चौथीराम
यादव
अवतारवाद
की अवधारणा पुराणकारों की मौलिक प्रतिभा, विराट
कल्पना और उनके स्वतंत्र चिंतन की भविष्योन्मुखी दृष्टि का प्रमाण है, जिसकी सहायता से उन्होंने छिन्न भिन्न हो चुकी वर्णव्यवस्था को
पुनर्व्यवस्थित कर वर्ण धर्म की रक्षा करने में सफलता अर्जित की थी। इस प्रक्रिया
में कृष्ण को ही पूर्णावतार क्यों मान लिया गया? इसे समझना
आवश्यक प्रतीत होता है। वस्तुतः भारत की सांस्कृतिक परंपरा के विकास में कृष्ण
केंद्रित विभिन्न आख्यानों का महत्वपूर्ण योगदान है। ऐतिहासिक प्रवाह में कृष्ण का
बहुआयामी व्यक्तित्व कई बार इतिहासकारों के लिए रहस्यमयी पहेली साबित हुआ है।
मिथकीय संश्लिष्टताओं में उलझा हुआ कृष्ण का चमत्कारी व्यक्तित्व आर्य और अनार्य,
निगम और आगम, ब्राह्मण और अब्राह्मण आदि न
जाने कितने परस्पर विरोधी युग्मों के बीच सामंजस्य सेतु बनता आया है। वैदिककाल का
नर देवता, पुराणकाल में विष्णु का पूर्णावतार, द्वापर युग का निर्माता, गीता का महान कर्मयोगी,
नटखट बाल गोपाल, गोपियों का प्रेमी, राधा का अनन्य अनुरागी, नटनागर लीलापुरुष, जलपरियों के साथ क्रीड़ा करने वाला, अप्सराओं के साथ
रमण करने वाला, परम वीर्यवान और संभोगी; आश्चर्य होता है कि इतने सारे चेहरे क्या एक ही कृष्ण के चेहरे हैं?
परस्पर विरोधी गुणों वाला ऐसा विलक्षण व्यक्तित्व ही परस्पर विरोधी
परंपराओं में सांस्कृतिक सामंजस्य स्थापित कर सकता था। कितना मिथकीकरण किया गया है
यदु कबीले के नर देवता का, यज्ञ विरोधी गोरक्षक कृष्ण का,
इंद्र को अपदस्थ करने वाले जननायक का। वह जिस भी रूप में आया,
मनुष्यता सदैव उसके साथ रही। वैदिककाल से लेकर मध्यकालीन सूरदास के
गोचारी काव्य तक कृष्ण की ऐतिहासिक यात्रा वस्तुतः जननायक से लोकनायक बनने की ही
अंतर्यात्रा है; भले ही समय समय पर उसे ईश्वर का मुकुट भी
पहनाया जाता रहा हो। लेकिन सूरदास के लिए वह मुकुट किसान संस्कृति के किसी
प्रभावशाली मुखिया की पगड़ी से ज्यादा अहमियत नहीं रखता।
वैदिककाल
का सीमांत और उत्तर वैदिककाल का आरंभ भारतीय इतिहास का वह समय है जब आर्यों का
पशुचारी जीवन कृषि जीवन में रूपांतरित हो रहा था। कृषि केंद्रित इस नई जीवन पद्धति
में इंद्र के वर्चस्व वाली यज्ञ प्रणाली और निरंतर होने वाले युद्ध बहुत महँगे और
घातक सिद्ध हो रहे थे; उस स्थिति में तो और भी जब
यज्ञों के लिए मवेशी तथा अन्य पशु बिना मूल्य चुकाए ही हथिया लिए जाते थे। जाहिर
है कि ऐसे यज्ञ, पशुपालक किसानों के आर्थिक शोषण के जटिल
कर्मकांड बन गए थे। सामाजिक जीवन के इस परिवर्तित मोड़ पर किसानों के हित में यज्ञ
और इंद्र का विरोध एक ऐतिहासिक अनिवार्यता बन गया था। ऐसे ही समय, यज्ञ और इंद्र का विरोध करने के कारण गोरक्षक कृष्ण ने किसानों का
प्रवक्ता बन, जननायक का गौरव अर्जित कर लिया और लगातार बढ़ती
लोकप्रियता ने उसे पूज्य बना दिया। यही कारण है कि इंद्र पूजा को अपदस्थ कर कृष्ण
पूजा का प्रचलन आरंभ हुआ। पुराणकाल तक आते आते इंद्र का वर्चस्व टूटने लगा और
ऋग्वेद के उपेक्षित देवता विष्णु सहसा महत्वपूर्ण हो उठे।
पुराणकाल
वस्तुतः सांस्कृतिक संगम का काल है। बुद्ध के व्यापक प्रभाव के चलते ब्राह्मण धर्म
काफी कमजोर हो चला था। बुद्ध ने वैदिक यज्ञ प्रणाली और उसके जटिल कर्मकांड का
विरोध किया और वर्णव्यवस्था की असंगतियों और ब्राह्मण श्रेष्ठता को चुनौती देते
हुए ऊपर के दो वर्णों का क्रम ही उलट दिया। आकस्मिक नहीं है कि पालि साहित्य में
कहीं कहीं क्षत्रिय पहले पायदान पर और ब्राह्मण दूसरे पायदान पर दिखाई देते हैं।
अतः पूरी तरह छिन्न भिन्न हो चुकी वर्णव्यवस्था की रक्षा करना और श्रेष्ठता का
गौरव पुनः अर्जित करना वर्णाश्रम समर्थक बुद्धिजीवियों की प्राथमिक चिंता थी।
बुद्ध के व्यापक प्रभाव को निरस्त करने के लिए उन्हें एक ऐसे सामंजस्यशील
व्यक्तित्व की आवश्यकता थी जिसके माध्यम से आर्य और वैदिक परंपरा के शुद्धतावादी
मूल चरित्र को सुरक्षित रखते हुए प्रबल हो चली आर्येतर और निगम विरोधी सांस्कृतिक
परंपराओं का सामंजस्य हो सके जिनका समाज पर गहरा प्रभाव था, खासतौर पर कला संस्कृति के क्षेत्र में। इसके लिए कृष्ण के अलावा कोई
दूसरा हो भी नहीं सकता था जो आर्येतर और आगमिक परंपराओं के नृत्य, गीत, संगीत के कला मूल्यों और कला विलास के लालित्य
का सामंजस्य कर सके। यह सामंजस्य शुद्धतावादी आर्य परंपरा के वाहक राम के द्वारा
संभव ही नहीं था। अतः उन्हें केवल बारह कलाओं का अवतार और कृष्ण को सोलह कलाओं का
पूर्णावतार माना गया। यह सामंजस्य, उत्तरोतर अलग थलग पड़ते जा
रहे ब्राह्मण धर्म की लाचारी थी जिसे प्रायः हिंदू धर्म की उदारता के नाम पर
प्रचारित किया जाता है। किसी समय अनार्य देवता माने जाने वाले लोकशक्ति के नायक
कृष्ण की स्वीकृति वस्तुतः एक प्रकार का समझौता था जिसके माध्यम से ब्राह्मण धर्म
को पुनरुज्जीवित किया गया।
आकस्मिक
नहीं है कि उस काल में लिखी गई सबसे महत्वपूर्ण धार्मिक कृति ‘गीता’ जो आज भी हिंदू आस्था की प्रतीक है, उसमें कृष्ण को न केवल नायक के रूप में प्रतिष्ठित किया गया बल्कि
सर्वेश्वर का गौरव भी प्रदान किया गया, लेकिन इस शर्त के साथ
कि वर्ण धर्म की रक्षा और उसके विरोधियों के संहार के लिए समय समय पर अवतार लेते
रहना पड़ेगा। इस प्रकार जननायक कृष्ण को अपने ही लोक के विरुद्ध खड़ा कर
पुराणकारों ने स्वयं अपने पक्ष में उन्हें झुका लिया और न केवल अपने वर्तमान बल्कि
भविष्य को भी सुरक्षित कर लिया। शर्तनामे पर हस्ताक्षर करते हुए योगिराज कृष्ण ने
न केवल ‘संभवामि युगे युगे’ का आश्वासन
दिया बल्कि ‘चातुर्वर्ण मया स्रष्टं’ का
प्रमाणपत्र भी प्रदान किया।
दाद
देनी पड़ती है उन हिंदू शास्त्राकारों की प्रतिभा और कंप्यूटर की तरह काम करने
वाले उनके दिमाग की जिन्होंने वर्णव्यवस्था को पोख्ता और अकाट्य बनाने के लिए समय
समय पर पूर्वजन्म, कर्मफल, भाग्यवाद, अवतारवाद और प्रतिपक्ष के लिए कलिकाल जैसी
अवधारणाओं का विकास किया। शतरंज के मँजे हुए खिलाड़ी की तरह वे हारी हुई बाजी को
भी जीतना जानते थे और यह भी कि किस मोहरे को किस मोहरे से पीटा जा सकता है।
अवतारवाद के उद्देश्य को चरितार्थ करने और उसके प्रचार प्रसार के लिए उन्हें कृष्ण
के रूप में एक कारगर मोहरा मिल गया था जिससे वे किसी भी मोहरे को मात दे सकते थे।
अवतारवाद की पौराणिक कल्पना शतरंज की तरह ही ऐसा दिमागी खेल है जिसमें कभी महावीर
को, कभी बुद्ध को तो कभी कृष्ण को कारगर मोहरे के रूप में
इस्तेमाल किया गया है। इस खेल की विशिष्टता यह है कि मोहरे चाहे काले हों या सफेद,
जीत हमेशा ईश्वर की ही होती है। वस्तुतः यह वर्चस्व और प्रतिरोध की
संस्कृति के बीच शह और मात का ऐसा खेल है जो धरती की पुकार पर ईश्वर और असुरों के
बीच खेला जाता है और ‘रिमोट कंट्रोल’ गगन
विहारी देवताओं के हाथ में होता है। आकाश से फूल बरसा कर विजय की घोषणा वही करते
हैं। इस खेल में लोक की भूमिका नगण्य है। इसका सुसंगत विकास तुलसीदास के रामचरित
मानस में देखने को मिलता है जहाँ सभी मोहरों को मात देने वाला कृष्ण का शक्तिशाली
मोहरा राम में रूपांतरित हो गया है और टीकाकारों की चिंता से चिंतित गोस्वामी
तुलसीदास ने बड़ी चतुराई के साथ इस खेल में लोक को भी शामिल कर लिया है। लोक और
शास्त्र के द्वंद्वात्मक संघर्ष ने अवतारवाद के खेल को और भी दिलचस्प और आकर्षक
बना दिया है – सभी खुश, शास्त्रवादी भी
और लोकवादी भी। पता ही नहीं चलता कि इस द्वंद्व में तुलसीदास कहाँ हैं? कबीर जैसी दोटूक स्पष्टता के अभाव में तुलसी के पक्ष का निर्णय करना इतना
आसान भी नहीं है क्योंकि रामचरित मानस में शास्त्र भी है और लोक भी, वर्णधर्म है तो लोकधर्म भी, पौराणिक पुनर्जागरण है
तो लोक जागरण का किंचित स्वर भी। इन परस्पर विरोधी युग्मों का सामंजस्य कैसे हो
सकता है? समन्वय का दर्शन अपने आप में बड़ा खतरनाक दर्शन है।
वर्णाश्रम विरोधी क्रांतिकारी विचारों को निरस्त करने के लिए यह वर्णाश्रम समर्थक
बुद्धिजीवियों का पुराना हथकंडा है। इसके अनुसार पहले तो विरोधी विचारों का जम कर
विरोध करना, फिर उसे विकृत करके प्रचारित करना और इसके बाद
भी यदि वे समाज में जीवित रह जाते हैं तो उनकी धार को कुंद बना कर आत्मसात कर
लेना। गोस्वामी तुलसीदास ने भी शंकर और कुमारिल की तरह इसी अमोघ अस्त्र का
इस्तेमाल करते हुए ‘अलख जगाने वालों’, ‘साखी सबदी दोहरा’ एवं ‘कहनी
उपखान’ कहने वालों के साथ वही सलूक किया है। जब समन्वय की
विराट चेष्टा में सब कुछ समाहित हो गया तो अलग से उनके साहित्य का क्या महत्व?
अतः तुलसी के पौराणिक मतवाद से पूरी तरह सहमत आचार्य रामचंद्र शुक्ल
यदि उसे साहित्य ही न मानें तो क्या आश्चर्य?
