Friday 28 September 2018

लोहिया और आज का भैया मार्का समाजवाद


आज मैं लोहिया रचनावली खंड 3 के एक बेहद चर्चित लेख ‘सत्ता पाने की योजनाबद्ध इच्छा शक्ति’ पर विस्तार से बात करूँगा. अपने इस लेख में अपनी तरफ से कुछ नहीं लिखुँगा बल्कि जो लोहिया ने कहा है उसे ही व्याख्यायित करुंगा. लोहिया ने अपने इस लेख में समाजवादियों के सत्ता पाने के रास्तें क्या हों? इस पर बहुत विस्तार व् सावधानी से लिखा है.
1-      लोहिया ने भारतीय राजनीति के पांच ठोस सिद्धान्त बताए -समाजवाद, समता, विकेंद्रीकरण, अहिंसा और जनतंत्र . इसके बाद लोहिया प्रशिक्षण की बात करते हुए प्रशिक्षण के लिए तीन गुण बतातें हैं – साहस, शील और निपुणता .  इन तीन गुणों में वे साहस को सबसे ऊपर रखते हैं . साहस के संदर्भ में वे लिखते हैं कि ‘साहस गुण को परिष्कृत करने और बढाने के लिए 7 वर्ष की अवधि में समाजवादी दल के समिति सदस्यों को साल में 2 महीने जेल में बिताने चाहिए और काउंसलरों को न्याय के लिए और गरीबी के खिलाफ जनांदोलन में कम से कम एक बार भाग लेना चाहिए ......देश  में इतनी गरीबी है और इतने अन्याय होते रहते हैं कि जब तक उनके लिए जिम्मेदार समाज और सरकार न बदले, तब तक साहसी लोग वर्ष के बारहों महीने जेल में काट सकते हैं . इस बात का ख्याल रखते हुए कि 2 महीने  जेल काटना कोई विलक्षण साहस का काम नहीं है बल्कि साधारण और बहुत ही साधारण कर्तव्य है.’ अब इस दौर के समाजवाद का झंडा उठाने वाले लोहिया के दावेदारों में क्या ये ‘साहस’ बचा रह गया है ? क्या जनता की समस्याएँ ख़त्म हो चुकी हैं? क्या गरीबी ख़त्म हो चुकी है ? क्या देश में सबकुछ ठीक चल रहा है ?  देश में घटित होने वाले तमाम जन मुद्दों पर आपकी घनघोर चुप्पी क्यों है ?

2-      लोहिया कहते हैं कि ‘सत्ता पाने की समाजवाद की इच्छा अब काले बादलों में ढकी नहीं रहनी चाहिए ....आगामी 7 वर्ष को मैं तैयारी के वर्ष के रूप में देखता हूँ . इस अवधि में पार्टी को 3 हजार पदाधिकारी, 30 हजार समिति सदस्य 3 लाख काउंसलर और 30 लाख सदस्यों को प्रशिक्षित कर लेना चाहिए. इसी प्रशिक्षण से विभिन्न  विधानसभा सभाओं और लोकसभा के लिए 3 हजार विधायक तैयार किए जाएंगे जो राज्य और केंद्र की सरकारों के प्रभावकारी और क्रन्तिकारी ढंग से चला सकेंगे’’ ....इस लेख की यह पहली बात है अब इसके आलोक में आज के लोहिया के विरासत का दावा करने वाले समाजवादियों को परखें तो वो जीरो से भी निचे ठहरते हैं. इस पार्टी में कभी प्रशिक्षण शिविर आयोजित ही नहीं होता . एक अराजक भीड़ सत्ता के साथ इस पार्टी में आती है और झक्क सफ़ेद कपड़ों में अपने नेता के लिए जवानी कुर्बान गैंग में तब्दील हो जाती है. विचार शून्यता इस कदर है कि  युवाओं की नई पौध कुछ ज्यादा हिन्दू और मुसलमान हो गयी है। दक्षिण पंथी उग्र संगठनों और पार्टियों ने सपा के युवा कैडर के एक हिस्से को अपने वैचारिकी की तरह का हिन्दू बना दिया है। आर्थिक रूप से सम्पन्न हुए पिछड़े वर्ग के युवाओं में यह नशा तेजी से उभरा है। ये वही युवा हैं जो भगवा ओढ़ कर मंदिरों में घण्टा बजाते हैं, भगवत कथा का पाठ या महीनों तक कीर्तन करते करवाते हैं। ये आज का वह पाखंडी युवा है जिसके सभी अंगुलियों में कोई कष्ट हरण अंगूठी, कलाई में कलेवा बंधा दिखेगा। इनकी वैचारिक शून्यता ने इन्हें घनघोर पाखंडी बना दिया है। ये धर्म का अर्थ भी नही जानते। धर्म का अर्थ धारण करना होता है ढोंग करना नही। आप सब अपने धर्म को मानों किसे समस्या है पर  परम्परा और रूढ़ि का, धर्म और ढकोसले का फर्क करना सीखो। तो सभी पार्टियों में दक्षिणपंथ ने अपने वैचारिकी से घुसपैठ बनाई है। इसमें सपा तो घनघोर तरीके से फंस गई है क्योंकि जैसे ही वह अल्पसंख्यक इशु उठाती है  या उन्हें आगे करती है उसका ये दक्षिणपंथी माइंडेड युवा रिएक्ट कर जाता है । जबकि लोहिया ने साफ़ कहा था – ‘ बिना डर और  लागलपेट के, समाजवादियों को मुसलमानों के सवाल उठाने चाहिए.उनके कट्ठ्मुल्लापन की सहायता नहीं करनी चाहिए पर जो भी हिंदू कहीं मुसलमानों से अलगाव का बर्ताव करे, उन्हें दोषी ठहराना चाहिए . महान उद्धेश्यों  के लिए तैयार रहना चाहिए. जिस दल में वक्ती तौर पर अलोकप्रिय बनने का साहस नहीं होता वह कभी समाज परिवर्तन नहीं कर सकता.’’      
सुनील यादव 
यायावर और चिंतक

