Sunday 4 November 2018

प्रो राजेंद्र प्रसाद सिंह :झूठे इतिहास को पलट देने वाला चिन्तक


सुनील यादव
प्रो राजेंद्र प्रसाद सिंह पर लिखने के लिए  बैठा हूँ कुछ ही समझ में नहीं आ रहा है कहाँ से शुरू करूँ. जब भी इनके  चिंतन और लेखन का रेंज को देखता हूँ तो यही सोचता हूँ कि एक अंतर्राष्ट्रीय स्तर के विद्वान् को इस घनघोर मनुवादी हिंदी की दुनिया में कितना सम्मान मिल पाया ?. जिस व्यक्ति ने भाषा विज्ञान से लेकर इतिहास और समाजशास्त्र में अपने चिन्तन के बिलकुल नएपन से सबको आश्चर्य में डाल दिया हो उस व्यक्ति का कितना मूल्यांकन हो पाया? एक ऐसा चिन्तक जिसने बनी बनाई रूढ़ प्रणालियों को ध्वस्त कर दिया, एक ऐसा भाषा वैज्ञानिक जिसने भाषा के विकास क्रम को उसके ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखते हुए कई मौलिक स्थापनाएं दीं. प्रो राजेन्द्र प्रसाद सिंह ने अपने सबाल्टर्न इतिहास दृष्टि से साहित्य और इतिहास में हाशिए पर फेंक दिए गए साहित्यकारों, ऐतिहासिक प्रसंगों और भाषा विज्ञानं के विभिन्न तथ्यों को सही परिप्रेक्ष्य में न सिर्फ मूल्यांकन किया बल्कि उसे केन्द्रीयता प्रदान की है . उन्होंने यथास्थितिवादियों के द्वारा निर्मित विभिन्न प्रतिमानों को अपने बेजोड़ तर्कों से ध्वस्त कर दिया. प्रो राजेंद्र प्रसाद सिंह साहित्य के लोकतंत्र  को मजबूत बनाने वाले आलोचक हैं. उन्होंने अपने चिंतन में कहीं पर भी किसी विमर्श या साहित्य का विरोध नहीं किया है . वे साफ़ तौर पर मानते हैं कि साहित्य में हर तरह के समाज के लोगों की अभिव्यक्ति आनी चाहिए, साथ में उन अभिव्यक्तियों का मुल्यांकन भी होना चाहिए. प्रो राजेंद्र प्रसाद सिंह ने इसी तथ्य को ध्यान में रखकर ओबीसी साहित्य की बात की.  आधुनिक साहित्य के संदर्भ में वे कहते हैं कि  ‘आधुनिक हिंदी साहित्य सामाजिक प्रतिबद्धता के साथ उपेक्षित समूहों को केंद्र में लाने के लिए प्रतिबद्ध है. यह स्त्री, दलित, पिछड़ा, आदिवासी, अल्पसंख्यक तथा हाशिए के समाज पर केन्द्रित साहित्य के अध्ययन पर विशेष बल देता है. इसी कड़ी में ओबीसी साहित्य विमर्श हिंदी साहित्य के कई अछूते आयामों को उद्घाटित करता है.’ ओबीसी साहित्य विमर्श न किसी के विरोध में आया विमर्श है और ना ही इसमें किसी को ख़ारिज कर देने की नियति है. दरअसल यह साहित्य के लोकतंत्र को मजबूत करने की एक कड़ी है जिसके संदर्भ में पाठकों  के भीतर नकारात्मक भ्रम फैलाया जाता रहा है. ओबीसी एक संवैधानिक कटेगरी है और इसमें विभिन्न श्रमशील जातियां शामिल हैं. इन श्रमशील समूहों के चिंतन और लेखन में अपने समाज की धड़कन मौजूद है . अभी भी इनका मूल्यांकन सही परिप्रेक्ष्य में नहीं हो पाया है. प्रो राजेंद्र प्रसाद सिंह द्वारा ओबीसी विमर्श की बात इसी क्रम में की गयी है.  अरुण कुमार लिखते हैं कि ‘डॉ. राजेंद्र प्रसाद सिंह ओबीसी साहित्य के सिद्धांतकार हैं। हिंदी साहित्य में ओबीसी साहित्य की प्रवृत्तियां आरंभ से विद्यमान रही हैं, लेकिन सवर्ण समाज के आलोचकों ने जानबूझकर इसकी अनदेखी की। साथ ही वैसे ओबीसी साहित्यकार और आलोचक जिन्हें अभिजात्य साहित्य में कुछ प्रतिष्ठा प्राप्त है, वे भी सार्वजनिक तौर पर ओबीसी साहित्यके अस्तित्व को सिरे से नकार देते हैं। इस संदर्भ में डॉ. राजेंद्र प्रसाद सिंह की तारीफ करनी होगी, जिन्होंने ओबीसी साहित्य की सैद्धांतिकीका निर्माण किया, जिसके आधार पर ओबीसी साहित्यके प्रवृत्तियों को समझने की दृष्टि मिलती है। आज ओबीसी साहित्यअकादमिक विमर्शों में आया है तो इसका श्रेय डॉ. राजेंद्र प्रसाद सिंह और फारवर्ड प्रेस की संपादकीय टीम  को है।’ ओबीसी विमर्श पर प्रो राजेन्द्र प्रसाद सिंह ने ‘ओबीसी साहित्य के विविध आयाम’ नाम से पुस्तक सम्पादित किया तथा ओबीसी साहित्य विमर्श नाम से एक स्वतंत्र पुस्तक भी लिखी. ओबीसी साहित्य विमर्श की सैधान्तिकी पर उनकी पुस्तक हिंदी का अस्मितामूलक साहित्य और अस्मिताकार काफी लोकप्रिय हुई . इस पुस्तक में वे ओबीसी साहित्य को रेखांकित करते हुए लिखते हैं कि लिखते हैं कि ब्राह्मणवाद का विरोध समतामूलक समाज की स्थापना, सामंती ताकतों का खात्मा, सामाजिक एवं धार्मिक बाह्याडंबरों का खंडन, आर्थिक समानता की स्थापना जैसे साहित्यिक स्वर ओबीसी साहित्य की विशेषता हैं।
