वीरेंद्र यादव
धार्मिक कट्टरवाद और असहिष्णुता के गहराते संकट के विरोध में प्रतिरोध की जैसी लेखकीय एकजुटता समूचे देश में इन दिनों देखने में आयी है वह अभूतपूर्व और पहली बार है. निश्चित रूप से यह इसलिए है क्योंकि पहली बार देश में साहित्यिक और वैचारिक अभिव्यक्ति के चलते लेखको-बुद्धिजीवियों की हत्या जैसे जघन्य अपराध किये गए हैं. कन्नड़ विद्वान व लेखक एम एम कलबुर्गी , तर्कवादी नरेन्द्र धाबोलकर और गोविन्द पानसरे की हत्या उनके लेखन और वैचारिक अभिव्यक्ति के चलते ही हुयी है . इतना ही नहीं इन हत्याओं को अंजाम देने वाले इतने निडर और दुस्साहसी हैं कि वे मराठी पत्रकार कुमार केतकर , निखिल वागले और कन्नड़ लेखक के एस भगवान सहित कई अन्य बौद्धिकों को भी जान से मारने की खुली धमकी दे रहे हैं. प्रसिद्ध लेखक कांचा इल्लय्या पर तेलगु में लिखे एक लेख के लिए कट्टरवादी तत्वों ने आहत भावनाओं की आड़ लेकर कई कई थानों और अदालतों में देशद्रोह तक का मामला दर्ज कराया है. तमिल लेखक पी.मुरुगन तो अपनी प्रताड़ना के चलते अपने लेखक की मौत की पहले ही घोषणा कर चुके हैं. तर्क ,ज्ञान और खुली बहस के दरवाजे बंद करने के लिए जहाँ उच्च शैक्षणिक संस्थानों में पेरियार-आंबेडकर स्टडी सर्किल जैसे विचारमंच की नाकेबंदी की जा रही है वहीं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखाओं के लगाने को खुली छूट दी जा रही है. यहाँ तक कि पुस्तक-विमोचन समारोह के आयोजन के चलते सुधीन्द्र कुलकर्णी सरीखों का मुंह काला किया जा रहा है. कहना न होगा कि केंद्र में सत्ता परिवर्तन के बाद हिन्दू कट्टरवादी तत्वों की आक्रामकता पहले से अधिक बढ़ी है और सत्ता तंत्र द्वारा इनसे निपटने और इनके विरुद्ध कार्रवाई करना तो दूर इन्हें शह और प्रोत्साहन ही दिया जा रहा है. इतना ही नहीं केन्द्र सरकार द्वारा साहित्य, कला , फिल्म , संस्कृति, इतिहास ,समाजशास्त्र के संस्थानों व राष्ट्रीय पुस्तक न्यास और नेहरु मेमोरियल लायब्रेरी आदि में बहुसंख्यकवादी सोच के पक्ष में खुली राजनीतिक दखलंदाजी भी बढी है. ‘बत्रा शैक्षणिक माडल’ के चलते अब गीता ,महाभारत और रामचरितमानस ही नहीं बल्कि आशाराम बापू सरीखे यौन अभियुक्त भी स्कूली पाठ्यक्रम में शामिल किये जा रहे हैं. खान-पान ,पठन-पाठन, वेशभूषा ,बानी-बोली सभी पर कड़ी पहरेदारी है. ‘गोरक्षा’ और ‘गाय’ अब धार्मिक उन्माद के नए हथियार हैं.
