Sunday 28 February 2016

वे जेएनयू से क्यों डरते हैं!



उर्मिलेश

जिस पार्क में मैं सुबह की सैर के लिये जाता हूं, उसमें आसपास के कई अपार्टमेंट्स के लोग आते हैं। इनमें कुछ मुझे एक पत्रकार के रूप में जानने-पहचाने वाले भी होते हैं। पर उनमें ऐसे बहुत कम होंगे, जिन्हें मालूम होगा कि मैं जेएनयू का पूर्व छात्र हूं। जेएनयू छात्रसंघ अध्यक्ष कन्हैया कुमार की गिरफ्तारी के तीन-चार दिनों बाद पार्क में खासे मोटे और तोंदियल दिख रहे दो लोगों ने नमस्कार किया और पूछने लगे, आप तो पत्रकार हैं, टीवी पर अक्सर बहस में दिखते रहते हैं, ये बताइय़े कि सरकार जेएनयू को बंद क्यों नहीं कराती, वहां खुलेआम पाकिस्तान-समर्थन और कश्मीर-आजादी के नारे लग रहे हैं, हाफिज सईद जेएनयू वालों को पैसे भेज रहा है, वहां के ज्यादातर लड़के-लड़कियां शराबी-चरसी होते हैं, ऐसे में इसे चलने ही क्यों दिया जा रहा है, इसे बंद क्यों नहीं किया जा रहा है? स्वामी जी ने बिल्कुल सही कहा कि जेएनयू को चार महीने के लिये बंद करो, फिर शुद्धीकरण करो और जरूरत पड़ने पर बीएसएफ तैनात करो, तब इसका भारतीयकरण होगा! आप लोग मोदी जी या स्मृति जी से यह सवाल क्यों नहीं पूछते?’ गनीमत थी कि उस वक्त तक अलवर के भाजपा विधायक ज्ञानदेव आहूजा का वह बयान नहीं आया था, जिसमें माननीय विधायक ने दावा कि जेएनयू में रोजाना शराब की 2 हजार बोतलें, मांस खाने से निकले 50 हजार हड्डी के टुकड़े, 10 हजार सिगरेट टुकड़े और 3 हजार प्रयोग हो चुके कंडोम्स पाये जाते हैं। ज्ञानदेव जी (की गिनती क्या चमत्कारिक है!) जेएनयू के चरित्र और स्वरूप पर ढेर सारी रोशनी डाल चुके हैं। शासन, संघ या सत्ताधारी पार्टी के नेतृत्व ने इनमें किसी को इस तरह के बयान देने से रोका नहीं।  
आखिर सरकार, संघ-परिवार और उसके समर्थकों की ताकतवर टीमें जेएनयू के पीछे इस कदर हाथ धोकर क्यों पड़ी हैं? क्या वे अपने देश में कुछ भी श्रेष्ठ नहीं देखना चाहते! पूरी दुनिया की नजरों में समाज विज्ञान और अंतरराष्ट्रीय अध्ययन के मामले में यह भारत का सर्वाधिक प्रतिष्ठित शोध-अध्ययन संस्थान है। नियोम चोम्स्की और नोबेल-विजेता यूरोप-अमेरिका के कई विद्वान जेएनयू को बचाने का आह्वान कर चुके हैं। वे मोदी सरकार के रवैये पर चकित और क्षुब्ध हैं। अंतरराष्ट्रीय स्तर के ऐसे बड़े विद्वानों के साझा बयान देश-विदेश के मीडिया में जगह पा चुके हैं। लेकिन सत्ताधारी दल और उसके समर्थकों का जेएनयू-विरोधी दुष्प्रचार जारी है।
मैं चाहता तो पार्क में टहलते वक्त मिले उन लोगों को भरोसेमंद और ठोस तथ्य देकर जेएनयू पर उऩकी भ्रांत धारणा को खत्म करने की कोशिश कर सकता था। उन्हें आराम से बताता कि जिस विश्वविद्यालय से इतनी भारी संख्या में आईएएस-आईएफएस निकलते हों, बड़े इतिहासकार, समाजविज्ञानी, लेखक और विज्ञानी निकले हों, स्वयं मोदी जी की सरकार में विदेश सचिव से लेकर सीबीआई के प्रमुख और उनकी वाणिज्य मंत्री से लेकर दर्जनों शीर्ष प्रशासकीय पदों पर आसीन लोग जेएनयू में पढ़े हैं। ऐसे विश्वविद्यालय को देश-विरोधियों या शराबियों-चरसियों का अड्डा क्यों और कैसे कहा जा रहा है!  लेकिन उनकी बातों से मैं इतना व्यथित और खिन्न था कि कुछ भी नहीं कह सका। जेएनयू पर सवालिया टिप्पणी करने वाले एक सज्जन आरएसएस की स्थानीय इकाई से सम्बद्ध हैं और दूसरे सज्जन की पास की कालोनी में दूकान है। दोनों के शैक्षिक-बौद्धिक स्तर पर अंदाजिया टिप्पणी करने का कोई अर्थ नहीं है!  उनकी बातों का कोई जवाब दिये बगैर मैं आगे निकल गया। लेकिन उस दिन सुबह की सैर का मेरा सारा मजा किरकिरा हो गया।
