सुनील यादव
यह
जातियों के राजनीतिकरण का ही परिणाम है कि किसी प्रदेश में होने वाले चुनाव से
पहले वहाँ के जातीय समीकरण के अनुसार केंद्र में मंत्रीयों का चयन हो जाता है ।
रजनी कोठारी ने कहा था कि ''जिसे राजनीति में जातिवाद कहा जाता
है वह मूलतः जातियों का राजनीतिकरण है ।'' सबसे ज्यादा 'जातिवादी राजनीति' का रोना रोने वाले लोग यह कभी
नहीं चाहते थे कि जातियों का राजनीतिकरण हो ....क्योंकि जब जातियों का राजनीतिकरण
नहीं हुआ था उस दौर में पिछड़े और दलितों के 300 घरों वाले गाँव में सिर्फ एक घर
सवर्ण कितनी बार मुखिया बनता रहा .....यही स्थिति कमोवेश एमपी और एमएलए के चुनावों
में भी रहती थी।....यह ध्यान रहे जातियों के राजनीतिकरण ने ही मुट्ठी भर
वर्चस्वशाली जातियों के एकाधिकार को तोड़ा और इस लोकतन्त्र में आम जनता की सक्रिय
भागीदारी हुई .......भारत में 90 प्रतिशत सवर्ण अपनी दोनों सवर्णवादी पार्टियों से
जुड़े रहे/जुड़े हैं और तब तक राजनीति में जातिवाद नहीं था जब तक दलित पिछड़ो की
राजनीतिक हिस्सेदारी नहीं थी। पर जैसे ही
दलित पिछड़ो में राजनीतिक समझदारी आयी उन्होने इस देश की लोकतान्त्रिक प्रक्रिया
में अपनी उपस्थिती दर्ज कराई वैसे ही एक नया मुहावारा वर्चस्वशाली समूहों ने उछाला
'जातिवादी राजनीति'॥ यह मुहावरा मीडिया
में बैठे उन तमाम सवर्णों का है जिन्हे जातिवार जनगणना से जातिवाद बढ़ने का सातिराना
खतरा नजर आता है। यह मुहावरा उन्ही सवर्ण मीडिया वालों का है जिन्हे 90 प्रतिशत सवर्ण
वोट लेकर लोकसभा चुनाव जीतने वाली भाजपा जातिवादी पार्टी नजर नहीं आती।
दरअसल ...जातियों के राजनीतिकरण के बाद जो पिछड़ा
और दलित नेतृत्व उभरा उसमें से अधिकांश की समझदारी मानसिक गुलामी वाली थी। कुछ को छोड़
दें तो अधिकांश ने जिस वैचारिक एजेंडे पर अपनी राजनीति शुरू की थी उसी का गला घोटते
नजर आए। जैसा की वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश कहते हैं कि ‘इन दलित, पिछड़े
नेतृत्व ने कभी अपने समाज के पढे लिखे लोगों को महत्व नहीं दिया।’ यह कोई मामूली बात नहीं है यह एक भयानक किस्म का सच है जो अपने इतिहास को दोहरा रहा है। वह इतिहास
जिसमें संत साहित्य के क्रांतिकारी सामाजिक विचारों और न्याय की लड़ाई को तुलसीदास जैसे
ब्राह्मण कवियों ने पूरी तरह खत्म कर देने कि कोशिश की। आज यही हो रहा है सामाजिक न्याय
की मसीहाई का दावा करने वाली अधिकांश पार्टियों ने अपने करीब एक सवर्ण अल्पजन की इस
तरह की जमात खड़ी कर ली है जो अपने सुझाओ से
इन पार्टियों को खत्म करने पर तुले हुए हैं। ये सवर्ण अल्पजन ही इन पिछड़े दलित नेताओं
को सबसे बड़े वैचारिक साझेदार हैं। उर्मिलेश जी इसी बात को इस ढंग से कहते हैं कि ‘जब कभी पढ़े-लिखों से वे कभी किसी वजह से 'निकटता या
सहजता' महसूस करते हैं तो वे सिफ॓ उच्चवणी॓य पृष्ठभूमि वाले
होते हैं. पिछडो़-दलितों में वे सिफ॓ अपने लिये कुछ बाहुबली, धनबली अफसरान-इंजीनियर-ठेकेदार, अदना पुलिस वाला,
प्रापटी॓ डीलर, तमाम चेले-चपाटी, चापलूस, फरेबी बाबा या जाहिल खोजते हैं. मजबूरी में
कभी रणनीतिकार, विचारक, धन-प्रबंधक,
मीडिया मैनेजर या सम्मान देने के लिये किसी को खोजना होता है तो ऐसे
लोगों को वे सिफ॓ सवण॓ समुदायों से ही चुनते हैं. थोड़ा भी संदेह हो तो लिस्ट
उठाकर देख लें. जहां तक पढ़ने-लिखने वालों से निकटता बनाने में रूचि रखने वाले
दलित-पिछड़े समुदाय के नेताओं का सवाल है, ऐसे नेताओं में जो
कुछ प्रमुख नाम मुझे याद आ रहे हैं वे हैं: भूपेंद्र नारायण मंडल, अन्नादुराई, कपू॓री ठाकुर, चंद्रजीत
यादव, देवराज अस॓, कांशीराम, वी एस अच्युतानंदन और शरद यादव भी औरों के मुकाबले बेहतर
हैं. वे पढ़ने लिखने वालों से नजदीकी बनाये रखने की कोशिश करते हैं.’