उर्मिलेश
आत्मकथाएं और यात्रा-वृत्तांत अपने समय,
स्थान और समाज की ज्यादा जीवंत तस्वीर पेश करते हैं। कई बार तात्कालिक उद्देश्य की
सीमा को लांघते हुए ऐसी रचनाएं समय और समाज को समझने के ठोस साक्ष्य प्रस्तुत करती
हैं। दुनिया भर में ऐसा देखा गया है। प्रमुख नेताओं, दार्शनिकों-चिंतकों, कलाकारों
या अपने-अपने क्षेत्र के गणमान्य व्यक्तियों की आत्मकथाएं इतिहास की तह में प्रवेश
कर घटनाक्रमों, चरित्रों और प्रक्रियाओं की जिस निर्मम और संजीदा ढंग से व्याख्या
करती हैं, वह उन समाजों के इतिहास और समाजशास्त्र के उबाऊ और कर्मकांडी लेखन में
संभव नहीं। मार्क्सवादी नेता ई एम एस नंबूदिरिपाद की आत्मकथा, ‘एक भारतीय कम्युनिस्ट की स्मृतियां’*1 अपनी कुछ सीमाओं के बावजूद इसी श्रेणी की
पुस्तक है। इसमें भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन की ताकत, तेजस्विता, कमजोरियां,
कठमुल्लापन, जड़ता और उसके तमाम अंतर्विरोध अपनी पूरी जटिलता के साथ उजागर हुये
हैं।
पुस्तक पढ़ने के क्रम में भारत की वाम-राजनीति और
उसकी मौजूदा चुनौतियों पर एक जिज्ञासु छात्र की तरह मैं स्वयं भी जिरह करता रहा। इसलिये
मेरी यह टिप्पणी पुस्तक की महज समीक्षा नहीं, उसके बहाने वाम राजनीति की मौजूदा
स्थिति और उससे जुड़े कुछ जटिल सवालों को समझने की कोशिश भी है। ऐसे सवाल, जिन्हें
पारंपरिक वामपंथी आमतौर पर नजरंदाज करना पसंद करते रहे हैं। पुस्तक को पढ़ते हुए ईएमएस
से हुई अपनी मुलाकातों के कई बिम्ब उभरते रहे, जिनमें उनकी सादगी भरी जिन्दगी और प्रतिबद्धता
की ढेर सारी कहानियां और यादें हैं। ईएमएस को एक या दो बार पहले भी देखा था लेकिन नजदीक
से मिलने का पहला मौका मिला, सन 1978 में। दिन और महीना इस वक्त ठीक-ठीक याद नहीं।
वह इलाहाबाद विश्वविद्यालय में छात्र-युवाओं को संबोधित करने आये थे। छात्र-संघ
भवन में यह आयोजन हुआ। वह माकपा के राष्ट्रीय महासचिव थे। उन दिनों माकपा अपने उत्कर्ष
पर थी, देश के तीन राज्यों-बंगाल, केरल और त्रिपुरा में पार्टी की मजबूत पकड़ थी। बंगाल
में ज्योति वसु की अगुवाई में वाम मोर्चा सरकार बनी थी। त्रिपुरा में नृपेन दा की
सरकार बन चुकी थी या बनने वाली थी। मैं इलाहाबाद विश्वविद्यालय में उन दिनों संभवतः
एमए द्वितीय वर्ष का छात्र था और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के छात्र संगठन-स्टूडेंट्स फेडरेशन
आफ इंडिया(एसएफआई) का सक्रिय
सदस्य व पदाधिकारी भी था। लेकिन माकपा का सदस्य नहीं बना था। उसके जिला सचिव
अंबिका मिश्रा और किसान सभा नेता हरिराम पांडे सहित अन्य माकपा नेताओं के साथ
हमारी बैठकें-मुलाकातें हुआ करती थीं। कई बार हम जैसे छात्र-कार्यकर्ता किसी सभा
या समारोह के दौरान नाट्य प्रस्तुति या संबोधन के लिए मेजा और मांडा रोड इलाके के
गांवों में भी जाया करते थे। एसएफआई की इलाहाबाद विश्विद्यालय इकाई में सक्रिय उन
दिनों के कई साथियों की तरह मैं भी माकपा के स्थानीय नेतृत्व के लुंजपुंज रवैये और
निष्क्रिय-प्रलाप से क्षुब्ध रहता था। ऐसा नेतृत्व हमे कहीं से पार्टी में शामिल
होने की प्रेरणा नहीं देता था। स्थानीय नेतृत्व के मुकाबले हमसे बहुत दूर बैठे
सव्यसाची(मथुरा से छपने वाली पत्रिका ‘उत्तरार्द्ध’ के
संपादक और पार्टी बुद्धिजीवी), कानपुर
में रहकर लेखन और राजनीतिक काम करने वाले शिव वर्मा और इलाहाबाद से ही जेएनयू गये हमसे
सीनियर छात्र-कार्यकर्ता प्रबीर पुरकायस्थ जैसे लोग ज्यादा प्रेरित करते थे। ऐसे
दौर में कामरेड ईएमएस का प्रयाग-आगमन हमारे लिए बहुत बड़ी घटना थी। आयोजन को सफल
बनाने में अशोक कप्तान, मोहम्मद हामिद, व्यासजी और गौतम गांगुली सहित हमारे तमाम साथी पूरी तरह लगे
हुए थे। संभवतः अनुग्रह नारायण सिंह भी तब तक एसएफआई में दाखिल हो चुके थे या
समर्थक के तौर पर सक्रिय थे। जहां तक याद आ रहा है, उस दिन विश्वविद्यालय में
कामरेड ईएमएस के कार्यक्रम के बाद उनसे हम लोगों की संक्षिप्त चर्चा भी हुई।
हिन्दी प्रदेशों में वाम
आपातकाल के बाद का माहौल था। इंदिरा गांधी के शासन का
पटाक्षेप हो चुका था और देश की जनता ने सन 77 में जनता पार्टी के पक्ष में जनादेश
दिया था। नयी सरकार से लोगों ने ढेर सारी उम्मीदें लगा रखी थीं। लेकिन सरकार और
पार्टी में खींचतान शुरू हो चुकी थी। बिहार के बाद उत्तर प्रदेश के भी कई
क्षेत्रों में आरक्षण के सवाल पर भारी बावेला मचा था। माहौल गरमाया हुआ था। जहां
तक मुझे याद आ रहा है, उस दिन ईएमएस ने अपने भाषण में दो महत्वपूर्ण बातें कही
थीं। एक तो उन्होंने आपात्काल की बर्बरता और राजनीतिक-प्रशासनिक गुनाहों के लिए
पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को जमकर कोसा। नयी सरकार ने इंदिरा गांधी और उनकी
चौकड़ी को सियासी और कानूनी, दोनों मोर्चों पर घेर रखा था। कामरेड ईएमएस ने कहा, ‘इस देश की जनता और हम सब इंदिरा और उनकी चौकड़ी
को उनके गुनाहों के लिए कभी माफ नहीं करेंगे। वे भाग नहीं सकते। जनता चांद पर भी
उनको खोज लेगी।’ दूसरी महत्वपूर्ण
बात जो उन्होंने कही, उसकी आज भी राजनीतिक प्रासंगिकता है। हिन्दी क्षेत्र में वाम
मोर्चा के प्रयोग को लोकप्रिय बनाने का आह्वान करते हुए उन्होंने कहा, ‘हम हिन्दी क्षेत्र में बड़ी ताकत बनकर उभरेंगे।
वाम मोर्चा सरकार के अच्छे कामों को यहां आम जनता के बीच ले जाने और प्रचारित करने
की जरूरत है। लोगों के बुनियादी मसलों पर संघर्ष होना चाहिए। भाषा हो या आरक्षण
हो, ऐसे मसलों को लेकर विवाद बेमतलब है।’ उनके भाषण के दौरान कुछ लोगों ने शोरशराबा करने की भी कोशिश की। पर
हम लोगों ने माहौल को संभाला और ज्यादा हंगामा नहीं हुआ। कार्यक्रम बेहद कामयाब
माना गया। इसका कैम्पस में अच्छा असर पड़ा। लेकिन हिन्दी क्षेत्र में सिर्फ भाषण
या रैली से वामपंथी राजनीति को आधार नहीं मिल सकता था। इसके लिए स्वयं ईएमएस ने
जिन बुनियादी कार्यक्रर्मों का उल्लेख किया था, उन्हें अमलीजामा पहनाने में
वामपंथी लगातार विफल रहे। क्या कारण थे इसके? उस वक्त और बाद के दिनों में ईएमएस
की तरह हर बड़े वामपंथी नेता ने कहा कि हिन्दी क्षेत्र में वाम मोर्चा सरकार के
कामकाज को प्रचारित किया जाना चाहिए। इसके साथ ही आम जनता के बुनियादी सवालों को
लेकर संघर्ष तेज किया जाना चाहिए। सवाल उठता है, अगर वाम मोर्चा सरकार की ‘महान उपलब्धियां’ हिन्दी भाषी इलाके की जनता के बीच नहीं पहुंचीं
या उन उपलब्धियों ने इस क्षेत्र की जनता में कोई खास उत्सुकता नहीं जगाई तो इसके
क्या कारण रहे? इस बीच, हिन्दी
क्षेत्र में भाकपा-माकपा का जो कुछ थोड़ा बहुत आधार था, वह भी सिमटता रहा----। एक
समय यूपी में कानपुर, मुजफ्फरनगर, मेरठ, फैजाबाद, गाजीपुर, गोरखपुर, बांदा, बस्ती,
वाराणसी, आजमगढ़-दोहरीघाट और बिहार के उत्तर, मध्य और पश्चिमी इलाके के कई जिलों में
वामपंथियों का अच्छा-खासा आधार था। विधानसभा में एक समय भाकपा मुख्य़ विपक्षी दल हुआ
करती थी। यूपी-बिहार क्या, अब तो बंगाल का ‘लाल दुर्ग’ भी
ढहता नजर आ रहा है। वंहा फिलहाल माकपा मुख्य विपक्षी दल है। देश के सिर्फ एक
प्रदेश-त्रिपुरा मे ही की माकपा सरकार बची है। बंगाल में माकपा और वाम मोर्चा की
हालत लगातार खस्ता होती दिख रही है। तृणमूल-शासन से नाराज लोगों के एक हिस्से में
भाजपा जैसी हिन्दुत्ववादी पार्टी भी अपने लिए जगह बनाती नजर आ रही है। ले-देकर केरल
में माकपा का आधार लगभग कायम है लेकिन उसमें न तो विस्तार दर्ज हो रहा है और न ही सांगठनिक
तौर पर कामकाज में गुणात्मकता आई है। पार्टी के अंदरूनी विवादों में वैचारिकता के
बजाय व्यक्तिवाद और गुटबाजी का बोलबाला बढ़ा है।
वाम राजनीति को लेकर एक बड़ा सवाल उभरता है, आखिर
वामपंथी नेता और दल(भाकपा-माकपा या भाकपा-माले) हिन्दी क्षेत्र में अपनी सियासत के
लिए कोई खास आकर्षण क्यों नहीं पैदा कर सके? इसके लिए जनता को दोष दें या वाम नेताओं और उऩके दलों को? निस्संदेह, वाम नेता आज भी अन्य दलों के नेताओं
के मुकाबले ज्यादा संजीदा, समझदार और ईमानदार हैं। इसके बावजूद उन्हें जनता और
समाज के बीच अपेक्षित समर्थन क्यों नहीं मिल रहा है? हाल के वर्षों में कम्युनिस्ट पार्टियों के
नेतृत्व को इस विषय पर ‘आलोचना
और आत्मालोचना की कर्मकांडी या दस्तावेजी टिप्पणियों’(जो सिर्फ पार्टी अधिवेशनों से पहले रिकार्ड के
लिये लिखी और वितरित की जाती हैं) के अलावा गंभीर और ईमानदार विमर्श करते मैने नहीं देखा।
आधुनिक भारतीय इतिहास में ऐसे कई मौके हैं, जहां
वामपंथी दल बड़े राजनीतिक हस्तक्षेप और स्वतंत्र पहलकदमी से चूकते रहे। सिर्फ
स्वाधीनता आंदोलन ही नहीं, आजाद भारत में भी ऐसे कई मौके आये और आगे भी आते
रहेंगे। आपात्काल से पहले और उसके दौरान भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी कांग्रेस सरकार
के साथ थी। इससे भाकपा की राजनीतिक विश्वसनीयता और जनपक्षधरता पर गंभीर सवाल उठे।
बाद में उसने संजय गांधी और उनकी चौकड़ी की ज्यादतियों का विरोध करके अपना चेहरा
ठीक करना चाहा पर तब तक काफी देर हो चुकी थी। हां, माकपा ने आपात्काल के निरंकुश कांग्रेसी
शासन का विरोध किया। पर वह भी आपात्काल-विरोधी राष्ट्रीय मोर्चेबंदी का न तो बड़ा
घटक नहीं बन सकी और न ही अपनी पहल पर कोई बड़ी मोर्चेबंदी बना सकी। उसके स्थानीय
नेता, कार्यकर्ता कई राज्यों में गिरफ्तार हुए, पर बड़े नेताओं की गिरफ्तारी आमतौर
पर नहीं हुई थी। इंदिरा गांधी की निरंकुशता के खिलाफ राजनीतिक मोर्चेबंदी(1974-77)
का नेतृत्व एक समय के बड़े समाजवादी नेता जयप्रकाश नारायण और उनके साथ जुड़े
युवाओं की टीम के हाथ में था। जेपी सक्रिय राजनीति से हट चुके थे लेकिन युवाओं ने
उन्हें निरंकुशता-विरोधी आंदोलन की अगुवाई के लिये राजी कर लिया और एक बार फिर वह
राष्ट्रीय राजनीति की बड़ी शख्सियत बनकर उभरे। उस टीम में समाजवादी-मध्यमार्गी और
दक्षिणपंथी युवा नेता-कार्यकर्ता ही ज्यादा थे। आरएसएस के कुछ बड़े नेताओं ने
इंदिरा गांधी से संवाद का चैनल भी खोले रखा और दूसरी तरफ अपने कार्यकर्ताओं को
जेपी की अगुवाई वाले आंदोलन में बने रहने को भी कहा। जनसंघ के अनेक बड़े नेता जेल
भेजे गये थे, जो बाद में बनी जनता पार्टी में दल-बल के साथ शामिल हो गये। जनता
पार्टी विघटन(जिसमें उनकी सबसे अहम भूमिका थी) के बाद वे अपने जनसंघी खेमे के साथ
बाहर हुए और भारतीय जनता पार्टी बना ली। इसे जनसंघियों का ‘नया अवतार’ कहा गया। जिन प्रदेशों में वामपंथी पहले से ताकतवर थे, वहां वे
कांग्रेस का ठोस विकल्प बनकर उभरे। लेकिन हिन्दी पट्टी में उनकी सीमित शक्ति का
विस्तार नहीं हुआ क्योंकि इस आंदोलन में वे या तो हाशिये पर थे या उनका एक बड़ा
हिस्सा निरंकुशता की शक्तियों के साथ खड़ा था। क्या मुद्दों और मौकों को समझने और
तद्नुरूप कार्रवाई में उतरने से वामपंथी अक्सर चूकते रहे हैं? स्वाधीनता आंदोलन के दौरान और उसके बाद के वर्षों में, कई मौकों पर यह सवाल उठा कि लक्ष्य
को लेकर सक्रियता और समर्पण के बावजूद कम्युनिस्ट पार्टी भारतीय स्वाधीनता आंदोलन
की नेतृत्वकारी पार्टी नहीं बन सकी तो उसके क्या-क्या ठोस कारण थे?*2 आजाद-भारत में अपने विकास और विस्तार की तमाम
संभावनाओं के बावजूद पार्टी हिन्दी क्षेत्र में बड़ी ताकत नहीं बन सकी तो उसके
लिये वस्तुगत परिस्थितियां जिम्मेदार थीं या आत्मगत प्रयास?