कहने
की आवश्यकता नहीं कि पूरे भक्तिकाव्य का मूल्यांकन करने के लिए आचार्य शुक्ल ने
अपनी आलोचना के प्रतिमान, दो विरुद्धों का सामंजस्य
करने वाले ‘रामचरित मानस’ और तुलसीदास
की विचार पद्धति के आधार पर ही निर्मित किए हैं किंतु शुक्ल जी की आलोचना में
सामंजस्य का परिणाम यह हुआ कि पौराणिक मत ही लोकमत और वर्णधर्म ही लोकधर्म बन गया।
इसी तरह पौराणिक अवतारवाद के उद्देश्य की चरितार्थता को वे लोक संग्रह कहते हैं और
उनके अनुसार सूरसागर में उसका अभाव है। ईश्वर के सामने सभी बराबर हैं, जाति पाँति विरोधी भक्ति आंदोलन का यही मूल सिद्धांत था और वर्णधर्म की
रक्षा पर आधारित अवतारवाद की धार्मिक अवधारणा तो भक्ति के समतावादी सिद्धांत को ही
खंडित करती है तो फिर पुनरुत्थानवादी चेतना को विकसित करने वाले अवतारवाद की
सामाजिक चरितार्थता क्या है? उसके समाजशास्त्रीय आधार को
नजरंदाज कर धर्मशास्त्रीय आधार पर लोक संग्रह के अभाव और विस्तार की चर्चा बेमानी
है। सच तो यह कि सूरदास ने पौराणिक अवतारवाद से उतनी ही प्रेरणा ली है जितनी वह
जाति पाँति विरोधी भक्ति के अनुकूल पड़ती थी और तुलसीदास ने समतामूलक भक्ति को
वहीं तक स्वीकार किया है जहाँ तक वह शास्त्रानुकूल हो सकती थी। जाहिर है कि सूर के
लिए भक्ति मुख्य थी तो तुलसी के लिए शास्त्र। सूरदास के लिए पौराणिक पुनरुत्थान की
वह अहमियत नहीं थी जो पुराणमतावलंबी तुलसीदास के लिए। अवतारवाद को सिद्धांतः
स्वीकार करने के बावजूद सूरदास के सामाजिक विचार और उनकी भक्ति का स्वरूप, दोनों तुलसी की अपेक्षा कबीर के अधिक निकट प्रतीत होते हैं।
‘भ्रमर गीत’ प्रसंग सूरदास की मौलिक उद्भावना का
सर्वोत्तम उदाहरण और सूरसागर का सबसे काव्यात्मक अंश भी है, लेकिन
उसके सामाजिक सांस्कृतिक आधार की उपेक्षा कर केवल दार्शनिक आधार पर निर्गुण सगुण
विवाद के रूप में देखते समय हमें यह न भूलना चाहिए कि उद्धव गोपी संवाद कबीर की
तरह ही पोथी बंद ज्ञान को व्यावहारिक ज्ञान की चुनौती है – ‘नयनन
मूँदि मूँदि किन देखौ बंध्यो ज्ञान पोथी को।’ (भ्रमर गीत सार;
संपा. रामचंद्र शुक्ल, पद 22, पृ. 64) इतना ही नहीं, सूर की
गोपियाँ तो पौराणिक ज्ञान की खिल्ली उड़ाती हुई उद्धव पर व्यंग्य करती हैं –
‘परमारथी पुराननि लादे ज्यों बनजारे टांड़े।’ (वही;
पद 25, पृ. 65) मौलिक
प्रतिभा और स्वतंत्र चिंतन से रहित, पोथियों की रटी रटाई
भाषा बोलने वाले उद्धव जैसे पोथी पंडित ही कबीर के भी निशाने पर हैं जो पंडिताई को
बोझ की तरह ढोते फिरते हैं। कबीर के सामने जैसे पोथी पंडित लाचार हैं, वैसे ही गोपियों के सामने उद्धव भी। आचार्य रामचंद्र शुक्ल पंडितों की इस
फटकार पर सिद्धों, नाथों और कबीर को यों ही नहीं कोसते! इन
पोथी पंडितों में उन्हें न जाने कहाँ से ‘शास्त्रज्ञ
विद्वानों’ का चेहरा दिखाई पड़ने लगता है जबकि हजारी प्रसाद
द्विवेदी ‘चिंता पारतंत्र्य’ के शिकार
इन पंडितों की इकहरी समझ पर तरस खाते हैं और लक्षित करते हैं कि भारतीय मनीषा इतनी
जड़ और स्तब्ध कभी नहीं हुई थी जितनी मध्यकाल में। आचार्य द्विवेदी मध्यकाल को ‘टीकायुग’ यों ही नहीं कहते!
वस्तुतः
‘उद्धव गोपी संवाद’ कबीर की तरह ही शास्त्र से लोक का
सार्थक संवाद है जो वाद विवाद के बिना संभव नहीं है। यह बौद्ध दार्शनिकों के समाज
सापेक्ष वाद विवाद की तार्किक पद्धति की याद दिलाता है। इस पूरे संवाद में सूरदास
गोपियों के साथ लोक के पक्ष में खड़े हैं, शास्त्र (उद्धव)
के पक्ष में नहीं। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का लोक और लोकधर्म आचार्य शुक्ल
के वर्णाश्रमधर्मी लोक और लोकधर्म से सर्वथा भिन्न है और व्यापक भी। द्विवेदी जी
के अनुसार – ‘लोक शब्द का अर्थ जनपद या ग्राम्य नहीं है
बल्कि नगरों और ग्रामों में फैली हुई वह समूची जनता है जिनके व्यावहारिक ज्ञान का
आधार पोथियाँ नहीं हैं। ये लोग नागर में परिष्कृत, सुरुचि
संपन्न तथा सुसंस्कृत समझे जाने वाले लोगों की अपेक्षा सरल और अकृत्रिम जीवन के
अभ्यस्त होते हैं। और परिष्कृत रुचि वाले तमाम लोगों की विलासिता और सुकुमारिता को
जीवित रखने के लिए जो भी वस्तुएँ आवश्यक होती हैं, उन्हें
उत्पन्न करते हैं।’ (जनपद; अंक 1,
वर्ष 1) कबीर सहित निर्गुण धारा के संत और सूर
की गोपियाँ इसी लोक के प्राणी हैं। लोक की इसी जमीन से उन्होंने अपने व्यावहारिक
ज्ञान द्वारा पोथी पंडितों को चुनौती दी थी। यही लोक हिंदी कविता की जन्मभूमि है
जो समय समय पर उसको ऊर्जा प्रदान करती है और निष्प्राण होती कविता में प्राण का
संचार कर उसे पुनर्नवा बनाती है।
मध्यकालीन
सामंती पुरोहिती समाज व्यवस्था में दलित और स्त्रियाँ ही शास्त्रों के सर्वाधिक
कोपभाजन रहे हैं और सामंती उत्पीड़न के शिकार भी। इसलिए उस अलगाववादी समाज
व्यवस्था और उसके पोषक शास्त्रों एवं शास्त्रकारों के प्रति कबीर, मीरा और सूर की गोपियों का साहसिक प्रतिरोध स्वाभाविक भी है और सामाजिक
दृष्टि से महत्वपूर्ण भी। कबीर और सूर की गोपियों की तरह मीराबाई ने भी
जीवगोस्वामी को चुनौती देते हुए उनके ज्ञान के अहंकार और पुरुष श्रेष्ठता के
मिथ्या दंभ को चकनाचूर किया था। इतना ही नहीं, मीराबाई
मध्यकाल की ऐसी अकेली रचनाकार हैं जिन्होंने सामंतवाद के गढ़ में सामंतवाद को
चुनौती देते हुए सिंहासनारूढ़ राणा को मूर्ख और हत्यारा – ‘मूरख
जण सिंहासण राजां’ ‘राणा भगत संहारा’ – कहने का साहस दिखाया था और उनके सामंती समाज को कूड़ा कह कर उसे ठुकरा
दिया था – ‘राणा जी थारौं देसड़लौ रंगरूड़ौ। थांरां देसां
मां रांणा साध नहीं छै, लोग बसै सब कूड़ौ।’ (मीराँ माधुरी; संपा. ब्रजरत्न दास; पद 113) अतः प्रतिरोध की इस सामाजिक वैचारिकी की
दृष्टि से कबीर, मीरा और सूर की गोपियाँ एक कतार में खड़ी
दिखाई देती हैं और यह कतार ‘शूद्र पशु नारी’ की पौराणिक कतार के प्रतिरोध में खड़ी लोकधर्मी कतार है। निर्गुण सगुण का
विवाद वस्तुतः ब्रह्म के स्वरूप को लेकर अवतारवाद के पक्ष में खड़ा किया गया एक
दार्शनिक विवाद है जो हिंदी के अलावा अन्य भाषाओं के भक्ति काव्य में नहीं मिलता।
यह हिंदी आलोचना का संकट है, रचना का नहीं। स्वयं कबीर और
तुलसी यह स्वीकार करते हैं कि निर्गुण और सगुण में कोई भेद नहीं है। मीराबाई का एक
पाँव निर्गुण भक्ति में है तो दूसरा सगुण भक्ति में। सगुण भक्ति में भी जितने करीब
वह सूरदास के हैं उससे कहीं ज्यादा गुजरात के नरसी मेहता के निकट प्रतीत होती हैं।
इतना ही नहीं, मीराबाई अंदाल के माध्यम से दक्षिण की अलवार
भक्ति और नृत्य संगीत की कला संस्कृति को उत्तर भारत से जोड़ती हैं तो सूरदास के
साथ पूरब के जयदेव और विद्यापति की कृष्ण भक्ति को पश्चिम से जोड़ती हैं। जाहिर है
कि अखिल भारतीय स्तर पर सांस्कृतिक संबंध स्थापित करने वाली मीराबाई की भक्ति का
दायरा कहीं ज्यादा व्यापक और विस्तृत है जिसे निर्गुण और सगुण की सीमाओं में नहीं
बाँधा जा सकता। यदि कृष्ण पूर्णावतार हैं तो मीराबाई की कृष्ण भक्ति उस पूर्णता की
सच्ची विरासत है। अतः कबीर, मीरा और सूर की भक्ति के स्वरूप
को निर्गुण सगुण के आधार पर नहीं, उनके सामाजिक चिंतन के
आधार पर समझा जाना चाहिए।
सूरदास
ने भी कहीं निर्गुण भक्ति का खंडन किया हो, ऐसा संकेत
तो नहीं मिलता; हां उपासना की दृष्टि से उन्होंने निर्गुण
भक्ति को कठिन अवश्य कहा है -
रूप
रेख गुन जाति जुगुत बिनु, निरालंब मन चकृत धावै।
सब
विधि अगम विचारहिं ताते, सूर सगुन लीला पद गावै॥
(सूरसागर; भाग 1, स्कंध 1,
पृष्ठ 1)
निर्गुण
के खंडन का यह अर्थ भी नहीं लगाना चाहिए कि कबीर के ज्ञान मार्ग का खंडन कर सूरदास
ने प्रेममार्गी भक्ति का मंडन किया है। इस संदर्भ में हमें यह न भूलना चाहिए कि
निर्गुण और सगुण दो परस्पर विरोधी विचारधाराएँ हैं, एक
वर्णाश्रम धर्म की विरोधी है तो दूसरी उसकी समर्थक; एक
शास्त्र निरपेक्ष है तो दूसरी शास्त्र सापेक्ष। सूरदास कबीर की शास्त्र निरपेक्ष
विचारधारा के जितने निकट हैं उतने तुलसी की शास्त्र सापेक्ष विचारधारा के नहीं।
अतः सामाजिक सांस्कृतिक आधार की उपेक्षा कर केवल निर्गुण सगुण की दार्शनिक
शब्दावली से उनके वैचारिक मतभेद को नहीं समझा जा सकता। आखिर निर्गुण और सगुण तथा
संत और भक्त का विवाद हिंदी आलोचना में ही क्यों खड़ा हुआ? हिंदी
भक्ति आंदोलन बंगाल, कर्नाटक, गुजरात
और महाराष्ट्र के भक्ति आंदोलन से मूलतः भिन्न क्यों हैं? क्या
कारण है कि निर्गुण भक्ति आंदोलन वर्णविरोधी समान विचारधारा के चलते विभिन्न
प्रांतीय भक्ति आंदोलनों से जुड़ा रहा और सूर की समतामूलक भक्ति के साथ भी उसका
बहुत कुछ सामंजस्य बना रहा लेकिन शास्त्र समर्थक तुलसीदास के साथ ही वह समाप्त
क्यों हो गया? निर्गुण भक्ति का क्रांतिकारी तेवर सगुण भक्ति
के अंतिम पड़ाव पर समझौतापरस्त कैसे हो गया? यदि शास्त्रीय
