Friday, 15 May 2015

भारत में मुस्लिम अस्मिता तथा छद्म धर्म-निरपेक्षता का सवाल और शानी



सुनील यादव



16 मई, 1933 को जन्में शानी का पूरा जीवन मुस्लिम अस्मिता तथा छद्म धर्मनिरपेक्षता जैसे बेचैन कर देने सवालों से जूझते हुए बिता । वे अपने बाल्यावस्था में ही देखते हैं कि राष्‍ट्रीय स्‍वयं सेवक संघ सुदर्शन के नेतृत्‍व में हिन्‍दुओं की गोलबंदी शुरू कर चुका है, इसके बरक्‍स मुस्लिम साम्‍प्रदायिक संगठन मुस्लिमों की गोलबंदी शुरू कर चुके हैं । बदरू कसाई मुस्लिम युवकों को लड़ना सिखा रहा है । ऐसे में शानी का बालमन परेशान हो उठता, वो सोचते कि ''मैं  बिल्‍कुल नेक होता तो कितना अच्‍छा होता । क्‍या होता? छोटा-मोटा वली अल्‍लाह । क्‍या करता? सबसे पहले बदरू कसाई और दर्शन भैया को इमली के पेड़ से लटकवाता और कहता बदरू मियाँ, तुम बकरे काटो और लोगों को उनके हाल पर छोड़ दो और दर्शन भैया, उठाओ तुम अपना टांड-टबीला और दफा हो जाओ यहाँ से । यहाँ बहुत सीधे-सादे और एक दूसरे को टूटकर प्‍यार करने वाले लोग रहते हैं, खुदा के लिए उन्‍हें खराब मत करो ।'' ( अभी दिल्‍ली दूर है (हंस फरवरी-1988), पृ.16)
      आजाद भारत में मुस्लिम अस्मिता तथा छद्म धर्म-निरपेक्षता के सवाल से शानी हमेशा टकराते रहे । ग्‍वालियर में पहली बार उन्‍हें यह अहसास हुआ कि इस देश में अल्पसंख्‍यक होना कितना पीड़ादायी है । मकान की तलाश में उन्‍हें आखिरकार मुस्लिम मुहल्‍ले में ही मकान मिल पाया और एक सुबह उन्‍होंने देखा कि कुछ सांप्रदायिक मुस्लिम युवकों ने उनके दरवाजे के सामने गाय का गोश्‍त और कुछ हड्डियाँ इसलिए फैला दी थीं कि ये मकान छोड़कर भाग जाएं । दरअसल वे शरारती तत्‍व इन्‍हें साहनी नामक कोई पंजाबी हिंदू समझते थे । उधर शानी के लिए मकान खोजते एक महाराष्‍ट्रीय सज्‍जन भी शानी को हिंदू समझते थे, जब शानी ने कहा कि मकान 'मुस्लिम मुहल्‍ले में न हो तो बेहतर होगा ।' इस पर उस सज्‍जन ने कहा ''डरने की कोई बात नहीं । आप बिल्‍कुल मत डरिए । यहाँ साले मियाँ लोगों को इतना मारा, इतना मारा है कि आँख उठाने की भी हिम्‍मत नहीं रही... ।'' (एक शहर में सपने बिकते हैं-शानी, पृ. 45) जगदलपुर से ग्‍वालियर आने पर शानी को पहली बार हिन्‍दुस्‍तान के इस कड़वे सच का भान हुआ । वे लिखते हैं कि ''न रोजा, न नमाज, न हज, न जकात- फिर भी मुस्‍लमान । सिर्फ इसलिए कि जिसके वसिले से तुम्‍हारी पैदाइश हुई उसने रिवाज के मुताबिक तुम्‍हें एक नाम दे दिया और तुम्‍हारी जात तय हो गयी । वल्दियत तुम बदल नहीं सकते थे लिहाजा नाम बदल लिया । तुम सोचते थे कि शानी जैसे दो अक्षरों के एक छोटे से नाम में तुम अपने आपको छिपा लोगे । लेकिन वल्दियत और जात के साथ तुम्‍हारे मुसलमानी नाम ने तुम्‍हारा पीछा नहीं छोड़ा ।'' ( अभी दिल्‍ली दूर है (हंस, फरवरी 1988) पृ. 18)  राजेन्‍द्र यादव ने इस संदर्भ में लिखा है कि ''शानी की यह यात्रा 'गुलेशेर खाँ' से शानी और फिर 'गुलशेर खाँ शानी' बन जाने की यात्रा है । यानी पहले वह मुसलमान था, फिर इस सांचे को तोड़कर लेखक बना, मगर धीरे-धीरे सिर्फ मुसलमान हिंदी लेखक बन कर रह गया ।''   