सन 1944 से 1954 के बीच के राजनीतिक-सांगठनिक
घटनाक्रम पर ईएमएस के विचारों में मैं ऐसे कुछ सवालों का जवाब खोजने की कोशिश करता
रहा। पर मुझे कम से कम इस आत्मकथा से ऐसे सवालों का कोई ठोस और संतोषजनक जवाब नहीं
मिला, जिसे मैं ‘यूरेका-यूरेका’ कहते हुये विचारोत्तेजना में झूम सकूं। हालांकि
ईएमएस ने अपनी एक अन्य पुस्तक ‘द कम्युनिस्ट पार्टी इन केरला’ में स्वाधीनता आंदोलन के दौरान पार्टी से हुई कुछ बड़ी गलतियों का इस
आत्मकथा के मुकाबले ज्यादा विस्तार से उल्लेख किया है। पर उसमें भी उल्लेख और
ब्यौरे ज्यादा हैं, व्याख्या कम।*3 अपनी आत्मकथा के अध्याय 19,
20 और 21 में उन्होंने पार्टी में चले आंतरिक वैचारिक संघर्षों के कुछ विवरणात्मक ब्यौरे
जरूर दिये हैं पर अपनी तरफ से उनकी यहां भी खास व्याख्या नहीं की है। कुछेक
मुद्दों पर अपनी ‘पोजिशन’ जरूर साफ की है। मसलन, एक स्थान पर उन्होंने साफ
किया है कि पी सी जोशी के महासचिव कार्यकाल में वह ‘जोशी लाइन’ के साथ थे। पी सी जोशी, बी टी रणदिवे और अजय घोष के कार्यकाल के दौरान की बहसों-विवादों और
भारतीय कम्युनिस्टों को दी रूसी नेता जोसेफ स्टालिन की सलाह की भी चर्चा है पर इस
सवाल का कोई जवाब नहीं मिलता कि वह कौन सी स्थितियां थीं और कौन से कारक थे कि
पार्टी बार-बार राष्ट्रीय स्तर पर राजनीतिक हस्तक्षेप के बड़े मौके चूकती रही? कभी ‘तेलंगाना की लाइन को पूरे देश की लाइन’ बनाने का आह्वान तो कभी ‘ये आजादी झूठी है’ का सियासी-गान तो कभी ‘संसदवादी अवसरवाद’ का आलाप, इनमें कब कितना सही और कितना गलत था? वस्तुगत परिस्थितियों की समझ की समस्या थी या
आत्मगत प्रयासों में कमी थी या कि इन दोनों की कमी थी? आजाद
भारत में भी अनेक मौके आये, जब कई बड़े सवालों पर वामपंथी या तो खामोश(अनजाने या
जानबूझकर!) रहे, निष्क्रिय रहे या कन्फ्यूज! जबकि ये सवाल उन दिनों समाज को आंदोलित किये हुए
थे। हिन्दी भाषी सूबों की सामाजिक-राजनीतिक परिस्थितियों के आकलन में वामपंथियों
से कुछ आत्मगत कारणों से गलतियां तो नहीं हुईं? आखिर हिन्दी भाषी सूबों में वे सिमटते क्यों गये?
इलाहाबाद में ईएमएस के उक्त कार्यक्रम के लगभग दो
दशक बाद अपने केरल-प्रवास के दौरान उनसे यह सीधा सवाल पूछने का मुझे मौका मिल रहा
था। बात सन 1997 की है। ब्रिटेन की महारानी एलिजाबेथ भारत के दौरे पर आईं। उन्हें
दिल्ली से कोच्चि जाना था। ‘हिन्दुस्तान
टाइम्स समूह’ के हिन्दी अखबार ‘हिन्दुस्तान’ की तरफ से मुझे एलिजाबेथ के केरल-दौरे को कवर
करने कोच्चि भेजा गया। महारानी के वहां पहुंचने से एक दिन पहले ही मुझे पहुंचना
था। उनके सारे कार्यक्रमों को कवर करने के बाद मैंने अपने संपादक को फोन किया कि
अखबार ने इतना खर्च करके मुझे केरल भेजा है तो मुझे इस दौरे का उपयोग करते हुए
केरल पर कुछ और भी लिखना चाहिए। हिन्दी अखबार के पाठकों के लिए यह सब बिल्कुल नया
होगा। मैंने कुछेक प्रस्तावित स्टोरीज भी बताईं। संपादक मेरी बात मान गये। इसी
प्रवास में मैंने अरुंधती राय के नये उपन्यास ‘गाड आफ स्माल थिंग्स’(वह उन्हीं दिनों बाजार में आया था और उसकी खूब चर्चा
थी) और कोट्टयम स्थित
उनके गांव पर भी एक टिप्पणी लिखी। संभवतः उसी दौरे में उनकी मां मेरी राय(चूंकि
उनसे केरल के कई दौरों में दो-तीन बार मिल चुका हूं, इसलिये पहली मुलाकात को लेकर
थोड़ा कन्फ्यूजन है) से भी मुलाकात हुई। उऩ दिनों वह केरल में एक शैक्षिक संस्थान
की प्रमुख थीं। राज्य में हर कोई उन्हें जानता है। अरुंधती लंदन, दिल्ली या देश के
अन्य हिस्सों में भले ही ज्यादा जानी जाती हों पर केरल में तो सभी लोग उन्हें मेरी
राय की बेटी के रूप में जानते हैं। मैंने उनके बारे में जिस किसी से पूछा, महिला
अधिकारों के लिए मेरी राय के संघर्षों की सबने सराहना की। राजनीतिज्ञों में सबसे
ज्यादा इच्छा ईएमएस से मिलने की थी। तिरुवन्तपुरम स्थित मित्रों ने बताया कि उनका
स्वास्थ्य ठीक नहीं चल रहा है। ज्यादातर वक्त घर पर ही पढ़ते या आराम करते हुए
बिताते हैं। पार्टी के महासचिव पद से पहले ही वह हट चुके थे। ढलती उम्र और अस्वस्थ
होने के बावजूद वह बौद्धिक स्तर पर आज भी सजग हैं। यह वन-टू-वन मुलाकात उनके पुत्र
के तिरुवनन्तपुरम स्थित निवास पर हुई। माकपा राजनीति से मेरा मोहभंग सन 1978 के
उत्तरार्ध में शुरू हुआ और सन 79 में उसके छात्र-संगठन से मैं अलग हो चुका था।
लेकिन पार्टी के जिन कुछ नेताओं के प्रति मैं तब भी श्रद्धानत था(और आज भी हूं),
उनमें ईएमएस सबसे प्रमुख थे। जीवित नेताओं में मानिक सरकार और वी एस अच्युतानंदन
का भी बहुत सम्मान करता हूं। मानिक दा से निजी तौर पर मेरा अभी तक संवाद नहीं हुआ।
अच्युतानंदन से मिलने और बातचीत के कई मौके मिले। कई मामलों में वह बेमिसाल हैं।
हालांकि कुछ मौकों पर उन्होंने ऐसे कदम उठाये, जो राजनीतिक-सांगठनिक स्तर पर सही
नहीं थे। ईएमएस से मिलकर कुछ मुद्दों पर बातचीत की इच्छा अंततः केरल के इस दौरे
में पूरी हुई। उन दिनों अस्वस्थता के चलते वह किसी इंटरव्यू के लिए आमतौर पर राजी
नहीं होते थे। तिरुवनन्तपुरम स्थित माकपा-संचालित मलयालम अखबार ‘देशाभिमानी’ के एक वरिष्ठ पत्रकार से उनके निवास का नंबर आदि मिला। उसने कहा, ‘सीधे उनके घर पर फोन करना। कोई महिला फोन
उठायेंगी। वह बहुत समझदार हैं। उन्हें परिचय देते हुए अपनी पूर्व वामपंथी
पृष्ठभूमि की भी जानकारी देना शायद ठीक ही रहेगा। तब शायद बात बन जाय। यह भी
बताना कि आप जिस पत्र के लिए इंटरव्यू करना चाहते हैं, वह हिन्दी क्षेत्र का बहुत
बड़ा अखबार है।’ और उक्त पत्रकार-मित्र
की सलाह काम आई। दो बार बात करनी पड़ी। पहली बार उक्त महिला ने मेरी पूरी बात सुन
ली और कहा,
‘ईएमएस इस वक्त
अस्वस्थ हैं और किसी को इंटरव्यू नहीं दे रहे हैं। फिर भी आप इतनी दूर से आये हो
तो मुझे उनसे पूछने दीजिये। इस वक्त वह सो रहे हैं। बाद में बात करूंगी। आप कल फोन
करके पता कर लीजियेगा।’ अगले
दिन मैंने फोन किया तो बात बन चुकी थी। मुझे वक्त मिल गया। नियत समय पर मैं उनके
घर पहुंच गया। साधारण सा घर था। दरवाजा किसी और ने खोला। फिर एक महिला आईं, जो
संभवतः ईएमएस की पुत्रवधू थीं। इन्हीं से मेरी दो बार फोन पर बातचीत के बाद
इंटरव्यू तय हुआ था। घर के ड्राइंगरूम में ईएमएस एक आरामकुर्सी पर बैठे आराम फरमा
रहे थे। हकला कर बोलने की उनकी समस्या तो बहुत पहले से थी। बाद के दिनों में सुनने
की समस्या भी बढ़ गयी थी। हमारा पूरा इंटरव्यू उनके परिजन के सहयोग से ही हुआ।
मेरे सवालों को दोबारा वह उन्हें समझातीं और फिर ईएमएस जवाब देते। बार-बार सवाल को
कागज पर लिखता था। उसे देखकर वह जवाब देते। इंटरव्यू ‘हिन्दुस्तान’ में अपेक्षित प्रमुखता से तो नहीं, पर ठीकठाक
ढंग से(बीच के किसी पृष्ठ पर) छपा। इंटरव्यू के कुछ ही महीने बाद मार्च, 1998 में ईएमएस
दिवंगत हुए। किसी मित्र ने मुझे बताया कि ‘हिन्दुस्तान’ में
छपा वह इंटरव्यू उनका दूसरा अंतिम इंटरव्यू था। मेरे वाले इंटरव्यू के बाद उनका एक
लंबा और जीवन का आखिरी इंटरव्यू मलयालम अखबार ‘देशाभिमानी’ में छपा था। ‘हिन्दुस्तान’ में छपे उक्त इंटरव्यू की सबसे खास बात, जो इस
वक्त मुझे याद आ रही है-हिन्दी क्षेत्र के सांस्कृतिक-राजनीतिक पिछड़ेपन को लेकर
थी। मेरे एक सवाल के जवाब में ईएमएस ने जो कुछ कहा, उसका लब्बोलुवाब था, ‘हिन्दी क्षेत्र में कम्युनिस्ट आगे नहीं बढ़ सके
या उनका प्रभाव-विस्तार नहीं हुआ क्योंकि यह क्षेत्र अभी भी सांस्कृतिक रूप से
काफी पिछड़ा और विपन्न है। जाति-संप्रदाय के मसले इसीलिए आज भी बहुत असरदार हैं।
इससे वाम चिंतन और राजनीति के सामने ज्यादा बड़ी चुनौती है। जब तक जाति-संप्रदाय
के ये मसले हावी रहेंगे तब तक हिन्दी क्षेत्र में वामपंथी राजनीति की जगह नहीं
बनेगी।’ इस जवाब से मैं बहुत संतुष्ट नहीं हो पा रहा था
पर इंटरव्यू तो इंटरव्यू है, कोई शास्त्रार्थ नहीं। वह भी मुझ जैसा अदना पत्रकार
भला इतने बड़े वामपंथी नेता से कितनी देर तक एक ही मुद्दे पर सवाल दागता रहता! फिर भी एक सवाल दागने से नहीं चूका, ‘इसमें वाम नेतृत्व की अपनी वैचारिक और आत्मगत
कमजोरियों का कितना हाथ है?’ एक और सवाल जो बहुत दिनों से मेरे मानस में मंडरा रहा था, वह भी पूछा-‘पार्टी की नेतृत्वकारी इकाइयों में दलित-आदिवासी
और पिछड़े नगण्य क्यों हैं,’ इन सवालों
के जवाब में उन्होंने जो कुछ कहा, वह अखबारी इंटरव्यू में सिर्फ दर्ज करने लायक
था। मेरे मन-मानस में वह दर्ज नहीं हो सका। उनके जवाब में आत्मालोचना के बजाय
क्षेत्रीय विशिष्टताओं और सामाजिक जटिलताओं पर ज्यादा जोर था। यह सब हमने ईएमएस और
उन जैसे बड़े नेताओं से ही तो सीखा था कि चाहे व्यक्ति कितना भी बड़ा हो, उसके
चिंतन या विचार पर अगर सवाल उभरते हों तो बहस होनी चाहिए, उसका अंधानुकरण नहीं