मर्यादा और सामंती नैतिकता का बंधन इतना ही अमोघ होता तो महान् मर्यादावादी
तुलसीदास के बाद भक्तिकालीन श्रृंगार को रीतिकालीन अश्लीलता में नंगा न होना
पड़ता।
लोकधर्म
की तरह लोकसंग्रह का प्रतिमान भी वर्णाश्रमधर्मी समाज की मर्यादा और अवतारवाद के
पौराणिक निहितार्थों से संबद्ध है। देखने से तो यही लगता है कि ये लोकवादी
प्रतिमान हैं किंतु ये पौराणिक मतवाद के दायरे से बाहर के प्रत्यय नहीं हैं।
लोकसंग्रह का निहितार्थ तो तभी समझ में आता है जब आचार्य शुक्ल सूरसागर में
लोकसंग्रह का अभाव बताते हुए उसका कारण स्पष्ट करते हैं – ‘असुरों के अत्याचार से दुखी पृथ्वी की प्रार्थना पर भगवान का कृष्णावतार
हुआ, इस बात को उन्होंने केवल एक ही पद में कह डाला है।’
(भ्रमर गीत सार; पृ. 14) दूसरा कारण यह कि पौराणिक अवतारवाद के प्रतिपादन में सूर की वृत्ति लीन
नहीं हुई है क्योंकि ‘जिस ओज और उत्साह से तुलसीदास जी ने
मारीच, ताड़का, खर दूषण आदि के निपात
का वर्णन किया है उस ओज और उत्साह से सूरदास जी ने बकासुर, अघासुर,
कंस आदि के वध और इंद्र के गर्व मोचन का वर्णन नहीं किया है।’
(वही; पृ. 13) वस्तुतः
वर्णाश्रम धर्म की रक्षा और यथास्थितिवाद को बनाए रखना ही पौराणिक अवतारवाद का
प्रमुख उद्देश्य है जिसे चरितार्थ करने के लिए तुलसीदास ने पूरे विस्तार के साथ एक
पुराण काव्य ही लिख डाला और सूरदास ने धार्मिक पुनरुत्थान को नगण्य और निरर्थक मान
कर केवल एक पद में उसका उल्लेख कर छुट्टी पा ली। यह धार्मिक पुनरुत्थान ही यदि
शुक्ल जी का लोक संग्रह है तो सूरसागर में उसका अभाव सूरदास को पुनरुत्थान की प्रतिगामी
प्रवृत्ति से बहुत कुछ मुक्त करता है। अतः पौराणिक पुनरुत्थान के प्रति यदि सूरदास
ने तुलसीदास की तरह गहरी रुचि नहीं दिखाई और अवतारवाद के सुसंगत प्रतिपादन में
उनकी वृत्ति उतनी लीन नहीं हुई तो जाहिर है कि वह तुलसीदास की अपेक्षा कहीं ज्यादा
प्रगतिशील हैं। यह अकारण नहीं है कि भक्ति आंदोलन के लोक जागरण का स्वर सूरसागर
में तो बहुत कुछ सुरक्षित है लेकिन रामचरित मानस में वह पुनर्जागरण में रूपांतरित
हो जाता है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल का दृष्टिकोण लोक जागरण के प्रति बहुत कुछ
नकारवादी है तो तुलसीदास के यथास्थितिवादी पुनर्जागरण के प्रति उनकी पूरी आस्था
है।
सूर
और तुलसी का यही दृष्टि भेद उनके काव्य नायकों, कृष्ण और
राम के व्यक्तित्व निर्माण में भी अपनी भूमिका अदा करता है। सूर के कृष्ण पौराणिक
कृष्ण नहीं है। हाँ, तुलसी के राम में पौराणिक कृष्ण का सीधा
रूपांतरण अवश्य हुआ है। ‘चातुर्वर्ण मया स्रष्टं’ और ‘संभवामि युगे युगे’ का
पुनर्पाठ तुलसी के राम प्रस्तुत करते हैं, सूर के कृष्ण
नहीं। सूरदास ने पुराणकारों से सर्वथा भिन्न अपने कृष्ण का स्वयं निर्माण किया है
और सूरसागर में कृष्ण की जो छवि उभरती है वह धर्मरक्षक कृष्ण की नहीं बल्कि
लोकनायक और लोकरक्षक कृष्ण की। नटखट बाल गोपाल तो सूर की नितांत मौलिक कल्पना है।
सूरदास के कृष्ण सामान्य मनुष्य का जीवन जीते हैं जबकि तुलसी के राम प्रायः ईश्वर
ही बने रहते हैं। राम मर्यादा के बंधन में बँधे हुए हैं और कृष्ण उन्मुक्त और
स्वच्छंद हैं। रामचरित मानस का समाज सूरसागर के समाज से बिल्कुल भिन्न समाज है,
वह तुलसी का समय समाज भी नहीं, पौराणिक समाज
है जिसमें ‘रामराज्य’ की अतिरंजित
कल्पना की गई है। उस कल्पित रामराज्य में सभी वर्णाश्रम धर्म के अनुसार आचरण करते
हैं, घर घर में पुराण पाठ होता है, सागर
अपनी मर्यादा में रहता है, चारों तरफ सुख, संतोष और विवेक का साम्राज्य है… आदि आदि। जाहिर है
कि तुलसी युगीन समाज से इसका कोई सामंजस्य नहीं बैठता। रामचरित मानस विगत युगों की
नैतिकता का साक्ष्य प्रस्तुत करता है। यहाँ तुलसी नहीं उनका मुखौटा बोलता है,
पुराणकार का मुखौटा! मुखौटा सहायता भी करता है और रक्षा भी। शूद्रों
और स्त्रियों को अपमानित कीजिए, विप्रों की पूजा कीजिए,
जो मन में आए सो कीजिए पाठ कुपाठ, पद कुपद;
जवाबदेही के लिए मुखौटा तैयार! बड़े काम की चीज है यह मुखौटा! पता
ही नहीं चलता कि आप बोल रहे हैं या मुखौटा! लेकिन बहुत देर तक आप इसे लगाए नहीं रख
सकते, साँस फूलने लगती है, दम घुटने
लगता है, और तब मुखौटे का मोह छोड़ना ही पड़ता है। सो,
तुलसीदास को भी मुखौटा उतारना ही पड़ा, आखिर
कब तक अपना असली चेहरा उसमें छिपाए फिरते? रामचरित मानस में
इस मुखौटे ने पहचान का संकट खड़ा कर दिया था।
तुलसीदास
का रामचरित मानस पूर्वार्द्ध की रचना है और विनय पत्रिका, कवितावली, हनुमान बाहुक आदि को उत्तरार्द्ध के
अंतर्गत रखा जा सकता है। पूर्वार्द्ध से उत्तरार्द्ध तक तुलसी की काव्य यात्रा
वस्तुतः उनके मोहभंग की अंतर्यात्रा है जिसमें पौराणिक बोध से मुक्त होने और
आधुनिक बोध से जुड़ने का द्वंद्वात्मक संघर्ष स्पष्ट दिखाई देता है। तुलसी को
देखना है तो उनको उत्तरकालीन काव्य यात्रा में देखा जा सकता है, जहाँ वह पुराणकार की खोल से बाहर निकलते हुए एक सच्चे भक्त कवि के रूप में
देखे जा सकते हैं, जहाँ तुलसी का अपना समय समाज है, जीवन के दुख दर्द हैं, जद्दोजहद है। यहाँ असुर
उत्पीड़न का कल्पित हाहाकार नहीं बल्कि अपने युग की कड़वी सच्चाई से सीधा
साक्षात्कार है जिसमें तुलसी की आप बीती भी है और जग बीती भी। विनय पत्रिका और
कवितावली के जिस समाज का सामना तुलसीदास को करना पड़ता है वह उनका देखा सुना और
भोगा हुआ समाज है। यही असली समाज है। दुख, दारिद्य, भूख, अकाल, लाचारी आदि के
कितने ही यथार्थ चित्र खींचे हैं महाकवि ने, जिनमें आपबीती
का दर्द भी है और जगबीती की लोकपीड़ा भी – ‘आगि बड़वागि से
बड़ी है आगि पेट की।1 किसान न खेती कर पा रहा है और न भिखारी
को भीख मिलती है। दरिद्रता रूपी दशानन ने पूरे समाज को अपनी गिरफ्त में ले रखा है
जिसके कारण ‘जीविका विहीन लोग सीद्यमान सोच बस / कहैं एक एकन
सों कहाँ जाई का करी’2 की चिंता और अपने ही बनाए ‘रामराज्य’ के कल्पित आदर्श से मोहभंग की पीड़ा सतत
घनीभूत होती जाती है। ‘कहाँ जाई का करी’ की चिंता चारों ओर से निराश थके हारे मनुष्य की चिंता है। जिस राम भक्ति
को सारे रोगों का एकमात्र इलाज मान लिया था उससे न दरिद्रता जा रही थी न दुख कम हो
रहे थे। न अकाल दूर किया जा सकता था, न रोग शोक! यहाँ आकर ‘कलिमलहरनी’ राम भक्ति का जादू टूटने लगता है।
रामभक्ति और कलिकाल का द्वंद्व क्रमशः प्रबलतर होता जाता है। कलिकाल के त्रास से
तुलसी त्रास्त, पस्त और बेहाल हैं। विनयपत्रिका में तो
कलिकाल को देख कर ही वह हहर उठते हैं, नाम महिमा की याद
दिलाते हुए राम से कष्ट मुक्ति की प्रार्थना करते हैं, अनुनय
विनय करते हैं लेकिन सब व्यर्थ जाता है। कवितावली और हनुमान बाहुक में तो रामभक्ति
और कलिकाल का द्वंद्व और घनीभूत हो जाता है। वर्णाश्रम के प्रति गहरी आस्था भी
चरमराने लगती है और मृत्यु का त्रास तो सारी पुरानी आस्थाओं से विचलित कर देता है।
वस्तुतः
रामभक्ति और कलिकाल का द्वंद्व आदर्श और यथार्थ का द्वंद्व है जिसमें यथार्थ की
विजय होती है क्योंकि रामभक्ति पर कलिकाल का त्रास बराबर हावी है; यह बात दूसरी है कि थके हारे और पस्त होने के बावजूद तुलसी की आस्था अडिग
बनी रहती है। मोहभंग की अंतर्यात्रा का अंतिम पड़ाव हनुमान बाहुक तो मृत्यु पीड़ा
की चीख पुकार और आर्तनाद की करुण व्यथा का काव्य बन गया है। यहाँ सभी प्रार्थनाएँ
और आत्मक्रंदन अंततः मौन में विलीन हो जाते हैं और मोहभंग की इस चरम अवस्था में
तुलसीदास पौराणिक बोध से मुक्त आधुनिक बोध के निकट दिखाई देते हैं। वैसे देखा जाय
तो रामचरित मानस के अंत में ही मोहभंग की स्थिति प्रकट होने लगती है जहाँ
उत्तरकांड के अंत में कलिकाल के लक्षण गिनाए गए हैं। तुलसीदास ने कलिकाल वर्णन
दोहरे अर्थों में किया है। एक तो यह तुलसी युगीन सामाजिक यथार्थ का प्रतीक है और दूसरे
धार्मिक ह्रास का पौराणिक प्रतीक। वर्णाश्रम के ह्रास के बाद ही कलिकाल प्रकट होता
है। भारतीय काल विभाजन की परंपरा में यह ह्रासोन्मुखता का प्रतीक है और काल विभाजन
का आधार धार्मिक है। सतयुग, त्रेता, द्वापर
और कलियुग के रूप में प्राचीन युग विभाजन को उत्थान पतन और आशा निराशा के ऐसे
परिवर्तन चक्र के रूप में देखा गया है जो अनंत काल से चलता चला आ रहा है और अनंत
काल तक चलता रहेगा। इन चार युगों के विश्वास के मूल में एक ऐसी निराशावादी
मनोवृत्ति है जो यह मानती है कि मनुष्य नैतिक दृष्टि से क्रमशः पतन की ओर बढ़ता जा
रहा है। यह भी माना गया है कि सतयुग में धर्म की पूर्ण प्रतिष्ठा थी जो त्रेता युग
में तीन चौथाई और द्वापर युग में आधी रह गई। कलियुग में धर्म का प्रभाव पर्याप्त
क्षीण हो गया और वह एक चरण पर खड़ा रह गया है।
इस