‘लोक और वेद आमने-सामने’ पुस्तक का लोकार्पण और परिचर्चा


पुनर्पाठ की जो परम्परा ज्योतिबा फुले ने 19 वीं सदी में शुरू की उसे ही इस पुस्तक के माध्यम से चौथीराम यादव आगे बढ़ा रहे हैं- प्रो वीर भारत तलवार
प्रो चौथीराम यादव की ‘पुस्तक लोक और वेद आमने-सामने’ का लोकार्पण 10 जनवरी को विश्वपुस्तक मेला में प्रख्यात आलोचक वीरेंद्र यादव, प्रख्यात पत्रकार उर्मिलेश, साहित्य चिंतक और दलित रचनाकार मोहनदास नैमिशराय, प्रोफेसर गोपेश्वर सिंह, कवि मदन कश्यप और आलोचक विनोद तिवारी जी के हाथों हुआ. इस पुस्तक पर चर्चा के लिए एक गोष्ठी जेएनयू के भारतीय भाषा केंद्र में 11 जनवरी को हुई . इस पुस्तक पर जिस तरह वैचारिक चर्चा होनी चाहिए थी वो चर्चा हुई । एक अनौपचारिक पुस्तक लोकार्पण के बाद बीज वक्तव्य देते हुए प्रोफेसर गोपेश्वर सिंह ने इस किताब के महत्व को स्वीकार किया, उन्होंने चौथीराम जी की मीरा और सूर के संदर्भ में नई व्याख्याओं की विस्तार से चर्चा करते हुए इस पुस्तक के गद्य को सुरुचिपूर्ण गद्य बताया । आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अंतर्विरोधों की चर्चा करते हुए प्रो गोपेश्वर सिंह ने कहा कि शुक्ल जी को ब्राह्मणवादी नहीं कह सकते हैं. अगर रामचंद्र शुक्ल को उनके अपने अंतर्विरोधों के कारण हम ब्राह्मणवादी कहते हैं तो एक तरह से तर्कवादी धारा को साम्प्रदायिक शक्तियों के हवाले करेंगे. अपने इसी वक्तव्य के आलोक में प्रो गोपेश्वर सिंह    ने रामचन्द्र शुक्ल संबंधी चौथीराम यादव की स्थापनाओं से अपनी असहमति दर्ज कराई . उन्होंने कहा कि अन्तर्विरोध तो बुद्ध के भी थे जिन्होंने अपने धम्म में स्त्री प्रवेश वर्जित किया था और बाद में बुद्ध के धम्म में स्त्री प्रवेश तो हुआ पर बुद्ध ने कह दिया कि जो धर्म एक हजार सालों तक चलना था वह पांच सौ वर्ष में ही खत्म हो जाएगा. इसी तरह आप कबीर के स्त्री संबंधी दृष्टि के अंतर्विरोधों को कहाँ रखेंगे?  गाँधी और करपात्री को क्या एक ही श्रेणी में रखेंगे? गोपेश्वर सिंह ने समन्वयवाद के संदर्भ में लोहिया और हजारीप्रसाद दिवेदी के विचारों के हवाले से चौथीराम जी की समन्वयवाद की स्थापनाओं पर सवाल खड़ा किया.
कथाकार नूर जहीर ने हिमांचल के लोक विमर्श के आलोक में ‘हिन्दू मिथक कथा विन्यास’ को नए संदर्भो में देखा और इस पुस्तक के महत्व को रेखांकित किया। प्रोफेसर हेमलता महिश्वर ने ब्राह्मणवाद, अत्यंज और शुद्र के विभाजन को साफ तौर पर रेखांकित किया।उन्होंने कहा कि जितना स्पेस की कामना हम अपने लिए करते हैं, उतना ही स्पेस किसी दूसरे को नहीं दे पाते हैं तो यही से ब्राह्मणवाद की शुरुवात होती है. यह पुस्तक भारतीय समाज के ज्वलंत सवालों को विमर्शकारी बनाती है. 
प्रो सूरज बहादुर थापा ने तनिका सरकार की वेद संबधी स्थापनाओं के आलोक में इस पुस्तक के स्थापनाओं की पड़ताल की। उन्होंने कहा कि इस पुस्तक में मीरा पर अन्य आलोचकों से बिलकुल अलग स्थापना है. ‘पूरे मध्यकाल में मीरा को छोड़कर किसी कवि ने सत्ता पर बैठे व्यक्ति को मुर्ख नहीं कहा है.’ इस पुस्तक में ‘मध्यकालीन लोक जागरण और नारी मुक्ति’ तथा ‘नारी जागरण और मीराबाई का मुक्ति संघर्ष’ नामक लेखों में स्त्री विमर्श से संबंधित बिलकुल नया आख्यान है. आचार्य रामचंद्र शुक्ल के भीतर के भाववाद और बाहर के वस्तुवाद को चिन्हित करते हुए प्रो थापा ने आचार्य शुक्ल संबंधी चौथीराम यादव की स्थापनाओं का समर्थन किया. उन्होंने कहा कि रामचन्द्र शुक्ल वीरगाथा काल के नामकरण करते हुए जिन पुस्तकों को प्रतिबंधित करते हैं, उसमें 10 किताबें जैन साहित्य की हैं क्योंकि जैन साहित्य में हिन्दू मिथकों पर जो काव्य है वह मुख्यधारा के मिथकों से एकदम अलग है. ब्राह्मणवाद का समन्वय एक तरफ़ा है, वो अपने में शामिल करने की बात तो करता है पर वह दूसरे में शामिल नहीं होना चाहता.  इसीलिए इस समन्वयवाद में भारी झोल है, जिसका सटीक मूल्यांकन प्रो. चौथीराम यादव ने अपनी इस किताब में किया है. अपनी बात समाप्त करते हुए प्रो थापा ने बहुत व्यवस्थित ढंग से वाम के भीतर के ब्राह्मणवाद और साहित्य के भीतर के ब्राह्मणवाद से निर्णायक लड़ाई की बात की।
दिलीप मंडल ने इस पुस्तक को साहित्य के बजाय समाजशास्त्र की पुस्तक के रूप में देखा और यूरोप के रेनेसॉ के आलोक में मध्यकालीन साहित्य पर अपनी बात रखी। उन्होंने गाँधी-करपात्री की एक परम्परा और फुले, पेरियार, अम्बेडकर की दूसरी परम्परा की बात की. उन्होंने कहा कि सबसे पहले तो यही तय कर लेना चाहिए कि जिसे मुख्य धारा कहा जाता है क्या वह वाकई मुख्यधारा है क्या ? उन्होंने भारतीय मॉडर्ननिटी के अन्तर्विरोध पर विस्तार से बात की और कहा कि कायदे से मॉडर्ननिटी को परम्परा से टकराना चाहिए, लेकिन भारत में यह होता नहीं है.
