Friday 28 September 2018

भारत विभाजन साम्प्रदायिकताऔर हिंदी उपन्यास


अरविंद यादव


        विभाजन धर्म को आधार बनाकर हुआ था इस विभाजन के साथ साम्प्रदायिकता का जो उभार शुरू हुआ वह स्वतंत्रता के बाद के समाज को व्यापक रूप से अपने चपेट में लेता है। सत्ता प्राप्ति के लिए राजनीति धर्म को साम्प्रदायिक रंग में रंग देती है। इसका सीधा प्रभाव समाज पर देखने को मिलता है। जिसकी शुरूआत भारत विभाजन से बंगाल नोवाखली से होती हुऐ आज तक जारी है साम्प्रदायिक समस्याओं तथा विभाजन को केन्द्र में रखकर भारत और पाकिस्तान दोनों जगह के रचनाकारों ने विभाजन से उत्पन्न विस्थापन और हिंसा से पैदा दुखों को अभिव्यकत दी है। हिन्दी साहित्य में विशेषतः उपन्यास में इस साम्प्रदायिक समस्या तथा विभाजन के दर्द को सामाजिक चेतना तथा व्यक्ति की मनोदशा को पूर्ण गहराई के साथ व्यक्त किया गया ‘‘ये उपन्यास विभाजन की राजनीति का तीव्र विरोध करते है। और स्पष्ट कर देते है कि देश की जनता ने इस देश का विभाजन स्वीकार नहीं किया विभाजन की स्वीकृति कांग्रेस और मुस्लिम लीग की उच्च स्तरीय बैठक तक ही सीमित रह गयी, लेकिन इस स्वीकृति का सबसे बड़ा मूल्य देश की जनता को चुकाना पड़ा जो पाकिस्तान का अर्थ बिल्कुल नहीं समझाती थी।’’1
          हिन्दी उपन्यासकारों ने उन शक्तियों के निजी स्वार्थों को उद्घाटित किया जो देश के विकास में बाधा डालती है तथा उनके उस चरित्र की शिनाख्ख्त की जो साम्प्रदायिकता का बीच बोकर दंगा करवाती है। साम्प्रदायिकता से जो तबका सबसे अधिक प्रभावित होता है उपन्यास को उसी तबके जीवन का महाकाव्य कहा गया है। इसीलिए साम्प्रदायिकता तथा भारत विभाजन से संबंधित उपन्यासों की हिन्दी में एक लम्बी परम्परा रही है ‘‘उपन्यास की चेतना, पूँजीवादी समाज रचना के उल्लास भरे व्यक्ति के सामाजिक संबंधों और उसके संघर्षों से निर्मित हुई है।’’2
          ‘‘पूँजीवादी सभ्यता में यथार्थ के जो नये-नये आयाम और भौतिकवादी चिन्तक मूल्य प्रश्न बन कर उभरे है, उन्हें व्यक्त करने में उपन्यास जैसी यथार्थवादी विधा ही कारगर हो सकती है। जब हम कहते है कि उपन्यास आधुनिक युग का महाकाव्य है तो इसका अर्थ यह होता है कि जैसे महाकाव्यों में जगत जीवन की विराटता अपने समस्त वैविध्य गहरे भाव बोध विशिष्ठ दर्शन मानव मूल्य और प्रश्नों के साथ अंकित होता है। उसी प्रकार उपन्यास में भी।’’3 लेकिन आज के जीवन की समस्त जटिलता यथार्थ के विविध सूक्ष्म आयाम दैनिक जीवन के सामान्य से दिखने वाले व्यापार नये परिवेश महाकाव्यों में नहीं व्यक्त हो सकते, इसको व्यक्त करने के लिए उपन्यास की जरूरत पड़ती है। समाज का उपन्यास के साथ रिश्ता उपरोक्त सूत्रों से अन्र्तगुंफित दिखाई देता है।