‘सांस्कतिक राष्ट्रवाद’ के दिनोंदिन तेज होते इस समूचे सामाजिक-सांस्कृतिक परिदृश्य के चलते लेखक-बुद्धिजीवी समाज की बेचैनी और चिंता स्वाभाविक ही है. अफ़सोस यह कि लेखकों की इन चिंताओं में स्वायत्त कही जाने वाली साहित्य अकादमी सरीखी संस्था की भागेदारी तो दूर औपचारिकता के निर्वाह की भी यांत्रिकता नही शेष बची है. साहित्य अकादमी द्वारा सम्मानित लेखक एम एम कलबुर्गी की हत्या किये जाने के विरोध में निंदा तो दूर शोक प्रस्ताव तक का न पारित किया जाना और बचाव में अकादमी के अध्यक्ष का यह तर्क कि ऐसी कोई परम्परा नही रही है, निश्चित रूप से अकादमी की निष्क्रियता और बदले हुए राजनीतिक परिदृश्य का मुखापेक्षी होने का ही सबूत देती है. साहित्य अकादमी द्वारा सम्मानित लेखकों द्वारा पुरस्कार वापसी, अकादमी के पदों से त्यागपत्र और पद्मश्री तक वापस किये जाने की प्रतिरोधी कारवाई को इन्ही सन्दर्भों में देखा जाना चाहिए . भाषा और क्षेत्र की सीमाओं को तोड़कर प्रतिरोध की अभिव्यक्ति करते हुए लेखकों ने भारतीय समाज की अन्तश्चेतना के प्रहरी की जैसी भूमिका इन दिनों निभायी है वह ऐतिहासिक और अविस्मरणीय है. सलमान रुश्दी और अमिताभ घोष के समर्थन ने इस प्रतिरोध को वैश्विक सन्दर्भ दिए हैं तो नयनतारा सहगल, शशि देशपांडे, जी एन देवी और के की दारूवाला ने इसे बौद्धिक आभा प्रदान की है. ऐसे में यह सचमुच दुर्भाग्यपूर्ण और सत्ता तंत्र की हठधर्मिता का ही परिचायक है कि लेखकीय प्रतिरोध से सबक लेने के बजाय समूचा सत्ता तंत्र लेखकों के ही विरुद्ध आक्रामक हो गया है. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुखपत्र ‘पांचजन्य’ ने अपने सम्पादकीय में सबसे पहले लेखकों की इस मुहिम को राजनीतिक रंग देते हुए ख़ारिज किया . इसके बाद तो आरएसएस के भैय्याजी जोशी, राम माधव,राकेश सिन्हा से लेकर केंद्र सरकार के मंत्री तक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वर में स्वर मिलाते हुए समूचे लेखक समुदाय को धमकी भरे अंदाज़ में लांछित और प्रश्नांकित करने की होड़ में शामिल हो गए . पश्चिम बंगाल के राज्यपाल केसरी नारायण त्रिपाठी ने तो लेखकों की पृष्ठभूमि की ख़ुफ़िया पड़ताल तक की सलाह दे डाली . हद तो तब हो गयी जब पद और शालीनता की सभी सीमाओं को तोड़ते हुए केन्द्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली ने इस लेखकीय प्रतिरोध को ‘बनावटी’ . ‘कागजी’ और ‘इतर माध्यमों से राजनीति’ करार देते हुए प्रतिरोध में शामिल लेखकों को नेहरु माडल की उदार-वाम वैचारिक सत्ता का लाभार्थी बताकर इस मुहिम को ख़ारिज करने का करतब अपनाया . यह करते हुए वे निश्चित रूप से इस संदेह को सही साबित कर रहे थे कि एम एम कलबुर्गी ,पानसरे , धाबोलकर और दादरी के अख़लाक़ के हत्यारों की सोच और दिशा एक ही है. उल्लेखनीय है कि देश के प्रधानमंत्री ने दादरी की घटना को दुखद कहने में दो सप्ताह का समय लिया और साहित्य अकादमी द्वारा एम एम कलबुर्गी की हत्या पर प्रतिक्रिया इन पंक्तियों के लिखे जाने तक प्रतीक्षित है. कहना न होगा कि लेखकों की प्रतिरोधी मुखरता इसी चुप्पी के विरोध में है.
