Friday, 13 November 2015

टीपू की तलवार और विचार

                                                                                                                                              उर्मिलेश
संघ परिवार प्रेरित संगठनों के आह्वान से प्रभावित राज्य की मुख्य विपक्षी पार्टी-भाजपा ने कर्नाटक शासन द्वारा 10 नवम्बर को आयोजित भव्य समारोह से अपने को अलग रखा या दूसरे शब्दों में उसका बहिष्कार किया। विश्व हिन्दू परिषद की तरह भारतीय जनता पार्टी ने भी टीपू की विरासत पर सवाल उठाये हैं। पार्टी का कहना है कि वह एक मुस्लिम कट्टरपंथी था, इसलिये उसकी जयंती नहीं मनाई जानी चाहिये। वे चाहते हैं कि टीपू सुल्तान को किताबों, शासकीय दस्तावेजों और लोगों की स्मृतियों यानी इतिहास से बाहर रखा जाय। क्या इतिहास के प्रति यह स्वस्थ दृष्टिकोण है? विख्यात रंगकर्मी और विचारक गिरीश कर्नाड ने संघ-भाजपा के रवैये को इतिहास-विरोधी करार देते हुए कहा कि टीपू अगर मुसलमान न होता तो इस ‘भगवा परिवार’ को लोग उसे छत्रपति शिवाजी की तरह याद करते!  कर्नाड की बातें निराधार नहीं हैं। अपने देश में कुछ लोगों, समूहों और संगठनों को हर समय किसी न किसी विवाद के विषय या अपने शत्रु की तलाश रहती है। उत्तर में कभी मंदिर-मस्जिद मसले, कभी ‘लव जिहाद’ तो कभी बीफ या गाय को बड़े राजनीतिक विवाद में तब्दील करने वालों को दक्षिण के कर्नाटक में इन दिनों टीपू सुल्तान में नये विवाद का मसाला मिल गया है। 18वीं सदी में मैसूर के शासक रहे टीपू में वे इतिहास का खलनायक खोज रहे हैं। पिछले दिनों कर्नाटक सरकार ने ब्रिटिश साम्राज्य-विरोधी शख्सियत और मैसूर के बहादुर शासक के तौर पर टीपू की यादों को सहेजने के लिये कुछ आयोजनों के फैसले लिये तो राज्य में सक्रिय हिन्दुत्ववादी समूहों ने बवाल मचा दिया। बीते 10  नवम्बर को हालात ज्यादा खराब हो गया और टीपू के जयंती समारोह के विरोध में निकाले जुलूस के दौरान हिंसक झड़प में विश्व हिन्दू परिषद के कार्यकर्ता बताये जा रहे एक व्यक्ति की मौत हो गयी। टीपू को याद करने पर ऐसा हिंसक विरोध क्यों? अगर मैसूर टीपू की विरासत के सकारात्मक मूल्यों और विचारों को याद करना चाहता है, उसे प्रेरणापुंज के तौर पर देखता है तो उसका विरोध क्यों?  सिर्फ इसलिये कि टीपू एक मुसलमान था? 
कैसी विडम्बना है, राजशाही या सामंती समाज व्यवस्था के दौर के तमाम हिन्दू राजाओं, रणबांकुरों-सेनापतियों में ‘महान देशभक्त’ की शख्सियत तलाशने वालों को इतिहास में अगर कोई ‘देशद्रोही’ या ‘शत्रु’ दिखता है तो वह सिर्फ मुसलमान हैं! भगवा ब्रिगेड ने अभी सिने स्टार रजनीकांत को भी चेताया है कि वह टीपू पर बन रही फिल्म ‘टाइगर आफ मैसूर’ में टीपू का किरदार न निभायें। कोई भी नहीं कह सकता कि भारत के मध्यकालीन या मध्य से आधुनिक काल की तरफ संक्रमण करते भारतीय समाज में आततायी या क्रूर मुस्लिम शासक नहीं हुए। कई ऐसे हुए, ठीक वैसे ही जैसे असंख्य गैर-मुस्लिम या हिन्दू शासक बेहद आततायी और क्रूर हुए। ऐसे गैर-मुस्लिम शासकों की कट्टरता और क्रूरता से हमारा इतिहास अटा पड़ा है। फिर किसी एक धर्मावलंबी या समुदाय के शासक में ही देशद्रोही या शत्रु की तलाश क्यों? 
इतिहास के प्रति संघ परिवारी संगठनों का यह संकीर्ण रवैया इतिहास से ज्यादा वर्तमान समाज और सियासत की दिशा के निर्धारण की उनके आग्रहों-दुराग्रहों से निर्धारित होता है। वे मौजूदा समाज और सियासत को एक खास ढंग से ढालना और संचालित करना चाहते हैं, इसलिये अपने बने-बनाये खांचे में इतिहास की हर घटना, नायक-प्रतिनायक या घटना-दुर्घटना को रखकर वे व्याख्यायित करना चाहते हैं। इसके लिये कभी उन्हें औपनिवेशिक सोच से प्रेरित इतिहासकारों का लेखन उपयोगी लगने लगता है तो कभी कोई लोक आख्यान या मिथक! जब ऐसा कुछ भी नहीं मिलता तो वे अपनी पसंद का कोई मिथक गढ़ लेते हैं और उसका भरपूर प्रचार करते हैं। उसे एक विचार या तथ्य के तौर पर स्थापित करने की कोशिश करते हैं। टीपू सुल्तान के साथ बिल्कुल ऐसा ही हुआ है। संघ परिवार से जुड़े संगठनों ने बड़े योजनाबद्ध ढंग से टीपू में ‘शत्रु’ तलाशने का विमर्श तैयार किया। 
यह सही है कि टीपू को अपने शासन के दौर में अनेक राजाओं, समूहों और संस्थाओं से टकराना पड़ा। कुछ ज्यादतियां भी कीं, जैसा कोई भी राजा या सामंत करता ही रहा है। अपने शत्रुओं का निर्दयता के साथ दमन किया। लेकिन यह उसका एक रूप है। औपनिवेशिक सोच से प्रेरित विदेशी या कुछ देसी इतिहासकारों ने टीपू के व्यक्तित्व के इस पहलू को ज्यादा बढ़ाचढ़ाकर पेश किया है। मसलन, उसने अगर कुर्ग लोगों के खिलाफ अभियान चलाया तो इसलिये कि कुछेक हलकों में कुर्ग विद्रोहियों ने उसके शासन के खिलाफ छापामार लड़ाई शुरू कर दी थी। केरल के नायरों या दक्षिण कर्नाटक के कैथोलिक ईसाइयों के खिलाफ दमन के लिये भी उसकी आलोचना हुई है। पर इन परिघटनाओं को लेकर ठोस ब्यौरेवार तथ्य बहुत सीमित हैं, ज्यादातर ये बातें आख्यानों और उस क्षेत्र के कुछ समुदायों से जुड़े तत्कालीन साहित्य में दर्ज हैं। कुछ बातें औपनिवेशिक सोच के इतिहासकारों ने प्रचारित की हैं। अगर उसने कुछ हिन्दू या गैर-मुस्लिम समूहों का दमन किया तो श्रृंगेरी मठ सहित 156 से अधिक हिन्दू धार्मिक प्रतिष्ठानों को हर संभव अनुदान या सहायता भी दी। टीपू को किसी मजहबी संकीर्ण दायरे में देखना इतिहास और उसके साथ अन्याय होगा। वह एक बहादुर, दूरदर्शी और समझदार शासक था, जिसने अपने वक्त के अन्य शासकों-सामंतों से ज्यादा आगे बढ़कर देश और समाज के बारे में सोचा-समझा। 
अठारहवीं सदी में टीपू सुल्तान अपने ढंग का अनोखा शासक रहा, जिसने ब्रिटिश कंपनी और उससे उभरते नये शासकीय तामझाम के खतरों को अच्छी तरह समझा था। उसने दक्षिण और उत्तर-मध्य में अपने कई समकालीन शासकों को संदेश भिजवाये कि ब्रिटिश जिस तरह समाज, अर्थव्यवस्था और सियासत में पांव फैला रहे हैं, उससे इस भूखंड पर एक नये ढंग का खतरा मंडरा है। वे पहले के शासकों से अलग और ज्यादा शातिर हैं। उनकी मंशा कुछ और है। वे सूबों की आजादी की खत्म कर सबको गुलाम बनाकर रखना चाहते हैं। उस वक्त के सूबाई या रियासती शासकों में यह सर्वथा नया विचार था। उसके सोच का दूसरा पहलू भी बहुत महत्वपूर्ण है। उस दौर के भारतीय समाज का वह पहला सूबाई शासक था, जिसे फ्रांस की राज्यक्रांति ने बेहद प्रभावित किया। उसने समाज और सभ्यता में बदलाव की बात की। स्वतंत्रता और मुक्ति के मूल्यों को आगे बढ़ाने की बात की। यहां तक कि उसने महल में फ्रांस की क्रांति के अभिनंदन स्वरूप ‘ट्रीज और लिबर्टी’ लगाये थे। 
धार्मिक-वर्णगत आग्रहों से प्रेरित होकर इतिहास की निहायत एकांगी व्याख्या करने वालों ने टीपू की राजनीतिक विरासत के एक खास पहलू को आमतौर पर नजरंदाज किया है। उसने अपने शासन के दौरान मैसूर राज और आसपास के इलाकों के समृद्ध उच्च वर्णीय लोगों, बड़े जमींदारों-सामंतों और पुरोहितों की बेशुमार सम्पत्तियों में से कुछ हिस्से जबरन लेकर गरीबों और शूद्रों में बांटा था। यह महज संयोग नहीं कि उसकी सेना में शूद्रों की संख्या सबसे ज्यादा थी। टीपू के जीवन और शासन पर शोध कार्य कर चुके इतिहासकारों ने इस बात को ठोस तथ्यों के साथ पेश किया है। हमें टीपू की तलवार और विचार, दोनों पर गौर करना होगा। इतिहास के चरित्रों-शख्सियतों की भूमिका की व्याख्या ठोस तथ्यों और साक्ष्यों के आधार पर होनी चाहिये, किसी धर्म, जाति या क्षेत्र के अपने संकीर्ण आग्रहों के दायरे में नहीं! 
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12 नवम्बर,  15