प्रो राजेंद्र प्रसाद सिंह ने बिहार के लेनिन माने जाने वाले कुर्था के नायक जगदेव प्रसाद के सम्पूर्ण वांग्मय का संपादन भी किया. यह एक ऐतिहासिक कार्य है जिसे राजेंद्र प्रसाद ने पूरे मनोयोग से पूरा किया है . इस वांग्मय की भूमिका में वे जगदेव प्रसाद के सम्पूर्ण चिन्तन के केंद्र बिंदु को इस रूप में प्रस्तुत करते हुए प्रो राजेंद्र प्रसाद सिंह ने लिखा कि  ‘आजाद भारत के पूरे इतिहास में इसे बहुत कम राजनेता हुए जिनकी सामाजिक और राजनीतिक दृष्टि जगदेव प्रसाद की तरह साफ़ हो. उनका स्पष्ट मानना था कि हिंदुस्तान का समाज साफतौर पर दो तबकों में बंटा है- शोषक और शोषित. शोषक सौ में दस हैं और शोषित सौ में नब्बे. शोषक हैं पूंजीपति, सामंत और ऊँची जाति के लोग और शोषित हैं दलित, गिरिजन, मुसलमान और तमाम पिछड़े वर्ग के लोग. परन्तु जीवन के प्रत्येक  क्षेत्र में 10 प्रतिशत  शोषकों का कब्ज़ा है , जिससे नब्बे प्रतिशत शोषकों को मुक्ति दिलाना ही हमारा लक्ष्य है....जगदेव बाबु ने स्पष्ट लिखा कि दस प्रतिशत शोषक बनाम नब्बे प्रतिशत शोषित की इज्जत और रोटी की लडाई हिंदुस्तान में समाजवाद या कम्युनिज्म की असली लडाई है....हिंदुस्तान जैसे द्विज शोषित देश में असली वर्ग संघर्ष यही है. यदि मार्क्स- लेनिन हिंदुस्तान में पैदा होते तो दस प्रतिशत ऊँची जात (शोषक) बनाम नब्बे प्रतिशत(सर्वहारा) की मुक्ति को वर्ग संघर्ष की संज्ञा देते.’
प्रो राजेंद्र प्रसाद सिंह ने ‘हिन्दी साहित्य का सबाल्टर्न इतिहास’ नाम से एक बहुत ही बहस तलब किताब लिखा . इस पुस्तक की भूमिका में वे लिखते हैं कि ‘हिंदी साहित्य के कई इतिहास ग्रन्थ लिखे गए हैं. किसी ने हिंदी साहित्य का पहला इतिहास लिखा है, किसी ने दूसरा लिखा है.किसी ने पूरा लिखा है किसी ने आधा लिखा है. एक भी इतिहासकार ने हिंदी साहित्य का सही इतिहास नहीं लिखा है. सभी के अपने दावे हैं . सभी की अपनी दृष्टि है. मरती राय है कि सभी इतिहासकार एक गोल वृत्त में घूम रहे हैं. इसलिए सभी आगे हैं या सभी पीछे हैं. वृत्त में घुमने की यह त्रासदी है. आजकल सबाल्टर्न इतिहास लेखन का जोर है. यह इतिहास ग्रन्थ उसी दिशा में एक आरम्भ है.’  ने भाषा विज्ञानं और साहित्य इतिहास के क्षेत्र में बहुत ही महत्वपूर्ण काम किया है . भाषा का समाजशास्त्र, भारत में नाग परिवार की भाषाएँ, भोजपुरी के भाषाशास्त्र, भोजपुरी व्याकरण शब्दकोश आ अनुवाद के समस्या,  हिन्दी साहित्य प्रसंगवश। 

सम्पादित पुस्तकें: 
कहानी के सौ साल: चुनी हुई कहानियाँ 
काव्यतारा 
काव्य रसनिधि 
दलित साहित्य का इतिहास-भूगोल 
भोजपुरी-हिन्दी-इंग्लिश लोक शब्दकोश 
पिचानवे भाषाओं का समेकित पर्याय शब्दकोश 
साहित्य में लोकतंत्र की आवाज।


हिंदी की लंबी कविताओं का आलोचना- पक्ष

जगदेव प्रसाद वाड़्मय
ओबीसी साहित्य विमर्श
ओबीसी साहित्य के विविध आयाम
भाषा,  साहित्य और इतिहास का पुनर्पाठ
चिनगारी 
अंग्रेजी में अनूदित पुस्तकें: 
दि रि-राइटिंग प्रॉब्लम्स ऑव भोजपुरी ग्रामर
डिक्शनरी एंड ट्रांसलेशन
लैंग्वेजेज ऑव नाग फैमिली इन इंडिया। 
 
इग्नू की पाठ्य पुस्तकें:
भोजपुरी भाषा और लिपि
भोजपुरी व्याकरण
भोजपुरी अनुवाद।

अन्य उपलब्धियां:
मॉरीशस सरकार के विशेष अतिथि एवं वहाँ सात दिवसीय व्याख्यान, बी.बी.सी. लन्दन तथा एम.बी.सी., पोर्ट लुई सहित देश के कई आकाशवाणी केन्द्रों से साक्षात्कार एवं वार्ताएँ प्रसारित हो चुकी हैं।
(प्रो राजेंद्र प्रसाद सिंह झूठे इतिहास को पलट देने वाले चिंतक हैं. उन्होंने सोशल मीडिया में इतिहास पर एक सीरीज चलाई थी. सूत्र के रूप में दिए गए इस सीरिज के एक एक बिंदु पर एक एक पुस्तक लिखी जा सकती है.  इसे क्रमवार गाँव के लोग पत्रिका,  नेशनल दस्तक सहित कई वेबसाइटों ने चलाया था. उसे यहाँ क्रमवार प्रस्तुत करते हुए हम इस संग्रह के लिए सभी के आभारी हैं. )  
 1- भविष्य पुराण में अंग्रेजी शासन का वर्णन है या तो वेद-व्यास अंग्रेज काल में हुए या अंग्रेज ही व्यास युग में आए!
2- कबीर बुनकर थे। इसीलिए उन्होंने इड़ा और पिंगला नाड़ी को ताना भरनी बताया है..
