Sunday, 27 September 2015

सुभाष चन्द्र कुशवाहा के कहानी संग्रह ‘लाला हरपाल के जूते और अन्य कहानियां’ पर एक पाठकीय टिप्पणी



रामप्रकाश कुशवाहा


प्रसिद्ध कहानीकार, लोकचिन्तक एवं सक्रिय साहित्यधर्मी (एक्टिविस्ट के अर्थ में ) सुभाष चन्द्र कुशवाहा का पेंगुइन से प्रकाशित सद्यःप्रकाशित कहानी संग्रह "लाला हरपाल के जूते और अन्य कहानियां" अभी कल ही अमेज़न से घर बैठे मुझे प्राप्त हुई है. उनकी इस पुस्तक में कुल तेरह कहानियां हैं.- प्रजा रानी .बनाम कउआहंकनी', भटकुइयां इनार का खजाना ', लाला हरपाल के जूते', 'पेड़ लगाकर फल खाने का वक्त नहीं, ''रमा चंचल हो गयी है', 'सब कुछ जहरीला', 'बात थी उड़ती जा रही', 'कहाँ की धरती, कहाँ का मानुष', 'जर-जमीन-जिनगी', 'फ़ांस', 'यही सब चलेगा ?', रात के अंधियारे में',  और ' केहू ना चीन्ही'.
इन कहानियों को पढ़ते हुए जिस बात नें सबसे अधिक आकर्षित किया वह है सामाजिक बदलाव के प्रति समर्पित उनकी संकल्पधर्मी जिजीविषा-एक निर्णायक बौद्दिक एवं रचनात्मक असंतोष की ईमानदार साहसिकअभिव्यक्ति...जो हिंदी के साहित्यकारों में कबीर, निराला, प्रेमचंद्र, नागार्जुन, मुक्तिबोध, धूमिल, संजीव ,शिवमूर्ति, प्रेमकुमारमणि तथा कुछ सीमित सन्दर्भों में उदयप्रकाश और विभूतिनारायण राय आदि में ही मिलती है.. मेरी दृष्टि में इन साहित्यकारों नें जिनमें सुभाष जी सम्मिलित हैं. साहित्य की कलात्मक तटस्थता का अतिक्रमण कर जीवन की सच्चाइयों का सीधे-सीधे पक्ष लिया हैं. वे अपनी रचनाओं और कहानियों में परिवर्तन की निर्णायक इच्छा और मनःस्थितियां संप्रेषित करते हैं. इनकी रचनाएँ और कहानियां अपने मानवीय समय में पूरी संवेदनशीलता और संवेगों के साथ उपस्थित होती हैं..
सुभाष चन्द्र कुशवाहा की इस नवीनतम संग्रह की कहानियां अपनी संरचनात्मक एवं विधात्मक विशिष्टता की दृष्टि से विमर्शात्मक, सम्प्रेषणधर्मी एवं लोकसंवादी हैं. उनकी अधिकांश कहानियां गुजरते समय का वृहत्तर कथा-रूपक प्रस्तुत करती हैं ..उनकी कहानियां अभिव्यक्ति के खतरे उठा कर भी सच को अपने पाठकों तक पहुँचाने का प्रयास करती हैं. सही नैतिक पक्ष की प्रतिरोधी संवेदनशीलता.. जुझारू मानसिकता, अप्रिय यथार्थ के स्पष्ट अस्वीकृति का साहसिक आक्रोश तथा क्रांतिधर्मी आवेग एवं मनःस्थिति के साथ सुभाषचन्द्र कुशवाहा की कहानियां हिंदी केअभिजन कथा -साहित्य के समानांतर लोकधर्मी हिंदी कहानी की बिलकुल अलग परिकल्पना तथा संरचना का पता देती हैं.