Monday, 9 November 2015

क्यों जीता महागठबंधन?



बिहार ने गाय की पूंछ पकड़कर सरकार
बनाने के भगवा-तिकड़म को किया खारिज
उर्मिलेश

गाय की पूंछ पकड़कर विधानसभा के अंदर भारी संख्या में दाखिल होने का इरादा पाले भगवा ब्रिगेड को इस बार बिहार ने बुरी तरह निराश किया। जनता ने लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार के महागठबंधन को भारी बहुमत से जिताया। लोगों ने अन्य पक्षों को जितना खारिज किया, उससे ज्यादा शिद्दत के साथ नीतीश-लालू को अपनी मंजूरी दी। इस मायने में यह एक सकारात्मक जनादेश है। मई, 2014 के संसदीय चुनाव के जनादेश में कांग्रेंस-नीत यूपीए-2 को अपदस्थ करने की जनाकांक्षा ज्यादा प्रबल थी, जिसका फायदा नरेंद्र मोदी की अगुवाई वाली भाजपा को मिला था। भाजपा को समर्थन से ज्यादा वह कांग्रेस का विरोध था। बिहार के चुनाव में लोगों ने सत्ता की दावेदारी ठोंक रही भाजपा के नये प्रतीक-पुरूष नरेंद्र मोदी और पार्टी अध्यक्ष अमित शाह की जोड़ी के एजेंडे को नामंजूर कर दिया। राज्य में शासन के लिये नीतीश को बेहतर माना। इस मायने में यह महागठबंधन यानी लालू-नीतीश की एकता के पक्ष में सकारात्मक जनादेश है। नीतीश कुमार बीते दस सालों से राज्य के मुख्यमंत्री हैं। इसके बावजूद उनके खिलाफ किसी तरह की एंटी-इनकम्बेंसी का न होना बहुत बड़ी राजनीतिक परिघटना है। बिहार के लोगों को लगा कि सरकार चलाने के लिये नीतीश से बेहतर कोई नहीं और सामाजिक न्याय के लिये लालू अब भी एक जरूरत हैं।
भाजपा की तरफ से मोदी-शाह की जोड़ी ने इस चुनाव में सर्वाधिक निशाना लालू प्रसाद को बनाया। उन्हें जंगलराज का प्रतीक-पुरूष घोषित किया। जनादेश से साफ है कि अवाम ने लालू के खिलाफ जंगलराज के भाजपाई-जुमले को भी कूड़ेदान में फेंक दिया। दोनों पहलुओं के हिसाब से यह जनादेश जद(यू)-राजद की भारी जन-स्वीकृति का ऐलान है।
चुनाव प्रचार के दौरान नीतीश ने बार-बार कहा कि महागठबंधन बिहार में समावेशी विकास यानी सामाजिक न्याय के साथ आर्थिक विकास में यकीन करता है। यही बात लालू अपनी भाषा में कहते रहे। इस मायने में यह जनादेश कारपोरेट-आश्रित विकास की सोच के खिलाफ समावेशी विकास की मंजूरी भी है। कहीं न कहीं, भाजपा और मोदी सरकार के कारपोरेटवाद की नामंजूरी भी है। बीते लोकसभा चुनाव में बिहार की इसी जनता ने भाजपा को भारी बहुमत से जिताया था। तब लालू और नीतीश अलग-अलग लड़ रहे थे। उऩके बिखराव का भाजपा को पूरा फायदा मिला। इसके अलावा जनता ने केंद्र सरकार बनाने के लिये नरेंद्र मोदी को वरीयता दी क्योंकि वे कांग्रेस-नीत यूपीए-2 से बेहद क्षुब्ध थे। देश के अन्य हिस्सों की तरह तब बिहार के लोगों को भी मोदी के गुजरात माडल की बातें सुहानी लगी थीं। लेकिन महज सत्रह महीने में महंगाई, खासकर दालों, अन्य खाद्य सामद्री, दवाओं आदि के दामों में बढ़ोत्तरी हुई, जिस तरह संघ-परिवार से जुड़े संगठनों की तरफ से असहिष्णुता और सांप्रदायिकता को बढ़ावा दिया गया और सरकार खुलेआम लोकतांत्रिक संस्थाओं का विकृतीकरण करती नजर आई, उसका असर समाज के हर तबके पर पड़ना लाजिमी था। बिहार के जनादेश में इन सभी पहलुओं का हिस्सा है। पर असल बात है-लालू-नीतीश का एक होना। लालू-नीतीश के मिलने से एक पुख्ता चुनावी गठबंधन की बुनियाद पड़ गयी। दोनों के बीच गजब का तालमेल स्थापित हुआ। दोनों एक-दूसरे दलों के लिये वोट ट्रांसफर कराने में भी कामयाब रहे। महागठबंधन ने एनडीए के मुकाबले बेहतर उम्मीदवार दिये(कुछ अपवादों को छोड़कर) और सामाजिक समीकरणों का भी ज्यादा ख्याल रखा। उदाहरण के लिये अपेक्षाकृत यादव-बहुल क्षेत्रों में भी कई जगह कुशवाहा या अति पिछड़ा (ईबीसी)/अल्पसंख्यक प्रत्याशी उतारे।
चुनाव प्रचार अभियान के दौरान लालू ने संघ-प्रमुख मोहन भागवत के आरक्षण-समीक्षा विषयक विवादास्पद बयान को पकड़ा और बिहार के दलित-पिछड़ों के बीच जबर्दस्त गोलबंदी की। उन्होंने बिहार की बडी आबादी के समक्ष संघ-भाजपा के दलित-पिछड़ा विरोधी राजनीतिक शक्ति होने की बात को शिद्दत के साथ पेश किया। इसकी काट में मोदी-शाह की जोड़ी विकास के एजेंडे को भूलकर फिर से भगवा-एजेंडे पर उतर आई। कभी पाकिस्तान में पटाखे फूटने की बात होने लगी तो कभी भाजपा के विज्ञापनों में गाय दिखनी लगी। बिहार के लोगों ने भाजपा के सांप्रदायिक एजेंडे को पूरी तरह कूड़ेदान में फेंक दिया। भाजपा-एनडीए  के प्रचार अभियान की एक खास बात उसके खिलाफ गयी। वह थी-एनडीए के प्रचार की मुख्य कमान मोदी-शाह के पास होना। दोनों गैरबिहारी थे। बाहरी बनाम बिहारी का नीतीश का नारा लोगों के दिमाग में जम गया। जिस वक्त प्रधानमंत्री जी किसी क्षेत्र मे भाषण करते हुए कहते-बोलो भाइयों, बिजली पांच  घंटे  भी आती है, नहीं आती है न’, उन क्षेत्रों में तब 20-20 घंटे बिजली आ रही होती थी।  स्थानीय न होना और असलियत से वाकिफ न होना कई बार उन्हें हास्यास्पद बना देता। भाजपा का कोई बिहारी नेता प्रचार अभियान के दौरान उभरकर सामने नहीं आया।  इससे मतदाताओं के सामने असमंजस भी था कि नीतीश के बदले कौन? नीतीश के स्तर का कोई स्थानीय नेता भाजपा के अंदर नहीं दिखा। मोदी-शाह का लहजा कन्वीन्सिंग के बजाय कन्फ्रंटिंग था। जोड़ने के बजाय तोड़क और विघटनकारी था। बिहार कई मायनों मे गुजरात से अलग ढंग का सूबा है। यहां कम्युनल कार्ड नहीं चल पाया। लोग आमतौर पर गाय या दुधारू जानवरों को प्यार करते हैं। गाय की पूंछ पकड़कर स्वर्ग जाने की बातें मिथकों में तो जीवित हैं पर बिहार के राजनीतिक सोच वाले लोग भला इस बात के लिये कैसे राजी होते कि चुनाव में कोई नेता या पार्टी गाय की पूंछ पकड़कर विधानसभा पहुंचे। बिहार ने गाय की राजनीति पर जारी राष्ट्रीय विमर्श को नया आयाम देते हुए इस चैप्टर को अब खत्म कर दिया है। बड़ा संदेश है कि एक सेक्युलर लोकतंत्र में गाय पर सांप्रदायिक गोलबंदी नहीं होनी चाहिये। 
एनडीए के प्रचार अभियान में धन-दौलत का दबदबा दिखा। बिहार के आम लोगों, खासतौर पर गरीब मतदाताओं को लगा कि यह अमीर पार्टी है। भाजपा का प्रचार तामझाम भरा था, पूरा फाइव-स्टार। उसमें भारतीय क्या बिहारी संस्कृति भी नहीं दिखाई दे रही थी। उसके मुकाबले महागठबंधन का प्रचार अभियान ज्यादा देसी और सघन था। राजद और जद(यू) के प्रवक्ता के रूप में क्रमशः प्रो. मनोज झा(राजद) और पवन कुमार वर्मा, केसी त्यागी आदि (जद-यू) अपने प्रतिद्वन्द्वी भाजपा के संविद पात्रा या श्रींकांत शर्मा के मुकाबले ज्यादा संयत, धैर्यवान, समर्थ और विवेकशील नजर आये। बीच में प्रधानमंत्री ने जिस तरह की टिप्पणियां कीं, उन पर लालू की बड़ी बेटी मीसा भारती का पलटवार आम लोगों को भी पसंद आया। गठबंधन के नेताओं-प्रवक्ताओं ने अपनी बातों को पुरजोर ढंग से लोगों के समक्ष रखा। नीतीश के प्रचार तंत्र में अहम सलाहकार के रूप में काम कर रहे प्रशांत किशोर का काम भी कारगर साबित हुआ।
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Saturday, 31 October 2015

बिहार में ‘स्वर्ण काल’ बनाम ‘जंगलराज’

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बिहार विधानसभा चुनाव में इस बार जिस एक जुमले का सबसे अधिक प्रयोग हुआ, वह है-‘जंगलराज’। भाजपा ने इसे अपना अहम चुनाव मुद्दा बनाकर जोर-शोर से प्रचारित किया कि ‘महागठबंधन’ के जीतने का मतलब होगा-बिहार में ‘जंगलराज’ की वापसी। उसके मुताबिक नीतीश कुमार भले ही गठबंधन के मुख्यमंत्री हों, सत्ता की मुख्य शक्ति होंगे लालू प्रसाद यादव, जो जंगलराज के प्रतीक हैं।’ मीडियाकर्मियों और प्रतिपक्षी-राजनीतिज्ञों के बाद इधर कुछ लेखक-इतिहासकारों में भी लालू प्रसाद यादव और राबड़ी देवी के शासनकाल को इसी जुमले से संबोधित करने का फैशन सा चल गया है। अभी कुछ दिनों पहले इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने  लालू-राबड़ी राज के लिये इस जुमले का इस्तेमाल किया। सवाल उठना लाजिमी है, जिस पैमाने या आधार पर उन्होंने उक्त कार्यकाल को ‘जंगलराज’ का विशेषण दिया, क्या वे आधार या पैमाने देश के अन्य राज्यों में मौजूद नहीं हैं, जिन्हें उन्होंने शायद ही कभी जंगलराज के रूप में संबोधित किया हो? फिर यह विशेषण सिर्फ बिहार के लिये क्यों?    यह इतिहासकार की तथ्य-आधारित सोच है या मनोगत व्याख्या? 