काहे कै ताना, काहे कै भरनी, कवन तार से बीनी चदरिया।
इंगला पिंगला ताना भरनी, सुसमन तार से बीनी चदरिया।।
यह आकस्मिक नहीं है कि कबीर ने ईश्वर को जुलाहा या रंगरेज बताया है।
पलटू दास दुकान चलाते थे। इसीलिए उन्होंने इड़ा और पिंगला नाड़ी को तराजू का पलड़ा बताया है।
इंगला पिंगला पलड़ा दोऊ, लागि सूरत की जोति।
सत सबद की डांडी पकरयौ, तौलों भर - भर मोती।।
भिखारी ठाकुर नाई थे। इसीलिए वे लिखते हैं कि बाल काटते हैं, निमंत्रण देते हैं और कैंची हाथ से छुटती नहीं।
मगर मजदूरी के वक्त लोगों से झगड़ा हो जाया करता है।
माथ कमाईं - दीहिं बोलहटा, छूटे ना कैंची कर से।
खाएक मजूरी माँगे का बेरिया, झगरा होत नर - नारी से।।
आपने नाई का दर्द सुना। ऐसे सैकड़ों शिल्पकारों का दर्द और संघर्ष सुनना बाकी है।
3- इतिहास - ग्रंथों में जाने कितने कृषक, पशुचारक और शिल्पकार वर्ग के कवि सिरे से गायब हैं।
अहीर कवि सींगा(16वीं सदी ), नाई कवि सेन(16वीं सदी) , धुनिया कवि दादू (16वीं सदी ), हलुआई कवि लालचदास (17वीं सदी ) , सुनार कवि पतिराम (17वीं सदी), कुर्मी कवि बुलासाहब (17वीं सदी ) , दर्जी कवि दरियादास(17वीं सदी ) , कानू कवि ठाकुर (19वीं सदी ), ठठेरा कवि दीहलराम (19वीं सदी ), कहाँर कवि महेसदास (19वीं सदी) , कोयरी कवि केशवदास (19वीं सदी ) आदि अनेक। इनके साहित्य की खोज अभी बाकी है।
हिंदी साहित्य में ऐसे ही लोगों की एक सशक्त धारा थी - सरभंग साहित्य। सरभंग साहित्य के दो बड़े कवि टेकमन राम और भिनक राम क्रमशः लोहार और ततवा थे। ऐसी साहित्यिक धारा की खोज अभी बाकी है।
4- राजेन्द्र यादव और फणीश्वरनाथ रेणु को क्यों नहीं मिला साहित्य अकादमी ? क्या वे लेखक नहीं थे?
ओबीसी साहित्य से आपको क्या नुकसान है ? क्या ये सभी कवि आपके समाज के अंग नहीं हैं?
5- आप जो कह रहे हैं कि सृष्टि के आरंभ में ही वेदों की रचना हो गई थी तो यह सिर्फ हवाबाजी है। असंभव! वेद आदिम सभ्यता की नहीं, बल्कि एक संगुफिट, जटिल और पेचीदा सभ्यता की रचना है। वेदों की ध्वनियाँ इतनी संगुफिट, जटिल और पेचीदा हैं कि अप्रशिक्षित जीभ इनका उच्चारण कर ही नहीं सकती है। इनकी जटिलता और पेचीदगी का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि सिर्फ वेद मंत्रों के शुद्ध उच्चारण के लिए 65 शिक्षाग्रंथों की रचना हुई थी.
6- ध्वनियों का मानक एवं सटीक उच्चारण की खोज में अप्रशिक्षित जीभ सदियों से भटकी होगी। आदिम सभ्यता के आरंभ से जाने कितने वर्षों तक जीभ की नोक कभी मूर्द्धा, कभी तालु तो कभी दाँत को टटोलती रही है।
जीभ का कभी अगला, कभी बिचला तो कभी पिछला हिस्सा ध्वनियों के उच्चार में उठे होंगे।तब जाकर एक लंबे अभ्यास के बाद अप्रशिक्षित जीभ ध्वनियों के उच्चार में अभ्यस्त और प्रशिक्षित हुई होगी।
7- ऋषियों को, ऋग्वेद को प्राचीन साबित करने के चक्कर में बतौर औजार "ऋ" का आविष्कार हुआ है। "ऋ" का आविष्कारक ने "ऋ" का आविष्कार तो बहुत बाद में किया, लेकिन उसे "ऋ" को बहुत प्राचीन साबित करना था। सो, "ऋ" को बहुत प्राचीन साबित करने के लिए आविष्कारक ने एक साजिश रची और उसने बगैर सोचे-समझे इसे ले जाकर वर्णमाला के स्वरों में बैठा दिया। "ऋ" को वर्णमाला के स्वरों में उसने इसे इसलिए बैठाया कि यह कहा जा सके कि यह बहुत प्राचीन ध्वनि है, तब की है जब इसका उच्चारण स्वर की भाँति होता था। मगर "ऋ" का उच्चारण स्वर की भाँति कभी नहीं होता था, साबूत भी नहीं है। इसमें स्वर का कोई गुण नहीं है। पहले भी नहीं था और आज भी नहीं है।
"ऋ" का आविष्कारक ऋषियों को, ऋग्वेद को कई मामलों में आधा-अधूरा बहुत प्राचीन साबित करने में तो सफल हो गया , मगर दुनिया के भाषा वैज्ञानिकों को हैरत में डाल गया। आज सभी भाषा वैज्ञानिक कहते हैं कि "ऋ" का उच्चारण बहुत प्राचीन काल में स्वर की भाँति कैसे और कहाँ से होता था, हमें नहीं पता है।
अभिलेखीय साक्ष्य बताते हैं कि "ऋ" प्राचीन ध्वनि नहीं है तो जाने क्यों भाषा वैज्ञानिक इसे प्राचीन मानने पर तुले हुए हैं ? लिपि वैज्ञानिकों ने बताया है कि हमारी वर्णमाला में शुंग काल से पहले "ऋ" था ही नहीं। फिर इसके पहले ऋग्वेद लिखे जाने का सवाल ही कहाँ पैदा होता है।ऋग्वेद की प्रमुख नदी सिंधु है। उसमें इसका बार-बार उल्लेख है।