होना चाहिए। आलोचना-आत्मालोचना और विमर्श के क्रम में ही सही विचार सामने आते हैं।
ईएमएस ने हिन्दी क्षेत्र और वामपंथी राजनीति के सम्बन्ध में जो बातें उक्त
इंटरव्यू में कहीं, वह सर्वथा नयी भी नहीं थीं। वाम नेतृत्व के बड़े हिस्से में इस
मसले पर लगभग ऐसी ही धारणा रही है। लेकिन वामपंथी नेताओं ने कभी यह समझाने की
कोशिश नहीं की कि कैसे इसी हिन्दी क्षेत्र में एक समय अविभाजित कम्युनिस्ट पार्टी
के दर्जन भर सांसद जीतते थे, बिहार में कम्युनिस्ट पार्टी एक समय विधानसभा में
मुख्य विपक्षी दल हुआ करती थी, यूपी में बांदा से बलिय़ा, कानपुर से कुशीनगर,
मुजफ्फरनगर से मऊ और आगरा से अयोध्या तक पार्टी आधार के कई गलियारे थे? और तो और, इसी क्षेत्र के एक शहर कानपुर में सबसे
पहले 1925 में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की बुनियाद रखी गई। क्या तब यहां जाति और
सांस्कृतिक पिछड़ेपन के मसले नहीं थे? वामपंथी राजनीति की वह प्रेरणा और आधार कैसे और
क्यों स्वाहा हो गये?
तूफानी दौर की अविस्मरणीय चूकें
ईएमएस ने आत्मकथा के शुरुआती अध्यायों में केरल
में कम्युनिस्ट आंदोलन के विकास की कहानी बहुत विस्तार से कही है(इस विषय पर
उन्होंने एक अलग पुस्तक भी लिखी है)। इतिहास-लेखन की दृष्टि से भी यह अध्याय बहुत
महत्वपूर्ण हैं क्योंकि इनमें विभिन्न घटनाक्रमों के बारे में उस व्यक्ति के
ब्यौरे हैं, जो स्वयं इन घटनाओं और गतिविधियों का एक सक्रिय हिस्सेदार रहा है। कई
अध्यायों में केरल के अंदर पार्टी गठन से पहले कम्युनिस्टों की कांग्रेस और
कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी में सक्रियता का विस्तार से उल्लेख है। लेकिन पार्टी गठन
के बाद, सन 1944-47 से लेकर सन 54 का दौर भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन का बेहद
महत्वपूर्ण दौर रहा। जिन दिनों तेलंगाना का किसान आंदोलन चल रहा था, उन्हीं दिनों
दिल्ली में सत्ता-हस्तानांतरण के लिए लार्ड माउंट बेटन की योजना सामने आई। इस
ब्रिटिश योजना के सवाल पर कम्युनिस्ट पार्टी में एक राय नहीं थी। ईएमएस इस बहस को
उसके विभिन्न पहलुओं के साथ एक परिप्रेक्ष्य में पेश करते हैं। पार्टी का एक धड़ा
सत्ता-हस्तानांतरण योजना के पक्ष में था तो दूसरा इसके विरोध में। समर्थक धड़े का
तर्क था कि इससे जनता के जन-आंदोलन को और बढ़ने का मौका मिलेगा, जबकि माउंट बेटन
योजना के आलोचक धड़े का कहना था कि यह ब्रिटिश शासकों की चालबाजी है। भारत को
उपनिवेश बनाये रखने के लिए वे सत्ता का हस्तानांतरण तो करना चाहते हैं पर सत्ता की
असल चाबी उन्हीं के हाथ रहेगी। दोनों धड़ों के बीच इस मुद्दे पर छह महीने तक विवाद
चलता रहा और फरवरी-मार्च 1948 में कोलकाता की पार्टी कांग्रेस में दूसरे धड़े ने
पार्टी पर अपनी पकड़ मजबूत कर ली। औपचारिक तौर पर यह पार्टी की दूसरी राष्ट्रीय
कांग्रेस थी। कोलकाता अधिवेशन में दो-दो दस्तावेज पेश किये गये। दिलचस्प बात है कि
पार्टी कांग्रेस में दोनों दस्तावेजों को मंजूरी मिली। अधिकृत लाइन और उसकी आलोचना
करने वाले दोनों दस्तावेजों के पारित हो जाने से विचित्र स्थिति पैदा हो गई। आखिर
किसे सही और किसे गलत माना जाय? ईएमएस ने ऊहापोह भरे इस राजनीतिक दौर को इस तरह चित्रित किया है: ‘पार्टी कांग्रेस के बाद राजनीतिक कार्यनीतिक लाइन
में परिवर्तन को कोलकाता में गुंजायमान हुए नारे ‘तेलंगाना का रास्ता हमारा रास्ता’ से समझा जा सकता है। पार्टी कांग्रेस के बाद यह
नारा पूरे देश में प्रतिध्वनित हुआ। दूसरे शब्दो में कहा जाए तो पार्टी द्वारा तेलंगाना के संघर्ष से शिक्षा लेने के
बजाय पूरे देश में तेलंगाना की घटना को दोहराने का प्रयास था। इस प्रकार पूरे देश
में तेलंगाना के माडल पर राज्यसत्ता स्थापित कर नेहरू सरकार का तख्ता पलट करने की
नीति अपनाई गई। पार्टी कांग्रेस में उपस्थित प्रतिनिधियों, यूगोस्लाविया और बर्मा
की मित्र पार्टियों के प्रतिनिधियों की उपस्थिति और उनके द्वारा दिये गये भाषणों
से काफी उत्साहित हुए क्योंकि यूगोस्लाविया ने नाजी हमलावरों के खिलाफ शानदार
छापामार युद्ध के द्वारा क्रांति के इतिहास में नया अध्याय जोड़ा था और बर्मा के
कम्युनिस्ट अभी भी ब्रिटिश कब्जावरों के खिलाफ सशस्त्र संघर्ष संचालित कर रहे थे।
वास्तव में विगत पांच वर्षों से पार्टी द्वारा जिस लाइन पर चलने का प्रयास था, यह
ठीक उसके विपरीत दिशा थी।’*4 इस
राजनीतिक उठापटक का सांगठनिक मामलों पर असर पड़ना लाजिमी था। पी सी जोशी को
महासचिव पद से ही नहीं, केंद्रीय कमेटी से भी बाहर कर दिया गया। नेतृत्व बीटी
रणदिवे को मिला, जिन्होंने तेलंगाना की क्षेत्रीय कामयाबी को बड़े यांत्रिक ढंग से
पूरे देश में दोहराने की लाइन ली।* 5 ईएमएस ने आत्मकथा के अध्याय-18 में भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन के इस
महत्वपूर्ण दौर और पार्टी में जारी दो-लाइनों के संघर्ष के ईमानदार ब्यौरे दिये हैं।
वह स्वयं इस संघर्ष में जोशी-लाइन(पार्टी के पूर्व महासचिव पी सी जोशी) के साथ थे।
पर उनकी विवरण में कहीं भी गुटबंदी की मानसिकता का दबाव नहीं दिखता। वह यह बताना
नहीं भूलते कि भारत में क्रांतिकारी बदलाव के लिए रूसी माडल बनाम चीनी माडल का
सवाल इसी दौर में उभरा था। आंध्र प्रदेश की पार्टी कमेटी का बड़ा हिस्सा चीनी माडल
का पक्षधर था, जबकि पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व का बड़ा हिस्सा तेलंगाना की लड़ाई
को रूसी माडल की तरफ ले जाने का सोच रखता था। अंततः केंद्रीय कमेटी ने आंध्र
प्रदेश कमेटी के विचार को खारिज कर दिया। इस लाइन की रोशनी में ही देशव्यापी रेलवे
मजदूर हड़ताल की योजना बनाई जाने लगी। इस योजना को बड़े बदलाव की प्रक्रिया का
हिस्सा माना गया था। अंततः पोलित व्यूरो द्वारा निर्धारित लाइन का परित्याग किया
गया और आंध्र लाइन को फिर से मंजूरी मिली। ईएमएस ने माना है कि केंद्रीय नेतृत्व
का वह आकलन ऐतिहासिक रूप से गलत साबित हो गया। उनकी यह व्याख्या सही है, बाद के
वक्त ने इसे साबित कर दिया। नये माहौल में केंद्रीय कमेटी का पुनगर्ठन हुआ तो
आंध्र के कम्युनिस्ट नेताओं का वर्चस्व साफ दिखा। 13 लोगों की केंद्रीय कमेटी बनी
और तीन सदस्यों का पोलित ब्यूरो गठित हुआ। इन तीन में दो-सी राजेश्वर राव और एम
बासु पुनैय्या आंध्र से थे। पार्टी के तीन बड़े नेता डांगे, अजय घोष और घाटे अलग
लाइन के साथ थे। पार्टी में अंतर्संघर्ष जारी रहा। पार्टी लाइन का विवाद अभी पूरी
तरह खत्म नहीं हुआ था। अंततः पार्टी ने फैसला किया कि इस मामले में सोवियत संघ की
कम्युनिस्ट पार्टी से भी सलाह-मशविरा किया जाना चाहिए। लंबी बहस के बाद जब इस आशय
का फैसला हुआ तो पार्टी इकाइयों को यथावत रखते हुए पोलित ब्यूरो और केंद्रीय
कमेटी, दोनों का पुनर्गठन किया गया। फिर अजय घोष नये महासचिव बने। दोनों धाराओं या
लाइनों का प्रतिनिधित्व करने वाले दो-दो नेताओं यानी कुल चार वरिष्ठ नेताओं की एक
टीम सोवियत संघ भेजी गई। कई महीने के प्रवास में टीम ने भारतीय क्रांति के
कार्यक्रम व रास्ते या कार्यनीति-रणनीति पर रूसी नेताओं से ‘गंभीर मंत्रणा’ की। चार नेता जो रूस भेजे गये थे, उनमें एक धारा
के प्रतिनिधि डांगे और अजय घोष और दूसरी धारा के नेता राजेश्वर राव और वासु
पुनैय्या शामिल थे। इन नेताओं की गैरमौजूदगी में पार्टी के केंद्रीय संगठन की
जिम्मेदारी ईएमएस को सौंपी गई थी। कुछ माह बाद जोसेफ स्टालिन सहित शीर्ष रूसी
नेताओं से बातचीत के बाद चारों नेता भारत आये और भारतीय क्रांति की
कार्यनीति-रणनीति के बारे में दो दस्तावेज तैयार किये गये। प्रमुखतः तीन बातें उभर
कर सामने आईं-1. भारतीय समाज में क्रांतिकारी बदलाव के लिए रूसी या चीनी माडल की
बात एक आडम्बर है। दोनों देशों में क्रांति के इतिहास से सबक लेकर भारतीय
कम्युनिस्टों को अपना रास्ता या माडल तलाशना चाहिए। 2-तेलंगाना का रास्ता पूरे देश
का रास्ता नहीं हो सकता। आजादी से पहले और आजादी के बाद एक ही तरह के आंदोलन या
विद्रोह नहीं हो सकते। स्वाधीन भारत के नये शासक के रूप में जो पूंजीवादी नेता
उभरे हैं, उन्हें आम जनता के बड़े हिस्से में राष्ट्रीय नेता के रूप में लिया जा
रहा है, ऐसे में उन्हें ब्रिटिश शासकों या रियासतों के राजाओं-महाराजाओं की तरह
नहीं लिया जा सकता। उनके खिलाफ उसी तर्ज पर संघर्ष भी संगठित नहीं किये जा सकते।
3-आम जनता के संघर्षों में भागीदारी और नेतृत्व करते हुए पार्टी को आम चुनावों में
हिस्सा लेना चाहिए।
इस लाइन को पार्टी कार्यक्रम का हिस्सा बनाने के
लिए अक्तूबर 1951 में पार्टी का गुप्त रूप से एक विशेष सम्मेलन आयोजित किया गया।
अजय घोष के नेतृत्व में नयी कमेटी और पोलित ब्यूरो का गठन हुआ। आत्मकथा के 19 वें