प्रख्यात आलोचक वीरेंद्र यादव ने आज के संदर्भ में इस पुस्तक की क्या भूमिका हो सकती है, इसपर विस्तार से बात करते हुए कहा कि यह पुस्तक भक्तिकाल पर भले हो पर यह आज के संदर्भों की पुस्तक है. हिंदी की अकादमिक दुनिया में एक प्रवृत्ति बहुत तेज है. वह है  कबीर को ख़ारिज करने और तुलसी को स्थापित करने की. एक तरफ इस तरह की अकादमिक दुनिया है जो कबीर को ख़ारिज करने के लिए कह रही है कि ‘किसी कवि का मूल्यांकन उसके विचारों के आधार पर नहीं बल्कि उसकी कविता के आधार पर होना चाहिए.’ तो दूसरी तरह वह दुनियां है जिसमे कांचा इलैया की पुस्तक ‘पोस्ट हिंदू इण्डिया’ प्रतिबंधित करने की मांग जोरों पर है, तो इसके पीछे कौन सी शक्तियां हैं ? इस मुहिम के पीछे कौन लोग हैं? भीमा कोरे गाँव के पीछे कौन सी शक्तियां हैं? दाभोलकर, कलबुर्गी, पान्सारे, गौरी लंकेश की हत्या के पीछे कौन सी शक्तियां हैं? आप तय करते रहिए कि रामचंद्र शुक्ल ब्राह्मणवादी हैं कि नहीं. आप कहते रहिए कि उन्होंने जाति व्यवस्था के विरोध में लिखा है, लेकिन यह भी तो कहिए कि उन्होंने ‘गोस्वामी तुलसीदास’ नमक पुस्तक लिखी जिसमें कहा कि उंच-नीच की परम्परा हमेशा रही है और रहेगी. यह भी तो बताइए कि शुक्ल जी ने लेनिन के बारे में क्या लिखा है ? वर्गों के बारे में क्या लिखा है ? ये सब भुलाकर रामचंद्र शुक्ल को सेलेक्टिव तरीके से देखेंगे तो बात यही तक नहीं रुकेगी, बात तुलसी तक भी नहीं रुकेगी, बात कबीर को ख़ारिज करने तक पहुँच जाएगी. वीरेन्द्र यादव ने अपनी बात आगे बढाते हुए कहा कि अगर चौथीराम जी की यह  पुस्तक प्रतिरोध के महानायकों बुद्ध, कबीर, फुले, अम्बेडकर, पेरियार, भगत सिंह की स्मृति को समर्पित है, तो यह अनायास नहीं है. बल्कि चौथीराम जी ने इस पुस्तक के बहाने इसी प्रतिरोधी विचारधारा को आगे ले जाने के काम किया है. आज के राजनीति, समाज और साहित्य के समक्ष जो चुनौतियाँ हैं उसका केन्द्रीय अन्तर्विरोध ब्राह्मणवाद बनाम हाशिए के समाज का है. इसे समझना होगा.
प्रख्यात आलोचक वीरभारत तलवार ने अपने अध्यक्षीय उद्बोधन  में कहा कि इधर वर्षों से हिंदी में जो पुनर्पाठ की परम्परा विकशित हुई है, वह  इस किताब को समझने में महत्वपूर्ण है. यह पुनर्पाठ की परम्परा  19 वीं सदी में ज्योतिबा फुले से शुरू होती है. इस समाज में जो वर्चस्वशाली वर्ग हैं, जो ताकतवर वर्ग हैं उन्होंने बहुत से प्रतीक खड़े किए हुए हैं, बहुत सी पुराण कथाएँ बनाई हुई हैं, बहुत से देवी देवता प्रचलित किए हुए हैं. जो उनकी सत्ता की विचारधारात्मक पुष्टि करते हैं. उनकी सत्ता को टिकाए रखने का विचारधारात्मक आधार मुहैया कराते हैं. उस विचारधारा को पलटने के उद्देश्य से, उसके खिलाफ संघर्ष के लिए पुनर्पाठ की परम्परा ज्योतिबा फुले ने विकशित की. इसलिए आप इस पुनर्पाठ को कोई पुनर्मुल्यांकन मत समझिए. दरअसल यह पुनर्पाठ इस समाज में चले आ रहे शक्ति समीकरण को बदलने के संघर्ष का अंग है. इस अर्थ में उसका एक राजनीतिक चरित्र है. इसीलिए यह केवल पाठालोचन या पुनर्मूल्यांन का सवाल नहीं है. बल्कि यह राजनीतिक प्रक्रिया है. ज्योतिबा फुले ने बहुत सी प्रचलित कथाओं का फिर से एक नया रूप दिया, एक नया अर्थ दिया तथा नए मंतव्य निकाले. जिसने बहुजन समाज की राजनीतिक और सामाजिक चेतना को क्रन्तिकारी रूप से बदल दिया. 19 वीं सदी में बहुजन लोग इस स्थिति में नहीं थे कि वे कोई राजनीतिक लडाई लड़ पाते. इसीलिए यह समाज को बदलने की लडाई संस्कृति और धर्म के क्षेत्र में शुरू हुई.  धर्म और संस्कृति के क्षेत्र में एक नई चेतना को पैदा करके ज्योतिबा फुले ने इन वर्गों के अन्दर एक नया आत्मविश्वास और दृष्टिकोण पैदा किया. यह वही आधार था जिसके बल पर ये वर्ग अपनी राजनीतिक लडाई लड़ने में समर्थ हो सके. सामाजिक समीकरण बदल देने की यह जो ज्योतिबा फुले की पुनर्पाठ  परम्परा है इसका प्रभाव हिंदी में बहुत देर से आया. 1970 के आसपास हिंदी में पुनर्पाठ की परम्परा शुरू होती है. सबसे पहले स्त्री प्रश्न पर और उसके बाद दलित प्रश्न पर और उसके भी बहुत बाद आदिवासी प्रश्न पर. यह जो पुनर्पाठ की परम्परा हैं  इसकी खासियत यह है कि यह सारे परिप्रेक्ष्य को बदल देने का, सारे संदर्भों को बदल देने का, सारे अंतर्विरोधों में एक प्रधान अन्तर्विरोध खड़ा कर देने का विचारधारात्मक संघर्ष है.  यह ज्ञान की एक प्रक्रिया है.  ध्यान रखना चाहिए कि ज्ञान की प्रक्रिया हमेंशा सामूहिक होती है. चौथीराम जी की किताब इसी सामूहिक ज्ञान के प्रक्रिया की एक कड़ी है. चौथीराम जी ने जो यह कड़ी विकशित की है, उसमें बहुत से विचारों का समाहार है.  उन्होंने अपने वक्तव्य के अंत में कहा कि इस पुस्तक के केंद्र में जाति का सवाल ही है। वह इसलिए भी है क्योंकि भारतीय समाज का केन्द्रीय प्रश्न ही जाति का प्रश्न है.  भारतीय वामपंथ या कोई भी आंदोलन जाति के सवाल को ट्रेस किए बिना जन भागीदारी हासिल नही कर सकता।
कार्यक्रम का आयोजन जेएनयू और दिल्ली विश्वविद्यालय के शोध छात्रों ने किया था जिसका संचालन जेएनयू के एसोसिएट प्रोफेसर गंगासहाय मीणा ने किया तथा  धन्यवाद ज्ञापन  सोनम मौर्य ने किया।
सुनील यादव
यायावर और चिंतक
गाजीपुर, उत्तर प्रदेश