Friday, 25 September 2015

हिंदी उपन्यास की आरम्भिक आलोचना और गोपाल राय



सुनील यादव

हिंदी आलोचना अपने आरम्भिक दौर से ही कविता केंद्रित रही है। गद्य की अन्य विधाओं के आर्विभाव के साथ आलोचना का भी आर्विभाव और विकास हुआ। यह महत्वपूर्ण और दिलचस्प बात है कि जो हिंदी आलोचना अपने केन्द्र में कविता को रख कर विकासित हुई, उसकी शुरूआत नाट्यलोचन से हुई थी। भारतेन्द हरिश्चन्द्र द्वारा 1983 में लिखी गई संक्षिप्त पुस्तिका नाटक अथवा दृश्य काव्य से हिंदी आलोचना की शुरूवात मानी जाती है। भरतेन्दु युग वास्तव में गद्य विधाओं की उत्पत्ति के संदर्भ में उर्वर काल माना जाएगा। भारतेन्दु युग से लेकर प्रेमचन्द्र युग तक कथा साहित्य का जोरदा विकास हुआ। उसमें उपन्यास विधा के विकास की चर्चा महत्वपूर्ण हो जाती है। यह दौर हिंदी उपन्यास के जासूसी, सुधारवादी, तिलस्मी, अय्यारी दुनिया के बदलने का भी दौर है, क्योंकि प्रेमचंद ने अपने उपन्यासों से सामाजिक यथार्थ का जो रास्ता तैयार किया उस पर हिंदी उपन्यास विधा  को दूर तक जाना था। जहां तक उपन्यास आलोचना का सवाल है- ‘‘बालकृष्ण भट्ट से लेकर आचार्य रामचन्द्र शुक्ल तक प्रायः सभी आलोचकों ने उपन्यास पर भी लिखा था, भले ही अनुपात की दृष्टि से बहुत कम हो या फिर उपन्यास की आलोचना के संदर्भ में उसका वैसा ऐतिहासिक मूल्य न हो जैसा मराठी में विश्वनाथ काशीनाथ राजवाड़े (1863-1926) के उपन्यासशीर्षक से लिखित एक लंबे निबंध का है। जिसमें यूरोपीय उपन्यास के सन्दर्भ में रोमांटिक और यथार्थवादी उपन्यासों की मीमांसा की गंभीर चर्चा की है।”1  वास्तव में रामचन्द्र शुक्ल का उपन्यास संबंधी मूल्यांकन कई संदर्भो में हिंदी कथा आलोचना को दिशा प्रदान करने वाला था। रामचन्द्र शुक्ल की आलोचना दृष्टि की सीमाएं कबीर आदि के मूल्यांकन को लेकर भले ही रही हों, पर उपन्यास के संदर्भ में लिखते हुए, अपने आलोचकीय विवेक से जिस तरह उन्होने देवकीनन्दन खत्री और किशोरी लाल गोस्वामी को अलगाया, निश्चित रूप से आलोचना की उनकी यह दृष्टि हिंदी कथा आलोचना को एक सूत्र मुहैया कराती है। देवकीनंदन खत्री के उपन्यासों के संदर्भ में लिखते हुए वे कहते हैं कि ‘‘इनके उपन्यासों का लक्ष्य केवल घटना वैचित्र्य रहा, स संचार, भावविभूति या चरित्र चित्रण नहीं। ये वास्तव में घटना प्रधान कथानक या किस्से हैं जिनमें जीवन के विविध पक्षों के चित्रण का कोई प्रयत्न नहीं, इससे ये साहित्य की  कोटि में नहीं आते।’’2  इसके बरक्स वे किशोरी लाल गोस्वामी के संदर्भ में लिखते हैं कि ‘‘पंडित किशोरी लाल गोस्वामी जिनकी रचनाएं साहित्य की कोटि में आती हैं। इनके उपन्यासों में समाज के कुछ सजीव चित्र, वासनाओं के रूप रंग, चित्ताकर्षक वर्णन और थोड़ा बहुत चरित्र-चित्रण भी अवश्य पाया जाता है।3
                इस प्रकार शुक्ल जी लोकप्रिय साहित्य और शुद्ध साहित्य के फर्क को जिस तरह अपनी आलोचकीय प्रतिभा से स्पष्ट कर रहे थे वे महत्वपूर्ण था। उनके लिए साहित्यिक कोटि का उपन्यास होने के लिए उसमें जीवन के विविध पक्षों का आना जरूरी था, वे  चमात्मकारवादी, थार्थवादी उपन्यासों को, जिनका समाज की ड़कन से कोई खास सरोकार नहीं था, साहित्य की कोटि में ही मानने से ही इनकार कर दिया। यह हिंदी कथा आलाचेना के आरम्भिक दौर की, सबसे महत्वपूर्ण बात थी। इसके साथ ही शुक्ल जी ने आधुनिक ढंग के उपन्यासों की विशेषता बताते हु यह भी प्रतिपादित कर दिया था कि ये नये ढंग के  उपन्यास पुरानी