों की नुमायंदगी भाजपा ही कर रही है। उसने 90 के बाद बड़ी चतुराई से कांग्रेस से उसका यह स्थान छीन लिया। ऐसी स्थिति में क्या रामचंद्र गुहा अपने लेख में वर्चस्वादी वर्ग की आवाज नहीं बनते दिख रहे हैं?
अंत में फिर ‘जंगलराज’ के जुमले की तरफ लौटते हैं। यह सही है कि लालू-राबड़ी राज के कुछ बरस प्रशासनिक स्तर पर बहुत बुरे थे। लेकिन एक सच यह भी है कि सन 1990-94 के बीच लालू सरकार ने दलित-पिछड़ों-आदिवासियों(झारखंड तब बिहार का हिस्सा था) में गजब का भरोसा पैदा किया। सामंती उत्पीड़न में कमी आई। उन्हें खेतीयोग्य जमीन नहीं मिली, आर्थिक तौर पर भी कोई बड़ी मदद नहीं मिली। लेकिन एक भरोसा मिला कि पहले की कांग्रेसी सरकारों से यह कुछ अलग किस्म की सरकार है। उन्होंने अपने को ‘इम्पावर्ड’ महसूस किया। अल्पसंख्यक समुदाय ने भी बेहतर माहौल का एहसास किया। राज्य सरकार, प्रशासनिक निकायों, जिला बोर्डों, निगमों, ठेकों, शिक्षण संस्थानों और अन्य इकाइयों में दलित-पिछड़ों-अल्पसंख्यकों की नुमायंदगी बढ़ी। ‘दिग्विजयी रामरथ’ पर सवार देश भर में घूम रहे लालकृष्ण आडवाणी जब बिहार पहुंचे तो लालू ने उन्हें यह कहते हुए गिरफ्तार कर लिया कि यह ‘दंगा-रथ’ है, सांप्रदायिक सद्भाव के हक में इसे रोका गया। इस तरह के कुछ बड़े सकारात्मक कदम तो उठे। लेकिन समावेशी विकास, आधारभूत संरचनात्मक निर्माण और बदलाव के बड़े एजेंडे नहीं लिये गये। इसके बावजूद लोग खुश थे। सन 1995 के चुनाव में लालू को मिले प्रचंड बहुमत का यही राज था। दूसरे कार्यकाल में सरकार से लोगों की ठोस आर्थिक अपेक्षायें बढ़ीं। इस दिशा में जो कदम जरूरी थे, वे भी नहीं उठाये जा सके। लालू के जेल जाने के बाद उनकी पत्नी राबड़ी देवी, जिनके पास राजनीति या प्रशासन में एक दिन का भी अनुभव नहीं था, मुख्यमंत्री बनीं और इस तरह सत्ता की चाबी लालू के दो सालों और पसंदीदा अफसरों के पास आ गयी। उत्पात और खुराफात की शुरुआत यहीं से हुई। प्रशासनिक भ्रष्टाचार और अपराध में बढ़ोत्तरी हुई। उनके दोनों सालों ने अंधेरगर्दी मचा दी। लेकिन यह कहना कि शाम ढलते ही पटना या बिहार के अन्य़ शहरों में लोगों का आवागमन ठप्प हो जाता था या कि दूकानों में आये दिन सामानों की लूट होती रहती थी या कि किसी लड़की को कहीं से भी उठा लिया जाता था, अतिशयोक्तिपूर्ण है और इस तरह की बातें सिर्फ कुछ वर्ग-वर्ण विशेष के निहित-स्वार्थी तत्व ही कहते हैं। बिहार अपराध-मुक्त पहले भी नहीं था। आज भी नहीं है। लेकिन एकेडेमिक्स, शीर्ष अफसरशाही और मीडिया में प्रभावी खास लोगों के सहयोग से ‘जंगलराज’ का जुमला देखते-देखते राष्ट्रव्यापी प्रचार पा गया। आज महाराष्ट्र, कर्नाटक, हरियाणा, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ या यूपी में लेखकों से लेकर आम लोगों की निशानदेही के साथ हत्याएं या उन पर हमले हो रहे हैं। क्या इनके प्रशासन को भी ‘जंगलराज’ कहा जा रहा है? बिहार के दूसरे प्रीमियर और पहले मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह के राज में तो दलित-पिछड़ों को ठीक से जीने और अपने को व्यक्त करने की भी आजादी नहीं थी। सियासत और सरकार में इन वर्गों की नुमायंदगी नगण्य थी। जातिवाद और भ्रष्टाचार का इस कदर बोलबाला था कि तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष अबुल कलाम आजाद को अपनी ही पार्टी की सरकार और उसके प्रीमियर श्रीकृष्ण सिंह के खिलाफ गांधी-नेहरू-राजेंद्र प्रसाद को रिपोर्ट सौंपनी पड़ी थी। जुल्मोसितम के बारे में पुराने शाहाबाद के ‘आयरकांड’ की कहानी रोंगटे खड़ी करती है। बाद के दिनों के कांग्रेसी शासन में रूपसपुर चंदवा, अरवल और दनवारबिहटा जैसे असंख्य दलित-आदिवासी हत्याकांड सिलसिला बन गये। हर साल चार-पांच बड़े हत्याकांड होते थे। पर मीडिया और एकेडेमिक्स के बड़े पंडित उस काल को बिहार का ‘स्वर्णराज’ या ‘स्वर्णकाल’ कहते हैं। अब इसे क्या कहेंगे? इतिहासकार इन बातों को समझें या ना समझें, आम लोग समझते हैं। बिहार में इस वक्त एक इतिहास बनता नजर आ रहा है। हम सबको बिहार के आम लोगों के विवेक पर भरोसा करना चाहिये, जिन्होंने वक्त-बेवक्त देश को हमेशा रास्ता दिखाया है----‘बिहार शोज द वे!’
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28अक्तूबर,2015
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