      छत्तीसगढ़ के एक अखबार ने खबर उड़ा दी थी कि शानी सी. आई. ए. के एजेंट हैं । इस पर शानी ने लिखा है कि ''तुम इतने बड़े कारीगर हो, यह खुद नहीं जानते थे । ग्‍वालियर में तुम पाकिस्‍तानी जासूस थे और भोपाल पहुँचकर सी.आइ.ए.के एजेंट हो गये ।'' (अभी दिल्‍ली दूर है (हंस, फरवरी 1988) पृ. 17) यही हिंदुस्‍तानी मुसलमान का कड़वा सच है, जिसके उत्तर में शानी बेहद पीड़ा से लिखते हैं कि ''मैं हिंदू होता तो कितना अच्‍छा होता, तुम सबसे छिपाकर चुपचाप सोचते थे । क्‍या करता? जरूरत क्‍या थी-बस हो जाना ही काफी था ।'' (अभी दिल्‍ली दूर है (हंस, फरवरी 1988) पृ. 17)  जब मध्‍यप्रदेश में श्‍यामाचरण शुक्‍ल मुख्‍यमंत्री हुए, तो मध्‍य प्रदेश साहित्‍य परिषद के सचिव पद से हटाने के लिए एक बार फिर शानी को सी.आई.ए. का एजेंट कहा गया । ये सारी परिस्थितियाँ शानी को अल्‍पसंख्‍यक होने तथा उनकी असुरक्षा-भावना, दहशत से उनका एक दूसरे से चिपके रहने, हमेशा शक और संदेह की तेज रोशनियों के बीच घिरे होने के अहसास से दो-चार करा रही थीं । अल्‍पसंख्‍यकों की भारतीय अस्मिता के सवाल पर शानी और राही मासूम रज़ा दोनों बहुत ही गुस्‍से से जवाब देते हैं। राही आधा गाँव की भूमिका में लिखते हैं कि “जनसंघ का कहना है कि मुसलमान यहाँ के नहीं हैं । मेरी क्‍या मजाल की मैं झुठलाऊँ । मगर यह कहना ही पड़ता है कि मैं गाजीपुर का हूँ । गंगौली से मेरा अटूट संबंध है । वह एक गाँव ही नहीं । वह मेरा घर भी है ।...और मैं किसी को यह हक नहीं देता कि वह मुझसे यह कहे, राही! तुम गंगौली के नहीं हो ।'' (आधा गाँव-रही मासूम रज़ा पृ.  303) शानी कहते हैं कि ''मैं भी नहीं मानता कि मेरे पुरखे कहीं ईरान-तूरान से आये होंगे, वे वहाँ बस्‍तर के जंगलों में कहाँ ऐसी तैसी कराने पहुँचते? हो सकता है वे हिंदू ही रहे हों । मगर तीन पीढ़ियों से मैं मुसलमान हूँ और वही बने रहना चाहता हूँ । यह मुल्‍क, यह जबान, यह राष्‍ट्र सिर्फ उनके बाप का नहीं, मेरा भी उतना ही है जितना उनका । मैं उनकी शर्तों और कृपा पर यहाँ का नागरिक नहीं हूँ । क्‍यों खत्‍म कर दूँ मैं अपनी आइडैंटिटी...? सिर्फ इसलिए कि मैं अल्‍संख्‍यक हूँ...मुझसे क्‍यों मांग की जाती है कि मैं हर बार अपने को साबित करूँ जो वो चाहते हैं?'' (शानी, आदमी और अदीब (सं.)-जानकी प्रसाद शर्मा, पृ. 14)
स्वातंत्रयोत्तर भारत में एक खास तरह की अवसरवादी नस्‍ल उभरी है जिसने धर्मनिरपेक्षता की एक अजीब परिभाषा गढ़ ली है । उसके लिए सेक्‍युलर हिंदू या अच्‍छा मुसलमान बनने के लिए हिंदू को हिंदू-विरोधी या मुसलमान को मुसलमान-विरोधी होना जरूरी है । मुसलमान का मुस्लिम विरोधी और हिंदू का हिंदू विरोधी होना आडंबर छल और मुखौटा जिस बात को शानी शिद्दत से महसूस कर रहे थे । भारत पाकिस्‍तान  के युद्ध के दौरान वे पीड़ा से गुजर रहे थे । उन्‍होंने लिखा ''मेरी ट्रेजडी यह थी कि युद्ध ने मुझे खामोश और उदास कर रखा था । न तो मेरे मन में तमाशबीनों जैसा जोश और उत्‍साह था और न रस लेने वाली प्रखरता । अगर यह सब न होता और मेरी जेब में उफनती हुई राष्‍ट्रीयता और देशप्रेम का झुनझुना होता तो भी काफी होता, लेकिन बदकिस्‍मती से वह भी नहीं था । अगर आप भारतीय मुसलमान हैं और चाहते हैं कि आपकी बुनियादी ईमानदारी पर शक न किया जाय तो यह झुनझुना बहुत जरूरी है ।'' (एक शहर में सपने बिकते हैं, शानी, पृ. 46) इसी समस्‍या को आधार बनाकर शानी ने 'युद्ध' और 'जनाजा' नामक कहानियाँ लिखीं । जनाजा कहानी का एक पात्र शंकरदत्त, शानी के प्रिय पात्र वसीम रिजवी से सवाल करता है कि ''तुम्‍हें पता है तुम अकेले पड़ते जा रहे हो?...और यह भी पता है कि मुसलमान तुम्‍हें काफिर समझते हैं । इसके जवाब में रिज़वी कहता है 'हाँ यह भी पता है कि मुसलमान मुझे काफिर समझते हैं और हिंदू यह समझते हैं कि मैं...लेकिन क्‍या आदमी सिर्फ स्‍याह और सफेद ही होता है? ऐसा नहीं कि दोनों के बीच कई-कई रंग घुले हो? कई पल रुक कर दत्त ने कहा था, 'क्‍या यह जरूरी है कि जो रंग आपका भीतर से हो वह बाहर भी दिखाया जाये?' 