कथा- कहानी से अपने विशिष्ट गुणों के साथ अलग हो जाते हैं। वे लिखते हैं कि ‘‘योरोप में जो नए ढंग के कथानक नावेल ने नाम से चले और बंगभाषा में आकर उपन्यासकहलाए (मराठी में वे कादम्बरी कहलाने लगे) वे कथा के भीतर की कोई भी परिस्थिति आरम्भ में रखकर चल सकते हैं और उसमें घटनाओं की श्रृखंला लगातार सीधी न जाकर इधर-उधर और श्रृखलाओं से गुंफित होती चलती है और अंत में जाकर सबका समाहार हो जाता है। घटनाओं के विन्यास की यह वक्रता या वैचित्रय उपन्यासों और आधुनिक कहानियों की वह प्रत्यक्ष विशेषता है जो उन्हें पुराने ढंग की कथा कहानियों से अलग करती है।’’4
                अगर हम शुक्ल जी से कुछ आगे बढ़े तो हमें तीन नाम पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी इलाचन्द्र जोशी तथा देवराज उपाध्याय का दृष्टिगत होता है, जो कथा आलोचना में अपने विशेष आलोचकीय समझ के साथ उपस्थित दिखाई देते हैं। बख्शी जी कथालोचना के क्षेत्र में अपनी दो पुस्तकों से  चर्चित हुए, वे अपनी पहली पुस्तक विश्व-साहित्यके माध्यम से भारतीय पाठकों की लिए विश्वसाहित्य की खिड़की खोल देते हैं। इस किताब में वे विश्व साहित्य के समानांतर भारतीय साहित्य के मूल्यांकन की तुलनात्मक पद्धति की शुरूआत करते हैं। उनकी दूसरी पुस्तक हिंदी कथा साहित्यजो 1954 में प्रकाशित हुई, कथालोचना के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण हस्तक्षेप थी। ‘‘लोक प्रियता बनाम कलात्मकता के द्वंद में बख्शी जी लोक प्रियता की उपेक्षा नहीं करते, इसीलिए आचार्य रामचन्द्र शुक्ल से भिन्न वे देवकीनन्दन खत्री के चमत्कारिक प्रभाव को गहराई से रेखांकित कर पाने में सफल हुये हैं।”5 उपन्यास की आलोचना में मनोवैज्ञानिक प्रभाव को रेखांकित करने वाले आलोचकों में इलाचन्द्र जोशी और देवराज उपाध्याय का नाम प्रमुख है।इलाचन्द्र जोशी की आलोचकीय समझ मनोविज्ञान से इस तरह प्रभावित है कि वे सामाजिक यथार्थवादी उपन्यासों के मूल्यांकन में चूक कर जाते हैं इसी लिए उपन्यास के आस्वादक कम छिद्रान्वेषी ज्यादा दिखते हैं, देवराज उपाध्याय ने भी मनोविज्ञान के प्रभाव मे उपन्यास विधा पर लिखा, जैनेन्द्र के उपन्यासों पर उनकी आलोचकीय दृष्टि एक अच्छी समझ बना पाई है उनकी चर्चित किताबों में उपन्यास और मनोविज्ञान एवं जैनेन्द्र के उपन्यासों का मनोवैज्ञानिक अध्ययन  मुख्य हैं।
                इसी दौर में विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में उपन्यासों की समीक्षाएं प्रकाशित हो रही थीं, उस दौर में पुस्तक समीक्षा एक गंभीर आलोचना कर्म माना जाता था, आज की तरह पुस्तक समीक्षा को हल्के में  हीं लिया जाता था, गंभीर समीक्षाएं लिखी जा रही थीं, नलिन विलोचन शर्मा, शमशेर बहादुर सिंह, शिवदान सिंह चैहान, प्रभाकर माचवे, या यूं कहें ‘‘बालकृष्णभट्ट से लेकर राम विलास शर्मा, नामवर सिंह तक सभी ने इस काम (उपन्यास समीक्षा) को गंभीरता से किया।’’6  लेकिन यह ध्यान देना होगा कि ये आलोचक मुख्यतः कविता के आलोचक ही थे, जो छिटपुट उपन्यासों पर लिखा करते थे।