          भारत विभाजन तथा साम्प्रदायिक दंगो की अमानवीय त्रासदी को व्यक्त करने वाले प्रथम उपन्यासकार देवेन्द्र सत्यार्थी थे। उन्होंने अपने उपन्यास कठपुतली (1974) में भारत से पाकिस्तान जाने वाले तथा पाकिस्तान से भारत आने वाले काफिलो का बड़ा मार्मिक चित्रण किया है। साम्प्रदायिक दंगो का संवेदना पूर्ण अंकन इस उपन्यास में हुआ है। सत्यार्थी के बाद यशपाल का झूठा सच’ (1958) आता है। यशपाल ने इस उपन्यास में विभाजन के उपरान्त त्रासदी और भय को बड़े ही सलीके से प्रस्तुत किया है। गोपाल राय लिखते है कि ‘‘मुस्लिम लीग और सिखा नेताओं के भड़काऊ भाषण और बहुसंख्यक मुस्लिम समाज के आक्रमण तेवरों की छाया में लाहौर के गली-कूचों में कुलबुलाती दहशत की मानसिकता में घुटती अल्पसंख्यकों की जिन्दगी का ऐसा यथार्थ और जीवंत अंकन इससे पूर्व किसी उपन्यास में नहीं हुआ।’’4 विभाजन के बाद विस्थापितों की समस्या को उठाते हुए यशपाल विभाजन के मूल में आर्थिक और राजनीतिक स्वार्थों तथा रक्तरंजित साजिशों की भी शिनाख्त करते है। सदुर्शन मल्होत्रा लिखते है कि ‘‘पंजाबी हिन्दुओं तथा मुस्लिम परिवारों के रहन-सहन तथा उसके सामाजिक जीवन के चित्र नेत्रों के समक्ष घूम जाते हैं। यशपाल की पैनी दृष्टि से कोई वस्तु नहीं छूट सकी है।’’5
          झूठा सचके बाद कमलंश्वर का लौटे हुऐ मुसाफिर’ (1961) आता है। यह उपन्यास विभाजन के फलस्वरूप उत्पन्न साम्प्रदायिक दंगों को तो चित्रित करता है, साथ ही साथ मुसलमानों के उस मोह भंग का भी चित्रण करता है जिसमें पाकिस्तान के नाम पर छले गये।
          भीष्म साहनी एक ऐसे कथाकार है जिन्होंने विभाजन का दर्द सहा था, उनका उपन्यास तमस’ (1973) उनके इस भोगे हुए दर्द के अनुभवों को व्यक्त करता है तमस उस अंधकार का द्योतक है जो आदमी की आदमीय और संवेदना को ढक लेता है और उसे हैवान बना देता है। भीष्म साहनी ने उन स्थितियों और कारणों के विश्लेषण का प्रयत्न किया जो देश के विभाजन और साम्प्रदायिकता के मूल में थे।’’6 विभाजन और साम्प्रदायिकता के कारणों की शिनाख्त करते हुए साहनी इतिहास के उन पन्नों तक जाते है, जिसमें ब्रिटिश फूट डालो राज करो की नीति स्पष्ट रूप से अंकित है ब्रिटिश नीति के उपरान्त मुस्लिम लीग के द्विराष्ट्रीयता के सिद्धांत तथा भारत विभाजन तक साहनी पहुंचते है।
          भारत विभाजन के उपरान्त हुए दंगो ने भारतीय मुसलमानों को कार्ड स्तरों पर प्रभावित किया। अनेक उपन्यासकारों ने इसका अंकन किया। राही मासूम रज़ा ने आधा गाँव (1966) टोपी शुक्ला (1969) हिम्मत जौनपुरी (1969) ओस की बूँद (1970) दिल एक सादा कागज (1973) असंतोष के दिन (1986) आदि उपन्यासों में राही ने मुस्लिम सामाजिक परिवेश किसान मजदूर तथा जमीन के सवाल की समस्या तथा इसके पीछे काम कर रही धर्म के रंग में रंगी राजनीति, भारत में मुसलमानों की अस्मिता का सवाल आदि चीजों को गंभीरता से उठाते है।
          ‘‘आधा गाँव के केन्द्र में भी शिया सैयदो का सामंती कुलीन तंत्र ही है लेकिन मुस्लिम जमींदारों की कुलीनता के छदम को जिस अंतरंगता व नैतिक साहस के साथ राही मासूम रजा ने इस उपन्यास आधा गाँवमें विभाजन साम्प्रदायिकता और मुस्लिम अस्मिता के प्रश्न को उसकी सम्पूर्ण संशलिष्टता में कथात्मक बनाया गया है।’’7