‘जंगलराज’ के विशेषण को सही और जायज ठहराने के लिये रामचंद्र गुहा ने अपने लेख में एक बहुचर्चित हत्याकांड का उल्लेख किया है। वह नृशंस हत्या थी-पटना विश्वविद्यालय की प्रोफेसर और इतिहासकार पापिया घोष की। 3 दिसम्बर,2006 को हुई इस नृशंस हत्या के लिये लिये गुहा ने लालू-राबड़ी के ‘जंगलराज’ को जिम्मेदार ठहराया। गत 17 अक्तूबर को दिल्ली सहित कई राज्यों से छपने वाले एक अखबार में उन्होंने पापिया के नामोल्लेख के बगैर महिला इतिहासकार हत्याकांड की चर्चा की है। संभवतः यही लेख कुछ अंगरेजी अखबारों में भी छपा। निस्संदेह, यह संदर्भ इतिहासकार पापिया घोष की हत्या का ही है, क्योंकि उस दौर में पापिया के अलावा किसी अन्य इतिहासकार की पटना में हत्या नहीं हुई। लेकिन गुहा जिस हत्याकांड का जिक्र कर रहे हैं, वह लालू-राबड़ी के ‘जंगलराज’ के दौरान हुआ ही नहीं। आश्चर्यजनक कि पेशेवर इतिहासकार होने के बावजूद गुहा ने सन 2006 के दौरान हुए पापिया हत्याकांड को ‘लालू-राबड़ी जंगलराज’ के दौरान हुआ बता दिया, जबकि उस वक्त नीतीश कुमार की सरकार थी! अगर यह इतिहासकार की तथ्य-पड़ताल सम्बन्धी लापरवाही नहीं तो फिर बहुत तुच्छ किस्म की बौद्धिक बेईमानी है! बेहतर होगा, गुहा इतिहास पर शोधपरक लेखन करें या क्रिकेट पर लिखें, समकालीन राजनीति पर अपनी अधकचरी समझ का कचरा न फैलायें!
अपने लेख में लब्धप्रतिष्ठ इतिहासकार ने बिहार भाजपा और तत्कालीन उपमुख्यमंत्री सुशील मोदी की भी जमकर तारीफ की है। लेख की मूल प्रस्थापना वही है, जो अपवादों को छोड़ दें तो इन दिनों आमतौर पर बिहार के सवर्ण हिन्दू, समृद्ध शहरी या गांव के सवर्ण भूस्वामी की दिखती है। रामचंद्र गुहा की तरह वे भी नीतीश और भाजपा गठबंधन जारी रहने के पैरोकार हैं। नीतीश-सुशील यानी जद(यू)-भाजपा गठबंधन न होने से आहत गुहा अपना दुख इन शब्दों में व्यक्त करते हैं, ‘मुझे बिहार के लोगों और बिहार राज्य से बहुत लगाव है, इसलिये मैं कुछ महीनों की घटनाओं को बहुत दुख से देखता रहा हूं।  एक राज्य, जिसमें नीतीश कुमार-सुशील मोदी की जुगलबंदी बहुत कुछ कर सकती थी, वह उनके अलगाव का फल भुगत रहा है। सर्वेक्षण बता रहे हैं कि यह कांटे का चुनाव है। चुनाव में जो भी जीते, बिहार की जनता पहले ही हार चुकी है।’ शोकाकुल गुहा इस बात से दुखी हैं कि नीतीश ने जंगलराज की ‘अमंगल शक्तियों’ से क्यों हाथ मिला लिया! यह लेख इस बात का ठोस प्रमाण है कि एक विद्वान इतिहासकार भी तथ्य और ठोस साक्ष्यों की अवहेलना करके हमारे जैसे समाज में किस तरह जातिगत-वर्णगत पूर्वाग्रहों या पूर्वाग्रह भरी दलीलों से प्रभावित हो सकता है! यही नहीं, वह अपनी सेक्युलर सोच के उलट वर्णगत आग्रहों के दबाव में सांप्रदायिकता की सबसे प्रतिनिधि राजनीतिक शक्ति मानी जाने वाली सियासी जमातों को भी सुशासन की शाबासी दे सकता है! ऐसे लोग बंगलुरू से बलिया, पटियाला से पटना, मदुरै से मुजफ्फरपुर, नैनीताल से नालंदा और वाराणसी से वैशाली तक फैले हुए हैं। कई भाषाओं के अखबारों में छपे अपने लेख में गुहा आगे कहते हैं, ‘ अगर महागठबंधन जीतता है तो नीतीश कुमार मुख्यमंत्री होंगे। राजग ने किसी को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार नहीं बनाया है लेकिन वे जीते तो शायद अपने सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति को मुख्य़मंत्री बनायेंगे। लेकिन नीतीश कुमार और सुशील मोदी मिलकर जो कर सकते थे, वह अकेले-अकेले नहीं कर सकते।’(‘जनता पहले ही हार चुकी है’,‘हिन्दुस्तान’,17अक्तूबर,2015)। बिहार में भी एक तबका कह रहा है कि नीतीश अच्छे हैं पर उन्होंने लालू(या ललुवा!) से क्यों हाथ मिलाया? दरअसल, ये वहीं वर्ग हैं, जो हर हालत में भाजपा के जरिये बिहार की सत्ता पर अपना वर्चस्व बरकरार रखना चाहते हैं। उन्हें लग रहा है कि नीतीश-लालू गठबंधन के फिर से सत्ता में आने पर उनका वह वर्चस्व कायम नहीं रहेगा। वह अपने प्रभाव की ऐसी सरकार चाहते हैं जो शंकरबिघा, बथानी टोला और लक्ष्मणपुर बाथे जैसे नृशंस हत्याकांडों के लिये जिम्मेदार रणवीर सेना और उसके आकाओं को लगातार माफ करती-कराती रहे। वह ऐसी सरकार चाहते हैं, जिसके तहत भूमि सुधार की कोई भी सार्थक कोशिश कामयाब न हो सके। क्या गुहा को नहीं मालूम कि बिहार में सुशील मोदी की अगुवाई वाली भाजपा के मंत्रियों और उनसे अनुप्रेरित कुछ अफसरों के कुचक्र और दबाव के चलते ही नीतीश सरकार राज्य के तीन बड़े मामलों में ठोस फैसला नहीं ले सकी? यह तीन मामले थे-1. अमीरदास आयोग, जो शंकरबिघा, लक्ष्मणपुर बाथे और बथानी टोली जैसे नृशंस हत्याकाडों की पृष्ठभूमि मे रणवीर सेना के साथ राजनीतिज्ञों की मिलीभगत आदि की जांच के लिये पूर्ववर्ती राबड़ी देवी सरकार द्वारा गठित किया गया था 2. भूमि सुधार के लिये स्वयं नीतीश सरकार द्वारा गठित डी बंदोपाध्याय कमेटी की सिफारिशों पर अमल का मामला 3. शिक्षा में सुधार के लिये मुचकुंद दुबे कमेटी की रिपोर्ट की सिफारिशें लागू करना। यह तीनों काम नहीं हो सके। हमारी