अध्याय ‘अंतः पार्टी संघर्ष का एक आकलन’ में ईएमएस ने इस दौर का मूल्यांकन किया है। इस
किताब में पी सी जोशी, बी टी रणदिवे और अजय घोष सहित उस दौर के सभी पार्टी
महासचिवों के कार्यकाल और अलग-अलग लाइनों के अंतर्संघर्ष का बहुत प्रामाणिक ब्यौरा
मौजूद है। लेकिन इस ब्यौरे के बीच ईएमएस अपने समकालीन साथियों और पार्टी की शीर्ष कमेटी
के प्रति उतने निर्मम नहीं हो पाते। भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन के ऐसे पहलुओं की
ईएमएस से ज्यादा सुंसगत और गंभीर व्याख्या भला और कौन कर सकता था! लेकिन आत्मकथा में इसकी झलक भर मिलती है। अगर
भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन का एक इतिहासकार इन तमाम तथ्यों की रोशनी में इन
घटनाक्रमों का अपने ढंग से आकलन करे तो उसे तत्कालीन कम्युनिस्ट नेतृत्व के बारे
में ज्यादा निर्मम होना पड़ेगा। भारतीय कम्युनिस्ट नेतृत्व जिन दिनों अपनी
कार्यनीति और रणनीति को लेकर बेहद कन्फ्यूज था, उन्हीं दिनों चीन में माओ त्से
तुंग की अगुवाई में वहां की कम्युनिस्ट पार्टी अपना स्वतंत्र रास्ता बनाती रही और
अंततः सन 1949 में उसे ऐतिहासिक कामयाबी मिली। लेकिन भारत के कम्युनिस्ट नेता
क्रांति का रास्ता खोजने के लिए लंबे समय तक रूस की तरफ ताकते रहे। हालांकि ईएमएस
का मानना है कि कुछ ही समय बाद हालात बदल गये और कम्युनिस्ट पार्टी अपने अनुभवों
की रोशनी में इस नतीजे पर पहुंची कि भारत में बदलाव के लिए उसे अपनी ठोस
परिस्थितियों के मुताबिक नये ढंग से कार्यक्रम तय करना होगा। ईएमएस के मुताबिक ‘अपने विचार पर निर्भर होकर अपने पैरों पर खड़े
होना और अपनी तैयारी करना, हमारी पार्टी द्वारा मास्को के विचार विमर्श और
अंतःपार्टी संघर्ष से प्राप्त सबसे बड़ी उपलब्धि थी।’*6 पर भविष्य के घटनाक्रम उनके इस दावे पर कुछ सवाल
भी उठाते हैं। कई खेमों में विभाजित कम्युनिस्ट आंदोलन की अलग-अलग पार्टियां बाद
के दिनों में भी समय-समय पर सोवियत संघ या चीन की कम्युनिस्ट पार्टी में अपना
मार्गदर्शक खोजती रहीं।
विभाजन की तरफ बढ़ती पार्टी के अंदरुनी संघर्ष के
कई महत्वपूर्ण घटनाक्रमों का लेखक ने बहुत तथ्यपूर्ण ढंग से वर्णऩ किया है। सन
1962 के भारत-चीन युद्ध के दौरान अपनी गिरफ्तारी और रिहाई के विवाद को लेकर एक
बहुत महत्वपूर्ण तथ्य भी ईएमएस उद्धाटित करते हैं। एस ए डांगे की एक खास योजना के
तहत उन्हें अचानक रिहा किया गया ताकि उन पर(डांगे पर) यह
तोहमत न लगे कि जिस वक्त पार्टी का महासचिव गिरफ्तार है, वह कैसे सरकार के कहने पर
विदेश जा रहे हैं? उन
दिनों डांगे अविभाजित पार्टी के अध्यक्ष और ईएमएस महासचिव थे। लगातार अंदरुनी
टकराव के बाद अंततः सन 64 में पार्टी विभाजित हुई। टकराव और अंतर्संघर्ष की पूरी
कहानी आत्मकथा के 19 वें से 26 वें अध्याय तक फैली हुई है। दो लाइन संघर्ष की इस
लंबी कथा में बार-बार एक सवाल उभरता है- एक तरफ, पार्टी के हजारों ईमानदार
कार्यकर्ताओं की क्रांति के प्रति अटूट आस्था, त्याग और बलिदान तो दूसरी तरफ बड़े नेताओं
के दार्शनिक अंदाज या कर्मकांडी वाम-चिंतन, जो कई मौकों पर बहुत किताबी नजर आता है, के बीच क्या कोई रिश्ता है? दिग्गज और
प्रतिष्ठित नेताओं के सोच की सीमा भी उस वक्त के कई महत्वपूर्ण घटनाक्रमों से
झांकती नजर आती है। शायद इसीलिये हजारों कम्युनिस्टों की शहादत के बावजूद बड़े
बदलाव की लड़ाई आगे नहीं बढ़ाई जा सकी। संघर्षवादी वाम से अवसरवादी वाम की यात्रा
जितनी दिलचस्प है, उतनी ही तकलीफदेह भी। इसमें कभी दक्षिणपंथी झुकाव पराकाष्ठा पर
नजर आया तो कभी अति-वामपंथी अराजकतावाद भी सामने आया। डांगे और उनकी पुत्री रोजा
देशपांडे जैसे नेताओं ने ‘राष्ट्रीय
पूंजीवाद की भरोसेमंद और प्रगतिशील प्रतिनिधि’ श्रीमती इंदिरा गांधी के लिए अपना अलग कुनबा बना
लिया। भाकपा-माकपा में लंबे समय तक रूस-चीन समर्थन की धड़ेबंदी जारी रही। माकपा से
अलग हुए चारू मजूमदार की अगुवाई में सन
1969 में भाकपा(माले) सामने आई। नये समूह के नेता मजूमदार ने बड़े गर्व से एक
मूर्खतापूर्ण नारा गढ़ाः ‘चीन के
चेयरमैन हमारे चेयरमैन’। तब से
तीन शिविरों में विभाजित भारतीय कम्युनिस्ट अपने-अपने एंजेंडे को क्रांतिकारी
बदलाव का रास्ता बताते आ रहे हैं। नक्सलवादी कहे जाने वाला तीसरा खेमा भी अब कई
गुटों-उपगुटों में विभाजित है। किताब का यहीं अंत होता है। लेकिन कम्युनिस्ट
आंदोलन की कहानी अब भी जारी है।
क्रांति-दर्शन और वैचारिक गतिरोध
एक और बड़ा सवाल, जिस पर ईएमएस ने इस आत्मकथा में
तो नहीं लेकिन अन्य पुस्तकों/लेख
संकलनों में ज्यादा विस्तार से प्रकाश डाला है-वह भारतीय क्रांति का रास्ता और
सामाजिक विकास। आर्थिक-सामाजिक विकास, खासकर पंचवर्षीय योजना के संदर्भ में
उन्होंने काफी कुछ लिखा है। लेकिन आज के संदर्भ में भारतीय वाम आंदोलन के समक्ष कई
बड़े सवाल हैं। माकपा या अन्य वामपंथी पार्टियां भारत में किस तरह की क्रांति
चाहती हैं और उसके लिये क्या करना होगा? वर्ग-संघर्ष से क्रांति मार्ग पर आगे बढ़ने के पारंपरिक रास्ते में
हमारे जैसे लोकतंत्र का क्या रोड़ा है? भारतीय समाज के विकास, खासतौर पर आम लोगों के जीवन स्तर में सुधार का इन
पार्टियों के पास क्या ब्लू-प्रिन्ट है? इसका वर्ग संघर्ष आधारित क्रांति के दर्शन से क्या रिश्ता है? माकपा की जनवादी क्रांति और मालेवादियों की
नव-जनवादी क्रांति की धारणा में किसान, मजदूर और अन्य उत्पीड़ित तबकों को लेकर
क्रांति करने की बात कही गई है। कुछ कहते हैं, इसमें किसान सबसे बड़ी शक्ति होगा,
कुछ कहते हैं, किसान-मजदूर मिलकर बड़ी शक्ति होंगे। इसमें मध्यवर्ग और निम्न
मध्यवर्ग की क्या भूमिका होगी? इसमें
युवा शक्ति का क्या अवदान होगा? दलित-आदिवासी पहलू की कोई इसमें कोई भूमिका है या नहीं? यह बात सही है कि भूमि की लड़ाई की अब भी देश के
बड़े हिस्से में प्रासंगिकता बनी हुई है। मजदूर की लड़ाई आर्थिक सुधारों से बदले
मौजूदा परिदृश्य में कैसे लड़नी है, इसका अभी तक किसी पार्टी ने कोई तर्कसंगत
प्रारूप देश के सामने नहीं पेश किया। सन 60-70 के अंदाज में ही श्रमिक आंदोलन की लड़ाई
लड़ने के दुष्परिणाम भी सामने आ चुके हैं। सीटू-एटक अब भी बड़े मंच हैं पर वे
लगातार सिकुड़ रहे हैं। सच तो यह है कि भारत का मजदूर आंदोलन अपनी राजनीतिक
तेजस्विता खो चुका है। यहां तो वहां सिर्फ अर्थवाद है या विलोपवाद। क्या सिर्फ
भूंमि सुधार के एजेंडे से किसान को प्रभावित, गोलबंद और नयी क्रांतिकारी चेतना से लैस
किया जा सकता है? कई ऐसे
प्रदेश हैं, जहां इस एजेंडे की पहले जैसी या बिहार आदि जैसी प्रासंगिकता नहीं बची
है। बंगाल, त्रिपुरा और केरल में माकपा-नीत वाम मोर्चा की सरकारों ने कुल मिलाकर
शासन की अच्छी तस्वीर पेश की। पर बंगाल में आपरेशन-बर्गा के बाद जब कुछ खास नहीं
हुआ तो लोगों ने माकपा-नीत मोर्चे को सिरे से खारिज किया। बंगाल में पार्टी की
शुरुआती कामयाबी से उत्साहित माकपा मे सलकिया में आगे की योजना पर विचार किया था।
माकपा ने सलकिया प्लेनम(1978) में बड़े जोर-शोर से पार्टी विस्तार की रणनीति पर
चर्चा की। हिन्दी भाषी राज्यों में सांगठनिक-राजनीतिक विस्तार की रणनीति की भी
बातें हुईं। पार्टी ने कहा कि इन सभी राज्यों में उसके नेता-कार्यकर्ता वाम मोर्चा
के माडल को प्रचारित करें ताकि हिन्दी क्षेत्र में पार्टी को ताकतवर मंच मिल सके। सलकिया
प्लेनम से अब तक न जाने कितने सम्मेलन, कांग्रेस और अधिवेशन हो चुके पर सलकिया का
सपना वहीं का वहीं पड़ा हुआ है। क्या माकपा ने कभी इस मुद्दे पर कोई गंभीर विमर्श
किया? आखिर उसे हिन्दी पट्टी से अच्छे नेता क्यों नहीं मिले और मिले तो वे कहां चले गये? गरीबी, उत्पीड़न और इनके खिलाफ प्रतिरोध की सामूहिक
चेतना के बावजूद वह इन इलाकों में जनाधार का निर्माण क्यों नहीं कर सकी? पुराने वामपंथी आधार खिसकने के बाद के दिनों में
एक दौर ऐसा भी आया(आठवें-नवें दशक के बीच), जब भाकपा(माले) और आईपीएफ जैसे संगठनों
को इस क्षेत्र(मध्य बिहार, उत्तर और दक्षिण बिहार के कुछ हलकों) में उल्लेखनीय
कामयाबी मिली। हालांकि वे भी अपने कामकाज और सक्रियता को लंबे समय तक कायम नहीं रख
सके। सवाल है, भाकपा-माकपा या माले के अनेक सक्रिय और गतिशील कार्यकर्ता क्यों
नहीं टिक सके? जनाधार कैसे और
क्यों खिसकता रहा? दलित-पिछड़ों-अल्पसंख्यकों और युवाओं में भी वामपंथी नेता अपने और अपनी
पार्टी के लिये आकर्षण क्यों नहीं पैदा कर पा रहे? भाकपा नेतृत्व अभी भी बुजुर्गों से बोझिल है पर अन्य दो कम्युनिस्ट
पार्टियों का नेतृत्व इन दिनों अपेक्षाकृत प्रौढ़-युवा हाथों में है। माकपा के
शीर्ष नेता सीताराम येचुरी और भाकपा(माले) के दीपंकर भट्टाचार्य हैं। येचुरी
जेएनयू दिनों के हमारे सीनियर हैं, जिन दिनों मैंने जेएनयू में एम.फिल्-पीएच.डी.