तरह कलियुग को पतनोन्मुख मनोवृत्ति का युग माना गया है, जिससे यह अनादरसूचक घृणा का प्रतीक बन कर रह गया है। प्रायः सभी पुराणों
में कलियुग के नैतिक ह्रास और चारित्रिक पतन का बड़ा ही निराशाजनक वर्णन किया गया
है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार ‘प्रायः हर
पुराण में बताया गया है कि इस युग में लोगों का नैतिक चरित्र पतित हो जाएगा।
श्रुति स्मृति में जिस आचार का निर्देश है, वह मिटने लगेगा।
वर्णाश्रम व्यवस्था में गड़बड़ी आ जाएगी। शूद्र लोग संन्यास लेकर उच्च वर्णों को
उपदेश देने का ढोंग रचेंगे।’ (हजारी प्रसाद द्विवेदी
ग्रंथावली; खंड-5, पृ. 20-21) जाहिर है कि यह परिस्थिति बुद्ध के आंदोलन ने पहले ही पैदा कर दी थी और
बौद्ध चिंतक बड़े तार्किक ढंग से वर्णव्यवस्था और ब्राह्मण श्रेष्ठता के पाखंड पर
कड़ा प्रहार कर रहे थे। भारतीय इतिहास में बुद्ध का काल प्रगति और विकास का काल है
और यही काल पुराणकारों का कलिकाल है। तुलसीदास का कलिकाल वर्णन इसी पौराणिक कलिकाल
का पुनर्पाठ है। फर्क इतना ही है कि यहाँ निशाने पर बौद्ध आंदोलन के स्थान पर उसी
से प्रभावित सिद्धों, नाथों और निर्गुण संतों का क्रांतिकारी
आंदोलन आ गया है जो उसी तरह वर्णव्यवस्था और ब्राह्मण श्रेष्ठता को चुनौती दे रहा
था। इस आंदोलन से उत्पन्न कलियुगी प्रभाव का आकलन करते हुए गोस्वामी तुलसीदास ने
उत्तरकांड के अंत में कलियुग के कवियों को किस भाषा में याद किया है, बानगी के तौर पर कुछ उद्धरण दिए जा सकते हैं -
1. साखी सबदी दोहरा कहि कहनी उपखान।
भगति
निरूपहिं भगत कलि निंदहिं वेद पुरान॥ 3
2. श्रुति सम्मत हरि भक्ति पथ संजुत विरति विवेक।
तेहि
परिहरहिं विमोह बस कल्पहिं पंथ अनेक॥ 4
3. बादहिं सूद्र द्विजन्ह सन हम तुम तें कछु घाटि।
जानहिं
ब्रह्म सो विप्रवर आँखि देखावहिं डाँटि॥ 5
4. असुभ वेष भूषन धरे भच्छा भच्छ जे खांहिं।
तेइ
जोगी तेइ सिद्ध नर पूज्य ते कलियुग मांहिं॥ 6
5. दंभिन निज मति कल्प करि प्रगट किए बहु पंथ। 7
6. बरन धरम नहिं आश्रम चारी। श्रुति विरोध रत सब नर नारी। 8
7. सूद्र करहिं जप तप ब्रत नाना। बैठि वरासन कहहिं पुराना॥ 9
क्या
विडंबना है कि गोस्वामी तुलसीदास ने अपने पौराणिक पुनर्पाठ में कोल किरात आदि वन्य
जातियों एवं निम्न वर्ग से आने वाले संत कवियों के साथ जो सलूक किया, बौद्ध, सिद्धों और अवधूतों को दंभी और पाखंडी कहा;
वही सलूक रूढ़िवादी ब्राह्मणों ने स्वयं तुलसीदास के साथ किया। सतत्
अकेले पड़ते जाने की वेदना को तुलसीदास ने मोहभंग की अंतर्यात्रा में बराबर महसूस
किया है। अकेलेपन की अनुभूति तब और गहरा जाती है जब उनकी जाति पाँति के विरुद्ध
उँगली उठने लगती है -
धूत
कहौ अवधूत कहौ रजपूत कहौ जोलहा कह कोऊ।
काहू
की बेटी सों बेटा न व्याहब काहू की जाति बिगारि न सोऊ॥ 10
वर्णाश्रमधर्मी
स्थिति से बाहर निकल कर इस नई स्थिति में वह जाति पाँति से परे हैं, किसी की बेटी से बेटा ब्याह कर उसकी जाति नहीं बिगाड़नी है। एकाकी पड़ते
जाने की अंतर्व्यथा और स्वयं निर्मित वर्णाश्रमधर्मी संरचना से आत्म निर्वासन की
पीड़ा, उस परिस्थितिजन्य मनोदशा का अहसास कराती है जिसके
चलते शंकराचार्य को ‘प्रच्छन्न बौद्ध’ कहे
जाने का दंश झेलना पड़ा होगा। आकस्मिक नहीं है कि दोनों अपने अपने समय के महान
समाहारकर्ता माने जाते हैं। दोनों को घर की ‘बिलबिल’ और बाहर के ‘दुर दुर’ से दो
चार होना पड़ा। तुलसीदास रटते रह गए ‘पूजिअ बिप्र सील गुन
हीना। सू्द्र न गुन गन ग्यान प्रबीना’ 11 लेकिन यह उन
पूजनीयों के लिए उतना महत्वपूर्ण नहीं था जितना यह कि ब्राह्मण होकर तुलसीदास नीची
जाति के संत महात्माओं के साथ उठता बैठता ही नहीं बल्कि खाता पीता भी है। उन्होंने
‘कागद की लेखी’ पर विश्वास न कर ‘आँखिन देखी’ पर ही विश्वास किया और उनकी दृष्टि में
वर्णच्युत तुलसीदास जुलाहे कबीर और ‘भच्छाभच्छ’ खाने वाले पाखंडी एवं धूर्त अवधूतों की कतार में ही रहने लायक समझे गए।
कितना कठिन है – ‘दो विरुद्धों का सामंजस्य’, इसे तुलसीदास ने स्वयं महसूस किया था – ‘हँसब ठठाइ फुलाउब
गालू’। और हम हैं कि समन्वयवाद का झुनझुना बजाए चले जा रहे
हैं। कागज पर समन्वय कर देना एक बात है, सामाजिक जीवन में दो
परस्पर विरोधी विचारधाराओं का सामंजस्य बिल्कुल दूसरी बात।
निर्गुण
भक्ति आंदोलन अपने समय की एक क्रांतिकारी विचारधारा है जो वर्चस्ववादी संस्कृति के
विरुद्ध प्रतिरोध की संस्कृति का निर्माण करती है। यदि रामचरितमानस में इन परस्पर
विरोधी विचार परंपराओं का सामंजस्य हो गया तो वर्णाश्रमधर्मी ‘रामराज्य’ के ठीक नाक के नीचे प्रतिरोध की संस्कृति
का वाहक कलिकाल कहाँ से प्रकट हो गया? रामराज्य अलग, कलिकाल अलग – ‘ज्ञान दूर कुछ क्रिया भिन्न’ की शैली में, फिर समन्वय की ‘इच्छा’
पूरी कैसे हो गई? कहाँ हैं रामराज्य में दलित
और अल्पसंख्यक, शूद्र और स्त्रियाँ? शूद्रों
और स्त्रियों के लिए यदि किंचित ‘स्पेस’ है भी तो वह सदियों की गुलामी के साथ, कर्तव्य के
बोझ से दबी हुई और अधिकारों से वंचित घृणा की सीमा तक अपमानित और तिरस्कृत –
‘अधम ते अधम अधम अति नारी।’ 12 आकस्मिक नहीं
है कि पौराणिक समाज में निरीह पशुओं की कतार में खड़े किए गए हैं – शूद्र और स्त्रियाँ! पशुओं की तरह ही अपने मालिक के खूँटे से बँधे हुए
हैं। जरा सी ढील देने से इनके बिगड़ जाने की चिंता पुराणकारों को बराबर सताती रहती
है – ‘जिमि सुतंत्र भए बिगरहिं नारी।’ 13 आचार्य रामचंद्र शुक्ल इसी को कर्तव्य की पुष्ट व्यवस्था कहते हैं और
तुलसीदास के रामराज्य में स्थापित कर्तव्य की इस पुष्ट व्यवस्था को और पोख्ता
बनाने का प्रयास करते हैं जिसे निर्गुणधारा के संतों ने बहुत कुछ छिन्न भिन्न कर
दिया था।
तुलसीदास
के कलिकाल वर्णन से जो सात उद्धरण ऊपर दिए गए हैं, उनमें
से तीन आरंभिक उद्धरणों के आधार पर आचार्य शुक्ल तुलसी की पुष्ट कर्तव्य व्यवस्था
का आकलन करते हुए एक बार फिर यह याद दिलाना नहीं भूलते कि ‘सगुण
धारा के भारतीय पद्धति के भक्तों में कबीर दादू आदि के लोकधर्म विरोधी स्वरूप को
यदि किसी ने पहचाना तो गोस्वामी जी ने। उन्होंने देखा कि उनके वचनों से जनता की
चित्तवृत्ति में एक घोर विकार की आशंका है जिससे समाज विश्रृंखल हो जायगा, उसकी मर्यादा नष्ट हो जायगी।’ (रामचंद्र शुक्ल,
हिंदी साहित्य का इतिहास; पृ. 134-35) तुलसीदास ने जो देखा, सो देखा; उसे देख कर आचार्य शुक्ल ने कुछ और भी देखा जिसे देखने से तुलसीदास भी चूक
गए थे। वह यह कि सगुण भक्ति भारतीय है और निर्गुण भक्ति अभारतीय, जबकि कबीर और तुलसी दोनों निर्गुण और सगुण में कोई भेद नहीं मानते। दूसरी
बात यह कि वर्णाश्रम के प्रति अश्रद्धा पैदा करने वाले कबीर आदि के जाति पाँति
विरोधी विचारों से किस जनता की चित्तवृत्ति में घोर विकार की आशंका है? शिक्षित जनता या अशिक्षित जनता? स्वयं शुक्ल जी के
अनुसार ‘इस पंथ (निर्गुण) का प्रभाव शिष्ट और शिक्षित जनता
पर नहीं पड़ा… पर अशिक्षित और निम्न श्रेणी की जनता पर इन
संत महात्माओं का बड़ा भारी उपकार है।’ (हिंदी साहित्य का
इतिहास; पृ.-73) फिर कबीर के उपकार को
खासतौर से रेखांकित करते हुए लिखते हैं – ‘इसमें कोई संदेह
नहीं कि कबीर ने ठीक मौके पर जनता के उस बड़े भाग को सँभाला जो नाथपंथियों के
प्रभाव से प्रेम भाव और भक्ति रस से शून्य और शुष्क पड़ता जा रहा था। उनके द्वारा
यह बहुत ही आवश्यक कार्य हुआ। इसके साथ ही मनुष्यत्व की सामान्य भावना को आगे करके
निम्न श्रेणी की जनता में उन्होंने आत्मगौरव का भाव जगाया और उसे भक्ति के ऊँचे से
ऊँचे सोपान की ओर बढ़ने के लिए बढ़ावा दिया।’ (हिंदी साहित्य
का इतिहास; पृष्ठ-67)
निश्चय
ही कबीर की प्रशंसा में लिखी गईं आचार्य शुक्ल की ये पंक्तियाँ न केवल कबीर के
क्रांतिकारी व्यक्तित्व की ओर संकेत करती हैं बल्कि ठीक मौके पर जनता के बहुत बड़े
भाग को सँभाल लेने वाले और निम्न श्रेणी की जनता में आत्मगौरव का भाव जगाने वाले
कबीर के लोकजागरण की सामाजिक भूमिका की पहचान भी कराती हैं। सवाल यह है कि एक
नाजुक मोड़ पर बहुत बड़े जन समुदाय को सही मार्ग दिखाने वाले, जनता में आत्मगौरव का बोध कराने वाले और भक्ति के ऊँचे से ऊँचे सोपान की
ओर बढ़ने की प्रेरणा देने वाले कबीर के क्रांतिकारी विचार आखिर किस जनता की
चित्तवृत्ति में विकार पैदा कर रहे हैं? कहीं यह वही जनता तो
नहीं जिसे कबीर सौ साल पहले फटकार चुके थे? और उस फटकार में
पंडितों को फटकार भी शामिल थी जिसकी चर्चा आचार्य शुक्ल सिद्धों, नाथों और कबीर के मूल्यांकन में बार बार करते हैं, बाकायदा
शीर्षक लगा कर – ‘पंडितों की फटकार।’ इस
डाँट फटकार वाली आलोचना का स्रोत भी तुलसी का वह उद्धृत दोहा है जिसका अंतिम बंद
है – ‘आँखि देखावहिं डाँटि।’ क्या कारण
है कि सौ साल पहले कबीर के क्रांतिकारी विचार सौ साल बाद तुलसी तक आते आते विकार
में बदल जाते हैं?