'दत्त जी, अगर यह जरूरी नहीं तो हिप्पोक्रेसी और ईमानदारी में क्‍या फर्क हुआ?' रिज़वी ने कहा था, 'कुरैशी और मुझमें क्‍या फर्क हुआ?'' (प्रतिनिधि कहानियाँ, शानी, पृ. 90) कुरैशी इस कहानी का ऐसा पात्र है जो सामूहिक बातचीत के दौरान देश और राष्‍ट्रीयता की बात करता है ''तुम आदमी हो या मुसलमान यह उसका ऐसा तकिया कलाम था, जिससे वह अपने हिंदू दोस्‍तों को खूब हँसाया करता था ।'' (प्रतिनिधि कहानियाँ, शानी, पृ. 91) हिंदुओं को खुश करने के लिए वह ओलम्पिक टूर्नामेंट में पाकिस्‍तान की पराजय पर मिठाई बाँटता है । रिज़वी की नजर में कुरैशी का यही आचरण हिप्‍पोक्रेसी की श्रेणी में आता था । जितना रिज़वी इस हिप्‍पोक्रेसी से नफरत करता है उतना ही शानी भी । शानी ने इसी हिप्‍पोक्रेसी के लिए राही मासूम रज़ा की आलोचना करते हुए कहा था कि ''प्रखर सामाजिक दृष्टि और सोद्देश्‍य चेतना से युक्‍त होने के बावजूद उनके बहुत कम पात्र जिन्‍दगी के उस व्‍यापक स्‍तर पर भय और अपने अंतर्विरोधों से मुठभेड़ करते दिखाई देते हैं जिनसे आज का भारतीय मुसलमान अपनी वास्‍तविक जिन्‍दगी में दो चार हो रहा है । बदकिस्मती से वे 'कुरैशी' जैसे पात्रों को बहुत प्रमुखता से चित्रित करते हैं ताकि वे एक व्‍यापक स्तर पर हिंदू सांप्रदायिकता को गुदगुदाएं और वे लोग खुश हों । संभवतः इसीलिए वे मुझसे ज्‍यादा लोकप्रिय हैं, क्‍योंकि जिस वर्ग को वे खुश करते हैं, मैं उसे नाराज करता हूँ ।'' (सब एक जगह (दूसरी जिल्‍द)-शानी, पृ. 3) यह छद्म धर्मनिरपेक्षता ''विभाजित भारत में मुसलमान के लिए यह बहुत चमकीला अभेद कवच होता हैा उस पर कोई संदेह नहीं करता वह सेक्‍युलर कहलाने लगता है ।...सेक्‍युलर क्‍या होता है? क्‍या इस सेक्‍युलर की सजावट के बगैर क्‍या कोई गैर सांप्रदायिक सोच नहीं होती?'' (नैना कभी न दीठ-शानी, पृ.4) इन सभी सवालों से शानी एक योद्धा लेखक की तरह अपनी रचनाशीलता और जीवन दोनों में दो चार होते रहे, इसलिए शानी को पढ़ना उस हिंदुस्तान को पढ़ना  है जो आज भी इन सवालों से जूझ रहा है ।

Wednesday, 13 May 2015

प्रगतिशीलता के पक्ष में वैचारिक मोर्चाबंदी



      सुनील यादव  


अभिव्यक्ति के तमाम खतरों के साथ प्रगतिशीलता के पक्ष में खड़े वीरेंद्र यादव एक ऐसे आलोचक हैं, जो यह मानते हैं कि साहित्य में हाशिये के समाज की केन्द्रीयता के द्वारा ही साहित्य के जनतान्त्रिककरण की प्रक्रिया पूरी हो सकती है । साहित्यक कुलीनतावाद एवं आस्वादपरक मूल्यों का प्रत्याख्यान उनकी आलोचना दृष्टि का संदर्भ बिन्दु रहा है। वे पहले पत्रकारिता से जुड़े उसके उपरांत साहित्य समीक्षा के क्षेत्र में आए। पत्रकारिता और साहित्य समीक्षा की यह आवाजाही उनके चिंतक व्यक्तित्व को समृद्ध करती है। उनकी नई किताब प्रगतिशीलता के पक्ष में उनकी इस आवाजाही का पुख्ता प्रमाण है। उपन्यास और वर्चस्व की सत्ता के बाद यह उनकी दूसरी पुस्तक है, जिसमें अलग-अलग काल खंड में लिखे गए उनके लेख संग्रहीत हैं। इस किताब के संदर्भ में  यहाँ यह बताना भी जरूरी हो जाता है कि  प्रगतिशीलता का अर्थ यहाँ सिर्फ मार्क्सवादी विचार  तक सीमित न होकर इसका फैलाव उन लेखकों तक भी है जो गैर मार्क्सवादी होते हुए भी समाज कि प्रतिक्रियावादी ताकतों से संघर्ष करते रहे हैं। अपने वैचारिक पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर दुनिया भर के विभिन्न विचार सरणियों वाले उन लेखको के पक्ष में लिखना जो अपने लेखन में जन पक्षधर रहे हैं, वीरेंद्र यादव को रूढ मार्क्सवादी आलोचक की अपेक्षा गहरे अर्थो में सर्जनात्मक मार्क्सवादी चिंतक/आलोचक बनाता है । वे अपने इसी मार्क्‍सवादी आलोचना दृष्टि से साहित्‍य परम्‍परा की पहचान तथा विश्‍लेषण के लिए विश्‍वसनीय आधार तलाशते हैं। उन्होने जिस तरह  हिन्दी आलोचना की  कुलीन अभिजनवादी कलात्मक दृष्टिकोण का क्रिटिक पेश करते हुए,  नए कैनन फारमेशन की शुरुवात की और हिन्दी उपन्यासों का सबाल्टर्न अध्ययन प्रस्तुत किया, वह हिन्दी आलोचना के क्षेत्र में बेहद महत्वपूर्ण है।  