8- ऋग्वेद को पुराना बताने के लिए ही कहा जाता है कि सिंधु से हिंदू का विकास हुआ है। यदि कोई कहे कि हिंदू से सिंधु का विकास हुआ है तो ऋग्वेद बहुत बाद का साबित हो जाएगा। इसीलिए वेदवादी लोग इसका विरोध करते हैं। डॉ. बच्चन सिंह ने तो लिखा है कि आश्चर्य नहीं, आर्यों ने हिंदू को सिंधु कर दिया है। आश्चर्य इसलिए भी नहीं कि सिंधु गुप्तकाल से पहले किसी अभिलेख में मिलता ही नहीं है।
अब आप ऋग्वेद का काल तय कर लीजिए। और आगे  कहते  है आखिर वेदों की रचना के बाद ही न अस्तित्व में आईं होंगी चतुर्वेदी, त्रिवेदी, द्विवेदी जैसी जातियाँ! मगर आखेटक, पशुपालक और कृषिजीवी जातियाँ तो मानव - सभ्यता की आदिम गंध में लिपटी हुई हैं।
आप कुछ भी कहें , भोजन - पानी की व्यवस्था के बाद ही तो वेद रचे गए होंगे।पुराण को पुराण अर्थात एकदम प्राचीन काल का नामकरण किए जाने के पीछे वही मनोविज्ञान काम कर रहा है जो नए मंदिर को प्राचीन मंदिर बताए जाने के पीछे कर रहा है। प्रामाणिक पुराणों की संख्या 18 है।                                     
11 वां पुराण भविष्य पुराण है जिसमें ब्रिटिश काल की महारानी विक्टोरिया का इतिहास है। अब यदि 11 वां पुराण ब्रिटिश काल का है तब 18 वां पुराण कब का होगा? सीधा जवाब है कि ब्रिटिश काल का या उसके बाद का लिखा हुआ होगा। फिर वेद युग में वेद व्यास 18 पुराण कैसे लिख दिए? कब के हैं वेद व्यास?       
जब पुराण प्राचीन काल के हैं, तब भविष्य पुराण में तुलसीदास का नाम कैसे आ गया और जब तुलसीदास मध्यकाल के हैं, तब मध्यकाल के किसी भी कवि ने तुलसीदास का नाम क्यों नहीं लिया है?
9- पलटू का मायने क्या? जो पलट दे। रजनीश के शब्दों में - " क्रांति का कवि "!
हिंदी के हजार साल के इतिहास में कवि पलटू दास को " दूसरा कबीर " कहा जाता है।
पलटू दास कौन थे? वही जाति के कानू अर्थात भड़भूजा।
नग जलालपुर जन्म भयो है बसे अवध के खोर।
कहै पलटू परसाद हो , भयो जगत में सोर।।
जगत में शोर मचा देने वाला कवि पलटू ने क्या कहा?
चारि बरन को मेटि के भगति चलाया मूल।
गुरु गोविंद के बाग में , पलटू फूला फूल।।
तो आपने क्या कहा पलटू साहब? वर्ण - व्यवस्था में ही आग लगा दी आपने। जलालपुर में मूँड़ मुड़ाया, सो तो ठीक, लेकिन अवध में जाकर अपना जनेऊ क्यों तोड़ा?
ऐसा किया तो आपको दंड मिलेगा ही ।अवध के पाखंडियों ने अयोध्या में पलटू को जिंदा जला दिया ।
हिंदी के हजार साल के इतिहास में पलटू दास पहले कवि हैं जिन्हें जिंदा जला दिया गया ।
अवधपुरी में जरि मुए , दुष्टन दिया जराई ।
जगरनाथ की गोद में , पलटू सूते जाई।।
10- यह ब्राह्मणवादी सिद्धांत है कि अपनी प्रशंसा खुद नहीँ करनी चाहिए।
पहले भी शास्त्र आपके पास नहीं था और आज भी मीडिया, चैनल, अखबार आपके पास नहीं है।
जिसके पास शास्त्र और मीडिया है, वे तो एक-दूसरे की प्रशंसा कर लेंगे।
आपकी प्रशंसा कौन करेगा? न शास्त्र करेगा, न मीडिया करेगी, न आप करेंगे। फिर आपको जानेगा कौन? कैसे जानेगा?
इस ब्राह्मणवादी सिद्धांत को तोड़िए और अपने कार्यो एवं उपलब्धियों को खुद भी बताइए वरना आपको कोई नहीं जानेगा।
बाद में आपकी उपलब्धियां कोई लूट लेगा या दफन कर देगा।
तुलसीदास ने सोचकर कहा है कि अरे मूर्ख, अपने मुँह से अपनी प्रशंसा क्यों करता है ?
11- आज के हिंदी साहित्य में आदिवासी, दलित, पसमांदा, पिछड़े और स्त्री समाज ने खास पहचान बनाई है। इन वर्गों की गुम हुई विभिन्न अस्मिताओं की तलाश अस्मितामूलक साहित्य है।
यदि पिछड़े समाज के लोग भी ओबीसी साहित्य विमर्श के माध्यम से अपनी गुम हुई अस्मिताओं की तलाश कर रहे हैं तो इसमें बुराई क्या है?
12- कबीर कपड़ा बुनते हैं , रैदास जूता गाँठते हैं और बुला साहब हल चलाते हैं ।
ये तुलसीदास हैं जो चित्रकूट के घाट पर चंदन रगड़ते हैं ।
चित्रकूट के घाट पर , भई संतन की भीर ।
तुलसीदास चंदन घिसे , तिलक देत रघुबीर ।
13- आप कहाँ हैं, कबीर की चाबी यहाँ है!
किसी के लिए नैना रतनार है, किसी के लिए छतनार है तो किसी के लिए नैना दलाल है।
ये कबीर हैं जिनके लिए नैना रहँट है, खेती का औजार है, सिचाई का साधन है।
नैना निझर लाइया, रहँट बहै निस जाम।
किसी का ईश्वर मंदिर में है, किसी का मस्जिद में है तो किसी का काबा-कैलास में है।
ये कबीर हैं जिनका ईश्वर विद्रोही किसानों के गाँव अर्थात मवास में है।
ना मैं देवल ना मैं मसजिद, ना काबे कैलास में।
मैं तो रहौं सहर के बाहर, मेरी पुरी मवास में।।
किसी के ईश्वर राम हैं, किसी के शिव हैं तो किसी के गणेश हैं।
ये कबीर हैं जिनका ईश्वर कुम्हार हैं, जुलाहा हैं तो रंगरेज हैं।
साहब हैं रंगरेज चूनर मोरि रंग डारि।
भयौ है झगरा भारी, संतों मोहि पहचानो.