          देश विभाजन के बाद पूर्वी बंगाल और बिहार से पाकिस्तान गये मुसलमानों को बंगाली व बिहारी कहकर उनमें जो भेद किया गया, उससे उनमें पाकिस्तान के प्रति मोहभंग हो गया तो भारत में अपने संबंधियों से मिलने के लिए तड़पते है छटपटाते है पर कानून उन्हें लौटने की इजाजत नहीं देता।
          मुस्लिम जीवन का गम्भीर अंकन करते हुए शानी का काला जलआता है। जिसमें निम्न मध्यम वर्गीय मुस्लिम समाज का प्रमाणिक दस्तोवज प्रस्तुत करते हुए मुसलमानों की मानसिकता, निजी जीवन तथा संस्कृति का उद्घाटन वे करते है।
          मंजूर एहतेशाम ने सूखा बरगदमें ये दिखाने की कोशिश की कि विभाजन के बाद भारतीय मुसलमानों में क्या बदलाव आये, इस देश में धर्म किस तरह सामाजिक संबंधों के बीच दराद पैदा कर देता है। इन सारे सवालो को एहतेशाम अपने उपन्यास में उठाते है।
          नासिरा शर्मा का जिन्दा मुहावरे’ (1993) ‘‘विभाजन के बाद भारत में रह रहे मुसलमानों के प्रति बहुसंख्यक समाज में अविश्वास का माहौल बनने और उनकी वतन परस्ती के प्रति संदेह करने का चित्रण हुआ है।’’8  इनका दूसरा उपन्यास ठीकरे की मँगनीमुस्लिम सामाजिक समस्याओं व रीति रिवाज से जुड़ा है।
          अब्दुल बिस्मिल्ला के उपन्यास झीनी झीनी बीनी चदरियामें बुनकरों के अभाव ग्रस्त व नारकीय जिंदगी को उसके समस्त भयावहता के साथ प्रस्तुत किया गया है। मुस्लिम समाज में फैली तमाम कुरीतियों अन्धविश्वासों तथा मजहबी कट्टरपन और साम्प्रदायिक सोच को भी दिखाया गया है, उनके दूसरे उपन्यास मुखड़ा क्या देखें’ (1996) में दलित मुस्लिम समाज के यथार्थ के साथ ही गांव में हो रहे परिवर्तनों विशेषकर साम्प्रदायिकता पर चिन्ता व्यक्त की गयी है।
          साम्प्रदायिक द्वेष तथा उससे उत्पन्न होने वाले दंगो का सचित्र चित्रण विभूति नारायण राय के उपन्यास शहर में कफ्र्यू’ (1986) में हुआ है, इसमें दंगे करवाने वाली राजनीतिक ताकतों तथा उसमें पुलिस प्रशासन एवं मीडिया की भूमिका की शिनाख्त करते हुए ये दिखाया गया है कि दंगो से प्रभावित वही जनता होती है जिसके सर पर न छत है न खाने को रोटी।
          साम्प्रदायिक संदर्भ वाले उपन्यासों की एक लम्बी सूची सदी के अन्तिम दशक में प्राप्त होती है। भगवान दास मोरवाल के काला पहाणउपन्यास में मोरवाल ने ये दिखाने की कोशिश की है कि किस प्रकार सीधी-सीधी जनता के बीच अकवाह फैलाकर उनके भीतर अविश्वास आंतक तथा भय पैदा किया जाता है। इसमें धर्म की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। जनता का धार्मिक जुनून जिसका उपयोग राजनीति अपने हित के लिए करती है, साम्प्रदायिक दंगो में बदल जाता है। बाबरी विध्वंश के बाद हुए दंगे अल्पसंख्यक हिन्दुओं का पलायन इस उपन्यास में फैला हुआ है।