इस सबाल्टर्न दृष्टि को उत्तर-मार्क्सवादी दृष्टि के रूप में ग्रहण करने के कारण ही वे रामविलास शर्मा जैसे मार्क्सवादी आलोचक के लेखन में ब्राहमणवाद के प्रति नरम रुख की शिनाख्त करते हुए,  मैला आँचल और  गोदान पर लिखे उनके लेखों की सीमाओं का रेखांकन कर पाए , वे लिखते  हैं कि रामविलास जी की  साँचे में ढली वर्गीय समझ मैला आंचल को समझने में नाकाफी लगती है और सबाल्टर्न पद्धति मददगार सिद्ध होती है। भारतीय समाज को समझने की वीरेंद्र जी की दृष्टि इकहरी नहीं है । वे भारतीय समाज के वर्ग और वर्ण  के विभाजन को स्वीकार करते हुए उसके जातिगत वर्गिकरण को ज्यादा जटिल मानते हैं, जिसकी हदें  धर्म के भी पार चली गई हैं। भारतीय समाज की अपनी इसी मौलिक समझ के कारण वे कहते हैं कि यह विडम्बना ही है कि भारत के बदलते आर्थिक, सामाजिक स्वरूप के चलते जातियों का पेशागत विभाजन जहाँ दिनो दिन अनुत्पादक और अर्थहीन होता जा रहा है, उतनी ही जाति व्यवस्था कि जकड़न ज़ोर पकड़ती जा रही है। वे रचना को देश-काल के वृहत्तर सरोकारों से काटकर महज रूपवादी ढांचे एवं भाषाई कौशल की अस्वादपरक बहस तक  केन्द्रित कर देने वाली दृष्टि की क्रिटिक पेश करते हुए  प्रसिद्ध समाजशास्त्री श्यामाचरण दुबे की उस मांग का समर्थन करते हैं,  जिसमें उपन्यास को महज साहित्यिक सरंचना न मानकर सामाजिक सरंचना के रूप में पढे जाने का आग्रह है ।  आज जब साहित्य की सामाजिक भूमिका पर सवाल खड़े किए जा रहे हों और आस्वादपरकता को साहित्यिक कसौटी बनाने की कोशिशें तेज हों तब क्या होती है आलोचना कि चुनौतियाँ ?, इस संदर्भ में वीरेंद्र यादव के लेख आज की आलोचना के समक्ष चुनौतियाँ और साहित्य को सामाजिक परिप्रेक्ष्य से काटने की चालाकियाँ महत्वपूर्ण हैं। वे कहते हैं कि आज आलोचना की सबसे बड़ी चुनौती साहित्य को सामाजिक संदर्भ प्रदान कर उसे नई अर्थवातता देने की है, न की उसे महज साहित्यिक गढ़ंत बनाकर आस्वाद की वस्तु बनाने की।
      वीरेन्द्र यादव प्रेमचंद के गहरे अध्येता हैं।  गोदान पर उनका  लेख औपनिवेशिक, सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और भारतीय किसान: संदर्भ गोदान काफी चर्चित हुआ और इसे गोदान का  एक मुक्कमल पाठ भी माना जाता है । इस किताब के लेख प्रेमचंद और किसान’, किसान आंदोलन के दौर में गोदान’, और कहाँ है प्रेमचंद की परंपरा  उनके इसी अध्ययन का विस्तार है । तत्कालीन समय में किसानों की समस्याओं को प्रेमचंद कितनी सिद्द्त से समझ रहे थे, और उसपर लेखन कार्य कर रहे थे,  उसे हम वीरेंद्र यादव का लेख प्रेमचंद और किसान को पढ़ते हुए महसूस कर सकते हैं, वीरेंद्र यादव लिखते हैं कि “प्रेमचंद अपने कथा- वृतांत में इस तथ्य को भी रेखांकित करते हैं कि अंग्रेजी सरकार एवं जमींदार के गठजोड़ द्वारा इतनी निर्दयता से लगान वसूली और बेदखली की कार्यवाही की जाती थी वह भूमि की बेहतरी या उसे और उर्वर बनाने में कोई भूमिका नहीं निभाता था .......औपनिवेशिक भारत में कर्ज और भूमि के अन्योन्याश्रित संबन्धों पर भी प्रेमचंद गहराई से विचार करते हैं...