14- पुराण को पुराण अर्थात एकदम प्राचीन काल का नामकरण किए जाने के पीछे वही मनोविज्ञान काम कर रहा है जो नए मंदिर को प्राचीन मंदिर बताए जाने के पीछे कर रहा है।
15- ये वहीं शंकराचार्य हैं जिन्होंने पहली बार बताया कि देवानामप्रिय का अर्थ मूर्ख होता है। यह कौन सा भाष्य है?
शंकराचार्य कोई मौलिक दार्शनिक या चिंतक नहीं थे बल्कि वे मुख्यतः भाष्यकार अर्थात आशय को बताने वाले कुंजी लेखक थे।
16- हिंदी व्याकरण में संधि और संधि - विच्छेद खूब पढ़ाया जाता है। हिंदी में तो संधि है ही नहीं।
हिंदी के शब्द स्वभावतः संधि करते ही नहीं हैं। आदिवासी शब्द भी संधि नहीं करते हैं। लोक भाषाओं के प्रत्येक शब्द का मिजाज संधि विरोधी है।
हिंदी के आचार्यों ने संस्कृत से संधि के नियम - कानून हिंदी व्याकरण में ठूँस दिए हैं। बच्चा बाप - बाप कर रहा है।
17- हड़प्पा, मोहनजोदड़ो का पहले A B C जो भी नाम हो, सिंधु की भव्य सभ्यता तो थी, उसका दूसरे नाम से ही सही, वर्णन तो होना चाहिए।
मगर भारतीय साहित्य में 20 वीं सदी से पहले कुछ भी वर्णन नहीं है। पाणिनि महोदय आप तो उधर के ही थे। आपने क्यों नहीं लिखा?
रही बात बौद्ध साहित्य की। सुना है कि बड़े पैमाने पर पुस्तकें जलाई गई थीं, ऐसा कि धुआँ तीन महीने तक उठता रहा। किसकी थी इतनी किताबें! कौन लिखा था? क्या लिखा था? हो सकता है कि उनमें सिंधु घाटी का विराट वर्णन हो!
18- हिंदी का व्याकरण अभी हिंदी में लिखा जाना बाकी है।
संज्ञा, सर्वनाम आदि तो अंग्रेजी के Noun, Pronoun आदि का भावानुवाद है या फिर व्यक्तिवाचक, जातिवाचक आदि तो अंग्रेजी के Proper Noun, Common Noun आदि का भावानुवाद है।
हिंदी का व्याकरण अभी तक अंग्रेजी के फ्रेम में लिखा गया है। इसे हिंदी के फ्रेम में लिखा जाना बाकी है।
आपने तो अभी तक चूहा के बिल में चिड़िया और चिड़िया के घोंसले में चूहा घुसा रखा है।
19- मान लिया कि डल मऊ का नामकरण दालभ्य ऋषि के नाम पर हुआ है ।
फिर तो फाफा मऊ का नामकरण फालभ्य ऋषि के नाम पर हुआ होगा ।
फिर तो पाला मऊ (पलामू) का नामकरण पालभ्य ऋषि के नाम पर हुआ होगा ।
ऐसे नहीं चलेगा वरना मऊ को कैसे जोड़िएगा?
20- अध्येताओं, छात्रों की शिकायत थी कि "हिंदी साहित्य का सबाल्टर्न इतिहास" मार्केट में उपलब्ध नहीं ह, इसे बतौर ई- बुक उपलब्ध कराया है नॉटनल ने। बधाई !!
21- बिहार के नालंदा विश्वविद्यालय को यूनेस्को ने वर्ल्ड हेरिटेज साइट में शामिल किया है।
बेचारा यूनेस्को को जो आप बताइएगा, वहीं न वह लिखेगा।
आपने उसे बताया कि नालंदा विश्वविद्यालय की स्थापना गुप्तवंश के राजा कुमारगुप्त (415-455) ने की थी, यही बात उसने लिखी।
भाई, नालंदा विश्वविद्यालय के विद्यार्थी नागार्जुन थे और नागार्जुन जब वहाँ पढ़ते थे, तब कुमारगुप्त का जन्म भी नहीं हुआ था।
फिर कुमारगुप्त ने कैसे स्थापित कर दिया विश्वविद्यालय?
22- हिंदी साहित्य का रीतिकाल शूद्र रचनाकारों से रीता हुआ (खाली) साहित्य है।
केशवदास मिश्र, बिहारीलाल चौबे, मतिराम त्रिपाठी, बेनी प्रवीन बाजपेयी, सेनापति दीक्षित, भूषण त्रिपाठी, सुखदेव मिश्र, चंद्रशेखर बाजपेयी और कुलपति मिश्र से लेकर देव, तोष, पद्माकर तक सभी ब्राह्मण।
रीतिकाल के पूरे 200 सालों के इतिहास में एक भी उल्लेखनीय शूद्र कवि नहीं है।
23- काल्पनिक लोगों के वास्तविक मकान में तो हेराफेरी की संभावना रहेगी ही!
ताजा मामला पद्मनाभ मंदिर का।
देवता तो स्वर्ग में रहते हैं, फिर ये नर्क में देवता कहाँ से आए?