भारत विभाजन साम्प्रदायिकताऔर हिंदी उपन्यास


अरविंद यादव


        विभाजन धर्म को आधार बनाकर हुआ था इस विभाजन के साथ साम्प्रदायिकता का जो उभार शुरू हुआ वह स्वतंत्रता के बाद के समाज को व्यापक रूप से अपने चपेट में लेता है। सत्ता प्राप्ति के लिए राजनीति धर्म को साम्प्रदायिक रंग में रंग देती है। इसका सीधा प्रभाव समाज पर देखने को मिलता है। जिसकी शुरूआत भारत विभाजन से बंगाल नोवाखली से होती हुऐ आज तक जारी है साम्प्रदायिक समस्याओं तथा विभाजन को केन्द्र में रखकर भारत और पाकिस्तान दोनों जगह के रचनाकारों ने विभाजन से उत्पन्न विस्थापन और हिंसा से पैदा दुखों को अभिव्यकत दी है। हिन्दी साहित्य में विशेषतः उपन्यास में इस साम्प्रदायिक समस्या तथा विभाजन के दर्द को सामाजिक चेतना तथा व्यक्ति की मनोदशा को पूर्ण गहराई के साथ व्यक्त किया गया ‘‘ये उपन्यास विभाजन की राजनीति का तीव्र विरोध करते है। और स्पष्ट कर देते है कि देश की जनता ने इस देश का विभाजन स्वीकार नहीं किया विभाजन की स्वीकृति कांग्रेस और मुस्लिम लीग की उच्च स्तरीय बैठक तक ही सीमित रह गयी, लेकिन इस स्वीकृति का सबसे बड़ा मूल्य देश की जनता को चुकाना पड़ा जो पाकिस्तान का अर्थ बिल्कुल नहीं समझाती थी।’’1
          हिन्दी उपन्यासकारों ने उन शक्तियों के निजी स्वार्थों को उद्घाटित किया जो देश के विकास में बाधा डालती है तथा उनके उस चरित्र की शिनाख्ख्त की जो साम्प्रदायिकता का बीच बोकर दंगा करवाती है। साम्प्रदायिकता से जो तबका सबसे अधिक प्रभावित होता है उपन्यास को उसी तबके जीवन का महाकाव्य कहा गया है। इसीलिए साम्प्रदायिकता तथा भारत विभाजन से संबंधित उपन्यासों की हिन्दी में एक लम्बी परम्परा रही है ‘‘उपन्यास की चेतना, पूँजीवादी समाज रचना के उल्लास भरे व्यक्ति के सामाजिक संबंधों और उसके संघर्षों से निर्मित हुई है।’’2
          ‘‘पूँजीवादी सभ्यता में यथार्थ के जो नये-नये आयाम और भौतिकवादी चिन्तक मूल्य प्रश्न बन कर उभरे है, उन्हें व्यक्त करने में उपन्यास जैसी यथार्थवादी विधा ही कारगर हो सकती है। जब हम कहते है कि उपन्यास आधुनिक युग का महाकाव्य है तो इसका अर्थ यह होता है कि जैसे महाकाव्यों में जगत जीवन की विराटता अपने समस्त वैविध्य गहरे भाव बोध विशिष्ठ दर्शन मानव मूल्य और प्रश्नों के साथ अंकित होता है। उसी प्रकार उपन्यास में भी।’’3 लेकिन आज के जीवन की समस्त जटिलता यथार्थ के विविध सूक्ष्म आयाम दैनिक जीवन के सामान्य से दिखने वाले व्यापार नये परिवेश महाकाव्यों में नहीं व्यक्त हो सकते, इसको व्यक्त करने के लिए उपन्यास की जरूरत पड़ती है। समाज का उपन्यास के साथ रिश्ता उपरोक्त सूत्रों से अन्र्तगुंफित दिखाई देता है।
          भारत विभाजन तथा साम्प्रदायिक दंगो की अमानवीय त्रासदी को व्यक्त करने वाले प्रथम उपन्यासकार देवेन्द्र सत्यार्थी थे। उन्होंने अपने उपन्यास कठपुतली (1974) में भारत से पाकिस्तान जाने वाले तथा पाकिस्तान से भारत आने वाले काफिलो का बड़ा मार्मिक चित्रण किया है। साम्प्रदायिक दंगो का संवेदना पूर्ण अंकन इस उपन्यास में हुआ है। सत्यार्थी के बाद यशपाल का झूठा सच’ (1958) आता है। यशपाल ने इस उपन्यास में विभाजन के उपरान्त त्रासदी और भय को बड़े ही सलीके से प्रस्तुत किया है। गोपाल राय लिखते है कि ‘‘मुस्लिम लीग और सिखा नेताओं के भड़काऊ भाषण और बहुसंख्यक मुस्लिम समाज के आक्रमण तेवरों की छाया में लाहौर के गली-कूचों में कुलबुलाती दहशत की मानसिकता में घुटती अल्पसंख्यकों की जिन्दगी का ऐसा यथार्थ और जीवंत अंकन इससे पूर्व किसी उपन्यास में नहीं हुआ।’’4 विभाजन के बाद विस्थापितों की समस्या को उठाते हुए यशपाल विभाजन के मूल में आर्थिक और राजनीतिक स्वार्थों तथा रक्तरंजित साजिशों की भी शिनाख्त करते है। सदुर्शन मल्होत्रा लिखते है कि ‘‘पंजाबी हिन्दुओं तथा मुस्लिम परिवारों के रहन-सहन तथा उसके सामाजिक जीवन के चित्र नेत्रों के समक्ष घूम जाते हैं। यशपाल की पैनी दृष्टि से कोई वस्तु नहीं छूट सकी है।’’5
          झूठा सचके बाद कमलंश्वर का लौटे हुऐ मुसाफिर’ (1961) आता है। यह उपन्यास विभाजन के फलस्वरूप उत्पन्न साम्प्रदायिक दंगों को तो चित्रित करता है, साथ ही साथ मुसलमानों के उस मोह भंग का भी चित्रण करता है जिसमें पाकिस्तान के नाम पर छले गये।
          भीष्म साहनी एक ऐसे कथाकार है जिन्होंने विभाजन का दर्द सहा था, उनका उपन्यास तमस’ (1973) उनके इस भोगे हुए दर्द के अनुभवों को व्यक्त करता है तमस उस अंधकार का द्योतक है जो आदमी की आदमीय और संवेदना को ढक लेता है और उसे हैवान बना देता है। भीष्म साहनी ने उन स्थितियों और कारणों के विश्लेषण का प्रयत्न किया जो देश के विभाजन और साम्प्रदायिकता के मूल में थे।’’6 विभाजन और साम्प्रदायिकता के कारणों की शिनाख्त करते हुए साहनी इतिहास के उन पन्नों तक जाते है, जिसमें ब्रिटिश फूट डालो राज करो की नीति स्पष्ट रूप से अंकित है ब्रिटिश नीति के उपरान्त मुस्लिम लीग के द्विराष्ट्रीयता के सिद्धांत तथा भारत विभाजन तक साहनी पहुंचते है।
          भारत विभाजन के उपरान्त हुए दंगो ने भारतीय मुसलमानों को कार्ड स्तरों पर प्रभावित किया। अनेक उपन्यासकारों ने इसका अंकन किया। राही मासूम रज़ा ने आधा गाँव (1966) टोपी शुक्ला (1969) हिम्मत जौनपुरी (1969) ओस की बूँद (1970) दिल एक सादा कागज (1973) असंतोष के दिन (1986) आदि उपन्यासों में राही ने मुस्लिम सामाजिक परिवेश किसान मजदूर तथा जमीन के सवाल की समस्या तथा इसके पीछे काम कर रही धर्म के रंग में रंगी राजनीति, भारत में मुसलमानों की अस्मिता का सवाल आदि चीजों को गंभीरता से उठाते है।
          ‘‘आधा गाँव के केन्द्र में भी शिया सैयदो का सामंती कुलीन तंत्र ही है लेकिन मुस्लिम जमींदारों की कुलीनता के छदम को जिस अंतरंगता व नैतिक साहस के साथ राही मासूम रजा ने इस उपन्यास आधा गाँवमें विभाजन साम्प्रदायिकता और मुस्लिम अस्मिता के प्रश्न को उसकी सम्पूर्ण संशलिष्टता में कथात्मक बनाया गया है।’’7
          देश विभाजन के बाद पूर्वी बंगाल और बिहार से पाकिस्तान गये मुसलमानों को बंगाली व बिहारी कहकर उनमें जो भेद किया गया, उससे उनमें पाकिस्तान के प्रति मोहभंग हो गया तो भारत में अपने संबंधियों से मिलने के लिए तड़पते है छटपटाते है पर कानून उन्हें लौटने की इजाजत नहीं देता।
          मुस्लिम जीवन का गम्भीर अंकन करते हुए शानी का काला जलआता है। जिसमें निम्न मध्यम वर्गीय मुस्लिम समाज का प्रमाणिक दस्तोवज प्रस्तुत करते हुए मुसलमानों की मानसिकता, निजी जीवन तथा संस्कृति का उद्घाटन वे करते है।
          मंजूर एहतेशाम ने सूखा बरगदमें ये दिखाने की कोशिश की कि विभाजन के बाद भारतीय मुसलमानों में क्या बदलाव आये, इस देश में धर्म किस तरह सामाजिक संबंधों के बीच दराद पैदा कर देता है। इन सारे सवालो को एहतेशाम अपने उपन्यास में उठाते है।
          नासिरा शर्मा का जिन्दा मुहावरे’ (1993) ‘‘विभाजन के बाद भारत में रह रहे मुसलमानों के प्रति बहुसंख्यक समाज में अविश्वास का माहौल बनने और उनकी वतन परस्ती के प्रति संदेह करने का चित्रण हुआ है।’’8  इनका दूसरा उपन्यास ठीकरे की मँगनीमुस्लिम सामाजिक समस्याओं व रीति रिवाज से जुड़ा है।
