यदुवंश प्रणय
शादी बहुत सारे मामलों में एक समझौता है, जिसकी स्थितियाँ जानते
हुए उसे ढोना किसी भी ज़िंदगी के लिए कैसा हो सकता है और उससे आज़ाद होने में समाज
और परिवार से कैसे सामना करना पड़ता है उसकी एक हाई-प्रोफाइल झलक दिखलाती है 'दिल धड़कने दो'। अपनी बहुत कुछ खामियों के बावजूद
फिल्म रिश्तों के बिखराव, दिखावेपन,
झूठी इज्जत जैसी चीजों को दिखाने मे सफल है। फिल्म में इन बातों को दिखाने के लिए
ज़ोया अख्तर ने एक उच्च-वर्गीय उद्यमी मेहरा परिवार को गढ़ा है, जिसके मुखिया अनिल कपूर और उनकी पत्नी शेफाली शाह हैं। प्रेम अधिकांशतः
शादी के बाद कैसे अपनी पारंपरिक विवाह वाले गुणों को ओढ़ लेता है, वह इन दोनों के रिश्तों में दिखता है। न चाहते हुए भी ये समाज के सामने
एक कुशल दम्पति हैं। इनकी बेटी प्रियंका चोपड़ा की बेमेल शादी राहुल बोस से होती
है। राहुल एक पारंपरिक उच्च-वर्गीय भारतीय पति के रूप में हैं, जिनको बहुत ही चलताऊ भाषा में खड़ूस कहा जा सकता है। वहीं प्रियंका चोपड़ा
एक खुली सोच वाली और अपने मेहनत के दम पर स्थापित एक कंपनी की मालकिन है जिस कारण
से वह फोर्ब्स की 10 शक्तिशाली महिलाओं की सूंची में शामिल है। यही दोनों
शादी-शुदा ज़िंदगियाँ इस कहानी की जीस्ट में हैं। बाकी के पात्र रणवीर, अनुष्का और फरहान सहायक की भूमिका में नज़र आते हैं। एक और पात्र प्लूटो, जो कि एक कुत्ता है और इसको आवाज़ दी है आमिर ख़ान ने। यह इस पूरी कहानी को
कहता है, पात्रों से परिचय करवाता है और मानवीय संबंधों और
जानवरों को लेकर तुलनात्मक रूप से कुछ तार्किक बातें भी करता है। कहीं-कहीं तो इस
खोखले मानव समाज की पुरजोर चुटकी लेता नज़र आता है।
कहानी अनिल और शेफाली कि 30वीं सालगिरह की
पार्टी से शुरू होती है। जिसके लिए एक बहुत ही महंगा क्रूज़ किराए पर लिया गया है।
इसके आमंत्रण के लिए छपवाए गए कार्ड पर केवल अनिल के बेटे रणवीर का ही नाम है, जिससे प्रियंका बहुत
दुःखित है। इसको लेकर प्लूटो कहता है, लड़कियां शादी के बाद
परायी ही होती हैं। यह बात लड़की की शादी की समाजिकता को बयां करता है कि शादी के
बाद उसके प्रति पारिवारिक भागीदारी के अलावा पारिवारिक भावनाओं में भी कमी आ जाती
है। किराए पर लिया गया क्रूज़ एक ऐसा क्रूज़ है जो समान्यतः कोई व्यक्ति सोच ही नहीं
सकता। हाई-प्रोफाइल पाँच सितारा रेस्तरां, सुसज्जित वेटर, महंगे खाने और शराब से युक्त यह क्रूज़ सूरज बड़जात्या और यशराज की फिल्मों
के पार्टियों की चकाचौंध को भी फीकी करता है। यह उच्च मध्यवर्ग को रिझाने के लिए
एक नया प्रयास कहा जा सकता है। फिलहाल- प्रियंका एक ऐसे शादी-शुदा जीवन में है जिसे
वह कभी स्वीकार नहीं कर पाती। जिसका एक कारण उसके पति राहुल बोस का उबाऊ और खड़ूस