24- भारत के दक्षिण-पूरब से उत्तर-पश्चिम की ओर मंदिरों की संख्या घटती गई है।
तब क्या माना जाए कि भारत में मंदिर-कला का विकास दक्षिण-पूरब से उत्तर-पश्चिम की ओर हुआ है।
कहीं कोई उल्टा पैर तो समुद्र में नहीं घुसा है जिससे कि ऐसा लगे कि कोई समुद्र से निकला है।
25- आर. सी. मजूमदार ने लिखा है कि प्रथम राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम (1857) न प्रथम था, न राष्ट्रीय था और न स्वतंत्रता के लिए संग्राम था।
1857 से कोई 100 साल पहले से ऐसी अनेक लड़ाई तो आदिवासी लड़ते रहे हैं।
चुआड़ों का विद्रोह (1769), हो एवं मुंडा का विद्रोह (1820-22 तथा 1831), कोल विद्रोह (1831), संथाल विद्रोह जिसे 1856 में दबाया जा सका, अहोमों का विद्रोह (1828), खासी विद्रोह जिसे 1833 में दबाया जा सका, भील विद्रोह ( 1812 -19, 1825, 1831-46), कोल विद्रोह (1829-48) जैसे अनेक।
कोई 60 साल, कोई 30 साल तो कोई 18-18 सालों तक चला। कई पर बड़ी-बड़ी फौजी कार्रवाई हुई।
कोई सौ साल की लड़ाई में कहाँ है आपका आभिजात्य वर्ग?
26- भाई, दीपा कर्मकार (ओबीसी) को दीपा करमाकर बताए जाने की परंपरा पुरानी है। डॉ. नगेन्द्र ने भी "ढोला मारू रा दूहा" के कवि कुशीलव (शूद्र) को कुशल राय बताया है। सभी इतिहासकारों ने इंग्लैंड के अनुसंधान कर्ता जे. एन. कारपेंटर (बढ़ई) को जे. एन. कापेर लिखा है।
सिंधु घाटी के हड़प्पा और मोहनजोदड़ो जैसे नगरों के नाम बाद में कृत्रिम ढंग से गढ़े गए हैं। खुद सिंधु क्षेत्र भी इसी कृत्रिमता का शिकार हुआ है। जैसा कि हम जानते हैं कि हड़प्पा का नाम ऋग्वेद की एक पारिभाषिक शब्दावली "हरियूपिया" के आधार पर गढ़ा गया है और मोहनजोदड़ो को "मुअन-जो-दड़ो" (मुर्दों का टीला) भी उन लोगों ने कहा,जो उस नगर की विनाश-लीला के बाद में आए, तभी तो वे इसका नाम मुर्दों का टीला रखे। फिर मुअन-जो-दड़ो को भी मोहनजोदड़ो में तब्दील करने वाले वे लोग हैं जो शिव, कृष्ण या कामदेव के मोहन जैसे मोहक नामों में विश्वास करते हैं। हड़प्पा और मोहनजोदड़ो जैसे नगरों का वास्तविक नाम क्या था, हमें नहीं पता। मगर सिंधु क्षेत्र का प्राचीन नाम "मेलुख्ख" था, हमें पता है। 2350 ईसा पूर्व के आसपास और उसके आगे भी मेसोपोटामियाई अभिलेखों में सिंधु क्षेत्र का प्राचीन नाम "मेलुख्ख" मिलता है। मेसोपोटामियाई साहित्य भी इसकी पुष्टि करता है।
27- द्रविड़ भाषाओं में "मेलु" का अर्थ होता है- श्रेष्ठ जन और "ख्ख" का अर्थ होता है- क्षेत्र। मेलुख्ख का अर्थ हुआ- श्रेष्ठ जनों का क्षेत्र या देश। कन्नड़ में श्रेष्ठ को मेलु कहा जाता है और इन्हीं द्रविड़ों के वंशज हैं उराँव लोग जिनकी भाषा है- कुड़ुख। कुड़ुख में क्षेत्र का बोधक शब्द है- ख्ख, जैसा कि हम भूमि- बोधक खेखेल, खज्ज, खल्ल, खइका जैसे कुड़ुख शब्दों में देखते हैं। यदि हमें बौद्ध सभ्यता का आदिम स्वरुप स्वीकार है जैसे कि स्तूप, योग-मुद्रा, पीपल-पत्र, शवाधान, पोशाक-विन्यास,प्रार्थना-शैली आदि तो हम कह सकते हैं कि सिंधु सभ्यता के द्रविड़ आदिम बौद्ध सभ्यता के रंग में रंगे हुए थे। बौद्ध सभ्यता के रंग में रंगी हुई इस सभ्यता को हम चाहें तो स्थान के आधार पर "मेलुख्ख सभ्यता" भी कह सकते हैं जैसा कि ईजिप्ट, बेबीलोन, मेसोपोटामिया आदि के नाम हैं।
28- जब गौतम बुद्ध थे, तब न संस्कृत थी और न संस्कृत-संधि के नियम-कानून थे। इसलिए संस्कृत के नियम-कानून से बने सिद्धार्थ और उनकी पत्नी का नाम यशोधरा डुप्लीकेट है। पहले में संस्कृत की दीर्घ संधि है, दूसरे में विसर्ग संधि।
डी. डी. कोसंबी ने बताया है कि बुद्ध का वास्तविक नाम गोतम तथा उनकी पत्नी का वास्तविक नाम कच्चाना था। वे यह भी बताते हैं कि बुद्ध के जन्म-नाम गोतम में डुप्लीकेट नाम सिद्धार्थ बाद में जोड़ा गया है और वे बुद्ध की पत्नी कच्चाना के यशोधरा नाम को इतना डुप्लीकेट मानते हैं कि पूरे इतिहास-ग्रंथ में इस नाम का उल्लेख तक नहीं करते हैं।
आइए, बुद्ध के वास्तविक नाम गोतम पर विचार करें।
गोतम नाम पर विचार करने के लिए आपको संस्कृत की दुनिया को छोड़ना होगा और कोलों की दुनिया में लौटना होगा,जिन कोलों की दुनिया में गोतम की माँ लुंमिनि जनमी थी, वह लुंमिनि जिसका डुप्लीकेट नाम इतिहासकारों ने महामाया बताया है।
संथाली, मुंडारी और हो जैसी भाषाएँ कोलों की हैं। आप इन भाषाओं का शब्दकोश देख लीजिए, सीधे- सीधे गोतम शब्द मिलेगा, घी के अर्थ में। इन सभी भाषाओं में घी को गोतम ही कहा जाता है, कहीं-कहीं बँगला प्रभाव से गोतोम भी।
29- घी, दूध, दधि के आधार पर नामकरण करने की परंपरा पहले भी थी, आज भी है। संस्कृत में भी, लोक में भी- संस्कृत में घृतप्रस्थ, दधिवाहन, नवनीत कुमार और लोक में मक्खन सिंह, दूधन राम, राबड़ी देवी आदि।
कच्चाना-गोतम पुत्र राहुल को हुल जोहार!