          अब्दुल बिस्मिल्ला के उपन्यास झीनी झीनी बीनी चदरियामें बुनकरों के अभाव ग्रस्त व नारकीय जिंदगी को उसके समस्त भयावहता के साथ प्रस्तुत किया गया है। मुस्लिम समाज में फैली तमाम कुरीतियों अन्धविश्वासों तथा मजहबी कट्टरपन और साम्प्रदायिक सोच को भी दिखाया गया है, उनके दूसरे उपन्यास मुखड़ा क्या देखें’ (1996) में दलित मुस्लिम समाज के यथार्थ के साथ ही गांव में हो रहे परिवर्तनों विशेषकर साम्प्रदायिकता पर चिन्ता व्यक्त की गयी है।
          साम्प्रदायिक द्वेष तथा उससे उत्पन्न होने वाले दंगो का सचित्र चित्रण विभूति नारायण राय के उपन्यास शहर में कफ्र्यू’ (1986) में हुआ है, इसमें दंगे करवाने वाली राजनीतिक ताकतों तथा उसमें पुलिस प्रशासन एवं मीडिया की भूमिका की शिनाख्त करते हुए ये दिखाया गया है कि दंगो से प्रभावित वही जनता होती है जिसके सर पर न छत है न खाने को रोटी।
          साम्प्रदायिक संदर्भ वाले उपन्यासों की एक लम्बी सूची सदी के अन्तिम दशक में प्राप्त होती है। भगवान दास मोरवाल के काला पहाणउपन्यास में मोरवाल ने ये दिखाने की कोशिश की है कि किस प्रकार सीधी-सीधी जनता के बीच अकवाह फैलाकर उनके भीतर अविश्वास आंतक तथा भय पैदा किया जाता है। इसमें धर्म की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। जनता का धार्मिक जुनून जिसका उपयोग राजनीति अपने हित के लिए करती है, साम्प्रदायिक दंगो में बदल जाता है। बाबरी विध्वंश के बाद हुए दंगे अल्पसंख्यक हिन्दुओं का पलायन इस उपन्यास में फैला हुआ है।
          प्रियंवद का उपन्यास वे वहाँ कैद है’ (1994) फाँसीवादी उभार और साम्प्रदायिक सोच के पीछे काम करने वाली शक्तियों की शिनाख्त करता है। संवेदना प्रियंवद की ताकत है, जिसमें वैचारिक तटस्थता ईमानदारी और संवेदना शीलता व्यक्त होती है। बाबरी मस्जिद विघ्वंश के बाद ‘‘हिन्दुत्ववादी राजनीति जिस प्रकार त्रिसूल में तब्दील हो गयी थी, और आंतक के टुकड़े तान-तान कर हवा में फेके जा रहे थे, कोई भी संवेदनशील लेखक उससे अलक्षित नहीं रह सकता। प्रियवंद ने इस दौरान हताहत भारतीय मन को इस उपन्यास को माध्सम से अभिव्यक्ति दी।9 वे हिन्दूवादी साम्प्रदायिक राजनीति का उभार ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में भारतीय समाज को रखकर इस उपन्यास में एक विमर्श रचते है।
          गीतांजलि श्री का उपन्यास हमारा शहर उस बरस’ (1998) भी प्रियवंद के इसी उपन्यास के प्रकृति की रचना है। इसमें प्रियवंद के उपन्यास का प्रभाव देखा जा सकता है। अलका सरावगी का उपन्यास कलिकथा वाया बाईपास’ (1998) में सभ्यता समीक्षा जैसी कड़ी चुनौती को स्वीकार किया गया है। हमारा शहर उस बरसकी तरह ये उपन्यास भी कई बहसों और विमर्शों को जन्म देता है।
          भगवान सिंह का उपन्यास उन्माद’ (1999) साम्प्रदायिक उन्माद के चरित्र का उद्घाटन करता है। यह उपन्यास अपने पूर्ववर्ती साम्प्रदायिकता की समस्या पर लिखे गये उपन्यासों से साम्प्रदायिकताऔर फाँसीवाद को लेकर नितान्त भिन्न प्रकृति और दृष्टिकोण अपनाता है। भगवान सिंह साम्प्रदायिकता को निश्चित सामाजिक व राजनीतिक दृष्टिकोण का परिणाम न मानकर इसे मनोविकार व दमित व्यक्तित्व की विकृत परिणातियों के रूप में प्रस्तुत करते है।’’10
          मुर्शरफ आलम ज़ौकी का बयान’ (1998) महत्वपूर्ण उपन्यास है। भारतीय समाज में मुसलमानों की दशा व अस्मिता के सवाल, बाबरी विध्वंश के बाद भाजपा जैसी हिन्दुत्ववादी पार्टी के उभार के साथ मुसलमानों के भय को उपन्यासकार अपने समय की राजनीतिक स्थितियों में बहुत सच्चाई के साथ चित्रित करता है। इस उपन्यास का एक महत्वपूर्ण पक्ष यह भी है कि हिन्दू-मुस्लिम साझी संस्कृति, तहजीब तथा भाषा का जो रिश्ता कई सौ वर्षों से चला आ रहा था। उसे साम्प्रदायिकतावादी ताकतों ने अपने हित के लिए किस तरह से छिन्न-भिन्न कर दिया। बाल मुकुन्द शर्मा जोश और बरकत हुसैन इसी साझी संस्कृति और परम्परा के दो नाम है जो इस उपन्यास में नष्ट होते दिखाई देते है। ज़ौकी के साम्प्रदायिकता से जुड़े अन्य उपन्यासों में मुसलमानों’ ‘शहर चुप हैऔर नीलामघरप्रमुख है।
          कमलेश्वर का उपन्यास कितने पाकिस्तान’ (2000) एक सभ्यता समीक्षा का  उपन्यास है। पाकिस्तान यहाँ सिर्फ एक प्रतीक है, जिसका जन्म लाखों लोगों की बली देने के उपरान्त और लाखों को अपनी जमीन ये जुदा करने की तर्ज पर हुआ था। कितने पाकिस्तान में कमलेश्वर पूरे विश्व के इतिहास की समीक्षा करते हुए दिखाने की कोशिश करते है, कि पाकिस्तान बनने की कब-कब नौबत आयी और धर्म एवं इतिहास की बलत व्याख्या करके मानवता को कुचलने की कोशिश की गयी है। आज के समय में हर जगह बारूद ही बारूद है, कब कोई एक तीली जला दे और मुल्क जल उठे। यह निश्चित नहीं है इसलिए हर समय व्यक्ति भय आतंक व घुटन का शिकार है-
          ‘‘इन बंद कमरों में साँस घुटी जाती है
          खिड़किया खेलता हूँ तो जहरीली हवा आती है।’’11
दूधनाथ सिंह का उपन्यास आचारी कलाम’ (2000) जो बाबरी विध्वंश पृष्ठभूमि पर आधारित है ‘‘साम्प्रदायिकता और धर्म निरपेक्षता जैसे जटिल मुद्दों को समझने का यह एक नया परिप्रेक्ष्य भी है। 6 दिसम्बर 1992 की घटनाओं के केन्द्र में यह औपन्यासिक आख्यान भारतीय समाज के पार्टीशन की उन जड़ो तक पहुँचने की कोशिश है, जिसे धर्म निरपेक्षाता के फार्मूले से पाटे जाने की जितनी कोशिश होती रही है, उतना ही तो बढ़ता गया है। यह उपन्यास धर्म निरपेक्षता का ही नहीं बल्कि नहीं का भी क्रिटीक रचता है।’’12
          असगर वज़ाहत का उपन्यास कैसी आगी लगाई’ (2004) जीवन की विशद् व्याख्या है। उनके उपन्यास सात आसमानमें अगर मुस्लिम सामाजिक अन्तर्विरोध देखने को मिलते है। तो कैसी आगी लगाई उस सामाजिक अन्तर्विरोध से जन्मा वैचारिक संघर्ष भी पैदा करता है। इसमें साम्प्रदायिकता, छात्र जीवन, स्वतंत्रोतर राजनीति, सामन्तवाद, वामपंथी रानीति छोटे शहरों का जीवन तथा महानगरों, की आपा-धापी को बखूबी उभारा गया है।
          इस प्रकार स्वतंत्रता के बाद साम्प्रदायिक संदर्भ वाले उपन्यासों की एक लम्बी परम्परा देखने को मिलती है। जिसमें उपन्यासकारों ने अपने दृष्टिकोण से साम्प्रदायिक राजनैतिक ताकतों धर्म के ठेकेदारों के साथ-साथ दंगो से प्रभावित होने वाली जनता का चित्रण भारतीय परिप्रेक्ष्य में किया है।
संदर्भ सूची -
1.  हरियश-भारत विभाजन और हिन्दी उपन्यास पृ. सं. 339
2. सं. जैन नेमिचंद्र-मुक्तिबोध रचनावली खण्ड-5, पृ. सं. 369
3. रामदरस मिश्र, हिन्दी उपन्यास एक अन्र्तयात्रा, पृ. सं. 13
4. राय गोपाल, हिदी उपन्यास का इतिहास, पृ. सं. 33
5. महोत्रा सुदर्शन, यशपाल के उपन्यासों का मूल्यांकन पृ. सं. 188
6. यादव वीरन्द्र, उपन्यास और वर्चस्व की सत्ता, पृ. सं.75
7. यादव वीरन्द्र, उपन्यास और वर्चस्व की सत्ता, पृ. सं.75
8. राय गोपाल, हिदी उपन्यास का इतिहास, पृ. सं. 435
9. सं. श्रीवास्तव परमानन्द, आलोचना अंक अप्रैल- जून, 2000 पृ. सं. 239
10. यादव वीरन्द्र, उपन्यास और वर्चस्व की सत्ता, पृ. सं.75
11. कमलेश्वर, कितने पाकिस्तान की भूमिका से
12. यादव वीरन्द्र, उपन्यास और वर्चस्व की सत्ता, पृ. सं.212
                                                                                  