जानकारी है कि इन तीनों मामलों में भाजपा के कई दबंग मंत्रियों ने सरकारी फैसले को रोका और उसमें सुशील मोदी स्वयं भी शामिल थे। जद(यू) के कुछ मंत्रियों-विधायकों का भी इस लाबी को समर्थन मिला। नीतीश कमजोर पड़ गये और यह तीनों काम नहीं हो सके, जो बिहार का भाग्य बदल सकते थे। इसके पहले लालू के पहले कार्यकाल में भी भूमि-सुधार जैसे मुद्दे पर ज्यादा कुछ नहीं हुआ। उस सरकार को भी भूस्वामियों की मजबूत लाबी से समझौता करना पड़ा था। ऐसे मामलों में भाजपा के विरोध की वजह जानना राकेट साइंस की गुत्थी जानने जैसा नहीं है। बिहार में अब सवर्ण समुदायों, खासकर भूस्वामियों और समृद्ध लोगों की नुमायंदगी भाजपा ही कर रही है। उसने 90 के बाद बड़ी चतुराई से कांग्रेस से उसका यह स्थान छीन लिया। ऐसी स्थिति में क्या रामचंद्र गुहा अपने लेख में वर्चस्वादी वर्ग की आवाज नहीं बनते दिख रहे हैं? 
अंत में फिर ‘जंगलराज’ के जुमले की तरफ लौटते हैं। यह सही है कि लालू-राबड़ी राज के कुछ बरस प्रशासनिक स्तर पर बहुत बुरे थे। लेकिन एक सच यह भी है कि सन 1990-94 के बीच लालू सरकार ने दलित-पिछड़ों-आदिवासियों(झारखंड तब बिहार का हिस्सा था) में गजब का भरोसा पैदा किया। सामंती उत्पीड़न में कमी आई। उन्हें खेतीयोग्य जमीन नहीं मिली, आर्थिक तौर पर भी कोई बड़ी मदद नहीं मिली। लेकिन एक भरोसा मिला कि पहले की कांग्रेसी सरकारों से यह कुछ अलग किस्म की सरकार है। उन्होंने अपने को ‘इम्पावर्ड’ महसूस किया। अल्पसंख्यक समुदाय ने भी बेहतर माहौल का एहसास किया। राज्य सरकार, प्रशासनिक निकायों, जिला बोर्डों, निगमों, ठेकों, शिक्षण संस्थानों और अन्य इकाइयों में दलित-पिछड़ों-अल्पसंख्यकों की नुमायंदगी बढ़ी। ‘दिग्विजयी रामरथ’ पर सवार देश भर में घूम रहे लालकृष्ण आडवाणी जब बिहार पहुंचे तो लालू ने उन्हें यह कहते हुए गिरफ्तार कर लिया कि यह ‘दंगा-रथ’ है, सांप्रदायिक सद्भाव के हक में इसे रोका गया। इस तरह के कुछ बड़े सकारात्मक कदम तो उठे। लेकिन समावेशी विकास, आधारभूत संरचनात्मक निर्माण और बदलाव के बड़े एजेंडे नहीं लिये गये। इसके बावजूद लोग खुश थे। सन 1995 के चुनाव में लालू को मिले प्रचंड बहुमत का यही राज था। दूसरे कार्यकाल में सरकार से लोगों की ठोस आर्थिक अपेक्षायें बढ़ीं। इस दिशा में जो कदम जरूरी थे, वे भी नहीं उठाये जा सके। लालू के जेल जाने के बाद उनकी पत्नी राबड़ी देवी, जिनके पास राजनीति या प्रशासन में एक दिन का भी अनुभव नहीं था, मुख्यमंत्री बनीं और इस तरह सत्ता की चाबी लालू के दो सालों और पसंदीदा अफसरों के पास आ गयी। उत्पात और खुराफात की शुरुआत यहीं से हुई। प्रशासनिक भ्रष्टाचार और अपराध में बढ़ोत्तरी हुई। उनके दोनों सालों ने अंधेरगर्दी मचा दी। लेकिन यह कहना कि शाम ढलते ही पटना या बिहार के अन्य़ शहरों में लोगों का आवागमन ठप्प हो जाता था या कि दूकानों में आये दिन सामानों की लूट होती रहती थी या कि किसी लड़की को कहीं से भी उठा लिया जाता था, अतिशयोक्तिपूर्ण है और इस तरह की बातें सिर्फ कुछ वर्ग-वर्ण विशेष के निहित-स्वार्थी तत्व ही कहते हैं। बिहार अपराध-मुक्त पहले भी नहीं था। आज भी नहीं है। लेकिन एकेडेमिक्स, शीर्ष अफसरशाही और मीडिया में प्रभावी खास लोगों के सहयोग से ‘जंगलराज’ का जुमला देखते-देखते राष्ट्रव्यापी प्रचार पा गया। आज महाराष्ट्र, कर्नाटक, हरियाणा, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ या यूपी में लेखकों से लेकर आम लोगों की निशानदेही के साथ हत्याएं या उन पर हमले हो रहे हैं। क्या इनके प्रशासन को भी ‘जंगलराज’ कहा जा रहा है? बिहार के दूसरे प्रीमियर और पहले मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह के राज में तो दलित-पिछड़ों को ठीक से जीने और अपने को व्यक्त करने की भी आजादी नहीं थी। सियासत और सरकार में इन वर्गों की नुमायंदगी नगण्य थी। जातिवाद और भ्रष्टाचार का इस कदर बोलबाला था कि तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष अबुल कलाम आजाद को अपनी ही पार्टी की सरकार और उसके प्रीमियर श्रीकृष्ण सिंह के खिलाफ गांधी-नेहरू-राजेंद्र प्रसाद को रिपोर्ट सौंपनी पड़ी थी। जुल्मोसितम के बारे में पुराने शाहाबाद के ‘आयरकांड’ की कहानी रोंगटे खड़ी करती है।  बाद के दिनों के कांग्रेसी शासन में रूपसपुर चंदवा, अरवल और दनवारबिहटा जैसे असंख्य दलित-आदिवासी हत्याकांड सिलसिला बन गये। हर साल चार-पांच बड़े हत्याकांड होते थे। पर मीडिया और एकेडेमिक्स के बड़े पंडित उस काल को बिहार का ‘स्वर्णराज’ या ‘स्वर्णकाल’ कहते हैं। अब इसे क्या कहेंगे? इतिहासकार इन बातों को समझें या ना समझें, आम लोग समझते हैं। बिहार में इस वक्त एक इतिहास बनता नजर आ रहा है। हम सबको बिहार के आम लोगों के विवेक पर भरोसा करना चाहिये, जिन्होंने वक्त-बेवक्त देश को हमेशा रास्ता दिखाया है----‘बिहार शोज द वे!’ 
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28अक्तूबर,2015
urmilesh218@gmail.com 