आश्चर्य
तो इस बात का है कि आचार्य रामचंद्र शुक्ल मानस की धर्म भूमि के रास्ते तुलसी तक
पहुँचते ही कबीर संबंधी अपने प्रगतिशील मूल्यांकन और कबीर की ‘प्रखर प्रतिभा’ को वैसे ही भूल जाते हैं जैसे
दुष्यंत शकुंतला को – पता नहीं जानबूझ कर या किसी अभिशाप के
कारण! जब तुलसी की आँख से कबीर को दुबारा देखते हैं तो अपनी आँख से उनका विश्वास
ही उठ जाता है; अपने ही प्रगतिशील मूल्यांकन को खारिज कर
कबीर का एक दूसरा ही चेहरा पेश कर देते हैं जो ‘मूर्खता
मिश्रित अहंकार की वृद्धि’ कर रहा है। वह लिखते हैं –
‘साथ ही उन्होंने (तुलसी) यह भी देखा कि बहुत से अनधिकारी और
अशिक्षित वेदाँत के कुछ शब्दों को लेकर यों ही ज्ञानी बने हुए मूर्ख जनता को लौकिक
कर्तव्यों से विचलित करना चाहते हैं और मूर्खता मिश्रित अहंकार की वृद्धि कर रहे
हैं।’ (हिंदी साहित्य का इतिहास; पृ. 135)
क्या उलटबाँसी है कि यहाँ आते ही जनता में आत्मगौरव का भाव जगाने
वाला ज्ञान ‘मूर्खता मिश्रित अहंकार’ में
बदल जाता है और आत्मगौरव के बोध से जागरूक जनता भी ‘मूर्ख
जनता’ में रूपांतरित हो जाती है। दूसरी बात यह कि ‘यों ही ज्ञानी बने हुए’ का मतलब क्या है? ज्ञानी तो आपने ही बनाया ‘ज्ञानाश्रयी शाखा’ से नाम जोड़ कर! देखने की बात यह है कि क्या कबीर की निम्नलिखित पंक्तियां
शुद्धतावाद की वर्जनाओं से घिरे यथास्थितिवादियों के अलगाववाद के विरुद्ध लोकजागरण
का संदेश दे रही हैं या मूर्खता मिश्रित अहंकार की वृद्धि कर रही हैं-
1. चारिउ वेद पढ़ाइ करि, हरि सूं न लाया हेत।
बालि
कबीरा ले गया, पंडित ढूँढ़ै खेत॥ 14
2. बांम्हण गुरु जगत का, साधू का गुरु नाहिं।
उरझि
पुरझि करि मरि रह्या, चारिउं बेदां माहिं॥ 15
3. पांड़े कौन कुमति तोहिं लागी, तू राम न जपहिं अभागा। 16
4. काहें को कीजै पांड़े छोति विचारा।
छोतिहीं
तैं उपना सब संसारा॥ 17
5. हमारे कैसे लोहू तुम्हारैं कैसे दूध।
तुम्ह
कैसे बांम्हण पांडे हम कैसे सूद॥ 18
6. पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुवा, पंडित भया न कोइ।
एकै
आखर पीव का, पढ़ै सो पंडित होइ॥ 19
7. सुन्नत कराय तुरुक जो होना, औरत को क्या कहिये।
अर्धशरीरी
नारि बखानी, ताते हिंदू रहिये॥
पहिरि
जनेऊ जो ब्राह्मण होना, मेहरी क्या पहिराया।
वो
तो जन्म की शूद्रिन परसे, तू पांड़े क्यों खाया॥ 20
8. पांड़े बूझि पियहु तुम पानी।
जेहि
मटिया के घर में बैठे, तामें सृष्टि समानी॥ 21
9. एकै जनी जना संसारा। कौन ज्ञान से भयउ निनारा॥ 22
जाहिर
है कि यहाँ जाति व्यवस्था के पोषक अलगाववादियों को संबोधित इन उद्धरणों में जाति
व्यवस्था की असंगतियों पर प्रश्न खड़ा करने वाले एक जागरूक रचनाकार का अपने
विपक्षी की आँखों में आँखें डाल कर किया गया संवाद है, एक सार्थक संवाद जो वाद विवाद के बिना संभव भी नहीं है। इन उद्धरणों को
तुलसीदास के उन सात उद्धरणों के साथ मिला कर देखा जाय तो वाद विवाद की एक
विमर्शकारी स्थिति स्पष्ट दिखाई देती है। कबीर के इन प्रश्नों को तुलसीदास
पूर्वपक्ष के रूप में लेते हुए अपने उत्तर पक्ष का प्रतिपादन करते हैं और इस
विमर्श में आचार्य शुक्ल तुलसीदास के साथ खड़े हैं। अतः संतुलित दृष्टि वाले कबीर
के इन क्रांतिकारी विचारों में यदि कोई विद्वान सामाजिक सांस्कृतिक अंतर्विरोधों
को नजरंदाज कर उसमें केवल पंडितों और मुल्लाओं को फटकार ही सुन पाता है तो वह न
केवल सरलीकरण का सहारा लेता है बल्कि जाने अनजाने उन्हीं यथास्थितिवादियों की कतार
में स्वयं अपने को भी खड़ा कर लेता है। यदि कर्तव्य की पुष्ट व्यवस्था करने वाले
वर्णाश्रमधर्मी समाज की मर्यादा रक्षा ही लौकिक कर्तव्य है और वर्णाश्रम धर्म के
प्रति अश्रद्धा पैदा करने वाला कबीर ‘मूर्ख जनता’ को उन्हीं लौकिक कर्तव्यों से विचलित करना चाहता है तो निश्चय ही यह
जनजागरण प्रगतिशील भी है और सराहनीय भी। कबीर और तुलसी संबंधी आचार्य शुक्ल की
आलोचना के अंतर्विरोधों पर लीपापोती करने और अपने पूज्य की प्रतिमा की चमक बनाए
रखने के लिए समन्वयवाद का दर्शन बड़ा सहायक सिद्ध होता है। यदि पूरे मध्यकालीन
साहित्य को लोकजागरण का साहित्य मान लिया जाय तो तुलसीदास का पुनरुत्थानवादी स्वर
अपने आप लोकजागरण में अंतर्भुक्त हो जायगा।
तुलसीदास
ने भक्ति आंदोलन के समतामूलक सिद्धांत को स्वीकार तो किया लेकिन जनता को यह बताते
हुए कि सामाजिक जीवन में तो जाति पाँति के बंधन को मानना ही पड़ेगा, क्योंकि यह व्यवस्था तो भगवान की बनायी हुई है। तुलसी के राम यह घोषणा
अवश्य करते हैं-
सब
मम प्रिय सब मम उपजाए।
सबते
अधिक मनुज मोहिं भाए।23
लेकिन
ब्राह्मण श्रेष्ठता को रेखांकित करना नहीं भूलते-
तिन्ह
मँहु द्विज द्विज मँह श्रुति धारी।
तिन्ह
मँहु निगम धरम अनुसारी।24
सूर
की भक्ति में सेवा, श्रद्धा और पूज्य भाव की
अपेक्षा समतामूलक प्रेम भाव की प्रमुखता है जबकि तुलसीदास की शास्त्रसम्मत भक्ति
दास्य भाव की भक्ति है जो स्वामी और सेवक के सामंती आदर्श को पुष्ट करती है। कहने
की आवश्यकता नहीं कि रामचरित मानस में दोहरी व्यवस्था कायम की गई है जिससे
वर्णाश्रम धर्म और भक्ति साथ साथ चलते दिखाई पड़ते हैं। समतामूलक भक्ति से
वर्णाश्रम धर्म का सामंजस्य हो भी कैसे सकता है? कई एक बार
शबरी और निषाद के प्रसंग को उद्धृत कर उसे समतामूलक भक्ति के प्रमाणपत्र की तरह
पेश किया जाता है। सवाल यह है कि क्या यह वही समतामूलक भक्ति है जिसे वर्णाश्रम
व्यवस्था और ब्राह्मण श्रेष्ठता को चुनौती देने वाले निर्गुण भक्ति आंदोलन में
स्थापित किया था? यदि वही है तो देखने की बात यह है कि क्या
इस भक्ति से वर्णाश्रम धर्म की मर्यादा पर कोई आँच आती है या नहीं? तर्क तो यही दिया जाता है कि रामचरित मानस का समाज वर्णाश्रमधर्मी समाज
नहीं, भक्ति समाज है अन्यथा ‘निषाद को
गले लगाना किस स्मृति की व्यवस्था है?’25 निषाद को गले लगाने
का प्रसंग निम्नलिखित है -
प्रेम
पुलकि केवट कहि नामू। कीन्ह दूरि ते दंड प्रनामू।
राम
सखा रिसि बरबस भेंटा। जनु महि लुटत सनेह समेटा॥
रघुपति
भगति सुमंगल मूला। नभ सराहिं सुर बरसहिं फूला।
एहि
सम निपट नीच कोउ नाहीं। बड़ वशिष्ठ सम को जग माहीं॥ 26
कहाँ
है यहाँ वर्णाश्रमधर्मी समाज से भक्ति का सामंजस्य? समाज
अलग, भक्ति अलग! पहली और चौथी पंक्ति में वर्णाश्रम धर्म
अपनी पूरी मर्यादा के साथ उपस्थित है तो दूसरी और तीसरी पंक्ति में भक्ति, ऊपर नीचे वर्णाश्रम धर्म से घिरी हुई। पहली पंक्ति में वर्णाश्रम धर्म की
मर्यादा का पालन और ब्राह्मण श्रेष्ठता का सम्मान करते हुए केवट ने अपना परिचय
देकर दूर से ही पूज्य के चरणों में दंडवत (जमीन पर लेट कर) प्रणाम किया।
वर्णाश्रमधर्मी समाज में प्रजा के लिए ऐसे ही दंडवत प्रणाम का विधान है जिसे
स्वीकार करने के लिए पूज्य के चरण ही काफी हैं। दूसरी पंक्ति में भक्ति है जहाँ
वशिष्ठ राम सखा से गले मिलते हैं। इसलिए ब्राह्मण वशिष्ठ ‘निपट
नीच’ केवट से कहाँ मिले? वह तो रामसखा
से गले मिले और यह जान लेने के बाद कि वह कोई सामान्य केवट नहीं बल्कि मर्यादा
पुरुषोत्तम राम का सखा निषादराज है जिसे उन्होंने स्वयं सम्मानित किया है। पहली
पंक्ति में वर्णधर्म है तो दूसरी में लोकधर्म। लोकधर्म का पालन करते हुए वशिष्ठ
रामसखा से गले मिलते हैं लेकिन वर्णाश्रम धर्म की मर्यादा पर कोई आँच नहीं आती।
तीसरी पंक्ति में भक्ति की महिमा का मंगल गान है तो चौथी पंक्ति में वर्णाश्रम
धर्म और ब्राह्मण श्रेष्ठता का गौरव गान। इसी को कहते हैं – साँप
भी मरे और लाठी भी न टूटे। वर्णाश्रम धर्म और लोकधर्मी भक्ति की यही समानांतरता
भरत निषाद मिलन और शबरी प्रसंग में भी देखी जा सकती है। भरत निषाद मिलन भी ठीक उसी
शैली में -
लोक
वेद सब भांतिहिं नीचा। जासु छाँह छुइ लेइअ सींचा।
तेहि
भरि अंक राम लघु भ्राता। मिलत पुलक परिपूरन गाता॥ 27
डॉ.
रामविलास शर्मा यदि पूछ ही बैठें कि ‘निषाद को गले
लगाना किस स्मृति की व्यवस्था है?’ तो पूछा जाना चाहिए कि
केवट के लिए ‘लोक वेद सब भांतिहिं नीचा / जासु छाँह छुइ लेइअ
सींचा’ अथवा ‘एहि सम निपट नीच कोउ
नाहीं / बड़ वशिष्ठ सम को जग माहीं।’ यदि स्मृति और शास्त्र
की व्यवस्था नहीं तो क्या इस व्यवस्था के विरोध में उठ खड़े हुए भक्ति आंदोलन की
सामाजिक व्यवस्था है? वर्ण धर्म को पुष्ट करने वाला सेवा
धर्म ही क्या राम भक्ति की मौलिक विशेषता नहीं है? राम की इस
सेवा भक्ति में विभोर शबरी के आतिथ्य के प्रसंग में दासानुदास तुलसीदास ने लिखा -
‘कंद मूल फल सुरस अति, दिए राम कहुँ आनि।
प्रेम
सहित प्रभु खाए, बारंबार बखानि॥ 28
तो
पता नहीं उन्होंने कैसे पढ़ लिया – औरतों का
जूठा खाना, वह भी बेर। शबरी का प्रसंग उठा कर वह पूछते हैं –
‘क्षत्रियों के लिए औरतों का जूठा खाना, वह भी
बेर, किस शास्त्र में लिखा है।’29 माना
कि नहीं लिखा है, लेकिन शबरी के परिचय में जो स्त्री
प्रशस्ति के कसीदे काढ़े गए हैं – ‘अधम ते अधम अधम अति नारी’
क्या वह भी शास्त्रीय विधान नहीं है? डॉ.
रामविलास शर्मा भी चाहते तो अन्य तुलसी भक्तों की तरह कह सकते थे कि यह तुलसी का
नहीं शबरी का कथन है, लेकिन उन्हें पता था कि रामचरित मानस
में तुलसीदास कहाँ कुछ कहते हैं? जो कहना है वह ‘नानापुराणनिगमागम’ कहते हैं, मानस
के पात्र कहते हैं, पशु पक्षी कहते हैं; यहाँ तक कि जड़ जंगम भी कहते हैं, नहीं कहते तो केवल
तुलसीदास! हालाँकि कुछ न कह कर भी सब कुछ वही कहते हैं। लेकिन ‘तुलसीदास ने यह नहीं कहा है’ ऐसा बहुधा विघोषित
वाक्य है जिसका तुलसीदास के पक्ष में, सुरक्षा कवच की तरह
इस्तेमाल किया जाता है।
इसी
प्रकार ‘भए सब साधु किरात किरातिनी / रामदास मिटि गई कलुषाई’ को उद्धृत करते हुए डॉ. रामविलास शर्मा लिखते हैं – ‘जब किरात और किरातिनें भी साधु होने लगीं तो कलियुग आ गया कि नहीं?
क्या इससे स्पष्ट नहीं कि तुलसी की भक्ति मानव मात्र की साम्य भावना
लेकर चली है।’30 इस उद्धरण से डॉ. शर्मा क्या साबित करना
चाहते हैं, स्पष्ट ही नहीं हो पाता। यह तो सही है कि कलिकाल
वर्णाश्रम विरोधी चेतना का प्रतीक है और वर्णाश्रम व्यवस्था के छिन्न भिन्न होने
पर ही प्रकट होता है। यह भी सही है कि किरात किरातिनों का साधु बनना
यथास्थितिवादियों के लिए कलिकाल का लक्षण है। लेकिन इस कलिकाल से तुलसी की भक्ति
को मानव मात्र की साम्य भावना लेकर चलने वाली कैसे सिद्ध किया जा सकता है? यदि कलिकाल से तुलसी की भक्ति का सामंजस्य मान भी लिया जाय तो तुलसी ने
रामकथा को ‘कलिमलहरनी’ क्यों कहा?
कलिकाल आया, इसमें संदेह नहीं; पर वह तो तुलसी से सौ साल पहले आया और लाने वाले थे कबीर, दादू आदि वर्णाश्रम धर्म के प्रति अश्रद्धा पैदा करने वाले संत कवि।
तुलसीदास के कलिकाल वर्णन में कोल किरात आदि वन्य जातियों सहित अलख जगाने वाले
सिद्धों अवधूतों तथा ‘साखी सबदी दोहरा’ कहने वाले कबीर आदि संतों को सूचीबद्ध किया गया है जिनकी भक्ति ने स्वयं
आचार्य शुक्ल के अनुसार ‘मनुष्यत्व की सामान्य भावना को आगे
कर निम्न श्रेणी की जनता में आत्मगौरव का भाव’ जगाया। निम्न
श्रेणी की जनता के बीच से आने वाले किरात किरातिनों का साधु बनना उसी लोक जागरण का
परिणाम है। यदि डॉ. रामविलास शर्मा के अनुसार तुलसी की भक्ति भी मानव मात्र की उसी
साम्य भावना को लेकर चली है तो कलिकाल के कवियों में उनका भी नाम होना चाहिए था पर
वह तो ‘बरन धर्म नहिं आश्रम चारी / श्रुति विरोध रत सब नर
नारी’ 31 की चिंता से चिंतित, वर्णाश्रम
धर्म की पुनर्प्रतिष्ठा में लगे हुए हैं जिसे कलियुगी कवियों ने छिन्न भिन्न कर
दिया था। वर्णाश्रमधर्म की प्रतिष्ठा भी हो और मानवमात्र की साम्य भावना पर आधारित
वर्णाश्रम विरोधी भक्ति की स्वीकृति भी, ये दोनों बातें एक
साथ कैसे हो सकती हैं?