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धधकते बस्तर में ‘नीरो’ की बंसी


वीरेंद्र यादव



  ‘‘वे नग्न थे, बेघर और कई बार भूखे भी, पर वे नाचते थे, गाते थे। भला वह चीज कैसे छूट जाए जो नग्नता और भूख से भी ज्यादा अहम हो? वे बस इतना ही कहना चाहते थे कि उन्हें नहीं चाहिए तुम्हारा भरपेट खाना और कपड़े या यहीं कि जिसे तुम घर कहते हो या मानते हो.... वे सब रात को मदमस्त नाचना चाहते हैं.....
        हंसके सितंबर 2012 अंक में प्रकाशित अपनी कहानी चांद चाहता था कि धरती रूक जाएमें तरूण भटनागर बस्तर के आदिवासियों के संघर्ष का उपरोक्त सरलीकरण करते हुए उसी भूमिका में है, जिसमें छत्तीसगढ़ राज्य सरकार का पर्यटन विभाग। जिस प्रकार वहां पर्यटन विभाग बस्तर के आदिवासी जीवन को घोटुल का पर्याय मानता है उसी तरह कहानीकार बस्तर के समूचे संघर्ष को घोटुल बचाने और नष्ट करने की कोशिशों तक सीमित कर देता है। यूं तो बाहरी दुनिया सैलानी दृष्टि के चलते बस्तर और घोटुल एक-दूसरे के पर्याय लंबे समय से रहे हैं, लेकिन जब बस्तर सहित समूचे दंडकारण्य में जल, जंगल और जमीन को छीनने व बचाने का संघर्ष छीड़ा हो तब नाच बनाम भूखकी यह कथा-प्रस्तुति सचमुच स्तब्धकारी है। वैसे इसमें नया कुछ भी नहीं है। छत्तीसगढ़ सरकार के प्रचारक और समर्थक पत्रकार व बुद्धिजीवी आदिवासियों के समूचे संघर्ष को बस्तर की संस्कृति बनाम बाहरी व्यक्तिका विमर्श बनाकर प्रस्तुत करते रहे हैं। भाजपा के बलबीर पुंज सरीखों के लेख और कांग्रेस के महेंद्र कर्मा सरीखों के वक्तव्य इसके प्रमाण हैं। नया बस इतना है कि अब तक जो कार्य सरकारी प्रचार तंत्र और भाड़े के पत्रकारों द्वारा किया जाता था, अब वह साहित्यिक रचनाओं द्वारा भी किए जाने की शुरूआत हो चुकी है।  अब तक शिकायत यह थी कि हिंदी का रचनाकार जोखिम इलाके में जाने से बचता है, लेकिन अब हैरत इस बात पर है कि जोखिम के इलाके का रहवासी होने की सनद पेशकर वह किस प्रकार जोखिम का छद्म घटाटोप गढ़ता है।
        यह अकारण नहीं है कि तरूण भटनागर ने अपनी कहानी में आदिवासी बनाम बाहरी व्यक्तिका जो विमर्श रचा है उसमें बाहरी व्यक्ति न तो जंगलात का अमला है, न कार्पोरेट घराने, न ठेकेदार और न दमनकारी पुलिस और सैन्य तंत्र। बाहरी व्यक्ति आदिवासियों को अपने दमन के विरूद्ध एकजुट करने वाले उनके वे समर्थक, शुभचिंतक व संघर्षों के साथी हैं जिन्हें नक्सल व माओवादी करार देकर खलनायक की छवि में ढाला जाता है। बस्तर सहित समूचे दंडकारण्य में माओवादी आंदोलन व संगठन की उपस्थिति एक सर्वविदित तथ्य है , लेकिन उन्हें आदिवासियों के स्वर्ग में सेंध लगाने वाला बताकर प्रस्तुत करना सरकारी दुष्प्रचार को बल देना है। विचारणीय यह भी है कि आदिवासियों के बीच माओवादियों की जड़ें  जमीं क्यों? कैसा था बस्तर का घोटुलमय स्वप्निल संसार वहाँ माओवाद के पैठ के पहले? ये सारी स्थितियाँ अब पत्र-पत्रिकाओं और पुस्तकों में उपलब्ध हैं। अरुंधति  राय और गौतम नवलखा सरीखे आदिवासियों के हमदर्दों के आंखों  देखे वृत्तांत  पर जिन्हें न भी भरोसा हो तो उन्हें सुदीप चक्रवर्ती की  पुस्तक रेड सन’, जान मिर्डल की रेड स्टार ओवर इंडिया और राहुल पंडिता की हाल ही में प्रकाशित पुस्तक हेलो बस्तर के पृष्ठों से जरूर गुजरना चाहिए। इन्हें इसलिए भी पढना चाहिए कि ये तरुण भटनागर की  कहानी की तरह ट्राइबल टूरिज़्म के ब्रोशर न होकर विकास के नाम पर जल, जंगल,जमीन की लूट और आदिवासियों के उस उत्पीड़न का पता देते हैं जो माओवाद का जड़ जमाने का मूल कारण है। ये पुस्तकें बस्तर के हिंसक संघर्षों  के उन दो छोरों का खुलासा करती हैं जिनका  एक छोर आदिवासियों के बस में है तो दूसरा कार्पोरेट घरानों की लूटतंत्र के पक्ष में। तरुण भटनागर की कहानी लाल झण्डे की प्रतिरोधी हिंसा का विमर्श तो रचती है, लेकिन कार्पोरेट समर्थक राज्य की हिंसा का दृश्य ओझल कर देती है, क्यों? इसलिए कि प्रतिरोधी हिंसा को पथभ्रमित, लक्ष्यहीन और अन्यायपूर्ण करार दिया जा सके !             
        कहानीकार खुद को बस्तर की माटी का बताते हुए वहाँ उन्नीस साल का होने तक का वास्ता देकर बस्तर की स्थितियों का प्रत्यक्षदर्शी होने के नाते उसने घोटुल में सुधबुध खो चुके जवान जिस्म’,  कामोत्तेजक नृत्य और फड़फड़ती देहें तो देखीं लेकिन जंगल की उस लूट और बेदखली को नहीं देखा जिसका प्रतिरोध किए बिना न आदिवासियों का जीवन बचता न संस्कृति । आखिर ऐसा  क्यों है कि आदिवासियों के जिस शोषण को बाकी सब बाहरी वृत्तान्तकारों ने देखा वह भोगे हुए यथार्थ की  दुहाई देने वाले माटी के लाल कहानीकार ने नहीं? बेशक यह कहानीकार की अपनी चयन दृष्टि है कि वह कहानी की विषय वस्तु में क्या छोड़े और क्या शामिल करे । लेकिन कठिनाई तब पैदा होती है जब वह पूंजी  और पूंजी विरोधी दर्शन से आदिवासियों के विलगाव और अजनबियत की सैद्धांतिकी रचते हुए उनके शोषण और गरीबी को लाल झण्डे वालों की निर्मिति मान लेता है और उनके दाल, रोटी और झोपड़ी के संघर्ष को पूँजी का षडयंत्र ।