भू प्रबंधन की जमीदारी व्यस्था का क्रिटिक रचते हुए प्रेमचंद ने किसानों की समस्या के बरक्स भूमि सुधार संबंधी कई सुझाव दिए थे.....वे अपने उपन्यासों में स्वयं को जमीन का मालिक समझने वाले जमींदारों के दलाल चरित्र का तो पर्दाफास करते हैं, जमींदार-महाजन और अंग्रेज़ की दुरभिसंधि की भी कलई खोलते हैं ।” इस तरह की न जाने कितनी किसान समस्याएँ हैं जिस पर प्रेमचंद ने विपुल लेखन किया है। आज जब हम प्रेमचंद की विरासत पर बात कर रहे हैं तो यह सोचने की जरूरत है कि बदली हुई परिस्थितियों में होरी, बलराज,और कादिर का संघर्ष आज भी जारी है। मनोहर और गिरधारी की तर्ज पर आज भी किसान अत्महत्या करने को विवश हैं । किसान सभाओं के बावजूद किसान समस्या पूरी विकरालता में आज भी मौजूद है । .....आज प्रेमचंद की विरासत की  लंबी पांत के बावजूद बहुत कुछ अनकहा रह गया है। जरूरत है उसे कहने की। क्या प्रेमचंद के वारिस इसे सुन रहे हैं !!!’(प्रगतिशीलता के पक्ष में )  
      प्रेमचंद का जब कुपाठ प्रस्तुत करके रंगभूमि की प्रतियाँ जलाई जा रही थीं, मुद्रराक्षस को प्रेमचंद सवर्ण मानसिकता से ग्रस्त दलित विरोधी नजर आने लगे थे,  जब विजय मोहन सिंह अज्ञेय के शेखर को हिन्दी उपन्यास का सत्ता और व्यवस्था विरोधी नायक करार दे रहे थे।  निर्मल वर्मा शेखर को स्वाधीन व्यक्तित्व का सबसे सशक्त प्रतिनिधि प्रतीक मान रहे थे।  जब नन्दकिशोर नवल प्रेमचंद की परंपरा से अज्ञेय और जैनेद्र की बेदखली से दुखी हुए जा रहे थे  तथा एक वर्ष पूर्व प्रेमचंद के उपन्यास के निर्मला को पाठ्यक्रम से निकालने का प्रयास करने वाले भगवाधारियों को  प्रेमचंद के इस अपमान की चिंता सताने लगी थी।  उसी समय प्रेमचंद के पक्ष में मोर्चा संभालते हुए वीरेन्द्र यादव ने तद्भव-11 में कुपाठ और विरोध के शोर में प्रेमचंद नाम से एक लंबा तर्कपूर्ण प्रतिवाद लिखते हुए बहुत क्षोभ के साथ  कहा था कि  गोदान के होरी को पंडित दातादीन ने खेत, जमीन जायदाद से बेदखल किया था, आज हिंदी साहित्य के महापंडितों द्वारा होरी को साहित्य से बेदखली करने की तैयारी है। हिंदी साहित्य में शेखर का नायकत्व होरी की बेदखली ही है । अफसोस यह कि होरी की इस बेदखली में इस बार पंडित दातादीन के साथ गोदानके हरखू चमार के कुछ संगी साथी भी हैं। यह दृश्य अत्यंत क्षोभकारी व दुर्भाग्य पूर्ण है ।’(तद्भव-11, 2004) इस किताब में संकलित लेख प्रेमचंद और प्रगतिशील मूल्य’, कहाँ है प्रेमचंद की परंपरा  तथा दलित चेतना और हिंदी साहित्य को इसके आगे की कड़ी के रूप में पढ़ा जा सकता है।   
      वीरेंद्र यादव के लेखन की एक खास विशेषता यह रही है कि उन्होने परंपरा से विद्रोह करने वाले उन लेखको को याद किया जिंहे लोग अपने वैचारिक पूर्वाग्रहों के कारण या तो याद नहीं करना चाहते या भूल जाते हैं । नीरद सी चौधरी और एलेन गिन्स बर्ग पर उनके लेख इस दृष्टि से महत्व के हैं। तन से भारतीय मन से अंग्रेज़,आजीवन ब्रिटिश साम्राज्यवाद की पैरवी करने वाले, अपने लेखन में खासे विवादित रहे नीरद सी चौधरी को वे एक गुमनाम भारतीय का महाप्रयाण नामक लेख में याद करते हुए लिखते हैं कि “अंग्रेज़ियत से उनका यह एक तरफा इश्क बौद्धिक दुनिया की एक ऐसी रोचक विडम्बना व त्रासद दास्तां है, जो लंबे समय तक याद की जाएगी। लेकिन दुखद यह है कि गोरे बौद्धिकों की जिस दुनिया ने इस भूरे अंग्रेज़ को आजीवन पांत बाहर कर रखा था, मृत्यु के बाद भी वह अँग्रेजी समाज की सुर्खियों का हकदार न बन पाया।.....भारतीय देह से मुक्ति पाने के बाद भी क्या नीरद बाबू की अंग्रेज़ आत्मा अंग्रेजों के इस व्यवहार पर बेचैन रहेगी !!!”