कोर्स में दाखिला लिया, वह जेएनयू छात्रसंघ के अध्यक्ष थे। हमारी पीढ़ी के वामपंथी
नेताओं में येचुरी निस्संदेह एक प्रतिभाशाली और समर्थ नेता हैं। माकपा की
विशाखापत्तनम् कांग्रेस में उन्हें पिछले दिनों महासचिव बनाया गया। देखना होगा कि
वह अपनी पार्टी का कैसा मार्गदर्शन करते हैं? भारतीय कम्युनिस्टों में लंबे
समय से जड़ जमाये पारंपरिक सोच के दायरे से वह पार्टी को निकाल पाते हैं या नहीं? जहां तक भाकपा(माले) का सवाल है, उसकी तरफ से भी
वाम आंदोलन में लंबे समय से व्याप्त वैचारिक गतिरोध तोड़ने की किसी विचारोत्तेजक
पहल का कोई संकेत नहीं मिला है।
जाति-वर्ण और वामपंथी आंदोलन
वर्ण और जाति के सवालों पर लंबे समय तक वामपंथी
या तो खामोश रहे या उन्हें नजरंदाज करते रहे। केरल, जहां कृष्णा पिल्लई, ए के गोपालन और ईएमएस
जैसे नेताओं की अगुवाई में वामपंथी राजनीति ने जगह बनाई, वहां कुछ दशक पहले की
सामाजिक-सांस्कृतिक स्थिति, खासकर जातियता और संकीर्ण आधारों पर दलबंदी आदि का हाल
कुछ वैसा ही था, जैसा आज उत्तर भारत के कई हिन्दी भाषी प्रदेशों में है। मेरे
दिमाग में लंबे समय से एक सवाल कौंधता रहा है कि वामपंथी इन प्रश्नों को सिर्फ
आर्थिकता या वर्गीयता के नजरिये से क्यों देखते रहे? क्या जाति-वर्ण के सवाल भारतीय समाज की खास
विशेषता नहीं, जो यूरोप या अमेरिका में कम से कम इस रूप में कहीं भी मौजूद नहीं
रही? उत्तर
भारत में वाम आंदोलन की कमजोरी के कारणों के तौर पर ज्यादातर वाम नेता जाति-वर्ण
और सांस्कृतिक विपन्नता आदि को ही क्यों महत्वपूर्ण बताते रहे? ईएमएस या उन जैसे बड़े वामपंथी दिग्गज इन
प्रदेशों में वामपंथी राजनीति के लगातार कमजोर होते जाने या आधार न बना पाने के
प्रमुख कारण के तौर पर सिर्फ यहां की ‘सांस्कृतिक विपन्नता’ या जातियता को क्यों कोसते रहे हैं? ईएमएस ने अपनी आत्मकथा की शुरुआत में ही सन 1957
के चुनाव में वामपंथियों की शानदार जीत की चर्चा करते हुए केरल के
सामाजिक-सांस्कृतिक परिदृश्य, खासकर जातियता के वर्चस्व का वर्णन इस प्रकार किया
हैः ‘ इसमें कोई शक नहीं है कि कम्युनिस्टों के
नेतृत्व में वाम जनवादी मोर्चे की यह चुनावी विजय केरल और उसके बाहर लोगों के
सोचने का विषय होगी कि यह जीत कैसे संभव हुई। इस राज्य में इतनी जातियता है कि
लगभग सौ वर्ष पूर्व स्वामी विवेकानंद ने इसे ‘पागलखाना’ कहा था। चुनावी राजनीति भी जातियता के आधार पर ही चलती है, हर जाति
की अपनी राजनीतिक पार्टी है, इसके अतिरिक्त कांग्रेस ऐसी धर्मनिरपेक्ष पार्टियों
में भी विशेष जातियों के घटक हैं। धार्मिक समुदायों के रूप में राज्य की जनसंख्या
में 60 प्रतिशत हिन्दू हैं और 40 प्रतिशत जनता ईसाई और मुसलमान है। कांग्रेस
द्वारा जाति और संप्रदाय की इस संरचना का प्रयोग वामपंथियों के खिलाफ 1950 से ही
किया जा रहा था। वामपंथियों ने एक चुनावी जीत हासिल की और अंततोगत्वा इस जातीय और
सांप्रदायिक गठबंधन को जोरदार झटका दिया।’*7 सवाल उठता है, यूपी-बिहार-मध्य प्रदेश में जातीय और सांप्रदायिक
गठबंधनों का ऐसा झटका क्यों नहीं दिया जा सका? स्वयं
ईएमएस स्वीकार करते हैं कि केरल में, खासतौर उसकी सियासत में जातिवाद इस कदर हावी
था कि विवेकानंद जैसे तेजस्वी और प्रतिभाशाली सन्यासी ने उसे एक ‘पागलखाने’ की संज्ञा दे दी। यह कैसे संभव हुआ कि केरल में 1937 में गठित भारतीय
कम्युनिस्ट पार्टी कुछ ही बरस बाद राज्य की सर्वाधिक शक्तिशाली राजनीतिक पार्टी
में विकसित हो गई? अपनी
आत्मकथा के बड़े हिस्से में कामरेड ईएमएस ने इसी सवाल का विस्तार से जवाब दिया है।
लेकिन इस बात की बहुत कम चर्चा है कि केरल में मध्यवर्ती पिछड़ी जातियों और
उत्पीड़ित समुदायों के बीच समाज सुधार आंदोलनों ने किस तरह उन्हें नई सामाजिक
चेतना और अधिकारिता से लैस किया। श्री नारायण गुरू(सन 1854-1928) जैसे महान समाज
सुधारक और संत ने किस तरह इझवा समुदाय और अन्य पिछड़े वर्गों को उनके उत्पीड़न के
खिलाफ सचेत किया। केरल के जाति-दुर्भावना ग्रस्त समाज, खासकर नंबूदिरि ब्राह्मणों
के जातिवादी कर्मकांड और एक तरह के आंतक को उनके अभियान ने पूरी तरह खारिज किया।
उन्होंने पिछड़ी जातियों को आध्यात्मिक मुक्ति और सामाजिक समानता का नया रास्ता
दिखाया। उऩके समाज सुधार आंदोलन का असर बहुआयामी था। समाज, संस्कृति, शिक्षा,
खेतीबाड़ी और अन्य उपक्रमों के प्रति लोगों में नया नजरिया विकसित हुआ। इस तरह के
समाज सुधार आंदोलनों ने भी केरल में भविष्य के कम्युनिस्ट आंदोलन के प्रचार-प्रसार
और सामाजिक स्वीकृति के लिए जमीन तैयार की। पुस्तक के दूसरे अध्याय ‘क्रांतिकारी सामाजिक बदलाव के डेढ़ सौ वर्ष’ में ईएमएस मालाबार के नंबूदिरियों के उग्र
ब्राह्मणवाद, दलित-उत्पीड़ितों की स्थिति और ट्रावणकोर राजवंश की प्रगतिशील भूमिका
का भी उल्लेख करते हैं। लेकिन उस दौर के समाज सुधार आंदोलनों के सामाजिक-राजनीतिक
प्रभाव की उन्होंने बहुत व्याख्यात्मक चर्चा नहीं की है। महान समाज सुधारक संत
श्री नारायण गुरू के ऐतिहासिक अवदान का मूल्यांकन अपेक्षित विस्तार से नहीं हुआ है।
हालांकि उन्होंने इस बात की चर्चा की है कि कैसे नारायण गुरु के समाज सुधार के इस
नारे(‘एक जाति, एक धर्म और एक भगवान’) ने इझवा और अन्य पिछड़े समुदायों को गहरे स्तर
पर प्रभावित किया। जिस पुनप्पा-वायलार आंदोलन(1938-39) का वह उल्लेख करते हैं, वह
अल्लेपी इलाके में वस्तुतः इन्हीं उत्पीड़ित समुदायो के बीच से उठा था। वह इस बारे
में सिर्फ इतना कहते हैं कि ‘कृष्णा
पिल्लई की भ्रमणशील भावना’ इस तरह
के आंदोलन में प्रेरक थी। यह सही है कि पिल्लई उन दिनो केरल के सबसे बड़े और लोकप्रिय वामपंथी
नेता थे लेकिन आंदोलन के स्थानीय नेताओं-कार्यकर्ताओं, जो बाद में प्रदेश के बड़े
कम्युनिस्ट नेता के रूप में उभरे, का ईएमएस ने कहीं कोई जिक्र नहीं किया है।
दरअसल, पूरी पुस्तक में यह बात दिखती है। ईएमएस ने उन्हीं नेताओं का नामोल्लेख
किया है, जो उनके पूर्ववर्ती बड़े नेता थे या समकक्ष थे। ऐसे प्रमुख नेता, जिनमें
उनके कई समकालीन या उनके जूनियर रहे, का जिक्र आमतौर पर पुस्तक में नहीं मिलता।
इससे केरल और संपूर्ण देश के कम्युनिस्ट आंदोलन के कई अहम घटनाक्रम और उनसे जुड़ी
महत्वपूर्ण कड़ियां चर्चा में नहीं आ सकीं, जो आज के वामपंथी राजनीतिक परिदृश्य को
समझने और व्याख्यायित करने के लिए बेहद जरूरी हैं। समाज सुधार के क्षेत्र में
कैथोलिक धर्मावलंबियों की भूमिका को उन्होंने ईमानदारी से सराहा हैः‘(कालेज का)कैथोलिक वातावरण वास्तव में मलयाली
धर्मनिरपेक्ष संस्कृति का विरोधी नहीं था बल्कि उसके अनुकूल ही था।------मैंने
देखा कि एक हिन्दू और ईसाई में अपने धर्म की आस्था के अतिरिक्त कोई अंतर नहीं था।
यहां तक कि कैथोलिक ईसाइयों के साथ भी कोई अंतर नहीं था। वे सब केरल की संस्कृति
में घुल-मिल गये थे और सदियों से वह इस संस्कृति का अभिन्न अंग बन गये थे।’*8
दक्षिणी प्रदेशों, खासकर केरल और उत्तर के हिन्दी
भाषी प्रदेशों की सामाजिक-राजनीतिक स्थिति का यह एक बड़ा फर्क है, जिसने कम्युनिस्ट
आंदोलन ही नहीं, देश के संपूर्ण राजनीतिक विमर्श को प्रभावित किया। उत्तर, जो एक
समय कबीर, रैदास, नानक जैसे महान संत और समाज सुधारकों की गतिविधियों का केंद्र
था, बाद के दिनों में ब्राह्मणवाद-पुरोहितवाद और प्रतिक्रियावाद का अखाड़ा सा बन
गया। स्वाधीनता की लड़ाई के दौरान राजनीतिक उठापटक और अभियान तो खूब चले पर बड़े
सामाजिक सुधार आंदोलन नहीं हुए। पश्चिमी इलाकों में जो कुछ सुधार अभियान चले, वे
अपनी मूल प्रकृति में दकियानूसी और वेदांती किस्म के थे। हां, पंजाब में अकाली
मोर्चे ने अपने स्तर पर महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। बिहार में सवर्ण
जातियों-भूस्वामियों के जुल्मोसितम के खिलाफ कुछ सामाजिक-राजनीतिक आंदोलन जरूर
सामने आये। पर वे पूरे क्षेत्र की सामूहिक जातीय-चेतना में बड़े बदलाव का संवाहक
नहीं बन सके। उनका जल्दी ही विलोप हो गया या नेतृत्व बिखर गया। आजादी की लड़ाई में
अनेक वर्गों-वर्णों की हिस्सेदारी रही लेकिन नेतृत्व में आमतौर पर सवर्ण और समृद्ध
किस्म के लोग ही आगे थे। यूपी-बिहार में कांग्रेस कमेटियों के तत्कालीन नेतृत्व की
सूची और प्रेमचंद जैसे महान कथाकारों के उपन्यासों-कहानियों के कथ्य और पात्रों से
भी इस बात की पुष्टि होती है। संभवतः दक्षिण, दक्षिण-मध्य और उत्तर के
सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य में यह एक बड़ा फर्क था। तमिलनाडु, केरल, कर्नाटक,
आंध्र, महाराष्ट्र और दक्षिण-मध्य के इलाकों में अलग-अलग ढंग के सामाजिक-सुधार
आंदोलनों का बहुत प्रभाव पड़ा। इनसे संपूर्ण क्षेत्र की सामूहिक चेतना में
गुणात्मक बदलाव देखा गया। भारत में सामाजिक न्यायवादी राजनीति के पहले अग्रदूत
शाहू जी महाराज ने दक्षिण-मध्य के अपने कोल्हापुर राज में समाज सुधार की बड़ी पहल
की थी। उसका असर दक्षिण और मध्य के कई इलाकों में पड़ा था। मध्य-पश्चिम के बडोदरा
और दक्षिण के ट्रावणकोर के राजवंशों की भूमिका भी ऐसे कई मामलो में बहुत सकारात्मक
देखी गई। यह सब समाज सुधार के आंदोलनों की ही चेतना थी, जिसने समाज के हर हिस्से
को प्रभावित किया। बाद के दिनों के वामपंथी आंदोलनों के विकास-विस्तार में इन
विशिष्ट सामाजिक-राजनीतिक घटनाक्रमों और तेजी से बदलती राजनीतिक परिस्थितियों की
भूमिका से इंकार नहीं किया जा सकता। इनसे उन क्षेत्रों की सामूहिक चेतना में बदलाव
आया, जो बाद के वामपंथी आंदोलन के विकास में सहायक साबित हुआ।
संयोगवश, जिस समय ईएमएस पार्टी के राष्ट्रीय
महासचिव थे, देश में, खासकर हिन्दी भाषी क्षेत्रों में पिछड़ों के आरक्षण का सवाल
प्रमुखता से उभरा। मोरार जी देसाई की सरकार ने मंडल कमीशन का गठन उसके बाद ही
किया। उसके पहले बिहार में आरक्षण का एक फार्मूला सामने आ चुका था। उसके बाद यूपी
में भी प्रस्ताव सामने आया, जिसके खिलाफ सवर्ण समुदाय के कुछेक नेताओं की प्रेरणा
से आरक्षण-विरोधी उग्र अभियान छिड़ गया। बनारस, इलाहाबाद और लखनऊ में इनकी उग्रता
कुछ ज्यादा थी। पार्टी स्तर पर विरोध के और भी कई पहलू थे। अंततः तत्कालीन रामनरेश
यादव की सरकार टिक नहीं सकी। उनके बाद बनारसी दास मुख्यमंत्री बने। केंद्र में कुछ
ही महीनों में इंदिरा गांधी की सत्ता में वापसी हो गई। मंडल कमीशन मोरार जी शासन
में ही गठित हो चुका था। उसकी रिपोर्ट नयी सरकार को सौंपी गई। वह ठंडे बस्ते में
पड़ी रही। लेकिन आरक्षण का सवाल सुलगता रहा। उसी समय माकपा सलकिया-प्लेनम के अपने
संकल्प के तहत हिन्दी क्षेत्र में पांव पसारने की कोशिश कर रही थी। पर आरक्षण के
सवाल पर पार्टी लंबे समय तक खामोश रही। बार-बार पूछे जाने पर पार्टी नेता सिर्फ
इतना ही कहते, ‘सामाजिक-आर्थिक
पिछड़ेपन के आधार पर आरक्षण का समर्थन किया जा सकता है। लेकिन आरक्षण किसी समस्या
का समाधान नहीं है, असल काम है क्रांतिकारी बदलाव। वह समानता लाकर ही संभव है,
जिसके लिये कम्युनिस्ट क्रांति, जिसकी पहली मंजिल लोक जनवादी क्रांति है, की जरूरत
होगी।’ लंबे समय तक माकपा का यही रूख रहा। हिन्दी
क्षेत्रों में पार्टी के कामकाज के विस्तार और उसकी राजनीति के विकास में इस
परिघटना का विनाशकारी असर पड़ा। दलित-पिछड़े समुदाय से आने वाले युवाओं का बड़ा
हिस्सा, जो एक समय वाम-विचारों से बहुत प्रभावित या प्रेरित था, वह माकपा के इस
सोच से बहुत निराश हुआ। यह बात मैं अधिकृत ढंग से कह सकता हूं क्योंकि उन दिनों
मैं माकपा से सम्बद्ध स्टूडेंट्स फेडरेशन का इलाहाबाद विश्वविद्यालय में सांगठनिक
पदाधिकारी था और इस नाते फेडरेशन के अखिल भारतीय प्रतिनिधि सम्मेलनों(उन दिनों
दिल्ली के मावलंकर हाल में एसएफआई का शिक्षा-क्षेत्र पर बड़ा राष्ट्रीय सम्मेलन
हुआ था। उसमें मैं उत्तर प्रदेश के डेलीगेट के रूप में मौजूद था) में भी शामिल हो
चुका था। उन दिनों प्रकाश करात फेडरेशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष थे। दिल्ली में हम
जैसे प्रतिनिधियों ने अपने कई राष्ट्रीय नेताओं से आरक्षण के सवाल पर चर्चा की।
इनमें ज्यादातर ने आरक्षण को बेमतलब मुद्दा बताया और इससे दूर रहने की सलाह दी।
पार्टी-लाइन साफ करने की बहुत जिद्द करने पर वही सामाजिक-आर्थिक आधार पर आरक्षण के
सुझाव को आगे किया। हम जैसे लोगों ने इसी लाइन को ‘फालो’ किया। लेकिन भारत के संविधान में (साफ-साफ दर्ज था और आज भी है)
सिर्फ ‘सामाजिक-शैक्षिक पिछ़ड़ेपन’ के आधार पर आरक्षण के प्रावधान की बात है। इस
बारे में पूछे जाने पर माकपा नेता ज्यादा कुछ नहीं कहते। समानता और सकारात्मक
कार्रवाई के इन पहलुओं पर पार्टी में लंबे
समय तक असमंजस बना रहा। कामरेड ईएमएस की तरफ से भी कोई ऐसा मार्गदर्शन नहीं मिला,
जिससे हम जैसे संगठन के प्रतिबद्ध छात्र-कार्यकर्ता दलित-पिछड़े वर्ग से आने वाले
युवाओं की शंकाओं और सवालों का ठीक से समाधान कर पाते। मुझे लगता है, यह सिर्फ
असमंजस नहीं था, पार्टी आरक्षण के सवाल पर स्वयं साफ नहीं थी या साफ होना नहीं
चाहती थी। उसके सवर्ण प्रगतिशील मध्यवर्गीय नेतृत्व और जनाधार का भी कुछ न कुछ
दबाव था। वह इस वर्ग को एफर्मेटिव एक्शन के सवाल पर शिक्षित और सहमत कराने के
प्रयास से दूर रही। उसके मुकाबले भाकपा ज्यादा संवेदनशील साबित हुई। बाद के दिनों
में उसने मंडल सिफारिशों के लागू किये जाने के पक्ष में अपनी राष्ट्रीय परिषद में
प्रस्ताव पारित किया।*9 ब्रिटिश
हुकूमत के दौर में भी आरक्षण का सवाल कई बार उठा। उस दौर के पार्टी-परिप्रेक्ष्य
का उल्लेख करते हुए ईएमएस ने लिखा हैः‘सोशलिस्टों और कम्युनिस्टों द्वारा आरक्षण के मुद्दे को मजदूर वर्ग और
अन्य मेहनतकश समुदाय की एकता के मातहत रखा जाता था, जबकि क्रांतिकारी पूंजीवादी
राष्ट्रवादी लोग इसे जनतंत्र का एक बुनियादी सिद्धांत समझते थे।’*10
आजादी के बाद भी लंबे समय तक कम्युनिस्ट
पार्टियों में आरक्षण और ‘सकारात्मक
कार्रवाई’(एफर्मेटिव एक्शन) के अन्य कदमों को लेकर एक तरह का ‘कन्फ्यूजन’(इसे सुनियोजित कन्फ्यूजन भी कहा जा सकता है)बना रहा। इसके दर्शन आज
भी किये जा सकते हैं। सातवें-आठवें दशक का प्रसंग हो या नवें दशक का, आम
दलितों-पिछड़ों को यही महसूस हुआ कि आरक्षण के मुद्दे पर वामपंथी मन से उनके साथ
नहीं हैं। कम से कम पिछड़ों के आरक्षण पर तो यह स्थिति ज्यादा साफ ढंग से जाहिर
हुई। हालांकि वे आरक्षण के विरोध में नहीं उतरे, बीच-बचाव करते दिखे कि ‘आरक्षण लागू हो तो ऐसे हो-वैसे हो’! इस बात को भुलाया नहीं जा सकता कि मंडल दौर में
देश के कई ख्यातिलब्ध वामपंथी लेखकों-बुद्धिजीवियों ने सार्वजनिक तौर पर
आरक्षण-प्रावधानों का विरोध किया। इस परिघटना ने पिछड़ों-दलितों के बड़े हिस्से के
बीच वामपंथियों को अविश्वसनीय बनाया। इससे हिन्दी भाषी क्षेत्रों में
प्रभाव-विस्तार के वामपंथी एजेंडे को गहरा धक्का लगा। अगड़े यानी सवर्णों में वह
सिर्फ कुछ पढ़े-लिखे प्रगतिशील बुद्धिजीवी नुमा लोगों के बीच जगह बना सके। आम
सवर्ण समाज तो कांग्रेस या बाद के दिनों में जनसंघ-भाजपा के साथ जुड़ा और पिछड़ा वर्ग
लोहियावादी-समाजवादी मध्यमार्गी दलों की तरफ मुखातिब हो चुका था। सन 1966-67 से
जारी यह प्रक्रिया मंडल-कमंडल दौर में और तेज हो गई। ‘आरक्षण’(मंडल) और ‘अयोध्या’(कमंडल) ने यूपी-बिहार में कांग्रेस के बचे-खुचे
आधार को भी खत्म कर डाला। उसे छोड़कर सवर्णों का बड़ा हिस्सा भाजपा की तरफ चला
गया, दलित कांशी राम की बसपा के साथ और मुसलमान मुलायम या लालू के साथ। माकपा अपना
जनाधार कहां से खोजती! उसके
पास न महत्वपूर्ण मुद्दे थे न आकर्षक नेतृत्व। हिन्दी क्षेत्र और बंगाल आदि में सवर्ण
समुदाय से आये ज्यादातर कम्युनिस्ट नेताओं, विचारकों और बुद्धिजीवियों ने सामाजिक
न्याय से प्रेरित दलित-पिछड़े वर्गों के आंदोलनों, अभियानों और सकारात्मक कार्रवाई
की हर मांग को ‘जातिवादी अभियान’ या ‘पहचान(आइडेंटिटी) की गोलबंदी’ मान लिया। दक्षिणपंथियों की तरह वामपंथियों के भी बड़े हिस्से ने
मंडल आयोग की सिफारिशों को ठीक से पढ़ा तक नहीं। इसे महज सरकारी नौकरियों में
आरक्षण का दस्तावेज माना, जबकि मंडल आयोग की रिपोर्ट में आरक्षण के अलावा भूमि
सुधार, औद्योगिक विकास, कृषि-उत्पादन बढ़ाने, रोजगार के अवसर सृजित करने और
कौशल-विकास के लिए कई महत्वपूर्ण सिफारिशें शामिल थीं। इसका नतीजा भी सामने आया।
बेहद प्रतिभाशाली ढंग से लिखी गई मंडल आयोग की रिपोर्ट सिर्फ आरक्षण-विमर्श और
आरक्षण-विवाद तक सीमित कर दी गई। इस माहौल में वामपंथी राजनीति पूरी तरह निरीह
दिखी। हालांकि कुछेक वामपंथी सांसदों ने रिपोर्ट को उसके वास्तविक परिप्रेक्ष्य
में समझे जाने की जरूरत पर बल दिया। लेकिन उनकी बातों का ज्यादा असर नहीं पड़ा। कुछ
ही समय बाद हिन्दी क्षेत्र में वामपंथियों के बचे-खुचे आधार ढहते नजर आये। वहां