                नेमिचंद्र जैन और भारत भूषण अग्रवाल ने अपने महत्वपूर्ण आलोचनात्मक कर्म से हिंदी उपन्यास की समीक्षा को समृद्ध किया। नेमिचन्द्र जैन ने अपनी पुस्तक अधूरे  साक्षात्कारमें हिंदी के नौ महत्वपूर्ण उपन्यासों पर विस्तृत लेख लिखा है। यह किताब अपने तमाम विचारधारात्मक अंतद्वंदों के बावजूद उपन्यास की आलोचना के लिये महत्वपूर्ण है। इस दृष्टि से उनकी दूसरी किताब जनान्तिकमें हांलाकि उपन्यास के अतिरिक्त कविता, कहानी, नाटक और आलोचना पर भी लेख है, परन्तु इस किताब में उन्होंने रागदरबारी’, ‘गांठ’, ‘हत्या’, ‘जुगलबंदी’, चिड़ियाघर, टोपी शुक्ला, ‘सूरजमुखी अंधेरे के’, वह अपना चेहराइत्यादि उपन्यासों का गंभीर मूल्यांकन किया है। नेमिचन्द्र जैने के लि‘‘आलोचना किसी रचना की दूसरे दर्जे की व्याख्या नहीं, बल्कि उस रचना के माध्यम से यथार्थ और उसके जीवन्त अनुभव का फिर से साक्षात्कार है। जिस हद तक आलोचक समीक्षक में जीवन्त अनुभव के प्रति ऐसी संवेदनशीलता और ग्रहण-क्षमता है उस हद तक ही आलोचना एक सार्थक और उत्तेजक कर्म  है।”7  
                भारत भूषण अग्रवाल अपने शोध-प्रबंध ‘‘प्रेमचन्द्र परवर्ती हिंदी उपन्यास पर पाश्चात्य प्रभावके कारण चर्चा में आए। इसका प्रकाशन 1971 में हुआ, मूलतः यह तुलनात्मक शोध पद्धति पर आधारित उपन्यास की आलोचना का शोध ग्रन्थ ही है। चर्चित आलोचक मधुरेश ने नेमिचन्द्र जैन और भारत भूषण अग्रवाल की आलोचना दृष्टि की सीमाओं का बेहतर ढंग से निर्धारण करते हुए लिखा है कि ‘‘नेमिचन्द्र जैने की अधुरे साक्षात्कारके प्रतिमान मुख्यतः शीतयुद्ध के दौर में निर्मित और विकसित थे, जिनमें मार्क्सवाद से पाला बदले आलोचक की सोच स्पष्ट है, कमोवेश यहीं स्थिति भारत भूषण अग्रवाल के इस शोध प्रबंध की भी है।’’8
                नेमिचन्द्र जैन और भारत भूषण अग्रवाल के बाद उपन्यास की आलोचना के क्षेत्र में जिन प्रमुख आलोचकों ने अपने आलोचना कर्म से इसे एक ठोस धरातल पर खड़ा  करनेका कम किया है, उनमें गोपाल राय, चंद्रकांत बांदिवडेकर, वजियमोहन सिंह, सुरेन्द्र चैधरी, मधुरेश, नवल किशोर, वीरेन्द्र यादव, रोहिणी अग्रवाल, विजय बहदुर सिंह परमानदं श्रीवास्तव, शिवकुमार मिश्र, इत्यादि हैं। लेख की सीमा को ध्यान में रखते हुए  इन सभी महत्वपूर्ण आलोचकों पर बात करना सम्भव नहीं है, इन पर विस्तृत बात फिर कभी। फिलहाल चर्चित आलोचक गोपाल राय की उपन्यास संबंधी महत्वपूर्ण कार्यों और उनकी उपन्यास की आलोचना दृष्टि पर ही  बात केन्द्रित करेंगे।

गोपाल राय विशुद्ध रूप से उपन्यास के आलोचक हैं, उन्होंने अपने शोध दृष्टि से उपन्यास की आलोचना के क्षेत्र में एक नया क्षितिज खोला है। वे अकादमिक आलोचना के एक गंभीर व्यक्तित्व हैं, जिन्होंने ठहरकर हिंदी उपन्यासों पर काम किया है। उपन्यास आलोचना के क्षेत्र में वे अपने शोध प्रबंध ‘‘हिंदी कथा साहित्य और उसके विकास पर पाठकों की रूचि का प्रभावसे पदार्पण किया। उनका यह शोध प्रबंध सन् 1965 ई. में ग्रंथ निकेतन पटना से प्रकाशित हुआ। इसकी भूमिका लिखते हुए नगेन्द्र ने कहा था कि ‘‘विषय की नवीनता और निरूपण की गंभीरता  दोनों ही दृष्टियों से मैं प्रस्तुत शोध प्रबंध को पर्याप्त महत्वपूर्ण मानता हूं।’’9  गोपाल राय ने अपने इस प्रबंध में हिंदी कथा साहित्य पर चर्चा करते हुए उपन्यासों के विषय, शिल्प और भाषा तीनों पर दृष्टि बनाये रखा है। वे खुद दावा भी करते हैं कि ‘‘जहां तक मेरी जानकारी है, यह प्रयत्न हिंदी उपन्यासालोचन के क्षेत्र में ही नही हिंदी काव्यालोचन के क्षेत्र में भी प्रथम है।’’10  गोपाल राय ने अपने इस शोध प्रबंध में हिंदी कथा साहित्य का जो काल विभाजन किया है, वह काल विभाजन उनकी नयी किताब हिंदी उपन्यास का इतिहास (2002) तक आते-आते पूरी तरह बदल जाता है। अपने शोध प्रबंध में उन्होंने निम्न काल विभाजन किया है-
1.            किस्सा कहानियों का युग (1800-1869 ई.)