आकस्मिक
नहीं है कि भक्ति आंदोलन के अंतर्विरोधों और तुलसी के मूल्यांकन में प्रगतिवादी आंदोलन
के भटकाव को लक्ष्य कर, प्रगतिवादी आलोचकों को आगाह
करते हुए मुक्तिबोध को लिखना पड़ा था – ‘आश्चर्य की बात है
कि आजकल प्रगतिवादी क्षेत्रों में तुलसी के विषय में जो कुछ लिखा गया है, उसमें जिस सामाजिक, ऐतिहासिक प्रक्रिया के तुलसीदास
जी अंग थे, उनको जानबूझ कर भुलाया गया है। पंडित रामचंद्र
शुक्ल की वर्णाश्रमधर्मी जातिवाद ग्रस्त सामाजिकता और सच्चे जनवाद को एक दूसरे से
ऐसे मिला दिया गया है मानो शुक्ल जी (जिनके प्रति हमारे मन में अत्यंत आदर है)
सच्ची जनवादी सामाजिकता के पक्षपाती हों।’ (मुक्तिबोध
रचनावली : खंड-5, पृ. 294) जाहिर है कि
मुक्तिबोध ने न केवल तुलसी की पुराण मतवादी चेतना और समन्वयवाद की दोहरी व्यवस्था
का विरोध किया है बल्कि उसे पुष्ट करने वाले ‘पंडित रामचंद्र
शुक्ल की वर्णाश्रमधर्मी जातिवाद ग्रस्त सामाजिकता’ और ‘सच्ची जनवादी सामाजिकता’ में सामंजस्य स्थापित करने
वाली प्रगतिवादी आलोचना के प्रति अपना आश्चर्य भी प्रकट किया है। इसलिए तुलसी के
अंतर्विरोधों पर लीपापोती करने से न तो तुलसी महान हो जाएँगे और न ही अंतर्विरोधों
को उजागर करने से उनका कद छोटा हो जाएगा। तुलसीदास मध्यकाल के सबसे बड़े कवि हैं
तो केवल रामचरित मानस के कारण ही नहीं बल्कि अपनी उत्तरकालीन रचनाओं – विनय पत्रिका, कवितावली और हनुमान बाहुक के कारण भी
जहाँ उनकी अनुभूति की प्रामाणिकता असंदिग्ध है और वे पौराणिक मतवाद से मुक्त भी
हैं। क्या कारण है कि तुलसीदास को वर्णाश्रमधर्मी जातिवाद ग्रस्त सामाजिकता के
आरोपों से मुक्त बताने के लिए उद्धरण प्रायः इन्हीं उत्तरकालीन रचनाओं से जुटाए
जाते हैं। विशेषतः कवितावली से जहाँ असुर उत्पीड़न के कल्पित हाहाकार के स्थान पर
तुलसी के अपने समय समाज का करुण चीत्कार सुनाई पड़ता है; जहाँ
भूख, अकाल, गरीबी और लाचारी के न जाने कितने
कारुणिक चित्र उकेरे हैं तुलसीदास ने। अतः उत्तरकालीन काव्य यात्रा में ही
तुलसीदास के मध्यकालीन बोध की आधुनिकता भी दिखाई देती है।
सूरदास
के सूरसागर में चित्रित समाज, रामचरित मानस के पौराणिक
समाज से बिल्कुल भिन्न समाज है। प्रकृति के स्वच्छंद वातावरण में चित्रित कृष्ण का
गोचारी जीवन, उन वैदिक आर्यों के स्वच्छंद जीवन की याद
दिलाता है जो अपने पशुओं के रेवड़ के साथ सिंधु और गंगा घाटी के मैदानों में
उन्मुक्त विचरण किया करते थे। अतः सूरसागर में चित्रिात समाज चाहे वैदिक समाज की
स्मृति (नास्टेल्जिया) हो अथवा भावी समाज का स्वप्न (यूटोपिया), दोनों ही स्थितियों में वह मानस के बंद समाज से कहीं ज्यादा खुला हुआ
आधुनिक समाज है और कभी कभी तो स्त्री पुरुष संबंधों की सामाजिक उन्मुक्तता के कारण
उत्तर आधुनिक जैसा भी प्रतीत होता है। इस जनतांत्रिक समाज में न तो पुरुष वर्चस्व
की घुटन है और न वर्णाश्रमधर्म के विनाश की चिंता; न शूद्र,
पशु, नारी की प्रताड़ना है और न ही किसी
स्त्री को अग्निपरीक्षा देने की आवश्यकता। यह एक स्वस्थ और हँसमुख समाज है जिसमें
जीवन की चहल पहल है, राग रंग है और आनंद का उल्लास भी।
मीराबाई की तरह लोकलाज और कुल मर्यादा को तार तार करने वाला विवाहित गोपियों का
कृष्ण प्रेम स्त्री मुक्ति का उद्घोष भी है और तत्कालीन सामंती पुरोहिती समाज
व्यवस्था के लिए कड़ी चुनौती भी। आकस्मिक नहीं है कि आचार्य रामचंद्र शुक्ल इस
उन्मुक्त प्रेम की प्रशंसा करते समय अँग्रेजी के युवा कवि शेली को याद करते हैं –
‘सूर के कृष्ण और गोपियाँ पक्षियों के समान स्वच्छंद हैं। वे लोक
बंधनों से जकड़े हुए नहीं दिखाए गए हैं। जिस प्रकार के स्वच्छंद समाज का स्वप्न
अँग्रेज कवि शेली देखा करते थे उसी प्रकार का यह समाज सूरदास ने चित्रित किया है।’
(भ्रमर गीत सार : संपा. रामचंद्र शुक्ल, भूमिका
पृ. 17)
लीला
गान की परंपरा लोक परंपरा है और सूरसागर लोक परंपराओं और लोक तत्वों का आधार ग्रंथ
है जिसमें नटखट गोपाल की बाल लीलाओं से लेकर प्रेमलीला के मधुर मनोरम चित्र भरे
पड़े हैं। इसलिए सूरसागर के लोकनायक कृष्ण लीला पुरुषोत्तम भी हैं तथा कला विलास
के लालित्य एवं नाटकीय व्यक्तित्व के कारण शिव की तरह नटनागर भी। लेकिन राम को
लोकरक्षक और कृष्ण को लोकरंजक कहना अंतिम सत्य नहीं हो सकता। माना कि सूर के कृष्ण
धर्म रक्षा के लिए अवतार लेने वाले कृष्ण नहीं हैं लेकिन लोक रक्षा को धर्म रक्षा
का पर्याय माने बिना क्या राम को लोकरक्षक कहा जा सकता है? लोक रक्षा क्या धर्म रक्षा तक ही सीमित है? कहीं
इसलिए तो नहीं कि सूर के कृष्ण भी कबीर के राम की तरह धनुर्धर नहीं हैं। लेकिन
कबीर ने तो अवतारवाद को स्वीकार ही नहीं किया और धनुर्धर राम को निर्गुण ब्रह्म
में रूपांतरित कर भक्ति के क्षेत्र में एक नया प्रयोग किया, भले
ही उसकी निर्गुण भक्ति को परंपरा बाह्य घोषित कर दिया जाय! पर वह कबीर ही क्या जो
परंपरा की रूढ़ियों को स्वीकार करता फिरे; आखिर अस्वीकार का
अदम्य साहस लेकर जो पैदा हुआ था! पैदाइशी विद्रोही, शायद
मध्यकाल का आदि विद्रोही भी। शंकराचार्य का क्रांतिकारी अद्वैत सिद्धांत वर्णवाद
का समर्थन करने के कारण कोरा सिद्धांत बन कर रह गया था। उसकी अंतर्विरोधी
असंगतियों पर अनेक प्रश्न खड़ा कर सामाजिक जीवन में उसे चरितार्थ करने का श्रेय तो
कबीर को ही जाता है। रही बात सूरदास के कृष्ण की तो वे धनुर्धर न सही, वंशीधर तो हैं और सूरसागर के स्वच्छंद समाज के अनुकूल बांसुरी की भूमिका
ही महत्वपूर्ण है।
अतः
यदि धर्म रक्षा को ही लोक रक्षा का पर्याय मान लिया जाय और तुलसीदास के मोह एवं
पुराण मतवादी दुराग्रह से मुक्त होकर विचार किया जाय तो रावण का वध करने के कारण
जैसे राम लोकरक्षक हैं वैसे ही कंस का वध करने के कारण कृष्ण भी लोकरक्षक हैं। इसी
प्रकार रावण के साथी मारीच, खरदूषण और ताड़का का निपात
यदि राम को लोकरक्षक बना सकता है तो कंस के साथी अघासुर, बकासुर
और शकटासुर का निपात कृष्ण को लोकरक्षक क्यों नहीं बना सकता? सच बात तो यह है कि आचार्य शुक्ल में वीरपूजा का भाव इतना प्रबल है और
वीरधर्म, राजधर्म और क्षात्रधर्म के प्रति इतनी गहरी आस्था
है कि न केवल सगुण भक्ति काव्य बल्कि वीर गाथाओं के मूल्यांकन में भी इनकी भूमिका
निर्णायक रही है। कहने की आवश्यकता नहीं कि वर्ण धर्म के संरक्षक क्षात्रधर्म में
शुक्ल जी की आस्था उतनी ही अडिग है जितनी मोहभंग के बावजूद राम भक्ति में तुलसीदास
की आस्था। आचार्य शुक्ल को सूरदास से यही शिकायत है कि धर्मरक्षा के लिए
क्षात्रधर्म के जिस तेजस्वी व्यक्तित्व की आवश्यकता थी, सूर
ने अपने कृष्ण को उस रूप में ढालने का प्रयत्न ही नहीं किया। थोड़ा बहुत जो
प्रयत्न मिलता है, वह बाललीला के अंतर्गत आता है, प्रेमलीला से पहले। अब कृष्ण को भी, पता नहीं ऐसी
क्या जल्दी थी कि दूध के दाँत भी नहीं निकले कि पूतना सहित कागासुर, शकटासुर और तृणावर्न का काम तमाम कर दिया और जब गोचारण के लिए वन जाने लगे
तो इसी बीच बकासुर और अघासुर को भी किनारे लगा दिया – बिना
किसी शोरशराबे के; न कोई चीत्कार न हाहाकार! इसीलिए तो
देवताओं ने भी कोई ‘नोटिस’ नहीं ली।
जाहिर है कि सूरदास ने कल्पित असुर संहार की पौराणिक घटनाओं को ज्यादा तूल न देकर
उसे भी अन्य लीलाओं की तरह बाललीला के अंतर्गत बाल कौतुकी के रूप में ही चित्रित
किया है। जब हम जानते हैं कि पौराणिक पुनरुत्थान के सुसंगत विस्तार में सूरदास की
न कोई विशेष रुचि है और न असुरों के निपात चित्रण में उनकी वृत्ति लीन हुई है तो
सूर के असुर निपात चित्रण में तुलसीदास जैसा, ओज, उत्साह और उल्लास ढूँढ़ना बेकार है। इसलिए सूरसागर में असुरों का अत्याचार
यदि आचार्य शुक्ल को ‘सभ्य अत्याचार’ जान
पड़े तो क्या आश्चर्य?
आचार्य
शुक्ल के अनुसार कंस और उसके सहायक असुर, रावण और
उसके साथी राक्षसों की तरह लोक उत्पीड़क या लोकशत्रु नहीं हैं। इसका कारण बताते
हुए उन्होंने लिखा है – ‘रावण के साथी राक्षसों के समान वे
ब्राह्मणों को चबा चबा कर हड्डियों का ढेर लगाने वाले या स्त्री चुराने वाले नहीं
दिखाई पड़ते। उनके कारण वैसा हाहाकार नहीं सुनाई पड़ता। उनका अत्याचार ‘सभ्य अत्याचार’ जान पड़ता है।’ (भ्रमर गीत सार : संपा. – रामचंद्र शुक्ल; भूमिका; पृ. 13) रावण के साथी
राक्षसों द्वारा स्त्री चुराए जाने का कोई प्रसंग तो याद नहीं आता – हाँ, रावण द्वारा सीताहरण की घटना तो सभी जानते हैं,
इसलिए रावण को लोक उत्पीड़क या लोकशत्रु मान लेने में कोई कठिनाई
नहीं है लेकिन ‘ब्राह्मणों को चबा चबा कर हड्डियों का ढेर
लगाने वाले’ रावण के साथी राक्षसों को भी लोक उत्पीड़क या
लोक शत्रु क्यों मान लिया जाय? जबकि कंस को लोक शत्रु मानने
में आचार्य शुक्ल काफी कठिनाई का अनुभव करते हैं। दूसरी बात यह कि रावण के साथियों
के अत्याचार के विषय में तुलसीदास ने लिखा कुछ, और शुक्ल जी
ने पढ़ा कुछ और। इस संदर्भ में तुलसीदास ने लिखा है -
अस्थि
समूह देखि रघुराया। पूछी मुनिन्ह लागि अति दाया॥
निसिचर
निकल सकल मुनि खाए। सुनि रघुवीर नयन जल छाए॥
(रामचरित मानस : अरण्य कांड; दोहा 9)
पुराणों
में असुरों के वध को न्यायसंगत ठहराने के लिए उनके अत्याचार को बढ़ा चढ़ा कर कहने
की परंपरा है। तुलसीदास का यह प्रसंग उसी का पुनर्पाठ है। इसके साथ ही रामचरित
मानस में दलित और स्त्री विरोधी पौराणिक कुपाठों के और भी अनेक पुनर्पाठ मिलते हैं
जिन्हें तुलसी का कमजोर पक्ष कह कर टाला नहीं जा सकता। लेकिन यहाँ पर फिर भी
तुलसीदास ने असुरों के असभ्य अत्याचार के प्रमाण रूप में मुनियों के ‘अस्थि समूह’ के संयमित चित्रण द्वारा राम को असुर
संहार के लिए उत्प्रेरित किया है और द्रवीभूत राम पृथ्वी को राक्षस विहीन करने का
संकल्प भी करते हैं। लेकिन आचार्य शुक्ल को तुलसी का असभ्य अत्याचार वर्णन कुछ कम
असभ्य प्रतीत हुआ इसलिए उसे कुछ और असभ्य बनाने की प्रक्रिया में उन्होंने ‘अस्थि समूह’ को ‘हड्डियों के
ढेर’ में बदल दिया जिससे कुछ ज्यादा ही क्रूरता का बोध हो
सके। मुनि कहने से तो जैन मुनि का भी बोध होता है और ब्राह्मणेतर वर्णों से भी
मुनि होते ही आए हैं इसलिए आचार्य शुक्ल ने न जाने किस ‘डी.एन.ए.