असहिष्णुता के विरोध में लेखक .

                                                                                                                                             वीरेंद्र यादव
 धार्मिक कट्टरवाद और असहिष्णुता के    गहराते संकट के विरोध में प्रतिरोध की जैसी   लेखकीय एकजुटता समूचे देश में  इन   दिनों  देखने में आयी है वह अभूतपूर्व और पहली बार है. निश्चित रूप से  यह  इसलिए है क्योंकि  पहली बार  देश में साहित्यिक और वैचारिक अभिव्यक्ति के चलते लेखको-बुद्धिजीवियों की हत्या जैसे जघन्य अपराध किये गए हैं. कन्नड़ विद्वान व लेखक एम एम कलबुर्गी , तर्कवादी  नरेन्द्र धाबोलकर और गोविन्द पानसरे  की हत्या उनके लेखन  और वैचारिक अभिव्यक्ति के चलते ही हुयी है . इतना ही नहीं इन हत्याओं को अंजाम देने वाले इतने निडर और दुस्साहसी  हैं कि वे  मराठी पत्रकार कुमार केतकर , निखिल वागले और कन्नड़ लेखक के एस भगवान सहित कई अन्य बौद्धिकों  को भी जान से मारने की खुली धमकी दे रहे हैं. प्रसिद्ध लेखक कांचा इल्लय्या पर तेलगु में लिखे एक लेख के लिए  कट्टरवादी तत्वों ने  आहत भावनाओं  की आड़ लेकर कई कई थानों और अदालतों में देशद्रोह तक का मामला दर्ज कराया है. तमिल लेखक पी.मुरुगन  तो अपनी प्रताड़ना के चलते अपने लेखक की मौत की पहले ही घोषणा कर चुके हैं. तर्क ,ज्ञान और खुली बहस के दरवाजे बंद करने के लिए जहाँ उच्च शैक्षणिक संस्थानों में पेरियार-आंबेडकर स्टडी सर्किल जैसे विचारमंच  की नाकेबंदी की जा रही है वहीं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखाओं के लगाने को खुली छूट दी जा रही है. यहाँ तक कि पुस्तक-विमोचन समारोह के आयोजन के चलते  सुधीन्द्र कुलकर्णी सरीखों का मुंह काला किया जा रहा है.  कहना न होगा कि केंद्र में सत्ता परिवर्तन के बाद हिन्दू कट्टरवादी तत्वों की आक्रामकता पहले से अधिक बढ़ी है और सत्ता तंत्र द्वारा  इनसे निपटने और इनके विरुद्ध कार्रवाई करना  तो दूर इन्हें शह और प्रोत्साहन ही दिया जा रहा है.   इतना ही नहीं  केन्द्र सरकार द्वारा साहित्य, कला , फिल्म , संस्कृति, इतिहास ,समाजशास्त्र के  संस्थानों व राष्ट्रीय पुस्तक न्यास और नेहरु मेमोरियल लायब्रेरी आदि में बहुसंख्यकवादी सोच के पक्ष में खुली  राजनीतिक दखलंदाजी भी बढी है. ‘बत्रा शैक्षणिक माडल’ के चलते अब गीता ,महाभारत और रामचरितमानस ही नहीं बल्कि आशाराम बापू सरीखे यौन अभियुक्त  भी स्कूली पाठ्यक्रम में शामिल किये जा रहे  हैं. खान-पान ,पठन-पाठन, वेशभूषा ,बानी-बोली सभी पर कड़ी पहरेदारी है. ‘गोरक्षा’ और ‘गाय’ अब धार्मिक उन्माद के नए हथियार हैं.
             ‘सांस्कतिक राष्ट्रवाद’ के  दिनोंदिन तेज होते इस  समूचे सामाजिक-सांस्कृतिक परिदृश्य के चलते     लेखक-बुद्धिजीवी  समाज  की बेचैनी और चिंता स्वाभाविक ही है. अफ़सोस यह कि लेखकों की इन चिंताओं में स्वायत्त कही जाने वाली साहित्य अकादमी सरीखी संस्था की भागेदारी तो दूर औपचारिकता के निर्वाह  की भी यांत्रिकता नही शेष बची है.  साहित्य अकादमी द्वारा  सम्मानित लेखक एम एम कलबुर्गी  की हत्या किये जाने के विरोध में निंदा तो दूर शोक प्रस्ताव तक का न पारित किया जाना और बचाव में  अकादमी के अध्यक्ष का यह तर्क कि ऐसी कोई परम्परा नही रही है, निश्चित रूप से अकादमी की निष्क्रियता और बदले  हुए राजनीतिक परिदृश्य का मुखापेक्षी होने का ही सबूत देती है. साहित्य अकादमी द्वारा सम्मानित लेखकों द्वारा पुरस्कार वापसी, अकादमी के पदों से त्यागपत्र और पद्मश्री तक वापस किये जाने की प्रतिरोधी कारवाई को इन्ही सन्दर्भों में देखा जाना चाहिए . भाषा और क्षेत्र की सीमाओं को तोड़कर प्रतिरोध की अभिव्यक्ति   करते हुए लेखकों ने भारतीय  समाज की अन्तश्चेतना के प्रहरी की जैसी भूमिका इन दिनों निभायी है वह ऐतिहासिक और अविस्मरणीय है. सलमान रुश्दी और अमिताभ घोष के समर्थन ने इस प्रतिरोध को  वैश्विक सन्दर्भ दिए हैं तो नयनतारा सहगल, शशि देशपांडे, जी एन देवी और के की दारूवाला ने इसे बौद्धिक आभा प्रदान की है. ऐसे में यह सचमुच दुर्भाग्यपूर्ण और सत्ता तंत्र की हठधर्मिता का ही परिचायक है कि लेखकीय प्रतिरोध से सबक लेने के बजाय समूचा सत्ता तंत्र  लेखकों के ही  विरुद्ध आक्रामक हो गया है. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुखपत्र ‘पांचजन्य’ ने अपने सम्पादकीय में सबसे पहले लेखकों की इस मुहिम को राजनीतिक रंग देते हुए ख़ारिज किया .  इसके बाद तो आरएसएस के भैय्याजी जोशी, राम माधव,राकेश सिन्हा  से लेकर  केंद्र सरकार के मंत्री तक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वर में स्वर मिलाते हुए समूचे लेखक समुदाय को धमकी भरे अंदाज़ में लांछित और प्रश्नांकित करने की होड़ में शामिल हो गए . पश्चिम बंगाल के राज्यपाल केसरी नारायण त्रिपाठी ने तो लेखकों की पृष्ठभूमि की ख़ुफ़िया पड़ताल तक की सलाह दे डाली . हद तो तब हो गयी जब पद और शालीनता की सभी सीमाओं को तोड़ते हुए केन्द्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली ने इस लेखकीय प्रतिरोध को ‘बनावटी’ . ‘कागजी’ और ‘इतर माध्यमों से राजनीति’ करार देते हुए प्रतिरोध में शामिल  लेखकों को नेहरु माडल की उदार-वाम वैचारिक सत्ता का लाभार्थी बताकर इस मुहिम को ख़ारिज करने का करतब  अपनाया .  यह करते हुए वे निश्चित रूप से इस संदेह को सही साबित कर रहे थे  कि एम एम कलबुर्गी ,पानसरे , धाबोलकर  और  दादरी के अख़लाक़ के हत्यारों की सोच और दिशा एक ही है. उल्लेखनीय है कि देश के प्रधानमंत्री ने दादरी की घटना को दुखद कहने में दो सप्ताह का समय लिया और साहित्य अकादमी द्वारा  एम एम कलबुर्गी की हत्या पर प्रतिक्रिया इन पंक्तियों के लिखे जाने तक  प्रतीक्षित है. कहना न होगा कि  लेखकों की  प्रतिरोधी मुखरता  इसी चुप्पी के विरोध में है. 