2.            हिंदी उपन्यास का उद्भव और शैशव काल (1870-1889 ई.)
3.            हिंदी उपन्यास का विकास (प्रथम चरण): प्रेमचन्द्र पूर्व युग (1890-1917 ई.)
4.            हिंदी उपन्यास का विकास (द्वितीय चरण): प्रेमचन्द्र युग (1918-1936 ई.)
5.            हिंदी उपन्यास का विकास (तृतीय चरण): प्रेमचन्दोत्तर युग (1936 से अब तक)
 जबकि उनकी नयी पुस्तक ‘‘हिंदी उपन्यास का इतिहासमें काल विभाजन का प्रयत्न विल्कुल नया है, जिसके संदर्भ में उनका विचार है कि इतिहास की किताबों में सबसे मुश्किल काम काल विभाजन और नामकरण का है। ‘‘यदि हम उपन्यास को एक वृक्ष के रूप में देखते हैं तो प्रथम काल को क्षेत्र निर्माण काल’, द्वितीय को पादप काल’, तृतीय को पल्लवन काल’, चतुर्थ को प्रौढत्व कालऔर पंचम को विस्तार कालकहा जा सकता है। इस किताब में काल विभाजन तो हमने बहुत कुछ इसी पद्धति पर किया है, पर उसके नामकरण में कुछ नयापन लाने की कोशिश की है।’’11  इस नयेपन के प्रयास में गोपाल राय ने हिंदी उपन्यास के कुछ बेहद महत्वपूर्ण ई. सन (1803, 1870, 1891, 1918, 1937, 1947) को आधार बनाकर जो नामकरण किया वो निम्न है-
1.            दरवाजे पर दस्तक (1801-1869)
2.            नवजागरण और हिंदी उपन्यास (1870-1890)
3.            रोमांस पाठक और उपन्यास (1891-1917)
4.            यथार्थ के नये स्वर (1918-1947)
      (क) केन्द्र में किसान (1918-1936)
      (ख) नयी दिशाओं की तलाश (1937-1947)
5.            विमर्श के नये क्षितिज (1948-1980)
6.            समकालीन परिदृश्य (1981-2000)
       गोपाल राय ने अपने शोध प्रबं से शुरू करके हिंदी उपन्यास का इतिहासकिताब तक की यात्रा में लगातार अपने को संतुलित किया है, सन् 1964  से 2000 तक की यह यात्रा एक आलोचक के शैशव से प्रौढ़ होने की यात्रा भी है, उपर्युक्त काल विभाजन उनकी उत्तरोत्तर प्रौढ़ होती आलोचकीय दृष्टि की ही परिचायक है। इस काल विभाजन में उन्होंने यह कोशिश की है कि हिंदी उपन्यास का विकास तो रेखांकित हो ही, उसके साथ प्रत्येक काल की प्रवृत्तियां अपने समूचे विशिष्टताओं के साथ उभर आएं

                गोपाल राय ने हिंदी उपन्यास कोशदो खंडो में लिखा जो क्रमशः 1968 और 1969 में प्रकाशित हुए। इसके पहले खण्ड में 1870 से 1917 और दूसरे खण्ड में 1918 से 1936 तक के प्रकाशित उपन्यासों को शामिल किया गया है। हिंदी उपन्यास की आलोचना के क्षेत्र में उनका यह  काम निर्विवाद रूप से मिल का पत्थर है। हिंदी उपन्यास कोश का महत्व हिंदी साहित्येतिहास लेखन से लेकर उपन्यास के मूल्यांकन तक बना हुआ है।