      साठ के दशक के सर्वाधिक चर्चित अमेरिकन कवि और बीटनिक पीढ़ी के प्रणेता  एलेन गिन्सबर्ग को याद करते हुए वीरेंद्र यादव एलेन गिन्सबर्ग: परंपरा के विरोध में एक चीख नामक लेख में लिखते हैं कि गिन्सबर्ग  अपनी कविता एवं जीवन में परंपरा निषेध के साथ-साथ चौकने वाली प्रवृत्ति को भी अपनाते दिखते थे । कविता में देह और वर्जित शब्दों का मुक्त प्रयोग एवं जीवन में साधुओं भिखारियों,कोढ़ियों, एवं लुम्पेन सर्वहारा का संसर्ग उनकी इसी शैली का परिणाम था। यद्यपि वे जब-तब अपनी कविता एवं  जीवन शैली का सिद्धान्त-शास्त्र भी गढ़ते थे। कविता को पारंपरिक लेखन से मुक्त करके वे वाचिक काव्यशास्त्र को गढ़ने में विश्वास रखते थे, सायद इसीलिए तंत्र-मंत्र की परंपरा उन्हे विशेष रूप से आकर्षित करती थी। सच तो यह है की गिन्सबर्ग स्वयं एक फेनामेना थे, जिससे उनकी कविता को अलगाया नहीं जा सकता।
      आज जब कुछ जनवादी आलोचक साहित्य के प्रश्न को जीवन के प्रश्न से काटकर कर अज्ञेय पथ के अनुगामी हो रहे हैं, तथा मंचो से राजकमल चौधरी और धूमिल को एक ही खांचे में घुसेड़ देने की साजिस रची जा रही है, तो ऐसे समय में मुक्तिबोध की तरह साहित्य के प्रश्न को जीवन का प्रश्न मानने वाले कवि धूमिल पर लिखते हुए, वीरेंद्र यादव द्वारा धूमिल और राजकमल चौधरी के दृष्टि में किए गए इस फर्क को ध्यान से देखने की जरूरत है- “यह ध्यान देने योग्य तथ्य है कि राजकमल चौधरी और धूमिल दोनों का ही पूंजीवादी लोकतन्त्र से मोहभंग हो चुका था । लेकिन इस समानता के बावजूद दोनों में लोकतन्त्र से मोहभंग की परिणति अलग और भिन्न है। जहां राजकमल चौधरी का लोकतन्त्र से मोहभंग उन्हे गांजाखोर साधुओं, अफीमची, रंडियों व भिखमंगों के मसानों में ले जाता है, वहीं धूमिल मुनासिब कार्रवाई के रूप में व्यापक जनता से जुड़ने की बात कुछ यूं करते हैं, अकेला कवि कटघरा होता है/ इससे पहले की वह तुम्हें/ सिलसिले से काटकर अलग कर दे/ कविता पर/ बहस शुरू करो/ और शहर को अपनी ओर झुका लो। शहर को अपनी ओर झुकाने का यह उद्बोधन ही धूमिल को राजकमल चौधरी से अलग करता हुआ निराला और  मुक्तिबोध की समृद्ध काव्य परंपरा से जोड़ता है, जिसकी काव्य चिंता के केंद्र में भारतीय समाज का साधारण जन है।”
      एक दौर में  जब  कुछ सठोत्तरी लेखक अपने लेखों और संस्मरणों में अमर्यादित एवं असांस्कृतिक भाषा के प्रयोग से धूम मचाए हुए थे, उसी समय कृष्ण सोबती की कहानी ए लड़की को अपनी कथा- परंपरा की श्रेष्ठतम उपलब्धि बताया जा रहा था। ठीक उसी समय वीरेंद्र यादव ने ए लड़की के बहाने’(मार्च 1992) शीर्षक लेख में यह सवाल उठाया था कि “कहानी में बेटी की आत्म- केन्द्रीयता, अकेलापन तथा पहचान का संकट व्यापक नारी प्रश्नों से न जुड़कर एक वैयक्तिक संकट के रूप में प्रस्तुत होता है ।  एक खास अर्थ में लड़की का यह लिबरेटेड चरित्र अभारतीय, अराजक, समाज विरोधी तथा नारीत्व का नकार बनकर रह जाता है। निपट अकेलेपन में नारी अस्मिता की खोज का आस्तित्ववादी प्रत्यारोपण भारतीय समाज में न तो स्वीकार्य है और ना ही प्रासंगिक । फिर भला यह कहानी अपनी कथा- परंपरा की श्रेष्ठतम उपलब्धि कैसे करार दी जा सकती है?......यह हिंदी कहानी का दुर्भाग्य है कि वह परिन्दे के शाप से मुक्त भी नहीं हुई थी की उस पर ए लड़की का ग्रहण लग गया । सोचने की बात यह है कि क्या सोच की दरिद्रता भाषा की अश्लीलता से क्या कुछ कम भयावह है ?”