30- मनु - मीडिया की फोटोग्राफी कला।
शूद्र यदि मुख्य - अतिथि के दाएँ हो तो बाएँ वाले के साथ मुख्य अतिथि का फोटो लीजिए।
शूद्र यदि मुख्य अतिथि के बाएँ हो तो दाएँ वाले के साथ मुख्य अतिथि का फोटो लीजिए।
शूद्र यदि मुख्य अतिथि के दाएँ और बाएँ दोनों ओर हो तो सिर्फ मुख्य अतिथि का फोटो लीजिए।
शूद्र यदि खुद मुख्य अतिथि हो तो फोटो दर्शक-दीर्घा से लीजिए।
31- स्वर्ग के लोभ में जाने क्या-क्या करते हैं लोग, मगर वो आदमी बहुत तेज रहा होगा जिसने मरणोत्तर जीवन को नकार देने का सिद्धांत दिया होगा।
न रहेगा बाँस, न बजेगी बाँसुरी!
32- चलिए, मान लिया कि दान देना पुण्य है, फिर दान लेना क्या है?
33- यज्ञ क्या है?
प्रवचन के बहाने ब्राह्मणवाद पर आयोजित सेमीनार है ।
34- प्रामाणिक पुराणों की संख्या 18 है।
11 वाँ पुराण भविष्य पुराण है जिसमें ब्रिटिश काल की महारानी विक्टोरिया का इतिहास है।
अब यदि 11 वाँ पुराण ब्रिटिश काल का है तब 18 वाँ पुराण कब का होगा?
सीधा जवाब है कि ब्रिटिश काल का या उसके बाद का लिखा हुआ होगा।
फिर वेद युग में वेद व्यास 18 पुराण कैसे लिख दिए?
कब के हैं वेद व्यास?
35- महिषासुर की लड़ाई पूरब-दक्षिण भारत में थी, आप पश्चिम-उत्तर भारत के मोहनजोदड़ो में कैसे ले गए भाई?
ऐतिहासिक फिल्म की पटकथा का कथाकार सिर्फ वहीं अपनी काल्पनिकता रंग भर सकता है, जहाँ इतिहास चुप है।
जब महिषासुर था, तब दूर्गा भी होंगी।
किसका था नरमुंडों की माला-विदेशियों की या विधर्मियों की?
मोहनजोदड़ो में मिला है नरमुंडों की माला!
वह खोपड़ी जिसमें कोई खून पीता था। मिला है मोहनजोदड़ो में?
36- हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है कि मनुष्य ही साहित्य का लक्ष्य है।
यदि यह सत्य है तो किसी रचना के मूल्यांकन में तत्सम और तद्भव शब्दों की जाँच से बेहतर होगा कि उसमें मौजूद वास्तविक और अवास्तविक शब्दों की परख की जाए।
जिसका अस्तित्व है, वह वास्तविक है और जिसका अस्तित्व नहीं है, वह अवास्तविक है। मिसाल के तौर पर मनुष्य, भोजन, पानी, कृषि जैसे शब्द वास्तविक हैं जबकि स्वर्ग, नर्क, भाग्य, अमृत जैसे शब्द अवास्तविक हैं।
किसी रचनाकार की रचना में मौजूद वास्तविक और अवास्तविक शब्दों के प्रतिशत से हम जान सकते हैं कि उसकी रचना मनुष्य-जाति के हित में कितना वास्तविक है और कितना अवास्तविक।
37- आपने चोर-चुहाड़ सुना है न? चुहाड़ अर्थात बदमाश, लुच्चा।
कौन थे चुहाड़? वही चुहाड़ आंदोलन के स्वाधीनता सेनानी।
इसे चुआड़ आंदोलन भी कहते हैं। चुआड़ आंदोलन झारखंड के आदिवासियों ने रघुनाथ महतो के नेतृत्व में ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ जंगल, जमीन के बचाव तथा नाना प्रकार के शोषण से मुक्ति के लिए 1769 में आरंभ किया था।
रघुनाथ महतो का जन्म झारखंड के सरायकेला-खरसावां जिला के घुटियाडीह में 1738 को हुआ था।
1769 में नीमडीह के मैदान से भड़की चुआड़ आंदोलन की चिनगारी पातकूम, बड़ाभूम, धालभूम, गम्हरिया, सिल्ली, सोनाहातु, बुण्डू, तमाड़, रामगढ़ आदि अनेक स्थानों पर फैल गई।
कुड़मी, भूमिज, संथाल, मुंडा, भुइयां सभी एकजुट हुए। आंदोलन की आक्रामकता को देखते हुए अंग्रेजों ने छोटानागपुर को पटना से हटाकर बंगाल प्रेसीडेंसी के अधीन कर दिया। 10 अप्रैल 1774 को सिडनी स्मिथ ने बंगाल रेजिमेंट को विद्रोहियों के खिलाफ फौजी कारवाई करने का आदेश दे दिया। 5 अप्रैल 1778। रघुनाथ महतो की लोटा के जंगलों में सभा। अंग्रेजी फौज की कार्रवाई। सैकडों गिरफ्तार। कई मरे और शहीद हुए जनक्रांति के नायक रघुनाथ महतो। रघुनाथ महतो की शहादत के बाद भी आंदोलन जारी रहा। दिलीप गोस्वामी ने अपनी पुस्तक "मानभूमेर स्वाधीनता आंदोलन" में लिखा है कि यह 1767 से 1832 तक 66 साल चला था।
38- किसी ने लिखा कि जब संस्कृत भाषी चाणक्य मौर्य राजाओं से संवाद नहीं करता था, तब यूनानी भाषी मेगास्थनीज कैसे करता था?