अच्छा यह भी है कि हिन्दी लेखकों की एक बड़ी संख्या विचारधारा और संगठन की सीमाओं से परे स्वतःस्फूर्त ढंग से इस विरोध की मुहिम में शामिल हुयी है. कृष्णा सोबती, अशोक वाजपेयी, काशीनाथ सिंह, उदय प्रकाश, मंगलेश डबराल ,राजेश जोशी ,नन्द भारद्वाज, चमन लाल, मनमोहन आदि सरीखों ने जहाँ अपने पुरस्कार वापस किये और यह सिलसिला अभी भी जारी है, वहीं वृहत्तर लेखक समाज का समर्थन भी इस विरोध के साथ है . उल्लेखनीय यह भी है इस बार लेखक संगठनों तक को लेखको द्वारा प्रतिरोध की इस स्वतःस्फूर्त पहल का अनुगामी होना पड़ा है. लेखकों ने पद और सम्मान को त्यागकर अपने सामाजिक दायित्व का परिचय ही नही दिया है बल्कि लोभ-लाभ के चलन के विरुद्ध पहलकदमी भी की है. यह अत्यंत महत्वपूर्ण और स्वागतयोग्य है कि जिन अशोक वाजपेयी ने अभी कुछ माह पूर्व भाजपा शासन के ग्यारह वर्ष पूरे होने पर छतीसगढ़ के रायपुर साहित्य महोत्सव में शिरकत करते हुए मुख्यमंत्री रमन सिंह की जनतांत्रिकता और सहनशीलता की प्रशंसा की थी उन्होंने भी अपना पुरस्कार लौटाते हुए अब दो टूक लहजे में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ‘चुनी हुयी चुप्पी’ को प्रश्नांकित किया है. पानी सचमुच सिर के ऊपर पहुँच रहा है. फिर भी साहित्य अकादमी के अध्यक्ष को बेशर्मी से प्रतीक्षा है कि लेखक पुरस्कार से कमाई कीर्ति भी वापस करें .काश उन्हें पता होता कि वे क्या कह रहे हैं ! साहित्य अकादमी के प्रथम अध्यक्ष जवाहरलाल नेहरु से लेकर वर्तमान अध्यक्ष तक की अकादमी की ढलान यात्रा अब सचमुच अपने अधोबिंदु पर है. इस समूचे प्रकरण पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए अंतर्राष्ट्रीय ख्याति के लेखक अमिताभ घोष ने उचित ही केन्द्र सरकार की मिलीभगत के साथ साथ साहित्य अकादमी के वर्तमान नेतृत्व को भी जिम्मेदार ठहराया है.
केंद्र सरकार और साहित्य अकादमी की चुप्पी और निष्क्रियता के विरुद्ध लेखकों की इस मुहिम को लेकर हिन्दी के कुछ लेखकों ने अत्यंत मौलिक और दिलचस्प सवाल भी खड़े किये हैं. साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत लेखक गिरिराज किशोर जहाँ इस बात को लेकर चिंतित हुए कि “सरकार से लड़ने की जगह हमारे लेखक मित्र साहित्यिक संस्था को कमज़ोर बना रहे हैं। वह तो कमज़ोर गऊ है उसको डंडे मारेंगे तो वह क्या करेगी। स्वायत्त संस्था है। ”. कहना न होगा कि इस ‘गऊ’ के ध्वन्यार्थ कितनी दूर तक सुने जा सकते हैं. अकादमी की स्वायत्तता का हवाला देते हुए असगर वजाहत ने सवाल उठाया कि –“यह कहा जा रहा है कि साहित्य अकादमी ने लेखको की हत्या और मौलिक अधिकारों के हनन पर कोई बयान नहीँ दिया. क्या इससे पहले साहित्य अकादमी या अन्य दूसरी अकादमियों ने ऐसे बयान दिए है? यदि नहीँ तो आज उन से यह आशा क्यों की जा रही है?” . क्या असगर वजाहत का यह सवाल उतना ही भोला है जितने भोलेपन से यह पूछा गया है ? मैत्रेयी पुष्पा की यह प्रतिक्रिया तो सर्वाधिक मनोरंजक रही –“बहुत हो चुका , अकादमी पुरस्कार को लोग लौटाये चले जारहे हैं , लग रहा है जैसे एक को देखकर दूसरे पर रंग चढ रहा है कि कहीं वह पीछे न रह जाये शहीदों में नाम लिखाने से । अपनी ही अकादमी को उखाड पछाड रहे हैं क्योंकि और किसी पर बस नहीं चलता । नहीं सोचते कि वे खुद क्यों ऐसे बेअसर होगये हैं कि अपने ही घर में आग लगाकर दिखानी पड़ रही है । अब आप शहादत पर नहीं , बेढंगी शरारत पर उतरे हैं साहित्यकार के नाम पर ...साथ ही उन साहित्यकारों को अपमानित कर रहे हैं, जिनके पास अकादमी पुरस्कार नहीं हैं । भयानक से भयानक कांड हुये हैं और आप अकादमी अवार्ड को बंदरिया के बच्चे की तरह गले से चिपकाये रहे यश के रूप में , इस कृत्य की भी जबावदेही बनती है अब तो !” मैत्रेयी पुष्पा की यह प्रतिक्रिया अबौद्धिक होने के साथ साथ उस लेखक समुदाय के विरुद्ध भी है जिसने प्रतिरोध की पहल की है .