       तरुण भटनागर की दलील है कि  बस्तर  में आज ही तेंदु पत्ता, इमली, महुआ ज्यादा बड़ा मुद्दा है बनिस्पत जमीन के। लेकिन उनकी कहानी संघर्ष के इन मुद्दों का भी पता नहीं देती , क्यों ? शायद इसलिए कि इन संघर्षों में भी आदिवासियों का साथ देने के लिए वे बाहरी आदमी ही थे जिनका कोई सकारात्मक उल्लेख कहानीकार की अपनी राजनीति के लिए वर्जित है। राहुल राहुल पंडिता ने अपनी पुस्तक हेलो बस्तर में इन परिस्थितियों का उल्लेख करते हुए लिखा है कि,  “......इन जंगलो से मध्यप्रदेश सरकार को अस्सी के दशक तक प्रति वर्ष 250 करोंड़ का राजस्व प्राप्त होता था....... लेकिन आदिवासियों को उन दिनों 100 तेंदु पत्ता का बंडल बनाने पर सिर्फ 5 पैसे मिलते थे और 120 बांसों के बोझ को तैयार करने की उनकी मजदूरी मात्र एक रुपया थी । अक्सर आदिवासी भूखे पेट काम करने पर विवश होता था । जिस जंगल में वह काम करता था वहाँ साँप, बिच्छुओं, भालुओं, तेंदुओं और अन्य जंगली जानवरों कि भरमार थी .....एक किलो नमक के बदले उसे एक किलो सूखे मेवे या आठ किलो ज्वार देना पड़ता था। जिस इमली की कीमत अंतर्राष्ट्रीय बाजार में व्यापारी 400 रुपए वसूलता था उसे ही खरीदने के लिए वह आदिवासी को एक रुपए से भी काम कीमत चुकता था ।उद्योगपति और व्यापारी जंगल की जमीन को सस्ते दामों पर सरकार से खरीदकर भूमिहीन आदिवासियों को नाम मात्र ही मजदूरी देकर खेती करवाते थे। अक्सर जंगल में जलावन के लिए लकड़ी इकठ्ठा करते आदिवासियों को डरा-धमकाकर उसे अपने घर की स्त्रियों  को वन विभाग के अमले के पास भेजने के लिए मजबूर किया जाता था.......”  शोषण के इस अंतहीन सिलसिले के ही परिणाम स्वरूप वे परिस्थितियाँ बनी जिससे बस्तर के जंगलों में माओवादियों के पैर जमें । और नब्बे के दशक में उदारवादी नीतियों एवं मुक्त व्यापार के चलते जल, जंगल, जमीन, खदान और वन संपदा की लूट का जो सिलसिला शुरू हुआ उसी के चलते हिंसक संघर्ष भी तेज हुए, जिसके चलते आदिवासियों की जीवन स्थितियाँ और संस्कृति- दोनों ही खतरे में पड़ी । लेकिन इन सारी वस्तुपरक स्थितियों की अनदेखी करके कहानीकार घोटुल के बंद होने के सच के बहाने शोषण और संघर्ष की समूची विभीषिका को खारिज कर देता है ।  दरअसल, तरुण भटनागर की समस्या यह है कि वे अपनी उन्नीस साल की स्मृतियों और यथार्थ के  विपरीत कुछ नहीं लिख सकते ।  जबकि उन उन्नीस सालों के बाद बस्तर में जाने कितने तूफान आए गए ।  जिस घोटुल को वे पिंजड़े में बंद तोते के मानिंद आदिवासियों की जान बताकर पेश करते हैं, उसके बारे में आदिवासियों  के बीच संघर्षरत रहकर जिन अनुराधा घांडी ने सेरेब्रल मलेरिया की शिकार होकर अपनी जान गंवा दी, उनकी राय ध्यान देने योग्य है। उन्हीं के शब्दों ‘‘………क्षेत्र की लड़कियों में घोटुल प्रथा समाप्त करने के लिए सम्पर्क किया क्योंकि उन्हें यह तकलीफदेह लगता था कि रुचि न होने पर भी उन्हें हर रात घोटुल में नृत्य करने को विवश किया जाता था । इस मुद्दे पर बैठकें और रैलियां भी हुई और कईं  गांवों में घोटुल बंद किए गए या इतना तो हुआ ही कि लड़कियों के जबरन शामिल होने पर रोक लगी...... लेकिन कुछ बुजुर्गों के दबाव में कहीं-कहीं यह फिर से शुरु हो गया।  घोटुल का सच यह भी था कि आदिवासियों के बीच यौन खुलेपन का लाभ उठाकर बाहरी ठेकेदार, व्यापारी, पुलिसकर्मी और वन विभाग के कार्मिक भी मौके-बेमौके युवतियों का दैहिक शोषण कर उन्हें उनके भाग्य के भरोसे छोड़ देते थे. क्रांतिकारी महिला संगठन ने इस शोषण पर रोक लगाने के लिए जहां घोटुल प्रथा पर रोक लगाने की पहलकदमी की, वहीं उनके अधनंगेपन को भी ढंकने का अभियान शुरु किया ।  जिस घोटुल प्रथा की समाप्ति के अभियान पर कहानीकार ने अपना समूचा विमर्श केन्द्रित किया है, वह वस्तुतः उस क्रांतिकारी आदिवासी महिला संगठन का निर्णय था, जिसकी सदस्य संख्या आज एक लाख है । इस संगठन ने घोटुल के बिगड़ते स्वरूप पर ही प्रश्न चिन्ह नहीं लगाये बल्कि बाल-विवाह पर भी रोक लगाने की शुरुआत की और विधवा विवाह को भी आदिवासी समाज में प्रोत्साहित किया। इस क्रांतिकारी संगठन ने जहां भू-संपत्ति में महिलाओं की भागीदारी का समर्थन किया वहीं आदिवासी समाज की महिला विरोधी रुढ़ियों का भी विरोध किया। इनमें एक रुढ़ि मासिक धर्म के दौरान स्त्रियों केा गांव के बाहर रखने की परम्परा थी, जिस पर रोक लगाई ।
     सच तो यह है कि माओवादियों ने समूचे दंडकारण्य में आदिवासियों के जीवनयापन की एक ऐसी वैकल्पिक जीवन पद्धति विकसित करने का प्रयत्न किया जिसमें संस्कृति से लेकर शिक्षा, चिकित्सा और जनतांत्रिक अधिकार तक शामिल थे। जब माओवादियों को आदिवासी विरोधी सिद्ध करने के लिए उन्हें स्कूल को ध्वस्त करने वाला बताया जाता है तो इस सच पर पर्दा डाल दिया जाता है कि ये वही स्कूल है जहां सेना और पुलिस ने अपनी बैरकें बना रखी हैं । जिन मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और पत्रकारों ने माओवादियों के प्रभाव क्षेत्रों में भ्रमण किया है, उन्होंने अपने वृतांतों में आदिवासियों के बीच संस्कृति,शिक्षा, और चिकित्सा संबंधी वैकल्पिक प्रयासों  की विस्तृत चर्चा की है। इन प्रयासों के अंतर्गत जन चिकित्सालय, पुस्तकालय, रात्रि पाठशाला, प्राइमरी स्कूल व अध्यापकों के लिए निर्मित की गई झोंपड़ियों के बारे में तरुण भटनागर को जरूर जानकारी रखनी चाहिए थी क्योंकि ये घोटुल से कम जरूरी नहीं हैं ।
     दो राय नहीं कि कॉर्पोरेट घरानों के सफरमैना के रूप में की जाने वाली राज्य की हिंसा और आदिवासियों को बचाने के लिए की जाने वाली नक्सली हिंसा के बीच बस्तर सहित समूचा दंडकारण्य युद्ध क्षेत्र में तब्दील हो गया है और भोले, निरीह आदिवासी इसके सर्वाधिक शिकार हैं, विशेषकर तक जब सलवा जुडुम जैसे सरकारी अभियान के अंतर्गत लगभग सात सौं गांवों को नक्सलियों से सुरक्षा देने के नाम पर कॉर्पोरेट घरानों के लिए खाली करा लिया गया हो। छत्तीसगढ़ सरकार ने इन गांवों के पचास-पचपन हजार आदिवासियों को अपने कैम्पों  में शरण देने का दावा तो किया लेकिन बाकी आदिवासी किस दुर्दशा के भेंट चढ़ गए, इसका अता पता किसी का आज तक नहीं। समूचे सलवा जुडुम अभियान के दौरान आदिवासियों की सारी सांस्कृतिक व्यवस्थाएं, परंपराएं व तीज त्यौहार बंद हो गए । अब न तो उनकेग्रामों में मेला होता है न हाट बाजार । उस समूचे दौर में भयवश जाने कितने ही गांवों में शादी-ब्याह तक के उत्सव नहीं हुए। सलवा जुडुम के सदस्य और सुरक्षाकर्मी  समय-समय पर इन गाँवों में नक्सली उन्मूलन के नाम पर जाते थे और मासूम ग्रामीणों की हत्या तक कर देते थे ।  