भारतीय क्रांति दल या लोकदल से फूटे पिछड़ावाद की राजनीति करने वाले विभिन्न गुटों
और दलों ने जगह बना ली। उनके ज्यादातर नेता व्यापक समाजवादी सोच से प्रेरित होने
के बजाय व्यक्तिवादी और गुटवादी थे। उऩके लिए राजनीति का मतलब था-सत्ता पर काबिज
होकर ‘राजा’ जैसी ताकत और दौलत बटोरना। इस दौर में वामपंथी राजनीति सवर्ण समुदाय
से आये कुछ प्रगतिशील बुद्धिजीवियों या छात्र-युवा यूनियनों तक सिमट कर रह गई। दलित-पिछड़े
वर्ग से आये बहुत कम वामपंथी नेता(जिला या राज्य स्तर के) बचे, जो इस दौर में भी
पार्टी के साथ बने रहे। जो टिके रहे, उनकी स्थिति पार्टी में बहुत अच्छी नहीं थी। छात्र-युवा
आंदोलनों या संघों में सभी समुदाय के छात्र-युवा हिस्सेदारी करते रहे। लेकिन कमान
आमतौर पर सवर्ण समुदाय से आये छात्र-युवाओं के पास थी। दलित-आदिवासी या पिछड़े
वर्ग से आये युवाओं के एक हिस्से में मार्क्सवादी विचारधारा के प्रति गहरा आकर्षण
बरकरार रहा। लेकिन एक मुकाम पर आकर ऐसे छात्र-युवाओं का पार्टी या उसके नेतृत्व से
मोहभंग भी तेजी से हुआ। यह सिलसिला आज तक जारी है। इधर, एक नया घटनाक्रम सामने आया
है। माकपा की 21 वीं कांग्रेस ने निजी क्षेत्र में एससी-एससी के लिए आरक्षण का
प्रस्ताव पारित किया। देर से उठाया यह एक सकारात्मक कदम है। यूपीए-1 ने सन 2004 के
अपने न्यूनतम साझा कार्यक्रम में ही इसे शामिल कर लिया था। पर यूपीए ने पूरे दस
साल इस एजेंडे को नजरंदाज किया। प्रकाश करात की अगुवाई वाली माकपा भी लगभग खामोश
रही। यदाकदा, कुछ घटक दल इसकी मांग उठाते भर रहे।
ठहरे हुए चिंतन की सीमाएं
सलकिया प्लेनम(1978) का संकल्प हो या
जालंधर(1978) और विजयवाड़ा(1982) की पार्टी कांग्रेसों के कार्यक्रम हों, इनका हिन्दी भाषी सूबे की सियासत और पार्टी के
विस्तार की योजना पर कोई खास असर नहीं देखा गया। पार्टी के नारे और काम के बीच कोई
तालमेल नहीं था। वामपंथी पार्टियों के नेतृत्व को देखें तो अचरज होता है कि उनमें
दलित-पिछड़े वर्गों का संपूर्ण अकाल सा। नवें दशक में पूर्वांचल के प्रमुख
विश्वविद्यालयों के छात्र-युवाओं में युवा जनता जैसे संगठनों के मुकाबले एसएफआई और
बाद के दिनों में पीएसओ जैसे वाम छात्र संगठनों के प्रति ज्यादा आकर्षण था। लेकिन
इन संगठनों के पितृ-निकायों-कम्युनिस्ट पार्टियों में नेतृत्व के स्तर पर सवर्ण
समुदाय से आये नेताओं का पूर्ण वर्चस्व था। अपने निजी अनुभवों के आधार पर मैं कह
सकता हूं कि इनमें नब्बे फीसद नेता वर्गांतरित(डिक्लास्ड-डिकास्ट) तो नहीं थे। इनमें
ज्यादातर नेताओं की बातें अवर्ण या शूद्र समुदाय से आये छात्र-युवाओं को अटपटी
लगती थीं। एक क्रांतिकारी पार्टी के प्रमुख नेता के बारे में आज तक याद है, वह जब
भी मुझसे मिलते मेरे नाम के बजाय मेरे ‘जातिय-सरनेम’(जिसका
मेरे अधिकृत या प्रचलित नाम में कहीं कोई जिक्र नहीं था) से मुझे संबोधित करते।
शुरू में मुझे लगा, वे यूं ही ऐसा कर रहे हैं पर बाद में उनकी कई हरकतों से साफ
हुआ कि वह जानबूझ कर ऐसा करते थे। हाल के दिनों में भी देखा, अपने आपको ‘प्रगतिशील ‘सांस्कृतिक व्यक्तित्व’ समझने वाले एक वामपंथी बुद्धिजीवी तो सार्वजनिक स्थानों पर भी मुझे
मेरे जातिय-सरनेम से संबोधित करना पसंद करते हैं। उनके नाम में स्वयं कोई जातिय
सरनेम नहीं। वह वामपंथी लेखकों के बीच काफी ‘लोकप्रिय’ भी
हैं। देश के एक अन्य ख्यातिलब्ध आलोचक(वामपंथी भी!) डा. नामवर सिंह(वह भले ही आज किसी वामपंथी
पार्टी के सदस्य न हों पर देश में उनकी छवि एक बड़े वामपंथी चिंतक-लेखक की है) की
इस प्रवृत्ति पर अपने निजी अनुभवों की रोशनी में मैंने विस्तार से लिखा था।*11 डा. सिंह ने प्रगतिशील लेखक संघ की 75वीं
वर्षगांठ पर लखनऊ में आयोजित लेखक संघ के एक महत्वपूर्ण अधिवेशन के दौरान
दलित-पिछड़ों के आरक्षण के खिलाफ टिप्पणी करके अपने प्रशंसकों-समर्थकों को भी हैरत
में डाल दिया।*12 लेखक
संघ से जुड़े लेखकों ने उनके ‘दलित-विरोधी
रवैये’ के खिलाफ रोष जाहिर किया।*13 जाति-वर्ण के जटिल सवालों पर हिन्दी क्षेत्र के वामपंथी
नेतृत्व और बड़े ‘वामपंथी
बौद्धिकों’ की समझ कम से कम मेरी समझ से परे रही है। अपने
आपको सर्वहारा और मेहनतकश वर्गों की सबसे बड़ी ताकत कहने वाली पार्टी ने इस सवाल
को हमेशा हाशिये पर क्यों रखा? इसमें
कोई दो राय नहीं, भारत में जाति-वर्ण के मसले न होते तो बदलाव की राजनीति और
क्रांति की प्रक्रिया इतनी जटिल और कठिन न होती! लेकिन किसी के चाहने या न चाहने से जाति-वर्ण के
मसले अचानक दफन तो नहीं हो सकते! फिर जाति-वर्ण के मसलों से ऐसा पलायन क्यों? क्या जाति-वर्ण की भारत में कोई प्रासंगिकता नहीं
है? अगर है तो उस पर माकपा का क्या कार्यनीतिक विमर्श
है? कम से कम मुझे इसका एहसास कभी नहीं हुआ। तब की
बात छोड़िये, क्या आज इन पंक्तियों के लिखे जाने के वक्त भी माकपा या अन्य वाम या
क्रांतिकारी दलों-समूहों के पास इस बारे में कोई खास सोच या परिप्रेक्ष्य है? बंगाल में इतने लंबे समय तक वाम मोर्चा का शासन
रहा लेकिन उसके दो-दो लोकप्रिय मुख्यमंत्रियों-ज्योति वसु और बुद्धदेव भट्टाचार्य
की सरकारों ने बंगाल के दलित-पिछड़ों-अल्पसंख्यकों के पिछड़ेपन के खास पहलुओं पर
कितना ध्यान दिया? भट्टाचार्य-शासन
के दौरान नंदीग्राम और सिंगुर में जिन लोगों की जमीनें जबरन ली गईं, उनमे ज्यादातर
पिछड़े और अल्पसंख्यक थे। विरोध करने पर जुल्मोसितम ढाया गया। क्या किसी वामपंथी
सरकार से ऐसी उम्मीद की जा सकती थी? महाश्वेता देवी जैसी वाम सोच की लेखिका को भी उनके खिलाफ मैदान में
उतरना पड़ा। अंततः बंगाल में वाम मोर्चा के एकछत्र-राज के पतन का कारण भी यही
मुद्दा बना। इसका फायदा तृणमूल कांग्रेस ने उठाया। माकपा नेतृत्व के वर्गीय चिंतन
ने सामाजिक-शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों(ओबीसी) के बारे में तीसेक बरसों के दौरान
किस तरह का दृष्टिकोण विकसित किया? मोर्चा के शासन काल में लंबे
समय तक मंडल आयोग की सिफारिशें बंगाल सचिवालय की फाइलों में कैद रहीं। बरसों बाद
लागू हुईं तो प्रेसिडेंसी सहित कई प्रमुख कालेजों के वामपंथी और अति-वामपंथी छात्र
संगठनों ने मंडल के खिलाफ जुलूस तक निकाला। क्या इन संगठनों ने मंडल सिफारिशों का
अध्ययन किया? केंद्र
में यूपीए शासन द्वारा गठित सच्चर कमेटी की रिपोर्ट आंख खोलने वाली है। बंगाल में
अल्पसंख्यक समुदायों के पिछड़ेपन को दूर करने के लिए ठोस
कार्यक्रम क्यों नहीं लिये गये! क्या अल्पसंख्यकों में पसमांदा समुदायों को चिह्नित किया गया? अगर इस तरह के समावेशी विकास के कदम उठाये गये तो
लोगों का जीवन स्तर क्यों नहीं सुधार जा सका? सच यह है कि ‘आपरेशन
बर्गा’(1978-80) के बाद बंगाल की वाम मोर्चा सरकार ने आम गरीबों,
दलित-पिछड़ों और गरीब अल्पसंख्यकों के सरोकारों को अपने गवर्नेंस की वरीयता सूची
में रखा ही नहीं। इसके कई कारण रहे। पर एक कारण यह भी था कि शासन करने वाली पार्टी
की संरचना और नेतृत्व में भी इन वर्गों को प्राथमिकता नहीं मिल रही थी। रामचंद्र
डोम सरीखे कुछेक जनप्रतिनिधियों के अलावा माकपा के संसदीय दल या राज्य समिति/सचिवालय में दलित-पिछड़े-अल्पसंख्यक समुदाय के
लोगों की असरदार-मौजूदगी लगभग नगण्य रही और आज भी स्थिति में कोई खास बदलाव नहीं
है। मौजूदा नेतृत्व दूसरे दलों के मुकाबले भले ही भला, समझदार और अपेक्षाकृत
ईमानदार भी हो लेकिन आमतौर पर बंगाली मध्यवर्गीय-सवर्णीय भद्रलोक से आये ये नेता
उत्पीड़ित वर्गों-वर्णों की पुरजोर आवाज नहीं बन पाते। पार्टी और मोर्चे ने हिन्दी
क्षेत्र से बंगाल में जाकर बसे लोगों के बीच से जिन कुछ प्रमुख नेताओं या अपने
बौद्धिकों को संसद या विधानसभा में भेजा, उनमें दलित-पिछड़े वर्ग से आये
प्रतिनिधियों की संख्या नगण्य रही। अगर माकपा के पास इतने बरसों बाद भी दलित-पिछड़े
वर्ग से आये नेता-कार्यकर्ता और बौद्धिक नहीं हैं तो इसे उसकी वैचारिक विशिष्टता
कहें या राजनीतिक-रणनीतिक दरिद्रता! अगर ऐसी सांगठनिक स्थिति पर कोई संतुष्ट है तो
ऐसी कम्युनिस्ट पार्टियों को उत्पीड़ितों का संगठन कैसे कहा जा सकता है, फिर तो
इन्हें सवर्ण समुदायों से आये कुछ ‘प्रगतिशील बुद्धिजीवियों या सचेत मार्क्सवादियों के तरक्कीपंसद क्लब’ कहने चाहिए? केरल में
भी कम्युनिस्ट आंदोलन के शुरुआती दौर के सभी प्रमुख नेता कृष्णा पिल्लई, ईएमएस या