                उपन्यास की संरचना को लेकर हिंदी ही क्या, भारतीय भाषाओं में भी कोई खास काम नहीं हुआ है। पाश्चात्य में उपन्यास के संरचना पक्ष पर महत्वपूर्ण कार्य हुआ है। यूरोप में उपन्यास के विकास के साथ लगातार उसकी शिल्प-प्रविधि पर चर्चा होती रही है, उन्हीं शिल्प प्रविधियों को गोपाल राय हिंदी उपन्यास पर लागू करते हुए उसके संरचना को टटोलने की कोशिश करते हैं, अपने इस प्रयास में वे कहीं भी पाश्चात्य की इस शिल्प-प्रविधि के नकल का शिकार नहीं होते, बल्कि हिंदुस्तान में विकासित कथा के अपने खास टेक्नीक को उसी की पृष्ठ भूमि में पश्चिम के अपनाये संरचना के टूल्स का इस्तेमाल करते हुए मूल्यांकन करते हैं। इसीलिए वे यह कहते हैं कि उपन्यास अंर्तवस्तु के स्तर पर जितना मूर्त होता है, अपने रूप के कारण उतना ही अमूर्त। दरअसल उपन्यास की संरचना पुस्तक उनकी पूर्व प्रकाशित किताब उपन्यास का शिल्प का ही विकसित रूप है।
                गोपाल राय ने गोदान, मैला आंचल, रंगभूमि’, शेखरः एक जीवनी, दिव्या, महाभोज इत्यादि उपन्यासों पर स्वतंत्र पुस्तकें भी लिखी। गोपाल राय की इन स्वतंत्र पुस्तकों का महत्व इस अर्थ में है कि ये पुस्तकें जिन उपन्यासों को केन्द्र में रखकर लिखी गई थी, वह अपने दौर के महत्वपूर्ण उपन्यास हैं। उपन्यासों का यह चयन गोपाल राय की आलोचकीय दृष्टि की विविधता को दिखाता है। गोपाल राय उपन्यास में शिल्प वैविध्य को पूरा स्पेस देने की बात करते हैं।उपन्यासकार का विचार उपन्यास में अपने विजनतक पहुंचे, उपन्यासकार से  यह उनकी आलोचकीय डिमांड है ‘‘हिंदी उपन्यास ने सार्थक शिल्प प्रयोग की दृष्टि से वे अज्ञेय, हजारी प्रसाद द्विवेदी, राहुल, सांकृत्यायन, नागार्जुन, रेणु आदि को पर्याप्त महत्व देते हैं। भाषा की दृष्टि से वृंदावन लाल वर्मा के अधिकांश उपन्यासों की भाषा यदि उन्हें स लगती है तो कृष्णा सोबती के जिंदगीनामाकी परिनिष्ठित हिंदी उन्हें पंजाबी प्रयोगों से आक्रांत होने के कारण अबोधगम्य और बोझिल प्रतीत होती हैं।’’12
                गोपाल राय अपने विश्लेषण की प्रक्रिया में कथ्य वैविध्य, विजन, चरित्र दृष्टि, शिल्प और भाषा को किसी भी उपन्यास के लिए जरूरी तत्व के मानते हैं।अपनी आलोचना प्रक्रिया  में वे कोशिश करते हैं कि ‘‘कुछ ऐसे मानक उभर सकें जो अच्छे और बुरे तथा सफल एवं असफल उपन्यास में अतंर करने में सहायक हों।’’13  उनके इस प्रयास में कुछ अंर्तद्वंद भी उभरते हैं जिससे लगातार वे टकारते रहे हैं, उदाहरण स्वरूप शानीऔर राही मासूम रज़ाके उपन्यासों का मूल्यांकन देखा जा सकता है। हर रचनाकार की अपनी कुछ विशिष्टताएं होती हैं, जिससे वह किसी दूसरे रचनाकार से भिन्न दिखता है। पर आप जब दोनों का मूल्यांकन करते हुए एक को दूसरे की अपेक्षा छोटा या बड़ा, अच्छा-बुरा दिखाने लगते हैं तो उसके कुछ खतरे भी होते हैं, जिन खतरों से आलोचक को सावधान रहना जरूरी हो जाता है। गोपाल राय शानी के कालाजलके संदर्भ में लिखते हुए एक जगह यह कहते हैं कि ‘‘काला जल निम्न मध्यवर्गीय मुस्लिम समाज का अत्यंत प्रमाणिक दस्तावेज है।’’14 वहीं जब वे राही मासूम रजा के आधागांवका मूल्यांकन कर रहे होते हैं, तो यह लिख जाते हैं कि ‘‘शानी ने काला जल में बस्तर क्षेत्र के मुस्लिम जीवन का चित्रण किया था, पर उसमें वह वैविध्य और व्यापकता नहीं है, जो राही के आधा गांव में है।’’