इससे यह भी स्पष्ट है कि वे न तो आज के संकट को समझ रही हैं ,न पहले की घटनाओं से आज के हालत की भिन्नता को और न ही साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाने के सही सन्दर्भ को . मैत्रेयी पुष्पा सहित यहाँ संदर्भित अन्य प्रतिक्रियाओं में साहित्य अकादमी की स्वायत्तता की दुहाई दी गयी है. काश इन्हें सचमुच अकादमी की स्वायत्तता की चिंता होती. अकादमी की स्वायत्तता पर तो उसी दिन ग्रहण लग गया जब वाराणसी में केन्द्रीय संस्कृति मंत्रालय के निर्देश पर साहित्य अकादमी उस समारोह का हिस्सा बनी जिसका उद्घाटन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने किया . क्या केन्द्रीय राज्य संस्कृति मंत्री महेश शर्मा को साहित्य अकादमी द्वारा भीष्म साहनी के जन्मशताब्दी समारोह में मुख्य अतिथि बनाया जाना अकादमी की स्वायत्तता के अनुकूल था ? प्रधानमंत्री के अभियान के अंतर्गत स्वच्छता पर केन्द्रित साहित्यिक आयोजन क्या साहित्य अकादमी की स्वायत्तता के अनुकूल था ? भाजपा द्वारा रामधारी सिंह दिनकर की जातीय पहचान के राजनीतिक दोहन के इरादों के चलते केंद्र सरकार द्वारा साहित्य अकादमी पर दिनकर पर केन्द्रित कार्यक्रम के लिए दबाव बनाने की अख़बारों में प्रकाशित ख़बरें क्या अकादमी की प्रतिष्ठा के अनुकूल थी ? क्या साहित्य अकादमी के हिंदी समन्वयक का भाजपा के केसरी नारायण त्रिपाठी की पुस्तक के विमोचन आयोजन में मुख्य वक्ता होना अकादमी पर बदलते राजनीतिक रंग का परिचायक नही है ?. प्रसंगवश बता दूं ये हिन्दी समन्वयक हिन्दी के अध्यापक रहे वे सूर्यप्रसाद दीक्षित हैं जिन्होंने अपनी ब्राह्मणवादी प्रतिज्ञाओं के चलते लखनऊ विश्वविद्यालय के हिन्दी पाठ्यक्रम में डॉ. तुलसीराम की आत्मकथा ‘मुर्दहिया’ को न शामिल किये जाने के लिए पिछले वर्ष सारा जोर लगा दिया था . यह साहित्य अकादमी की अधोगति ही है कि हिन्दी समन्वयक की जिस भूमिका में भीष्म साहनी और डॉ. नामवर सिंह सरीखे लेखक रहे हों उस भूमिका में आज एक अनाम गैर-लेखक है. ऐसी साहित्य अकादमी की स्वायत्तता के लिए चिंतित इन लेखकों ने अकादमी की प्रतिष्ठा और स्वायत्तता पर ग्रहण लगाने वाले इन कृत्यों पर कभी कोई सवाल क्यों नही उठाये ? कहने की आवश्यकता नहीं कि अकादमी की स्वायत्तता और छवि को तभी बचाया जा सकता है जब उसे धूमिल करने के प्रयत्नों के प्रति सजग रहा जाये . यह याद करना जरूरी है कि साहित्य अकादमी की छवि के धूमिल होने की शुरुआत तो उसी दिन हो गयी थी जिस दिन निम्नस्तरीय चालाकियों का इस्तेमाल कर महाश्वेता देवी को साहित्य अकादमी के अध्यक्ष के चुनाव में हराने की दुरभिसंधि की गयी थी . यह महज महाश्वेता देवी को हराने तक सीमित नही था बल्कि यह साहित्य अकादमी से उन व्यापक धर्मनिरपेक्ष -जनतांत्रिक मूल्यों की विदाई की भी शुरुआत थी जिसकी संकल्पना अकादमी की स्थापना कर जवाहरलाल नेहरु ने की थी . और यह सब भाजपा सरकार आने के पहले ही शुरू हो गया था .ऐसे में हिन्दी के कुछ लेखकों का साहित्य अकादमी से लाभान्वित होने और अपनी जगह बनाने के हित से प्रेरित होकर इस प्रसंग में अकादमी के वर्तमान नेतृत्व के लिए ढाल की भूमिका निभाना लेखकीय गरिमा के प्रतिकूल है . उल्लेखनीय है कि विनोदकुमार शुक्ल और अलका सरावगी अपने साहित्य अकादमी सम्मान वापस न करने के बावजूद न तो अकादमी के वर्तमान नेतृत्व के पक्ष में खड़े दिखना तो दूर उलटे उन्होंने पुरस्कार वापसी के कारणों को सही ही ठहराया .