          प्रियंवद का उपन्यास वे वहाँ कैद है’ (1994) फाँसीवादी उभार और साम्प्रदायिक सोच के पीछे काम करने वाली शक्तियों की शिनाख्त करता है। संवेदना प्रियंवद की ताकत है, जिसमें वैचारिक तटस्थता ईमानदारी और संवेदना शीलता व्यक्त होती है। बाबरी मस्जिद विघ्वंश के बाद ‘‘हिन्दुत्ववादी राजनीति जिस प्रकार त्रिसूल में तब्दील हो गयी थी, और आंतक के टुकड़े तान-तान कर हवा में फेके जा रहे थे, कोई भी संवेदनशील लेखक उससे अलक्षित नहीं रह सकता। प्रियवंद ने इस दौरान हताहत भारतीय मन को इस उपन्यास को माध्सम से अभिव्यक्ति दी।9 वे हिन्दूवादी साम्प्रदायिक राजनीति का उभार ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में भारतीय समाज को रखकर इस उपन्यास में एक विमर्श रचते है।
          गीतांजलि श्री का उपन्यास हमारा शहर उस बरस’ (1998) भी प्रियवंद के इसी उपन्यास के प्रकृति की रचना है। इसमें प्रियवंद के उपन्यास का प्रभाव देखा जा सकता है। अलका सरावगी का उपन्यास कलिकथा वाया बाईपास’ (1998) में सभ्यता समीक्षा जैसी कड़ी चुनौती को स्वीकार किया गया है। हमारा शहर उस बरसकी तरह ये उपन्यास भी कई बहसों और विमर्शों को जन्म देता है।
          भगवान सिंह का उपन्यास उन्माद’ (1999) साम्प्रदायिक उन्माद के चरित्र का उद्घाटन करता है। यह उपन्यास अपने पूर्ववर्ती साम्प्रदायिकता की समस्या पर लिखे गये उपन्यासों से साम्प्रदायिकताऔर फाँसीवाद को लेकर नितान्त भिन्न प्रकृति और दृष्टिकोण अपनाता है। भगवान सिंह साम्प्रदायिकता को निश्चित सामाजिक व राजनीतिक दृष्टिकोण का परिणाम न मानकर इसे मनोविकार व दमित व्यक्तित्व की विकृत परिणातियों के रूप में प्रस्तुत करते है।’’10
          मुर्शरफ आलम ज़ौकी का बयान’ (1998) महत्वपूर्ण उपन्यास है। भारतीय समाज में मुसलमानों की दशा व अस्मिता के सवाल, बाबरी विध्वंश के बाद भाजपा जैसी हिन्दुत्ववादी पार्टी के उभार के साथ मुसलमानों के भय को उपन्यासकार अपने समय की राजनीतिक स्थितियों में बहुत सच्चाई के साथ चित्रित करता है। इस उपन्यास का एक महत्वपूर्ण पक्ष यह भी है कि हिन्दू-मुस्लिम साझी संस्कृति, तहजीब तथा भाषा का जो रिश्ता कई सौ वर्षों से चला आ रहा था। उसे साम्प्रदायिकतावादी ताकतों ने अपने हित के लिए किस तरह से छिन्न-भिन्न कर दिया। बाल मुकुन्द शर्मा जोश और बरकत हुसैन इसी साझी संस्कृति और परम्परा के दो नाम है जो इस उपन्यास में नष्ट होते दिखाई देते है। ज़ौकी के साम्प्रदायिकता से जुड़े अन्य उपन्यासों में मुसलमानों’ ‘शहर चुप हैऔर नीलामघरप्रमुख है।
          कमलेश्वर का उपन्यास कितने पाकिस्तान’ (2000) एक सभ्यता समीक्षा का  उपन्यास है। पाकिस्तान यहाँ सिर्फ एक प्रतीक है, जिसका जन्म लाखों लोगों की बली देने के उपरान्त और लाखों को अपनी जमीन ये जुदा करने की तर्ज पर हुआ था। कितने पाकिस्तान में कमलेश्वर पूरे विश्व के इतिहास की समीक्षा करते हुए दिखाने की कोशिश करते है, कि पाकिस्तान बनने की कब-कब नौबत आयी और धर्म एवं इतिहास की बलत व्याख्या करके मानवता को कुचलने की कोशिश की गयी है। आज के समय में हर जगह बारूद ही बारूद है, कब कोई एक तीली जला दे और मुल्क जल उठे। यह निश्चित नहीं है इसलिए हर समय व्यक्ति भय आतंक व घुटन का शिकार है-
          ‘‘इन बंद कमरों में साँस घुटी जाती है
          खिड़किया खेलता हूँ तो जहरीली हवा आती है।’’11