15  यही खतरे पैदा होंगे जब आप दो भिन्न फलक की महत्वपूर्ण रचनाओं को एक साथ रखकर, छोटा, बड़ा करके देखने की कोशिश करेंगे। यह तथ्य है कि कालाजलमुस्लिम समाज के उपर हिंदी में लिखा गया अब तक सबसे महत्पूर्ण उपन्यास है, पर आधागांव का मुस्लिम समाज वह मुस्लिम समाज नहीं है जो काला जलका है। यदि काला जल निम्नमध्यवर्गीय मुस्लिम समाज का प्रमाणिक दास्तावेज है, तो आधागाँ शिया मुसलमानों जो मूलतः छोटे बड़े जमींदार हैं, के जीवन का महकाव्यात्मक आख्यान हैआधागांव भारत विभाजन, राष्ट्रवाद के संदर्भ में मुस्लिम मानस को परखने के दृष्टि से बड़ा उपन्यास है, तो काला जल मुस्लिम समाज के यथार्थवादी चित्रण के कारण एक कालजयी कृति है, दोनों अपने-अपने विषय क्षेत्र के अद्भुत उपन्यास हैं परंतु जब हम दोनों को साथ रखकर तुलनात्मक रूप से अच्छे-बुरे का का निर्धारण करने लगते हैं तो गंभीर आलोचना भी सपाटबयानी तरह की शिकार हो जाती हैअपनी आलोचना दृष्टि के तमाम अंतर्विरोधों के बावजूद गोपाल राय हिंदी उपन्यास की आलोचना के क्षेत्र में एक विजनरी आलोचक के रूप में हमारे सामने उपस्थित हैं। उन्होने कई महत्वपूर्ण उपन्यासों को, जो किसी कारण बस पाठकों एवं आलोचकों के ध्यान में नहीं आ पाये थे, अपने बेहतरीन मूल्यांकन से उन्हे न सिर्फ चर्चा में लाये बल्कि हिन्दी उपन्यास के क्षेत्र में केन्द्रीयता प्रदान कराया
                गोपाल राय हिंदी का पहला उपन्यास पं. गौरीदत्त के देवरानी जेठानी की कहानी (1870) को मानते हैं। सन् 1966 में इस उपन्यास का संपादन-प्रकाशन करते हुये उन्होंने इसके पहले उपन्यास होने को लेकर पर्याप्त ठोस तर्क उपस्थित कियाउन्हीं के शब्दों में ‘‘विषय, शिल्प, भाषा चाहे जिस दृष्टि से देखा जाए,........देवरानी जेठानी की कहानीविशिष्ट है अतः हिंदी उपन्यास का आरम्भ यदि किसी पुस्तक से माना जा सकता है, तो इसी से।’’16 आचार्य रामचन्द्र शुक्ल द्वारा प्रथम उपन्यास का दर्जा प्राप्त, लाला श्री निवास दास के परीक्षा गुरू (1982) को वे कलात्मक दृष्टि से महत्वपूर्ण तो मानते हैं, पर अपने तमाम शोधों एवं तर्को के के आधार पर उन्होंने देवरानी जेठानी की कहानीका हो हिंदी का पहला उपन्यास सिद्ध किया।
                गोपाल राय पूरी तैयारी के साथ उपन्यास आलोचना के क्षेत्र में उतरे थे हिंदी उपन्यास का इतिहासनामक उनके किताब से गुजरते हुए, उनकी गंभीर शोध दृष्टि को महसूस किया जा सकता है। उदाहरण स्वरूप, हिंदी में उपन्यास शब्द का प्रयोग कब हुआ? इसकी खोज में वे बांग्ला साहित्य से लेकर हिंदी की पत्र-पत्रिकाओं तक को खंगालते हुए लिखते हैं कि- ‘‘नॉवेल के लिए उपन्यास पद का प्रयोग तो हिंदी को बांग्ला की देन है ही। बांग्ला में भी उपन्यासपद का प्रथम प्रयोग भूदेव मुखोपाध्याय ने 1862 ई. में अपनी ऐतिहासिक उपन्यास नामक कथा पुस्तक के शीर्षक में किया था... हिंदी में नॉवेलके अर्थ में उपन्यास पद का प्रथम प्रयोग भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने 1875 ई. में हरिश्चन्द्र चन्द्रिकाके फरवरी और मार्च, 1875 के अंको में धारावाहिक रूप में प्रकाशित अपूर्ण कथा मालतीके लिए किया था।’’17