टेस्ट’ से यह साबित करके ही दम लिया कि यह ‘अस्थि समूह’ ब्राह्मणों की ही हड्डियों का ढेर है।
इससे लोकव्यापी हाहाकार में वृद्धि तो होती ही है, ब्रह्महत्या
के कारण असुरों का अपराध और भी अक्षम्य हो जाता है; सामाजिक
उत्तेजना फैलती है, सो अलग, जिसे
तुलसीदास ने भरसक बचाने का ही प्रयास किया है। यहाँ तो आचार्य शुक्ल तुलसीदास से
कहीं ज्यादा पुराणपंथी प्रतीत होते हैं। यहाँ यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि यदि
कंस कृष्ण का व्यक्तिगत शत्रु है तो ब्राह्मणों की हत्या करने वाले रावण के साथी
ब्राह्मण शत्रु न होकर लोक शत्रु कैसे हो गए? यदि गोकुल और
उसके नायक कृष्ण का उत्पीड़न लोक उत्पीड़न नहीं है तो ब्राह्मणों के उत्पीड़न को
लोक उत्पीड़न मानने का तार्किक आधार क्या है? क्या ब्राह्मण
लोक का पर्याय है?
माना
कि पौराणिक मतवाद के अनुसार गो, ब्राह्मण और स्त्री
अबध्य हैं और उनकी हत्या करने वाला पाप का भागी और मृत्युदंड का अधिकारी होता है।
अतः ब्राह्मणों की हत्या करने वाले मारीच और खरदूषण का निपात न्यायसंगत और उचित है,
लेकिन ताड़का का निपात? वह भी मर्यादा
पुरुषोत्तम के हाथों? फिर भी उनकी मर्यादा पर कोई आँच नहीं
आती? वह तो खैर भगवान हैं, सर्व
शक्तिमान हैं, पाप और दंड से परे हैं लेकिन महान्
मर्यादावादी तुलसीदास की मर्यादा को तो देखिए कि जिस ओज और उत्साह के साथ वे मारीच
और खरदूषण के निपात का वर्णन करते हैं, उसी ओज और उत्साह के
साथ ताड़का निपात का भी! हैरानी की बात तो यह कि आचार्य शुक्ल भी उसी उत्साह के
साथ गोस्वामी जी की पीठ थपथपाने लगते हैं जैसे उन्होंने कोई बड़े पुण्य का काम कर
दिया है। वस्तुतः आचार्य शुक्ल पौराणिक मतवाद, तुलसी और
रामचरित से इतने आक्रांत हैं कि मानस में तुलसी के कमजोर पक्ष को भी शक्तिशाली मान
लेने से उन्हें मानस में सब कुछ हरा हरा ही दिखाई देता है। प्रखर समाजवादी चिंतक
डॉ. राम मनोहर लोहिया के मन में ‘तुलसी की रामायण’ के प्रति अपार श्रद्धा थी। रामायण मेला के आयोजन द्वारा वह जनता में विवेक
जगाना चाहते थे इसलिए अंधश्रद्धा के शिकार नहीं हुए। मेले के उद्देश्य को स्पष्ट
करते हुए उन्होंने लिखा है – ‘तुलसी की रामायण में निश्चय ही
सोना, हीरा, मोती बहुत है, लेकिन कूड़ा और उच्छिष्ट भी काफी है। इन दोनों को धर्म से इतना पवित्र बना
दिया गया है कि भारतीय जन की विवेक दृष्टि लुप्त हो गई है। इस मेले का उद्देश्य है
कि भारतीय जनता वह विवेक दृष्टि पुनः प्राप्त करे।’ (मर्यादित,
उन्मुक्त और असीमित व्यक्तित्व : रामायण मेला शीर्षक लेख, पृ. 35) जाहिर है कि डॉ. लोहिया के लिए तुलसीकृत
रामायण एक धर्मग्रंथ मात्र नहीं बल्कि ऐसा बेशकीमती हीरा था जिसकी चमक वह पूरे
विश्व को दिखाना चाहते थे और हीरे में चमक लाने के लिए उसे तराशना पड़ता है।
अवतारवाद
के तमाम पौराणिक नुस्खों के प्रति आचार्य शुक्ल पूरी तरह आस्थावान हैं। यही कारण
है कि रामचरित मानस के आदर्श पर वे असुरों के निपात के अवसर पर देवताओं की पुष्प
वृष्टि को इतना महत्व देते हैं कि उसी को किसी असुर के लोक उत्पीड़क या लोकशत्रु
होने तथा उसके उत्पीड़न के लोकव्यापी प्रभाव को मापने का प्रतिमान मान लेते हैं।
दृष्टि धरती की ओर नहीं आकाश की ओर लगी है। इस प्रतिमान को जब वह सूरसागर पर लागू
करते हैं तो किंचित निराश हो जाते हैं क्योंकि सूरदास ने देवताओं को फूल बरसाने का
अवसर ही बहुत कम दिया है। आचार्य शुक्ल लिखते हैं – ‘कागासुर,
बकासुर और शकटासुर को हम लोक उत्पीड़कों के रूप में नहीं पाते हैं।
केवल प्रलंब और कंस के वध पर देवताओं का फूल बरसाना देख कर उक्त कर्म के लोकव्यापी
प्रभाव का कुछ आभास मिलता है।’ (भ्रमर गीत सार : संपा.
रामचंद्र शुक्ल, भूमिका, पृ. 14)
यदि देवता फूल न बरसाते तो प्रलंब और कंस को लोक उत्पीड़क था
लोकशत्रु मानने को शुक्ल जी तैयार न थे। सच तो यह है कि सूरदास देवताओं के उतने
मोहताज न थे, उनकी दृष्टि धरती की ओर है आकाश की ओर नहीं।
इसीलिए देवताओं की प्रसन्नता की अपेक्षा वह मनुष्यों की प्रसन्नता को और देव लोक
की अपेक्षा मानव लोक को ज्यादा महत्व देते हैं। सूरसागर में असुर निपात से किंचित
भयभीत कृष्ण के दोस्त मित्र फूल मालाओं से अपने लोकनायक का अभिनंदन कर परस्पर
हर्षोल्लास मनाते हैं। देवता फूल बरसाएँ या न बरसाएँ, इससे
सूरदास को कोई फर्क नहीं पड़ता।
असुर
निपात के अवसर पर देवताओं का फूल बरसाना वस्तुतः अत्याचार से पीड़ित पृथ्वी की
पुकार,
देवताओं के कान और आँख तथा ईश्वर के धनुषबाण के बीच असुरों के साथ
खेले जाने वाले अवतारवादी पौराणिक खेल का एक हिस्सा है जिसमें सूरदास की विशेष
दिलचस्पी नहीं है। ईश्वरीय चमत्कार के इस खेल में सूरदास के बाल कृष्ण भी शामिल
अवश्य हैं किंतु उनकी बालक्रीड़ा का ईश्वरीय चमत्कार पौराणिक खेल से किंचित भिन्न
है। यहाँ लक्ष्य असुर संहार नहीं बल्कि असुरों के आघात से आत्मरक्षा का संघर्ष है।
कृष्ण की आत्मरक्षा ही ब्रज की लोकरक्षा है। वह ब्रजनाथ हैं, ब्रज वल्लभ हैं, ब्रज के प्राण हैं और सब मिला कर
ब्रज की नाभि हैं कृष्ण। कहते हैं कि राम रावण युद्ध के लगातार खिंचते चले जाने से,
अशोक वाटिका में व्याकुल सीता ने जब त्रिजटा से रावण के मारने का
उपाय पूछा तो उसने यही बताया कि रावण की नाभि में सीता बसती हैं अतः नाभि पर
प्रहार करके ही उसे मारा जा सकता है। इस तरह रावण की नाभि में सीता और सीता के
प्राणों में मर्यादा पुरुषोत्तम, सो, रावण
का संहार हुआ और सीता का उद्धार भी। लेकिन यहाँ तो ब्रज की नाभि में लीला
पुरुषोत्तम बसते हैं अतः नाभि पर किया जाने वाला हर आघात आत्मघाती सिद्ध होता है।
पालने में सोए हुए शिशु कृष्ण तो पूतना, कागासुर और शकटासुर
के आघातों से आत्मरक्षा का प्रयत्न करते हैं, अब इस प्रयास
में उनका संहार हो जाता है तो इसमें शिशु कृष्ण का क्या दोष? वह तो ईश्वरीय चमत्कार का खेल खेल रहे हैं जिसे ब्रजवासियों सहित नंद और
यशोदा जान भी नहीं पाते। उनके लिए तो यह कोई दुर्घटना या दैवी आपदा थी जो टल गई।
इसके लिए वे ईश्वर का लाख लाख शुक्रिया अदा करते हैं कि पालने में खेलने वाला उनका
प्यारा शिशु, किसी अज्ञात आपदा की चपेट में आने से बाल बाल
बच गया। माँ यशोदा लोन राई से नजर उतार कर शिशु कृष्ण की बलैया लेना नहीं भूलतीं।
गोकुल
से आरंभ हुआ आत्मरक्षा का संघर्ष आगे चल कर ब्रज की लोकरक्षा में धनीभूत हो जाता
है। वे ब्रह्मा द्वारा चुराई गई नंद घोष की गायों को वापस लाते हैं, दावाग्नि में घिरे ब्रजवासियों को बचाते हैं और इंद्र के कोप से डूबते
ब्रज की रक्षा कर ब्रह्मा और इंद्र का गर्व मोचन करते हैं। अतः सूरसागर में
चित्रित कृष्ण का जीवन संघर्ष सतह से उठते हुए सामान्य मनुष्य का संघर्ष है जो आगे
चल कर लोकरक्षा के अपने प्रयत्नों से लोकनायक का गौरव अर्जित करता है। ईश्वर होकर
भी कृष्ण सूरसागर में एक सामान्य मनुष्य का जीवन जीते हैं। बाल्यावस्था में सामान्य
ग्वाल बालों के साथ उसी प्रकार खेलना कूदना, हँसना हँसाना,
हारना जीतना, चिढ़ना चिढ़ाना, माखन चोरी करते रँगे हाथ पकड़े जाने पर तरह तरह के बहाने बनाना, अपनी गलती दूसरों पर थोप कर साफ साफ बच निकलना आदि बालक कृष्ण की कतिपय
विशिष्टताएँ हैं जो उन्हें सामान्य बालकों से थोड़ा अलग करती हैं और इसी के चलते
वे साथियों के बीच टोली नायक बन जाते हैं जो लोकनायक बनने का पूर्वाभ्यास जैसा
प्रतीत होता है। ब्रज का समाज हँसमुख समाज है तो इसलिए कि वह नारी प्रधान समाज है
जो मातृ सत्तात्मक समाज की याद दिलाता है। कहने को तो नंद कुल परिवार के मुखिया
हैं पर हुक्म तो माँ यशोदा का ही चलता है। समता और स्वतंत्रता का सम्मान स्त्री
प्रधान समाज की विशेषता है। पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियाँ ज्यादा मुखर हैं। कहीं
कोई दबी सहमी स्त्री नहीं दिखाई देती। गोपियाँ उद्धव की ही नहीं, कृष्ण की भी खिंचाई करती हैं, खरी खोटी सुनाती हैं
और कभी कभी तो बड़ी चुभने वाली बात भी कह जाती हैं – दोटूक
और स्पष्ट। अधिकार भरे दर्प का ऐसा कठोर संवाद क्या किसी ईश्वर के साथ संभव है?