साक्षी महाराज, आदित्यनाथ, साध्वी प्राची, राजस्थान के विधायक ज्ञानदेव आहूजा, डा.स्वामी, पूर्वी दिल्ली से भाजपा के सांसद महेश गिरि या दिल्ली की पटियाला हाउस कोर्ट में छात्रों-शिक्षकों-पत्रकारों पर हमला करने वाले भाजपा-समर्थित वकीलों का एक झुंड, ये सभी कोई नया काम नहीं कर रहे हैं। जेएनयू के खिलाफ दुष्प्रचार-अभियान का इनका बहुत पुराना सिलसिला है। इस बार कुछ खास कारणों से यह सुर्खियों में आ गया। यह बात सही है कि दुनिया के सभी श्रेष्ठ विश्वविद्यालयों की तरह जेएनयू में भी राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय महत्व के विषयों पर किसी जाति-संप्रदाय, राज्य या क्षेत्र के स्वार्थ से ऊपर उठकर वस्तुगत किस्म के विमर्श और बहस-मुबाहिसे चलते रहते हैं। वैश्विक परिदृश्य में अमेरिकी वर्चस्व के खतरे, सीरिया संकट, भारत-पाक रिश्ते, भारत-इजरायल या भारत-फिलीस्तीन रिश्ते, कश्मीर मसला, श्रीलंका की तमिल समस्या या ऐसे अनेक मसलों पर हमने जेएनयू की एक से बढ़कर एक विचारोत्तेजक बहसें सुनी हैं। जाहिर है, आढ़त की दुकान पर बैठने वाला हर सेठ(उसके व्यवसाय को पूरा सम्मान देते हुए) इन बहसों का मर्म नहीं समझ सकता। ऐसे किसी सेठ या किसी सिरफिरे महराज या साध्वी के लिये ये बहसें नहीं होतीं। इन बहसों का मकसद हमारे समाज में सूचना और ज्ञान का विस्तार है। नयी पीढ़ी को इससे अपने इतिहास और समाज को समझने में आसानी होती है। ऐसी ही बहसों के बीच उभरे हैं भारत के मौजूदा विदेश सचिव एस. जयशंकर भी! इस बात को किसी घेरे में लाठी भांजने वाले या दंगों में छुरा चमकाने वाले भला क्या जानें!
जिन दिनों(सन 1978-83) मैं जेएनयू का शोध-छात्र था, संकीर्ण, अनुदार और कुंठित किस्म के अपढ़ लोगों का खेमा विश्वविद्यालय के खिलाफ लगातार दुष्प्रचार करता रहता था। हां, उस समय जेएनयू के छात्रों को पाकिस्तान या हाफिज सईद से जोड़ने का आज जैसा दुष्प्रचार सुनने को नहीं मिला। तब उन्हें रूस या चीन से जोड़ा जाता था। उन्हें आतंकी नहीं कहा जाता था लेकिन शराबी-चरसी या नक्सली जैसे विशेषण धड़ल्ले से दिये जाते थे। मेरी समझ से इस बार तीन खास कारणों से जेएनयू को निशाने पर लिया गया है-हैदराबाद में रोहित वेमुला की आत्महत्या के बाद उभरे जनाक्रोश को जेएनयू में जबर्दस्त समर्थन मिला। राष्ट्रीय राजनीतिक विमर्श में लाल’(वाम-सोशलिस्ट) और नीले(दलित-आंबेडकराइट्स) की एकजुटता का नया कंटेट शुमार हुआ। यह सत्ताधारी खेमे को बहुत नागवार गुजरा। जनगणना के अद्यतन आकड़ों के मुताबिक दलित-आदिवासी देश की कुल आबादी में 25फीसद हैं। ओबीसी को जोड़ दें तो यह लगभग अस्सी फीसद हैं। दूसरा बड़ा कारण है-संघ के पुराने एजेंडे को हासिल करना। पांचजन्य-आर्गनाइजर के लेखों-टिप्पणिय़ों और संघ के नये-पुराने नेताओं के समय-समय पर दिये बयानों से साफ है कि परिवार जेएनयू को शत्रु-खेमे का मुक्तांचल मानता रहा है। पूर्ण-बहुमत पाने के बाद उसने पहले से तय कर रखा था कि मौका पाते ही जेएनयू पर धारदार हमला करके शत्रुओं का सफाया करके उनके लाल मुक्तांचल को ध्वस्त करना है और यथाशीघ्र उस पर भगवा लहराना है। तीसरा कारण है-कारपोरेट-नौकरशाहों की एक ताकतवर लाबी की सक्रियता। यह लाबी जेएनयू को अपनी मर्जी और अपने फायदे के बड़े शैक्षणिक संस्थान या थिंक-टैंक में रूपांतरित करना चाहती है। इसके लिये जरूरी था कि जेएनयू की वाम-सक्रियता और मुक्त चिंतन की परंपरा को ध्वस्त किया जाय। इसके लिये वे तमाम इल्जाम तलाशे गये जो जेएनयू पर चस्पा करके आम लोगों के बीच उसकी छवि खराब की जा सके। पाकिस्तान-परस्त, हाफिज सईद-कनेक्शन या कश्मीर की आजादी के समर्थक होने की बातें इसीलिये प्रचारित की गईं। दो-तीन न्यूज चैनल्स बड़ी आसानी से इस दुष्प्रचार-अभियान के पुर्जे बनने को तैयार हो गये। पर झूठ ज्यादा दिन नहीं टिकता। कुछ चैनलों ने ही उनके झूठ का बड़े प्रामाणिक ढंग से पर्दाफाश कर दिया। अब वे क्या करेंगे!
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23 Feb,2016

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