             अच्छा यह भी है कि हिन्दी लेखकों की एक बड़ी संख्या  विचारधारा और संगठन की सीमाओं से परे स्वतःस्फूर्त ढंग  से इस विरोध की मुहिम में शामिल हुयी है. कृष्णा सोबती, अशोक वाजपेयी, काशीनाथ सिंह,  उदय प्रकाश, मंगलेश डबराल ,राजेश जोशी ,नन्द भारद्वाज,  चमन लाल, मनमोहन  आदि सरीखों ने जहाँ अपने पुरस्कार  वापस किये और यह सिलसिला अभी भी जारी है, वहीं वृहत्तर लेखक समाज का समर्थन भी इस विरोध के साथ है . उल्लेखनीय यह भी है इस बार   लेखक संगठनों तक को लेखको द्वारा  प्रतिरोध की इस स्वतःस्फूर्त  पहल का अनुगामी होना पड़ा है. लेखकों ने  पद और सम्मान को  त्यागकर अपने सामाजिक दायित्व का परिचय ही नही दिया है बल्कि लोभ-लाभ के चलन के विरुद्ध  पहलकदमी भी की है. यह अत्यंत महत्वपूर्ण और स्वागतयोग्य है कि   जिन   अशोक वाजपेयी ने अभी कुछ माह पूर्व भाजपा शासन के  ग्यारह वर्ष पूरे   होने पर छतीसगढ़ के  रायपुर साहित्य महोत्सव में शिरकत करते हुए मुख्यमंत्री रमन सिंह की जनतांत्रिकता और  सहनशीलता की प्रशंसा की थी उन्होंने  भी अपना पुरस्कार लौटाते हुए अब दो टूक लहजे में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ‘चुनी हुयी चुप्पी’ को प्रश्नांकित किया है. पानी सचमुच सिर के ऊपर पहुँच रहा है. फिर भी  साहित्य अकादमी के अध्यक्ष को बेशर्मी से प्रतीक्षा है कि लेखक पुरस्कार से कमाई कीर्ति भी वापस करें .काश उन्हें पता होता कि वे क्या कह रहे हैं !  साहित्य अकादमी के प्रथम  अध्यक्ष जवाहरलाल नेहरु से लेकर वर्तमान अध्यक्ष तक की अकादमी की ढलान यात्रा अब सचमुच अपने अधोबिंदु  पर है. इस समूचे प्रकरण पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए  अंतर्राष्ट्रीय ख्याति के लेखक अमिताभ घोष ने उचित ही केन्द्र सरकार की मिलीभगत के साथ साथ  साहित्य अकादमी के वर्तमान नेतृत्व को भी जिम्मेदार ठहराया है. 
         केंद्र सरकार और  साहित्य अकादमी की चुप्पी और निष्क्रियता  के विरुद्ध लेखकों की  इस  मुहिम को लेकर हिन्दी के कुछ लेखकों ने अत्यंत मौलिक और दिलचस्प सवाल भी खड़े किये हैं. साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत लेखक गिरिराज किशोर जहाँ इस बात को लेकर चिंतित हुए कि “सरकार से लड़ने की जगह हमारे लेखक मित्र साहित्यिक संस्था को कमज़ोर बना रहे हैं। वह तो कमज़ोर गऊ है उसको डंडे मारेंगे तो वह क्या करेगी। स्वायत्त संस्था है। ”. कहना न होगा कि इस  ‘गऊ’ के ध्वन्यार्थ कितनी दूर तक सुने जा सकते हैं.  अकादमी की  स्वायत्तता का हवाला देते हुए असगर वजाहत ने सवाल उठाया कि –“यह कहा जा रहा है कि साहित्य अकादमी ने लेखको की हत्या और मौलिक अधिकारों के हनन पर कोई बयान नहीँ दिया. क्या इससे पहले साहित्य अकादमी या अन्य दूसरी अकादमियों ने ऐसे बयान दिए है? यदि नहीँ तो आज उन से यह आशा क्यों की जा रही है?” . क्या असगर वजाहत का यह  सवाल उतना ही भोला है जितने भोलेपन से  यह पूछा गया  है ?  मैत्रेयी पुष्पा की यह प्रतिक्रिया तो सर्वाधिक मनोरंजक रही  –“बहुत हो चुका , अकादमी पुरस्कार को लोग लौटाये चले जारहे हैं , लग रहा है जैसे एक को देखकर दूसरे पर रंग चढ रहा है कि कहीं वह पीछे न रह जाये शहीदों में नाम लिखाने से । अपनी ही अकादमी को उखाड पछाड रहे हैं क्योंकि और किसी पर बस नहीं चलता । नहीं सोचते कि वे खुद क्यों ऐसे बेअसर होगये हैं कि अपने ही घर में आग लगाकर दिखानी पड़ रही है । अब आप शहादत पर नहीं , बेढंगी शरारत पर उतरे हैं साहित्यकार के नाम पर ...साथ ही उन साहित्यकारों को अपमानित कर रहे हैं, जिनके पास अकादमी पुरस्कार नहीं हैं । भयानक से भयानक कांड हुये हैं और आप अकादमी अवार्ड को बंदरिया के बच्चे की तरह गले से चिपकाये रहे यश के रूप में , इस कृत्य की भी जबावदेही बनती है अब तो !”   मैत्रेयी पुष्पा की  यह  प्रतिक्रिया अबौद्धिक  होने के साथ साथ उस लेखक समुदाय के विरुद्ध भी  है जिसने प्रतिरोध की पहल की है .इससे यह भी स्पष्ट है कि  वे न तो आज के संकट को समझ रही हैं ,न पहले की घटनाओं से आज के हालत की  भिन्नता को और न ही साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाने के सही सन्दर्भ को  .  मैत्रेयी पुष्पा सहित यहाँ संदर्भित अन्य  प्रतिक्रियाओं में  साहित्य अकादमी की स्वायत्तता  की दुहाई दी गयी है.   काश  इन्हें सचमुच अकादमी की स्वायत्तता की चिंता होती. अकादमी की स्वायत्तता पर तो उसी दिन ग्रहण लग गया जब वाराणसी में केन्द्रीय संस्कृति मंत्रालय के निर्देश पर साहित्य अकादमी उस समारोह का हिस्सा बनी जिसका उद्घाटन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने किया . क्या केन्द्रीय राज्य संस्कृति मंत्री महेश शर्मा को साहित्य अकादमी द्वारा भीष्म साहनी के जन्मशताब्दी समारोह में मुख्य अतिथि बनाया जाना अकादमी की स्वायत्तता के अनुकूल था ?  प्रधानमंत्री के  अभियान के अंतर्गत स्वच्छता पर केन्द्रित साहित्यिक आयोजन क्या साहित्य अकादमी की स्वायत्तता के अनुकूल था ?  भाजपा द्वारा रामधारी सिंह दिनकर की जातीय पहचान के राजनीतिक दोहन के इरादों के चलते केंद्र सरकार द्वारा साहित्य अकादमी पर दिनकर पर केन्द्रित कार्यक्रम के लिए दबाव बनाने की अख़बारों में प्रकाशित ख़बरें क्या अकादमी की प्रतिष्ठा के अनुकूल थी ? क्या साहित्य अकादमी के हिंदी समन्वयक का  भाजपा के केसरी नारायण त्रिपाठी की पुस्तक  के विमोचन आयोजन में मुख्य वक्ता  होना अकादमी पर बदलते राजनीतिक रंग का परिचायक नही है ?. प्रसंगवश बता दूं ये हिन्दी समन्वयक हिन्दी के अध्यापक रहे वे सूर्यप्रसाद दीक्षित हैं  जिन्होंने अपनी  ब्राह्मणवादी प्रतिज्ञाओं  के चलते लखनऊ विश्वविद्यालय के हिन्दी पाठ्यक्रम में डॉ. तुलसीराम की आत्मकथा ‘मुर्दहिया’ को न शामिल किये जाने के लिए पिछले वर्ष सारा जोर लगा दिया था . यह साहित्य अकादमी की अधोगति ही है कि हिन्दी समन्वयक की जिस भूमिका में भीष्म साहनी और डॉ. नामवर सिंह सरीखे लेखक रहे हों  उस भूमिका में आज एक अनाम  गैर-लेखक है.  ऐसी साहित्य अकादमी की स्वायत्तता के लिए चिंतित इन  लेखकों ने  अकादमी की प्रतिष्ठा और स्वायत्तता पर  ग्रहण लगाने वाले इन कृत्यों पर कभी कोई सवाल क्यों नही उठाये ? कहने की आवश्यकता नहीं कि अकादमी की स्वायत्तता और छवि  को तभी बचाया जा सकता है जब उसे धूमिल करने के प्रयत्नों के प्रति सजग रहा जाये . यह याद करना जरूरी है  कि साहित्य अकादमी की छवि के   धूमिल होने की शुरुआत तो उसी दिन हो गयी थी जिस दिन निम्नस्तरीय चालाकियों का इस्तेमाल कर महाश्वेता देवी को साहित्य अकादमी के अध्यक्ष के चुनाव में हराने की दुरभिसंधि की गयी थी . यह महज महाश्वेता देवी को हराने तक सीमित नही था बल्कि यह साहित्य अकादमी से उन व्यापक  धर्मनिरपेक्ष -जनतांत्रिक मूल्यों की विदाई  की भी शुरुआत थी जिसकी संकल्पना अकादमी की स्थापना कर जवाहरलाल नेहरु ने की थी . और यह सब भाजपा  सरकार आने के पहले ही शुरू हो गया था .ऐसे में  हिन्दी के कुछ लेखकों का   साहित्य अकादमी  से लाभान्वित होने और  अपनी जगह बनाने के हित से प्रेरित होकर इस प्रसंग में अकादमी के वर्तमान नेतृत्व के लिए  ढाल की भूमिका निभाना  लेखकीय गरिमा के प्रतिकूल है . उल्लेखनीय है कि विनोदकुमार शुक्ल और अलका सरावगी   अपने साहित्य अकादमी सम्मान वापस न करने के बावजूद न तो अकादमी के वर्तमान नेतृत्व के पक्ष में खड़े दिखना तो दूर उलटे उन्होंने पुरस्कार वापसी के कारणों को सही ही ठहराया . 