      साहित्य के क्षेत्र में जब यह सवाल उठने लगा था कि क्या मार्क्सवादी राजनीति और चिंतन के हाशिये पर पहुँच जाने के बाद भी यशपाल की प्रासंगिकता बनी रहेगी? इसके उत्तर में वीरेंद्र यादव अपने  लेख यशपाल : आज भी प्रासंगिक हैं  में कहते हैं कि  जिसका जीवन भगत सिंह, आजाद, सुखदेव आदि मिथकीय व्यक्तित्वों के साथ  क्रांतिकारी आंदोलन का सैद्धांतिक पक्ष प्रस्तुत करता हुआ बिता हो।  जिसने भगत सिंह के साथ बम का दर्शन सरीखा पम्पलेट लिखा हो, जिसने अंग्रेज़ वाइसराय की ट्रेन के नीचे बम रखकर छह वर्ष की सजा काटी हो, जिसने गांधीवाद की शव परीक्षा जैसी पुस्तक लिखकर गांधी के जीवन काल में ही उन्हे वैचारिक चुनौती दी हो और सबके साथ जो झूठा सच जैसी महान औपन्यासिक  कृति का लेखक रहा हो ....जिसके जीवन का विस्तार  बंदूक से लेखनी तक हो, ऐसे रचनाकार की  प्रासंगिकता के प्रश्न को विचारधारा के तात्कालिक पराभव या उठान से जोड़कर नहीं देखना चाहिए । मार्क्सवादी चिंतन या राजनीति का आज जो भी हश्र हो, लेकिन इतिहास के पन्नों में उसकी निशानदेही बरकरार रहेगी।”
      आज के समय में जब भ्रष्टाचार उन्मूलन की बहस जारी है तब राग दरबारी को नेहरू युगीन सर्वनाकारवादी अनास्था की उपज मानने वाले वीरेंद्र यादव एक बार फिर श्री लाल शुक्ल की स्मृति के बहाने  सर्वनकारवादी व अनास्था के दौर का रोचक वृतांत के रूप में उसे याद करते हुए उचित ही लिखते हैं कि “...राग दरबारी का शिवपालगंज तो महज एक बीज था, यह बीज आज विष-बेल के रूप में देश को विषाक्त कर रहा है, उसका निवारण किसी एक जन लोकपाल के सामर्थ्य से बाहर है।”    
       इस पुस्तक में प्रगतिशील लेखन आंदोलन पर दो अत्यंत महत्वपूर्ण लेख हैं।  एक  प्रगतिशील आंदोलन की दशा  और दिशा जो सर्वप्रथम हंस जनवरी, 1987  में तथा दूसरा प्रगतिशील लेखन आंदोलन के 75 वर्ष हंस अगस्त 2011के अंक  में प्रकाशित हुआ । इनके प्रकाशन के साथ ही बहसों का  लंबा सिलसिला चला। ऐसे समय में जब प्रगतिशील लेखक संगठनो पर सवाल उठाया जा रहा हो तो इन दोनों लेखों को प्रगतिशील लेखन आंदोलन के आलोचनात्मक इतिहास के तौर पर पढ़े जाने की जरूरत है । और उन गलतियों से सबक लेने की भी जरूरत है, जिनसे यह लेखन आंदोलन कमजोर हुआ । इसी अर्थ में इन  लेखों का  अपना ऐतिहासिक महत्व भी है ।
      आज के समय में जब अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता पर खतरे दरपेश हैं तथा दुनिया भर के देशों में अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता को लेकर बहस जारी है, ऐसे समय में वीरेंद्र यादव के लेख और तसलीमा भी प्रतिबंधित’, ‘अब तमिल अस्मिता भी कार्टून से आहत’, आरक्षण और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता बहुत ही महत्वपूर्ण हैं जब  गुंटर ग्रास जैसे कवि को उनकी कविता जो कहना जरूरी था के प्रकाशन के साथ ही जब उनके इज़राइल प्रवेश पर पाबंदी लगाते हुए उनसे नोबल पुरस्कार वापस लेने की मांग हो रही थी उसी समय इस प्रसंग पर वीरेंद्र यादव ने अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का संदर्भ लेते हुए  कविता से डरा हुआ देश’,नामक लेख लिखा। वे कहते हैं कि गुंटर ग्रास की इस कविता का सबसे बड़ा निहितार्थ यही है कि यहूदी विरोधी कहे जाने का जोखिम उठाकर भी उन्होने समूची दुनिया के युद्ध के कारोबार पर उँगली उठा दी है ।   भारतीय दण्ड संहिता का देशद्रोह जैसा  प्रावधान, जिसका इस्तेमाल हाशिये के समाज के प्रतिरोधी तेवर को दबाने के लिए किया जाता रहा है, की आलोचना वीरेंद्र यादव हाशिये का प्रतिरोध और राष्ट्रद्रोह नामक लेख में करते हुए कई महत्वपूर्ण सवाल उठाते हैं।   