राम ने धर्म रक्षा के लिए अवतार लिया था और रामचरित मानस में ईश्वर
का ही जीवन जिया। जहाँ कहीं तुलसीदास ने पौराणिक घटना की अपेक्षा लोक जीवन को अधिक
महत्व दिया है वहाँ राम का व्यक्तित्व कहीं ज्यादा सहज, सामान्य
और मानवीय लगता है और ईश्वरत्व की दूरी मिट जाने से वे हमारे अपने ही बीच के लगने
लगते हैं। अयोध्या के सामंती परिवेश से बाहर निकल कर दंडकारण्य तक कल कल बहती राम
कथा में विशेष रूप से राम के इस व्यक्तित्व की विशेषताएँ देखने को मिलती हैं।
लेकिन बीच बीच में राम के ईश्वरत्व की याद दिलाते रहने से सहज मानवीयता जड़ीभूत हो
जाती है। शक्ति बाण से घायल लक्ष्मण के प्रति राम का विलाप भी भाई के प्रति भाई के
दुख और सच्चे प्रेम की अभिव्यक्ति न होकर ईश्वरीय लीला का अभिनय बन जाता है। मानस
के श्रोताओं में समय समय पर राम के मनुष्य होने का संदेह और वक्ताओं द्वारा उनके
भ्रम निवारण का प्रयत्न तो चलता ही रहता है। अवतारवाद के पौराणिक दुराग्रह के कारण
ही माँ कौशल्या को भी जमुहाई के बहाने मुँह खोल कर त्रिलोक दर्शन कराते हुए स्वयं
राम अपने त्रिलोकी नाथ होने का अहसास कराते रहते हैं। ईश्वरीय विशिष्टता के सतत
अहसास के कारण राम के साथ परिवारीजनों का सहज स्वाभाविक रिश्ता न बन कर एक पूज्य
भाव का आदर्श बराबर हावी रहता है।
पौराणिक
अवतारवाद का सुसंगत विकास यदि रामचरित मानस में हुआ है तो जाहिर है कि असुर
उत्पीड़न का लोकव्यापी कल्पित हाहाकार और धर्मरक्षा के प्रयत्नों का विस्तार भी
वहीं देखने को मिलेगा। अकारण नहीं है कि रामचरित मानस में कदम कदम पर पुष्प वृष्टि
के मनोरम दृश्य देखने को मिलते हैं लेकिन रावण वध के अवसर पर देवताओं ने दिल खोल
कर जितनी पुष्प वृष्टि की है उतनी तो पूरे रामचरित मानस में सब मिला कर भी न हुई
होगी। रावण के बड़े लोकशत्रु होने का इससे बड़ा प्रमाणपत्र भला और क्या होगा? अतः सीताहरण के लिए रावण का अपराध अक्षम्य है और सहायकों सहित उसका
मृत्युदंड भी न्यायसंगत है लेकिन हजारों की संख्या में स्त्रियों बच्चों सहित
लंकावासियों का क्या दोष? भीषणतम आगजनी की आतंकवादी कार्रवाई
अत्याचार की किस कोटि में आती है? सभ्य अत्याचार या असभ्य
अत्याचार? खासतौर से तब और विचारणीय है जब वह सभ्य समाज के महानायक
मर्यादा पुरुषोत्तम के पक्ष से की गई हो।
अपने
समय समाज के उत्पीड़न को अनेदखा कर कल्पित देवासुर संग्राम की स्मृति में खो जाना
और पौराणिक उत्पीड़न को अनावश्यक इतना महत्व देना वस्तुतः समाज के वास्तविक तकाजों
से जनता का ध्यान हटा कर उसे एक काल्पनिक मायालोक में भटकाना है। क्या राम रावण का
युद्ध और उसका तानाबाना इतना इकहरा और सपाट है? हजारों साल
के इतिहास में परस्पर विरोधी सांस्कृतिक परंपराओं की द्वंद्वात्मक अभिव्यक्ति का
प्रतीक है – वह संघर्ष। देवासुर संग्राम की तो कार्बन कापी
ही है, उसमें आर्य और अनार्य, निगम और
आगम, ब्राह्मण और अब्राह्मण, वैष्णव और
शैव तथा सगुण और निर्गुण की परस्पर विरोधी स्थितियाँ भी मौजूद हैं। सब मिला कर
देखा जाय तो राम रावण के प्रतीकात्मक संघर्ष का निहितार्थ वर्चस्व की संस्कृति
बनाम प्रतिरोध की संस्कृति का संघर्ष है जिसमें तमाम जातीय विजातीय परंपराओं की जय
पराजय की स्मृतियाँ समाहित हैं और ये स्थितियाँ सपाट और एकतरफा कभी नहीं रहीं।
इसलिए यह भ्रम नहीं होना चाहिए कि यथास्थितिवाद को बनाए रखने के लिए दी गई ‘नानापुराण निगमागम’ की साक्षी किसी समन्वय की विराट
चेष्टा है। वर्चस्ववादी संस्कृति की रक्षा और प्रतिरोध की संस्कृति का नकार ही
रामकथा का पौराणिक लक्ष्य है। मर्यादा पुरुषोत्तम राम इस वर्चस्ववादी संस्कृति के
महानायक हैं और प्रतिरोध की लंबी सांस्कृतिक परंपरा जिसके प्रति घृणा और हिकारत का
भाव व्यक्त किया गया है, उसे प्रतिपक्ष के व्यक्तित्व में
आरोपित कर दिया गया है। इस प्रकार जब विपक्ष के प्रति घृणा और हिकारत तथा आत्मपक्ष
के प्रति श्रद्धा और सम्मान का भाव बद्धमूल कर दिया जाय तो न्याय और अन्याय का
विवेकसम्मत निर्णय आस्था का प्रश्न बन जाता है जो अंधश्रद्धा की ओर ले जाता है और
ऐसी स्थिति में अपना पक्ष न्याय का पक्ष और विपक्ष पूरी तरह अन्याय का पक्ष बन कर
रह जाता है।
अतः
विवेकहीन रूढ़ संस्कारों से न्याय और अन्याय का निर्णय नहीं किया जा सकता। घटनाओं
को अपने पक्ष में न्यायसंगत ठहराने के लिए चाहे जितने भी तर्क गढ़ लिए जाएँ, सच हमेशा सच ही रहेगा। क्या यह सच नहीं है कि राम ने ताड़का का निपात किया,
छिप कर बालि की हत्या की और क्या यह भी सच नहीं है कि झूठ का सहारा
लेकर मर्यादा पुरुषोनम ने सुपर्णखा को लक्ष्मण के पास जाने के लिए उकसाया? दलीलें चाहे जितनी भी गढ़ ली जाएँ, सच यही है कि
किसी स्त्री का उत्पीड़न और अपमान पूरी स्त्री जाति का अपमान है; चाहे पक्ष की हो या विपक्ष की। यह सच है कि रावण ने सीता का अपहरण कर घोर
अन्याय किया लेकिन यह भी सच है कि उसने सीता को अपने महल से बाहर अशोक वाटिका में
स्त्रियों की सुरक्षा के बीच सम्मान के साथ रखा। हाँ, इतना
जरूर है कि अपनी बात मनवाने के लिए और न मानने पर डराने धमकाने के लिए वहाँ जाता
अवश्य था लेकिन सीता की इच्छा और मान मर्यादा के विरुद्ध उसने कोई दुराचरण किया हो,
ऐसा कोई संकेत नहीं मिलता। दूसरी बात यह कि उत्पीड़न का हाहाकार
सिर्फ हाहाकार होता है, चाहे पक्ष का हो या विपक्ष का। ऐसा
नहीं है कि अपने पक्ष का उत्पीड़न तो गगनभेदी और लोकव्यापी हाहाकार पैदा करे और
विपक्ष का उत्पीड़न एकदम बेआवाज और फुस्स हो जाय। लंकादहन की घटना से रावण के लोक
में भी वैसा ही हाहाकार मचा होगा जैसा मुनियों के उत्पीड़न और सीताहरण की घटना से
हमारे लोक में। हम उसे न सुनें या न सुनना चाहें, यह बात
दूसरी है।
लंकादहन
के हाहाकार की तो खैर बात छोड़िए, रावण द्वारा सीताहरण के
उत्पीड़न से होने वाले लोकव्यापी हाहाकार को तो आचार्य शुक्ल सुन लेते हैं और देख
भी लेते हैं लेकिन सूरसागर में द्रौपदी की हाहाकारी चीत्कार को न सुन पाते हैं न
देख पाते हैं। यह कम आश्चर्य की बात नहीं है कि जो लोक सीता (माया की) के उत्पीड़न
पर हाहाकार कर उठता है, वही लोक द्रौपदी के चीत्कार के समय
अपने कान भी बंद कर लेता है और आँखें भी मूँद लेता है। बहरहाल, लोक देखे या न देखे; सूरदास ने अपनी बंद आँखों से
छूकर द्रौपदी की अंतर्व्यथा को देखा, उसके चीत्कार को सुना
और मनोभावों में हो रही हलचल को महसूस भी किया -
जितनी
लाज गुपालहिं मेरी।
तितनी
नाहिं बधू हौं जिनकी, अंबर हरत सबन तन हेरी।
पति
अति रोष मारि मन हीं मन, भीषम दई बचन बंधि बेरी॥
(सूरसागर : पहला खंड; प्रथम स्कंध; पद 252)
किसी
स्त्री का हरण एक बात है, किसी का चीरहरण बिल्कुल दूसरी
बात। हरण दुखद है पर चीरहरण दुख की किसी परिभाषा से परे; तब
तो और भी जब वह भरी सभा के बीच पाँचों पतियों सहित तमाम पुरुषों – महापुरुषों की उपस्थिति में किया जा रहा हो। यह तो किसी एकांतिक बलात्कार
से भी ज्यादा मर्मांतक ऐसा सामाजिक बलात्कार है जो असहनीय भी है और अनिर्वचनीय भी।
इसकी कोई पुरुष व्याख्या तो संभव नहीं, कोई स्त्री व्याख्या
भी शायद ही उतनी प्रामाणिक हो। कहीं अनुभूति की भी कोई व्याख्या होती है? और वह अनुभूति तो सार्वजनिक रूप से निर्वस्त्र की जा रही कोई द्रौपदी ही
कर सकती है। सूरदास उसका अनुभव कर सके तो इसलिए कि वह स्त्री की मान मर्यादा और
उसकी स्वतंत्रता का सम्मान करना जानते हैं। इसलिए वह द्रौपदी की पीड़ा को पढ़ भी
सके और लिख कर दिखा सके।
द्रौपदी
ने बड़ी कातर दृष्टि से सबकी ओर निहारा और पाया कि सभी उसका उघरता शरीर देख रहे
हैं। निर्वस्त्र करने वालों का निर्लज्ज अट्टहास तो पूरे बदन को क्षत विक्षत कर ही
रहा है। लज्जा और ग्लानि से भरी द्रौपदी ने ‘जुए के दाँव
पर ज्यों गथ हारे थकित जुवारी’ पाँचों पतियों की आँखों में
भी झाँका, पर वहाँ आँख मिला सकने वाला पानी कहाँ? ऐसी बेपानी आँखें देख वह खुद सहम गई। पर इतना तो पढ़ ही लिया कि उन आँखों
में एक नपुंसक क्रोध रह रह कर जरूर उबल रहा है लेकिन किस काम का? कहीं से कोई जुंबिश नहीं। पतियों सहित उन तमाम पुरुषों – महापुरुषों में एक भी पुरुष नहीं जो आगे आए। श्रेष्ठों में भी श्रेष्ठजनों
की उस सभा में ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमंते तत्र देवता’
का पाठ पढ़ाने वाले ज्ञानी भी थे और नीतिशास्त्र के विज्ञानी भी;
क्षात्रधर्म, राजधर्म वीरधर्म के तेज से
तेजस्वित वीर योद्धा भी थे और धर्म की ध्वजा फहराने वाले धर्मराज भी। लेकिन उनके
सामने ही क्षात्रधर्म का तेज लंपट विसासिता में नंगा हो रहा था और वे सब मौन थे।
झूठी मर्यादा, थोथी नैतिकता और वचनबद्धता के पाखंड ने उनके
पौरुष को लुंजपुंज कर दिया था। अंत में चारों ओर से निराश कृष्णा ने अपने सखा
कृष्ण को याद किया और कृष्ण ने उस मौन पुकार को सुना भी, देखा
भी और आने की कृपा भी की। उनकी आँखों में कृपा के कान जो लगे थे – ‘कृपा कान मधि नैन ज्यों।’32 कितना विश्वास था
द्रौपदी को अपने सखा पर! जितना भरोसा वह कृष्ण पर करती थी, उतना
तो अपने पाँचों पतियों पर भी नहीं। द्रौपदी की पुकार धर्म रक्षा के लिए की गई
पृथ्वी की पौराणिक पुकार नहीं बल्कि अस्मिता की रक्षा के लिए उत्पीड़िता नारी की
सच्ची पुकार है। यहाँ पर दुःशासन और दुर्योधन का अत्याचार तो असुरों के कल्पित
अत्याचार से कहीं ज्यादा असभ्य प्रतीत होता है; तब फिर
इन्हें कंस और रावण की तरह का बड़ा लोकशत्रु क्यों न माना जाय? क्या इसलिए कि ये हमारे लोक के प्राणी हैं, असुर लोक
के नहीं? कहने की आवश्यकता नहीं कि कृष्ण ने केवल द्रौपदी की
लाज नहीं बचाई बल्कि समूची स्त्री जाति की मान मर्यादा और उसके आत्म सम्मान की भी
रक्षा की। क्या स्त्री की जातीय अस्मिता और उसके मान सम्मान की रक्षा से बढ़ कर भी
कोई लोक रक्षा हो सकती है? यहाँ तो लोकरक्षक कृष्ण, सीता की अग्निपरीक्षा लेने वाले मर्यादा पुरुषोत्तम की मर्यादा को भी आईना
दिखाते प्रतीत होते हैं। लोकरक्षा और लोकसंग्रह का ऐसा मार्मिक चित्र तो पूरे भक्तिकाव्य
में दुर्लभ है। अतः लोक और लोकमत के समाजशास्त्रीय आधार की उपेक्षा कर अवतारवाद के
पौराणिक प्रतिमानों से समूचे भक्तिकाव्य का मूल्यांकन हमें प्रतिरोध की संस्कृति
के विरुद्ध वर्चस्ववादी संस्कृति के संरक्षण की ओर ही ले जाता है, समन्वय के नाम पर दलीलें चाहे जितनी भी क्यों न दी जाएँ।
संदर्भ
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