      यह सचमुच दुर्भाग्यपूर्ण है कि हिन्दी के कुछ लेखक प्रतिरोध की इस मुहिम को कमतर आंकते हुए इसके दूरगामी महत्व को ‘लोभ-लाभ की समझदारी’ के अंतर्गत  इनकार कर रहे हैं. काश वो समझ पाते कि भारतीय जनतंत्र का संविधान सम्मत  धर्मनिरपेक्ष माडल आज जितना संकटग्रस्त है  उतना पहले कभी न था .   अल्पसंख्यक और हाशिये का समाज जिन धार्मिक कट्टरतावादियों के निशाने पर पहले से था वह आज और भी असुरक्षित इसलिए महसूस कर रहा है कि ‘सांस्कृतिक राष्टवाद’ अब नागपुर से अपकेंद्रित होकर देश की राजधानी में सिंहासनारूढ़ हो गया है. केन्द्रीय राज्य संस्कृति मंत्री महेश शर्मा का लेखकों से लिखना छोड़ने की चुनौती देना और आरएसएस के प्रवक्ता का पुरस्कार वापस करने वाले लेखकों को कम्युनिस्ट कार्ड होल्डर बताना  ‘मैकार्थीवाद’ के भारतीय संस्करण की आहट है ,जिसकी अनसुनी करना आत्मघात से कुछ कम नही है. प्रेमचंद ने यूं ही नहीं कहा था कि ‘साम्प्रदायिकता सदैव संस्कृति की खोल में आती है.’ यह आश्वस्तकारी है कि हिन्दी साहित्य में  धार्मिक कट्टरता  और साम्प्रदायिकता विरोध की सशक्त परम्परा रही है. इसी भूमिका के चलते प्रेमचंद को ‘घृणा का प्रचारक’   कहा गया  तो निराला को ‘ब्राह्मण समाज में ज्यों अछूत’ का दंश भुगतना पड़ा और राजेंद्र यादव को अपनी बेबाक अभिव्यक्तियों के लिए अदालत की कारवाई तक झेलनी पड़ी. और भी  उदाहरण सामने हैं ही .  यह अकारण नही है कि आज सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के पैरोकारों के जमात में नरेंद्र कोहली और कमल किशोर गोयनका सरीखे अपवादों को छोड़कर कोई विश्वस्त साहित्यिक नाम नही है.  