      पाआलो फ्रेरे शिक्षा की भूमिका का विश्लेषण करते हुए कहते हैं कि शिक्षा कोई निरापद क्षेत्र न होकर शासक वर्ग के नीतियों का महत्वपूर्ण हिस्सा होती है। शासक वर्ग यह तय करता है कि शिक्षा किसे दी जाए यानी समाज के कौन से हिस्से तक शिक्षा सीमित रखी जाए, कितनी शिक्षा दी जाए और क्या शिक्षा दी जाए। यह ऐतिहासिक तथ्य है कि शासक वर्ग ने शिक्षा को पूरी तरह अपने कब्जे में रखा। धर्म का राजनैतिक इस्‍तेमाल करती हुई भारतीय जनता पार्टी 1998 तथा 1999 में सत्ता में आई ।   उसने एन.डी.ए. अर्थात राष्‍ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन का नेतृत्‍व किया ।   भाजपा ने शिक्षा के सांप्रदायीकरण करने में कोई कसर नहीं छोड़ी ।   इतिहास की पाठ्य-पुस्‍तकों से छेड़छाड़ कर उसका भगवाकरण करने की कोशिश की गई ।   एन.सी.ई.आर.टी. की इतिहास के पुस्‍तकों से उद्धरण हटाए जाने लगे ।   इसका पर्याप्‍त विरोध भी हुआ ।   ''पाठ्य पुस्‍तकों के सांप्रदायीकरण के दूरगामी परिणाम निकले ।  गुजरात में सांप्रदायिक हिंसा ने इसे साबित कर दिया ।  ... उदाहरण के लिए नवीं कक्षा के लिए गुजरात राज्‍य समाज अध्‍ययन के पाठ में बताया गया कि अल्‍पसंख्‍यक विदेशी हैं । (आजादी के बाद का भारत, विपिन चंद्र, पृ. 630)यहाँ ऐसी पुस्‍तके तैयार की गई जिनमें मुसलमानों को राक्षसों के रूप में पेश किया गया । आज भी शासक वर्ग अपने खास एजेंडे के तहत इस तरह का कार्य कर रहा है। वीरेंद्र यादव ने दो लेखों  मार्क्स और एंगेल्स की क्या जरूरत?’ तथा प्रेमचंद और प्रगतिशील मूल्य में इन्ही सवालों की पड़ताल करते हुए स्टेट के इस तरह की खतरनाक दृष्टि को प्रश्नांकित किया हैं ।        
      आज की प्रगतिशील आलोचना की मिजाज पर बात करें तो लगभग आज भी वही हालात हैं जैसा कि मुक्तिबोध ने अपने समकालीन प्रगतिशील आलोचना के रवैये से छुब्ध होकर समीक्षा की समस्‍याएं नामक अपने लेख में लिखा था कि प्रगतिशील आलोचकों की उस समय की आलोचना की प्रवृत्ति ध्‍वंसात्‍मक थी, दृष्टि संकीर्णतावादी और तरीका स्‍थूल। फलत: रचनाकार आलोचकों से दूर होने लगे। ऐसी स्थिति में नई कविता के कलावादी व्‍यक्तिवादियों द्वारा प्रगतिशील रचनाशीलता पर आक्रमण हुए।' साथ ही मुक्तिबोध ने यह साफ तौर पर कहा था कि प्रगतिशील आलोचना की अपनी आंतरिक कमजोरियों के कारण शीतयुद्ध प्रेरित कलावादी समीक्षकों को प्रगतिशील रचनाकारों पर हमले का स्पेश मिला। मैं समझता हूँ कि आज के संदर्भ में भी मुक्तिबोध की इन बातों पर विचार किया जाना चाहिए। जब कुछ दिन पहले संपूर्ण मानवता को सी. आई. ए. के ऋणी होने की नसीहत दी जा रही थी, तो कुछ प्रगतिशील आलोचक भी धूम-धाम से उस बारात में शामिल हुए, इस मुद्दे के प्रतिरोध के तौर पर  वीरेंद्र यादव ने जब कथादेश में सी. आई. ए. ऋण बनाम अज्ञान का अंधेरा” नाम से लेख लिखा तो उनके खिलाफ खड़े होने वालों में कलावादियों के साथ कुछ प्रगतिशील आलोचना के चेहरे भी थे, और सबसे घृणाष्पद स्थिति तो तब हुई जब वीरेंद्र यादव के इस लेख के जवाब में कवि कमलेश का एक अहंकार और सामंती दर्प से चूर लेख छपा, उसका जितना विरोध होना चाहिए था वह नहीं हुआ। ठीक यही स्थिति उदय प्रकाश पर शुक्रवार में लिखे उनके लेख को लेकर भी हुई थी। मुक्तिबोध प्रगतिशील समीक्षा के विखराव को जिस रूप में महसूस कर रहे थे वह स्थितियाँ आज भी उपस्थित हैं, वे सवाल आज भी उपस्थित हैं और प्रगतिशीलता के पक्ष में वीरेंद्र यादव का चिंतन और लेखन पूरी गंभीरता और नई ऊर्जा के साथ जारी है।

जनता का डाक्टर: जिसने विभेद से भरे हुए समाज का इलाज भी जरुरी समझा

 सुनील यादव  डाक्टर शब्द का का नाम आते ही एक ऐसे प्रोफेसनल व्यक्ति का अक्स उभरता है जो खुद के लिए बना हो. चिकित्सा के क्षेत्र में चिकित्सक क...