होना है, वहीं प्रियंका का शादी से पहले फरहान से प्रेम भी इसका
दूसरा कारण है। यह बात प्रियंका के पिता अनिल कपूर को भी पता होती है फिर भी वह
उसकी जबरदस्ती शादी कर देते हैं। वहीं दूसरी तरफ अनिल कपूर की कंपनी जबरदस्त घाटे
में है, जिससे उबरने के लिए वह एक दूसरे उद्यमी परिवार की
एकलौती बेटी से अपने बेटे रणवीर की शादी के तमाम जतन करता है। लेकिन रणवीर इस
चालाकी से बचने के लिए बहुत सारे उपाय करता है क्योंकि वह एक समझौते वाली शादी
नहीं करना चाहता। एक दूसरी बात यह भी कि वही एक पात्र है जो अपनी बहन व माता-पिता
की शादी-शुदा जहालत की ज़िंदगी को करीब से देखता है, जिसमें
वह फंसना नहीं चाहता। फिल्म के अंत में इसीलिए वह परिवार के बीच खुल कर बात करना
चाहता है और जब उसके इस तरह से कलई खोलता है तो उसको संस्कार और परंपरा की याद
दिलाई जाती है तो वह कहता है कि क्या घुट-घुट के ज़िंदगी जीना ही संस्कार है। इस
कड़ी में वह अपने माता-पिता की असलियत को भी उन्हीं के सामने रख देता है, जिसे वे खुद लगातार नकारते आ रहे थे। हालांकि अगर निर्देशिका यहाँ ये
संवाद प्रियंका चोपड़ा (एक स्त्री) से करवाती तो यह और भी मजबूत होता। फिल्म का अंत
हमेशा की तरह सुखद ही होता है और एक बात बताते चलता है कि परिवारों में वैचारिक
खुलेपन की आवश्यकता आज सबसे ज्यादा है। दो पीढ़ियों तथा खुद अपने रिश्तों के बीच जो
बात-चीत में दुराव होता है वह नहीं होना चाहिए और शादी,
प्रेम आदि ऐसे रिश्तों में दिखावा व
जबरदस्ती न होकर बल्कि आज़ादी हो तो वह ज्यादा प्रगाढ़ रिश्ता साबित हो सकता है। फिल्म
का अंत थोड़ा कमजोर है। समान्यतः परिवार में अगर ऐसी विसंगतियाँ हो तो उसका अंजाम
इतना सुखद नहीं होता है, लेकिन अंत में एक अच्छी बात यह भी
होती है कि प्रियंका चोपड़ा अपने खड़ूस पति राहुल बोस को छोड़ देती है और पुराने
प्रेमी फरहान के साथ हो जाती है।
फिल्म के संवाद बहुत अच्छे हैं। बहुत सारी
जगहों पर वे इस ढोते हुए समाज, बंधन और परिवार की कलई खोलते हैं। एक जगह प्रियंका
चोपड़ा कहती हैं कि शादी कोई रेस नहीं है जिसमें हमें मंजिल तक जाना ही है। सारे
कलाकारों ने अपने पात्रों को बखूबी निभाया है। गीत-संगीत के स्तर पर यह थोड़ी कमजोर
फिल्म है। 'ज़िंदगी मिलेगी न दोबारा' के
बाद ज़ोया से अच्छे गीत-संगीत की आशा करना लाज़िमी है, पर वह
हुआ नहीं। फिल्म के कई दृश्य इनकी पिछली फिल्म 'ज़िंदगी
मिलेगी न दोबारा' की ही तरह लगते हैं,
जिसमें उन्हे कुछ नया करने की ज़रूरत है और एक व्यक्तिगत बात यह कि फिल्म देखते
वक्त कई बार यह लगता है अब के थोड़े से भी गंभीर निर्देशक स्त्री के बहुत सारे
विषयों पर सचेत निर्देशन कर रहे हैं।
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