     साहित्य अकादमी के पुरस्कारों की वापसी की इस लेखकीय पहल ने समूचे लेखक समुदाय को कवि, कहानीकार ,उपन्यासकार और आलोचक की भूमिका से ऊपर उठाकर सार्वजानिक बुद्धिजीवी की उस भूमिका में पहुंचा दिया है जिसकी प्रेमचंद ,राहुल सांकृत्यायन, यशपाल, नागार्जुन से लेकर रेणु तक लिखने से लेकर जेल जाने तक लम्बी परंपरा रही है. इतिहासकार रोमिला थापर ने पिछले दिनों ‘पब्लिक इंटलेक्चुअल’ की भूमिका  का प्रश्न उठाते हुए चुप्पी तोड़ने और बोलने का आह्वान किया था .यह सुखद है इस बार हिन्दी का लेखक इस चुप्पी को तोड़ने के लिए अनुगामी न होकर समूचे बौद्धिक समाज के साथ अग्रगामी है. प्रेमचंद ने संभवतः इन्ही दिनों के लिए यह भविष्यकथन किया था कि –“ साहित्य राजनीति के पीछे चलनेवाली चीज नहीं ,उसके आगे-आगे चलनेवाला ‘एडवांस गार्ड’ है . वह उस विद्रोह का नाम है ,जो मनुष्य के ह्रदय में अन्याय ,अनीति , और कुरुचि से होता है .”  कहना न होगा कि एम एम कलबुर्गी की हत्या से लेकर अखलाक की हत्या तक विस्तृत  असहिष्णुता की हत्यारी संस्कृति के विरुद्ध यह लेखकीय अभियान आसन्न खतरों के विरुद्ध ‘एडवांस गार्ड’ की ही भूमिका है . ऐसे चुनौतीपूर्ण समय में महत्त्व लेखक होने का नही है महत्व है लेखक होना सिद्ध करने का .

सी -855, इंदिरा नगर ,लखनऊ -226016. मो.09415371872. email –virendralitt@gmail.com

(हंस नवंबर अंक से साभार )


Saturday, 24 October 2015

आखिर दिया क्या है तुम्हारी संस्कृति ने हमें.......????

प्रतिभा यादव

[प्रतिभा जी के लेखनी की एक खास विशेषता है मौलिकता। ...बेहद मौलिक। जब वे  अपने कड़वे अनुभवों को रचना के रूप में रूपांतरित करती हैं तो वह एक स्त्री की चीख के रूप में सुनाई देता है,  इसीलिए इनके लेखन के केंद्र में स्त्री का दर्द और उसके अधिकार के लिए एक मुहिम दिखती है। इनके यहाँ याचना नहीं है बल्कि प्रतिरोध की ताकत है पूरी तरह धड़कती हुई ...एम. ए. करते हुए अपने अनुभवों को साझा करना अपनी ज़िम्मेदारी मानती हैं। इसे आप रचना माने या न माने क्या फर्क पड़ता है- मोडरेटर]



हमारे छोटे कपड़े देखकर
 तुम्हारे सब्र का बाँध टूट जाता है।
तुम्हारे छोटे कपड़े देखकर
हम तो कभी बेसब्र नहीं हुए।
तुम्हारा इगो हर्ट होगा तो
 तुम हम स्त्रियों में सीता - सती देखना चाहते हो।
 हमने तो कभी भी तुमसे कोई अपेक्षा नहीं की।
हमारे वेस्टर्न कपड़ों से तुम्हारी संस्कृति लहूलुहान हो जाती है।
 तुमने भी तो वेस्टर्न छोड़ कभी धोती कुर्ता नहीं पहना?
तुम अब भी चाहते हो कि हम सीता -सती सावित्री बने रहे।
आखिर हम क्यों बने रहे सीता सती और लक्ष्मी टाइप के।
 हमें अभी तक इनसे मिला क्या है?
 हम तुम्हारे भोग की वस्तु रहे हैं।
तुमने हमपर अत्याचार ही किया है
 इस रूप में तुमने हमें इंसान माना ही कब है?
 तुमने तो हमारी तुलना गाय से कर दी।
तब पर भी तुम अब भी हम मे सीता सावित्री और लक्ष्मी को देखना चाहते हो।
 वो भी इसलिए क्योंकि तुम्हारी संस्कृति लहूलुहान हो रही है।
हम क्या तुम्हारी संस्कृति का ठेका लेकर बैठे हैं?
आखिर दिया क्या है तुम्हारी संस्कृति ने हमें.......????

जनता का डाक्टर: जिसने विभेद से भरे हुए समाज का इलाज भी जरुरी समझा

 सुनील यादव  डाक्टर शब्द का का नाम आते ही एक ऐसे प्रोफेसनल व्यक्ति का अक्स उभरता है जो खुद के लिए बना हो. चिकित्सा के क्षेत्र में चिकित्सक क...