यह सचमुच दुर्भाग्यपूर्ण है कि हिन्दी के कुछ लेखक प्रतिरोध की इस मुहिम को कमतर आंकते हुए इसके दूरगामी महत्व को ‘लोभ-लाभ की समझदारी’ के अंतर्गत इनकार कर रहे हैं. काश वो समझ पाते कि भारतीय जनतंत्र का संविधान सम्मत धर्मनिरपेक्ष माडल आज जितना संकटग्रस्त है उतना पहले कभी न था . अल्पसंख्यक और हाशिये का समाज जिन धार्मिक कट्टरतावादियों के निशाने पर पहले से था वह आज और भी असुरक्षित इसलिए महसूस कर रहा है कि ‘सांस्कृतिक राष्टवाद’ अब नागपुर से अपकेंद्रित होकर देश की राजधानी में सिंहासनारूढ़ हो गया है. केन्द्रीय राज्य संस्कृति मंत्री महेश शर्मा का लेखकों से लिखना छोड़ने की चुनौती देना और आरएसएस के प्रवक्ता का पुरस्कार वापस करने वाले लेखकों को कम्युनिस्ट कार्ड होल्डर बताना ‘मैकार्थीवाद’ के भारतीय संस्करण की आहट है ,जिसकी अनसुनी करना आत्मघात से कुछ कम नही है. प्रेमचंद ने यूं ही नहीं कहा था कि ‘साम्प्रदायिकता सदैव संस्कृति की खोल में आती है.’ यह आश्वस्तकारी है कि हिन्दी साहित्य में धार्मिक कट्टरता और साम्प्रदायिकता विरोध की सशक्त परम्परा रही है. इसी भूमिका के चलते प्रेमचंद को ‘घृणा का प्रचारक’ कहा गया तो निराला को ‘ब्राह्मण समाज में ज्यों अछूत’ का दंश भुगतना पड़ा और राजेंद्र यादव को अपनी बेबाक अभिव्यक्तियों के लिए अदालत की कारवाई तक झेलनी पड़ी. और भी उदाहरण सामने हैं ही . यह अकारण नही है कि आज सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के पैरोकारों के जमात में नरेंद्र कोहली और कमल किशोर गोयनका सरीखे अपवादों को छोड़कर कोई विश्वस्त साहित्यिक नाम नही है.
साहित्य अकादमी के पुरस्कारों की वापसी की इस लेखकीय पहल ने समूचे लेखक समुदाय को कवि, कहानीकार ,उपन्यासकार और आलोचक की भूमिका से ऊपर उठाकर सार्वजानिक बुद्धिजीवी की उस भूमिका में पहुंचा दिया है जिसकी प्रेमचंद ,राहुल सांकृत्यायन, यशपाल, नागार्जुन से लेकर रेणु तक लिखने से लेकर जेल जाने तक लम्बी परंपरा रही है. इतिहासकार रोमिला थापर ने पिछले दिनों ‘पब्लिक इंटलेक्चुअल’ की भूमिका का प्रश्न उठाते हुए चुप्पी तोड़ने और बोलने का आह्वान किया था .यह सुखद है इस बार हिन्दी का लेखक इस चुप्पी को तोड़ने के लिए अनुगामी न होकर समूचे बौद्धिक समाज के साथ अग्रगामी है. प्रेमचंद ने संभवतः इन्ही दिनों के लिए यह भविष्यकथन किया था कि –“ साहित्य राजनीति के पीछे चलनेवाली चीज नहीं ,उसके आगे-आगे चलनेवाला ‘एडवांस गार्ड’ है . वह उस विद्रोह का नाम है ,जो मनुष्य के ह्रदय में अन्याय ,अनीति , और कुरुचि से होता है .” कहना न होगा कि एम एम कलबुर्गी की हत्या से लेकर अखलाक की हत्या तक विस्तृत असहिष्णुता की हत्यारी संस्कृति के विरुद्ध यह लेखकीय अभियान आसन्न खतरों के विरुद्ध ‘एडवांस गार्ड’ की ही भूमिका है . ऐसे चुनौतीपूर्ण समय में महत्त्व लेखक होने का नही है महत्व है लेखक होना सिद्ध करने का .
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(हंस नवंबर अंक से साभार )