दूधनाथ सिंह का उपन्यास आचारी कलाम’ (2000) जो बाबरी विध्वंश पृष्ठभूमि पर आधारित है ‘‘साम्प्रदायिकता और धर्म निरपेक्षता जैसे जटिल मुद्दों को समझने का यह एक नया परिप्रेक्ष्य भी है। 6 दिसम्बर 1992 की घटनाओं के केन्द्र में यह औपन्यासिक आख्यान भारतीय समाज के पार्टीशन की उन जड़ो तक पहुँचने की कोशिश है, जिसे धर्म निरपेक्षाता के फार्मूले से पाटे जाने की जितनी कोशिश होती रही है, उतना ही तो बढ़ता गया है। यह उपन्यास धर्म निरपेक्षता का ही नहीं बल्कि नहीं का भी क्रिटीक रचता है।’’12
          असगर वज़ाहत का उपन्यास कैसी आगी लगाई’ (2004) जीवन की विशद् व्याख्या है। उनके उपन्यास सात आसमानमें अगर मुस्लिम सामाजिक अन्तर्विरोध देखने को मिलते है। तो कैसी आगी लगाई उस सामाजिक अन्तर्विरोध से जन्मा वैचारिक संघर्ष भी पैदा करता है। इसमें साम्प्रदायिकता, छात्र जीवन, स्वतंत्रोतर राजनीति, सामन्तवाद, वामपंथी रानीति छोटे शहरों का जीवन तथा महानगरों, की आपा-धापी को बखूबी उभारा गया है।
          इस प्रकार स्वतंत्रता के बाद साम्प्रदायिक संदर्भ वाले उपन्यासों की एक लम्बी परम्परा देखने को मिलती है। जिसमें उपन्यासकारों ने अपने दृष्टिकोण से साम्प्रदायिक राजनैतिक ताकतों धर्म के ठेकेदारों के साथ-साथ दंगो से प्रभावित होने वाली जनता का चित्रण भारतीय परिप्रेक्ष्य में किया है।
संदर्भ सूची -
1.  हरियश-भारत विभाजन और हिन्दी उपन्यास पृ. सं. 339
2. सं. जैन नेमिचंद्र-मुक्तिबोध रचनावली खण्ड-5, पृ. सं. 369
3. रामदरस मिश्र, हिन्दी उपन्यास एक अन्र्तयात्रा, पृ. सं. 13
4. राय गोपाल, हिदी उपन्यास का इतिहास, पृ. सं. 33
5. महोत्रा सुदर्शन, यशपाल के उपन्यासों का मूल्यांकन पृ. सं. 188
6. यादव वीरन्द्र, उपन्यास और वर्चस्व की सत्ता, पृ. सं.75
7. यादव वीरन्द्र, उपन्यास और वर्चस्व की सत्ता, पृ. सं.75
8. राय गोपाल, हिदी उपन्यास का इतिहास, पृ. सं. 435
9. सं. श्रीवास्तव परमानन्द, आलोचना अंक अप्रैल- जून, 2000 पृ. सं. 239
10. यादव वीरन्द्र, उपन्यास और वर्चस्व की सत्ता, पृ. सं.75
11. कमलेश्वर, कितने पाकिस्तान की भूमिका से
12. यादव वीरन्द्र, उपन्यास और वर्चस्व की सत्ता, पृ. सं.212
                                                                                  
Email-yadavarvind021@gmail.com

2 comments:

  1. भारत पकिस्तान का विभाजन कोई अच्छी घटना नहीं थी एक तरफ जहाँ भारत को आज़ादी मिल रही थी वो भी पुरे २०० सालों की गुलामी के बाद , तो वहीँ उसी भारत के टुकड़े हो रहे थे जो अनंत काल से एक अखंड देश के रूप में सदियों से एक जुट रूप में रहता चला आ रहा था , इस मूवी को देखने के बाद आपके समझ में आएगा की आखिर वास्तव में वो कौन सा शख्स था जिसकी वजह से भारत पाकिस्तान विभाजन हुआ !!!
    पूरी मूवी देखने के लिए दिए हुए लिंक पर क्लिक करें :- Partition of India

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  2. अच्छा लिखा है आपने...हालाँकि कुछ उपन्यास छोड़ दिये हैं

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