गोपालन, सवर्ण समुदाय से आये थे। इन नेताओं ने अपनी ही बिरादरियों से सम्बद्ध
शोषक-उत्पीड़कों के खिलाफ आवाज उठाते हुए गरीब और उत्पीड़ित लोगों के आंदोलन का
विस्तार किया। जैसे-जैसे आंदोलन और पार्टी का विस्तार होता गया,
दलित-ओबीसी-अल्पसंख्यक समुदायों के बीच से आये कम्युनिस्ट कार्यकर्ताओं को भी
नेतृत्व में जगह मिलती गई। स्वयं वी एस अच्युतानंदन, जो पिछड़े समुदाय से आते हैं,
लंबे समय तक केरल माकपा के सचिव थे। पार्टी के राज्य सचिव-मंडल और अन्य कमेटियों
में भी विभिन्न समुदायों से आये नेताओं का प्रतिनिधित्व रहा है। लेकिन बंगाल में ऐसा नहीं देखा गया। दिवंगत अनिल विश्वास जैसे एकाध अपवादों
को छोड़ दें तो सवर्ण भद्रलोक समुदायों से आये नेताओं की लगभग एक सी प्रजाति और एक
ही तरह की नीति! बंगाल माकपा के
अनेक नेताओं और कार्यकर्ताओं से अपनी मुलाकातों और अनौपचारिक बातचीत की रोशनी में
मुझे लगता है कि पार्टी स्तर पर दलित-पिछड़े समुदाय के कार्यकर्ताओं के बीच से नये
नेता विकसित करने के बारे में कभी सोचा ही नहीं गया। कांति विश्वास जैसे बुजुर्ग
माकपा नेता दबी जुबान में इस आशय की शिकायतें करते भी रहे हैं। एक तरह का सवर्ण
भद्रलोक ही माकपा की अगुवाई वाले तमाम संगठनों और यहां तक कि मोर्चे में भी हमेशा
हावी रहा। यही स्थिति कमोबेश आज भी बरकरार है। यही हाल, अन्य़ प्रदेशों में रहा।
यूपी-बिहार-मध्य प्रदेश-झारखंड, कहीं भी वामपंथी पार्टियों को
दलित-पिछड़ों-आदिवासियों के बीच लोकप्रिय नहीं बनाया जा सका। इस सिलसिले में बहुजन
समाज पार्टी के संस्थापक अध्यक्ष रहे कांशी राम से जालंधर के सर्किट हाउस में सन
1997 के शुरू में हुई एक मुलाकात की याद आ रही है। मैंने उनसे पूछा, ‘आपका सबसे बड़ा राजनीतिक प्रतिद्वन्द्वी कौन
है-कांग्रेस या भाजपा या अकाली?’ सेंकेंड भर इंतजार किये बगैर उन्होंने कहा, ‘कम्युनिस्ट।’ उनका उत्तर सुनकर मैं चौंक गया। मैंने कहा, ‘वो तो बहुत कमजोर हैं, कई राज्यों में तो वे हाशिये
पर हैं?’ उन्होंने कहा, ‘इसीलिए तो हमारा तेजी से विस्तार हो रहा है और
आगे भी होगा। हमारी जनता, हमारे लोगों के बीच पहले वही लोग काम करते रहे। अगर पहले
की तरह काम करते रहते तो हमें मुश्किल होती। इसलिए विचारधारा और जनाधार को देखते
हुए हमारे असल प्रतिद्वन्द्वी वही हैं। कांग्रेस-भाजपा तो अल्पजन या मनुवादियों की
पार्टियां हैं, हम हैं बहुजन की पार्टी।’
केरल में पार्टी का चेहरा ज्यादा समावेशी होने के
बावजूद वहां के कई बड़े नेता नहीं चाहते थे कि वी एस अच्युतानंदन राज्य के
मुख्यमंत्री बनें। अगर राज्य संगठन में बगावत सी न हुई होती तो अच्युतानंदन शायद
ही कभी सूबे के मुख्यमंत्री बनते! सन 2005-06 के दौरान पार्टी नेतृत्व ने साफ कर दिया था कि उन्हें
विधानसभा चुनाव में नहीं उतारा जायेगा। राज्य समिति के सचिव पी विजयन या किसी अन्य़
नेता की अगुवाई में चुनाव लड़ा जायेगा। पार्टी नेतृत्व के इस रूख का राज्यव्यापी
स्तर पर विरोध शुरू हो गया। जगह-जगह धरना-प्रदर्शन होने लगे। इस मुद्दे पर माकपा
के अंदर से ज्यादा बाहर बवंडर था। लोगों ने कहना शुरू कर दिया कि उन्हें ‘मुख्यमंत्री के रूप में अच्युतानंदन चाहिए। माकपा
अगर उन्हें चुनाव नहीं लड़ने देगी तो वह मुख्यमंत्री कैसे बनेंगे?’ संयोगवश, उन दिनों इन पंक्तियों का लेखक केरल का
दौरे पर था। चुनाव से पहले ही अच्युतानंदन केरल में लोकप्रियता की लहरों पर सवार
थे। वह कांग्रेस-नीत यूडीएफ से ही नहीं, अपनी पार्टी की ‘नेतृत्वकारी राजनीतिक-नौकरशाही’, जिसकी अगुवाई केरल में हाल के वर्षों में पिनरई
विजयन जैसे नेता करते रहे हैं, से भी जूझ रहे थे। अंततः पार्टी पोलित ब्यूरो को
हस्तक्षेप करना पड़ा और अच्युतानंदन को विधानसभा चुनाव लड़ने की इजाजत मिली। सन
2006 का चुनाव वह पालक्काड के मालापुरम क्षेत्र से लड़े और भारी बहुमत से जीतकर
राज्य के मुख्यमंत्री बने। लेकिन मुख्यमंत्री बनने के लिए उन्हें कई दशकों तक
इंतजार करना पड़ा। इझवा पिछड़े समुदाय से आये अच्युतानंदन ने अपने राजनीतिक जीवन
की शुरुआत अपने इलाके अल्लेपी के मशहूर पुनप्पा-वायलार विद्रोह में हिस्सेदारी से
की थी। तब वह बामुश्किल 14-15 साल के रहे होंगे। ईमानदारी और कर्मठता ने उन्हें
जल्दी ही लोकप्रिय नेता बना दिया। लेकिन पार्टी में उन्हें बार-बार प्रताड़ना
झेलनी पड़ी। कई बार पार्टी के दिग्गजों के कोपभाजन बने तो कुछेक बार लाग-लपेट के
बगैर बोलने की अपनी आदत के चलते भी उन्हें आगे बढ़ने से रोका गया। कम दिलचस्प नहीं
कि सन 2006 के चुनाव के बाद वह राज्य के मुख्यमंत्री बन गये लेकिन एक लोकप्रिय
सरकार के अगुवा होने के बावजूद पार्टी ने उन्हें सन 2009 में पोलित ब्यूरो से बाहर
कर दिया। पार्टी के अंदर उनके विरोधियों को इससे शह मिली और उन्हें मुख्यमंत्री पद
से हटाने का अभियान सा छिड़ गया। बहरहाल, वह पूरे पांच साल मुख्यमंत्री पद पर बने
रहे। फिर सन 2011 के चुनाव मे वही राग फिर से अलापा गया। पार्टी ने पहले उनका टिकट
काटा, अपने निवर्तमान मुख्यमंत्री का। भारी बावेला के बाद फिर पार्टी को झुकना
पड़ा और टिकट दिया गया। वह फिर भारी बहुमत से जीते। उनके चुनाव लड़ने से पार्टी को
ताकत मिली। अनुमान लगाया जा रहा था कि सन 2011 के चुनाव मे माकपा-नीत वाम मोर्चा
की हालत बहुत खराब रहेगी। केरल में आमतौर पर सरकारें हर पांच साल बाद बदलती रहती
हैं। लेकिन इस बार के चुनाव में मोर्चा बहुत अच्छी स्थिति में रहा। महज दो-तीन
सीटों के जुगाड़ से कांग्रेस-नीत यूडीएफ की सरकार बन सकी। माकपा के विरोधियों ने
भी वाम मोर्चे के इस बेहतर प्रदर्शन को अच्युतानंदन की लोकप्रिय़ता से जोड़ा। लेकिन
माकपा के केंद्रीय और स्थानीय नेतृत्व को अच्युतानंदन कत्तई पसंद नहीं। प्रकाश
करात खुलेआम उनके निंदकों का साथ देते रहे। ऐसा लगता है कि कुछ धनवान और
नौकरशाह-अंदाज में संगठन चलाने वाले नेताओं ने केंद्रीय नेतृत्व को भी अपने
प्रभामंडल से आच्छादित कर रखा है। सवाल उठता है, भविष्य में इस पार्टी को
अच्युतानंदन जैसे ईमानदार और जनप्रिय नेता कहां से मिलेंगे, जो स्वयं भी उत्पीड़ित
समाज से आये हों और इन वर्गों के साथ संपूर्ण समाज के दुख-दर्द को अच्छी तरह समझते
हों? जाति और वर्ण को समझने के लिए जातिवादी-वर्णवादी
होने की जरूरत नहीं है। मार्क्सवादी दर्शन की रोशनी में जाति-वर्ण के सवालों को
उसके ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में समझने की जरूरत है। भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन के
इतिहास का एक महत्वपूर्ण दस्तावेज होने के बावजूद ईएमएस नंबूदिरिपाद की आत्मकथा
देश की वामपंथी राजनीति के लिए प्रासंगिक इस तरह के कुछ जरूरी सवालों पर खास रोशनी
नहीं डालती। उस दौर की वामपंथी राजनीति ने इन जरूरी सवालों को हाशिये पर रखा,
इसलिए वामपंथी पार्टियां अपने अपेक्षाकृत समझदार-ईमानदार नेताओं-कार्यकर्ताओं के
बावजूद स्वयं धीरे-धीरे राष्ट्रीय राजनीति के हाशिये पर खिसकती गईं।----इसलिए और
भी जरूरी है कि वामपंथी दल इन सवालों की अब और अनदेखी न करें।
संदर्भः
1*एक भारतीय कम्युनिस्ट की स्मृतियाः ईएमएस नंबूदिरिपाद, ग्रंथशिल्पी,
दिल्ली, वर्ष 2013, पृष्ठ 240.
2* जीवन संग्रामः मणि सिंह(अविभाजित भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के वरिष्ठ नेता, जो बाद में
बांग्लादेश कम्युनिस्ट पार्टी के अध्यक्ष रहे), 1988, पृष्ठ-80-83)
3*-द कम्युनिस्ट पार्टी इन केरलाः सिक्स डिकेड्स आफ स्ट्रगल एंड
एडवांसःईएमएस, 1994, पृष्ठ-86-87
4*-एक भारतीय कम्युनिस्ट की स्मृतियां-ईएमएस, पृष्ठ-138
5*-ए ब्रीफ हिस्ट्री आफ द सीपीआई-थ्रू पार्टी कांग्रेसेजः लेखक-अनिल
राजिमवाले, पीपीएच, पृष्ठ-48
6-एक भारतीय कम्युनिस्ट की स्मृतियां, पृष्ठ-146
7*-वही, पृष्ठ-7
8*-वही, 51
9*-भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की राष्ट्रीय परिषद में पारित प्रस्ताव,
1992
10*-एक भारतीय कम्युनिस्ट की स्मृतियां-ईएसएस, पृष्ठ-85)
11*-‘जनेविः एक अयोग्य छात्र के नोट्स’, समयांतर, नवम्बर, 2013
12*-दैनिक ‘हिन्दुस्तान’, लखनऊ संस्करण, 9 और 10 अक्तूबर, 2011
13* शुक्रवार ( साप्ताहिक
पत्रिका), 28 अक्तूबर-3 नवम्बर,2011
(10 मार्च, 2015)
urmilesh218@gmail.com
संपर्कः 218, वार्तालोक अपार्टमेंट, सेक्टर-4सी, वसुंधरा,
गाजियाबाद-201012. यूपी
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