                हिंदी उपन्यास को हिंदी-भाषी जनता की राष्ट्रीय आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति मानने वाले गोपाल राय निश्चित रूप से हिंदी उपन्यास के एक संपूर्ण आलोचक हैं। इनकी आलोचकीय दृष्टि पर बात करते हुए प्रख्यात आलोचक मधुरेश जी के इस बात से सहमत होना पड़ता है कि ‘‘गोपाल राय प्रगतिवादी आलोचकों के संबंध में प्रायः ही व्यंग्य और कटाक्ष से बात करते हैं। लेकिन उनमें किसी सुनिर्दिष्ट और सुपरिभाषित वैचारिक स्टैण्ड का अभाव उनके मूल्यांकन को प्रभावित करता है। ऐसे अवसरों पर वे रांगेय राघव से बड़ा लेखक नरेन्द्र कोहली को मानते दिखाई देते हैं या फिर राही मासूम रजा और नार्गाजुन की अपेक्षा विवेकी राय की।’’18
संदर्भ-
1.हिंदी आलोचना का विकास- मधुरेश, सुमित प्रकाशन, इलाहाबाद; पृ. 261
2.हिंदी साहित्य का इतिहास- आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, पृ. 342
3.हिंदी साहित्य का इतिहास- आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, पृ. 343
4.हिंदी साहित्य का इतिहास- आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, पृ. 345
5.हिंदी आलोचना का विकास- मधुरेश, सुमित प्रकाशन, इलाहाबाद, पृ. 32
6.अन्यथा (अंक-16) (सं.) सुखजोत, अन्यथा साहित्य संवाद, लुधियाना,पृ. 127
7.नान्तिक- नेमिचन्द्र जैन, संभावना प्रकाशन, हापुड़ (सं.) 1981 (भूमिका से)
8.अन्यथा (अंक-16) (सं.) सुखजोत, अन्यथा साहित्य संवाद, लुधियाना,पृ. 128
9.हिंदी कथा साहित्य और उसके विकास पर पाठकों की रूचि का प्रभाव- गोपाल राय, ग्रंथ निकेतन पटना (सं.) 1965 (भूमिका से)
10.हिंदी कथा साहित्य और उसके विकास पर पाठकों की रूचि का प्रभाव- गोपाल राय, ग्रंथ निकेतन पटना (सं.) 1965, आमुख से
11.हिंदी उपन्यास का इतिहास- गोपाल राय, राजकमल प्रकाशन,नई दिल्ली (2000) पृ. 10
12.हिंदी आलोचना का विकास- मधुरेश, सुमित प्रकाशन, इलाहाबाद, पृ. 263
13.हिंदी आलोचना का विकास- मधुरेश, सुमित प्रकाशन, इलाहाबाद, पृ. 263
14.हिंदी उपन्यास का इतिहास- गोपाल राय, राजकमल प्रकाशन,नई दिल्ली (2000) पृ. 290
15.हिंदी उपन्यास का इतिहास- गोपाल राय, राजकमल प्रकाशन,नई दिल्ली (2000)   पृ. 293
16.हिंदी कथा साहित्य और उसके विकास पर पाठकों की रूचि का प्रभाव- गोपाल राय, ग्रंथ निकेतन पटना (सं.) 1965, पृ. 218
17.हिंदी उपन्यास का इतिहास- गोपाल राय, राजकमल प्रकाशन,नई दिल्ली (2000) पृ. 36-37
18.अन्यथा (अंक-16) (सं.) सुखजोत, अन्यथा साहित्य संवाद, लुधियाना,पृ. 129




जनता का डाक्टर: जिसने विभेद से भरे हुए समाज का इलाज भी जरुरी समझा

 सुनील यादव  डाक्टर शब्द का का नाम आते ही एक ऐसे प्रोफेसनल व्यक्ति का अक्स उभरता है जो खुद के लिए बना हो. चिकित्सा के क्षेत्र में चिकित्सक क...