आदिवासी बालिकाओं और महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार व बलात्कार इस दौर की सामान्य बात रही है। समूचे क्षेत्र में आदिवासी मलेरिया सरीखी गंभीर बीमारियों के शिकार हो कर जान गंवा रहे हैं। न उनके इलाज की कोई व्यवस्था है न कोई मूलभूत सुविधा। लोग जंगल के कंदमूल और फल खाकर किसी तरह अपने जीवन को बचाए हुए है। वे डबरे के गंदे पानी को पीने व इस्तेमाल करने को अभिशप्त हैं, असमय बीमारियों का शिकार हो के वे असमय अपनी जान गंवा रहे हैं । यही कारण है कि आदिवासियों की संख्या में लगातार गिरावट हो रही है । दुर्भाग्य पूर्ण यह भी है कि जब इन हालातों से त्रस्त होकर कोई सजग आदिवासी अपनी पीड़ा व रोग व्यक्त करता है तो उसे देशद्रोह के अपराध में जेल के सीखचों के भीतर कैद कर लिया जाता है। सोनी सोरी व लिंगा कोडप्पी सरीखे जाने कितने ही ऐसे निरपराध आदिवासियों को सत्ता के दमन का शिकार इसलिए होना पड़ा कि वे उनकी मुखबिरी नहीं करते थे। इन आदिवासियों का अपराध यहीं है कि वे न तो सत्ता के साथ दलाली करना चाहते हैं और न नक्सलियों के साथ बंदूक उठाना ।  इन्हीं परिस्थितियों के चलते देश की सर्वोच्च अदालत ने सलवा जुडुम के इस समूचे सरकारी अभियान को गैर जनतांत्रिक और आदिवासी विरोधी करार देते हुए इस पर तुरंत रोक लगाने का आदेश दिया । क्या ही अच्छा होता यदि आदिवासियों की इस दारुण यातना को भी कहानीकार ने  अपनी विषय-वस्तु में शामिल किया होता । लेकिन वह इसे  अपने  कथ्य में शामिल करता भी तो कैसे ! ये तो भूख, उत्पीड़न और बेदखली के मुद्दे थे जो उसकी स्मृतियों और यथार्थ से बेदखल थे। स्वाभाविक ही था कि संस्कृति के दुर्ग में कैद होकर सत्ता के चश्मे से उसे बस्तर के अदृश्य व विरान नाचघर ही दीखते, उसके वे हाड़-मांस के रहवासी नहीं जो राजद्रोह के आरोप में छत्तीसगढ़ की जेलों में या तो बंद हैं या राज्य की हिंसा से बचने के लिए कहीं लुके-छिपे हैं। यह एक-दो नहीं, सैकड़ों-हजारों सोनी सोरी, लिंग कोडप्पी, सोमडु और कोण कुजंम की कथा है, जो कथा-वस्तु बनने से आज भी वंचित है।
        यह वास्तव में विडंबनात्मक है कि जब बस्तर की माटी में पला-बढ़ा कथाकार भारत भवन के बुर्ज से आदिवासियों के कामोत्तेजक नृत्य को न देख पाने से संतप्त हो तब कोई बाहरी हिमांशु कुमार बस्तर के आर्तनाद को दंतेवाड़ा वाणी के माध्यम से बहरे कानों को सुनाने के लिए रोज-ब-रोज उद्यत हो। गांधीवादी मानवाधिकार कार्यकर्ता हिमांशु कुमार ने लगभग दो दशक पूर्व बस्तर के दंतेवाड़ा के बासवगुड़ा ग्राम को अपनी कार्यस्थली तब बनाया था जब बस्तर का भद्र समाज सत्ता के गलियारों में अपनी ठौर तलाश रहा था। आदिवासियों के बीच काम करने के लिए उन्होंने वनवासी चेतना आश्रम की स्थापना की और उनकी भाषा गोंडवी सीखी। आदिवासियों को उनके अधिकारों की जानकारी दी और उन्हें जनतांत्रिक चेतना से लैस किया। गाँव-गाँव घूमकर उन्होंने अलग-थलग खड़े आदिवासियों को जनतांत्रिक व्यवस्था में शामिल होने की प्रेरणा दी, भ्रष्ट अफसरशाही के विरुद्ध अभियान छेड़ा और सलवा जुडुम के यातना चक्र का विरोध किया। लेकिन उनकी त्रासदी यह थी कि जहां नक्सल उन पर भरोसा नहीं करते थे, वहीं सरकारी तंत्र उन्हें नक्सल समर्थक मानता था। अंततः परिणाम यह हुआ कि उनका आश्रम सरकार द्वारा उजाड़ दिया गया और उन्हें छत्तीसगढ़ से बाहर जाने के लिए विवश कर दिया गया। आज भी अपने संपर्को के माध्यम से सरकारी दमन और उत्पीड़न के शिकार आदिवासियों की यातना कथा को जिस तरह से वे लगातार उद्घाटित कर रहे हैं, वह बेमिशाल है। कुछ ही समय पूर्व जब सलवा जुडुम अभियान अपने चरम पर था तब हिमांशु कुमार ने यह रहस्योद्घाटन कर सबको चौंका दिया था कि किस तरह सलवा जुडुम के कारकूनों ने इतिहासकार रामचन्द्र गुहा को नक्सलवादी कहकर गिरफ्तार करने की तैयारी उस समय कर ली थी जब वे पत्रकारों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के एक दल के साथ आदिवासियों के हालात जानने दंतेवाड़ा के कुछ गांवों में गए थे। विनायक सेन को नक्सल समर्थक करार देकर देशद्रोही सिद्ध करने की सरकारी मुहिम अब जगजाहिर है।
        आखिर ऐसा क्यों है कि विनायक सेन, गौतम नवलखा, अरुंधति राय, रामचन्द्र गुहा और हिमांशु कुमार सरीखे बाहरी लोग कार्पोरेट लूट से उत्पन्न जिस आदिवासी विस्थापन और उजाड़ से अवसन्न और आक्रोशित हैं, वह कहानीकार तरुण भटनागर के लिए मात्र एक गैर-मार्क्सवादी दुष्कर्म है? और कोबाड घांडी सरीखे सुख-सुविधा में पले-बढ़े बाहरी लोग अपने उस मार्क्सवाद का क्या करें?  जो उन्हें बस्तर के बीहड़  जंगलों में घातक रूप से आकर्षित कर तीहाड़ जेल के सींखचों के भीतर कैद कर देता है? और वह कौन सा दुर्निवार आकर्षण था जो अभिजातवर्गीय अनुराधा को मुंबई विश्वविधालय के अध्यापन से विरत कर बस्तर में घातक मलेरिया से ग्रस्त होकर जान तक गंवानी पड़ी? दरअसल ये आदिवासियों के उत्पीड़न व दुर्दशा के वे हालात थे जिनसे विचलित होकर पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह तक ने कहा कि इन हालात में मैं भी नक्सलवादी हो जाता। जब देश का योजना आयोग तक नक्सलवाद को असंतुलित विकास और आर्थिक वंचना का परिणाम मानता हो तब एक कहानीकार का इसे घोटुल समस्या बना देना सचमुच हैरतअंगेज है। तरुण भटनागर का कहना है कि “मैं अपने आप को कहीं किसी दल में फिट नहीं पाता, मेरी असहमतियां मुझे अकेला बनाती हैं ” सच यह है कि वे किस दल में और किसके साथ हैं, यह उनकी कहानी स्वतः बताती है। कहने की आवश्यकता नहीं कि वे सत्ताधारी पक्ष में कार्पोरेट घरानों के साथ हैं।
        संस्कृति अक्सर छद्दम आवरण धारण करती है। इस बार वह घोटुल रुदन के नाम पर कार्पोरेट घरानों के पक्ष में तरुण भटनागर की कहानी के रूप में अवतरित हुई है। काश, यह कहानी बस्तर के कथाकार द्वारा लिखी गई होती, भारत भवन के सी. ई. ओ. द्वारा नहीं!
 

 संपर्क: सी-855, इंदिरा नगर,
लखनऊ-226016
मो.09415371872




जनता का डाक्टर: जिसने विभेद से भरे हुए समाज का इलाज भी जरुरी समझा

 सुनील यादव  डाक्टर शब्द का का नाम आते ही एक ऐसे प्रोफेसनल व्यक्ति का अक्स उभरता है जो खुद के लिए बना हो. चिकित्सा के क्षेत्र में चिकित्सक क...