भाई, अशोक ने ब्राह्मी, खरोष्ठी, अरामाई और यूनानी चारों में अपना अभिलेख लिखवाया है।
अरामाई और यूनानी में उसका द्विभाषीय राज्यादेश भी है।
मौर्यों के दरबार में सभी के दुभाषिए थे, यूनानी के भी संस्कृत के दुभाषिए नहीं थे। संस्कृत थी ही नहीं।
इसलिए अशोक का कोई भी अभिलेख संस्कृत में नहीं है और न अभिलेखों में एक भी शब्द संस्कृत का है।फिर संस्कृत दुभाषिए का तो सवाल ही नहीं उठता है।
आप समझ गए होंगे कि मौर्य राजाओं से यूनानी राजदूत मेगास्थनीज कैसे संवाद करता था।
ये अशोक का यूनानी और अरामाई में द्विभाषीय अभिलेख देख लीजिए।
39- किसकी थी सिंधु घाटी की सभ्यता? आपको इसे जानने के लिए दूर नहीं जाना है।
आप मोहनजोदड़ो से प्राप्त प्रतिनिधि -पुरुष के नाक - नक्शे को गौर से देखिए।
मूर्ति का मस्तक छोटा तथा पीछे की ओर ढलुआ है। गर्दन कुछ अधिक मोटी है तथा मुँह की गोलाई बड़ी है। होंठ मोटे हैं। नाक चौड़ी और कुछ ऊपर की ओर उभरी हुई है।
जबकि नृविज्ञानियों ने बताया है कि आर्यों का मस्तक उभरा हुआ लंबा, गर्दन सुराहीनुमा तथा होंठ पतले एवं नाक नुकीली और तीखी होती है।
नाक - नक्शे का यह विरोधाभास साबित करता है कि सिंधु घाटी की सभ्यता आर्यों की नहीं थी।
40- मौर्य राजाओं को संस्कृत नहीं आती थी और चाणक्य को प्राकृत नहीं आती थी।
जाने कैसे मौर्य राजे चाणक्य से सलाह लिया करते थे?
41- 2001 की जनगणना में संस्कृत बोलने वालों की जनसंख्या 14135 थी, 1971 में 1282 और 1921 में 555 तो बताइए 1801 में संस्कृत बोलने वालों की संख्या क्या होगी?
42- भारतीय परिप्रेक्ष्य में आर्यों का प्रतीक चिह्न नहीं है स्वस्तिक।
पूरे वैदिक साहित्य में कहीं नहीं है स्वस्तिक - न चिह्न , न शब्द!
यकीन कीजिए , स्वस्तिक का चिह्न सिंधु घाटी सभ्यता का है।
सिंधु घाटी सभ्यता में ये रहा स्वस्तिक का चिह्न।
43- भारतीय समाज में यह एक उल्लेदखनीय दौर रहा है कि ब्राहमणें ने महत्वीपूर्ण  स्थिकति बना ली थी, परंतु अपने विषय में उसने जो साहित्या रचा निस्संदेह वह बहुत ही अवांछनीय है। कोई भी यह कल्प ना नहीं कर सकता कि इतिहास के उस दौर में आदिम समाज में ही कोई ऐसा साहित्यज रचा जा सकता हो जो इतना पांडित्यहपूर्ण हो और कालातित हो। रचनाएं इतनी अनर्गल हैं कि जिनका कोई जोड़ नहीं। उसमें उपहासास्प द विचार भरे पड़े हैं जिनमें सशक्तत भाषा और सुविचारित तर्क हैं और विचित्र परंपराएं हैं। ये विकृत रचनाओं का अंशमात्र है जैसे पीतल या रांग में रत्नह जड़ दिए गए हों। यह क्षूद्र साहित्यन सामान्यहत: अरूचिकर शब्दाेडंबर है जिसमें पोंगापंथी, अहंकार और पूरा पांडित्य  भरा पड़ा है। इतिहासकारों के लिए बहुत महत्वापूर्ण बात है कि वे यह पता लगाएं कि किसी राष्ट्रृ का स्वेस्थी विकास ऐसी पोंगापंथी और अंधविश्वाडसों के रहते कितनी तीव्रता से हो सकता है। हमारे लिए यह जानना महत्वतपूर्ण है कि आरंभिक काल में क्याव कोई देश ऐसी महामारी से ग्रस्त् हो सकता है। ऐसी रचनाओं का उसी प्रकार अध्यययन किया जाना चाहिए जैसे कोई चिकित्सकक मंदबुद्धि और मनोरोगियों की दशा का परीक्षण करता है।’’ –प्रो. मैक्सपमूलर, प्राचीन संस्कृयति साहित्यह, पृष्ठर संख्यास 200
प्रत्येक प्राचीन सभ्यता की अपनी लिपि है। सुमेरी सभ्यता की कीलाक्षर लिपि, साइप्रस सभ्यता की लाइनियर लिपि, फोनीशी सभ्यता की फोनीशियन लिपि से लेकर मिस्र की हीरोग्लाइफिक लिपि और बौद्ध सभ्यता की ब्राह्मी लिपि तक। मगर भारत की प्राचीन वैदिक सभ्यता की कोई लिपि नहीं है। यह इतिहासकारों को हैरत में डाल देनेवाली घटना है!
44- आप अशोक के अभिलेख पढ़े होंगे। अशोक के अभिलेख में संस्कृत की शब्दावली नहीं है। जब अशोक के समय में संस्कृत की शब्दावली नहीं है, तब गौतम बुद्ध के समय में संस्कृत की शब्दावली की कल्पना बेकार की बात है। आर्य-सत्य, यशोधरा, सिद्धार्थ, ऋषिपतन जैसी संस्कृत के नियम-कायदों से बनी शब्दावली बाद की है। आर्य-सत्य से अरिय-सच्च की ओर चलना उल्टी यात्रा है। हमें अरिय-सच्च से आर्य-सत्य की ओर चलना होगा।


45- 1965 में शुंगकाल का अंबाला के सुघ से मिट्टी का खिलौना मिला है। एक बालक गोद में तख्ती लिए बाराखड़ी सीख रहा है। तख्ती पर वह अ, , इ से लेकर अं और अः तक कुल 12 स्वराक्षर लिख रहा है, जिन्हें उसने 4 बार दुहराया है। बहरहाल, हरियाणा के अंबाला जिले से मिला वह खिलौना दिल्ली के राष्ट्रीय संग्रहालय में है। लिपि वैज्ञानिकों ने इसी आधार पर बताया है कि ब्राह्मी वर्णमाला में शुंगकाल से पहले "ऋ" स्वराक्षर नहीं था, अन्यत्र भी नहीं मिलता है। "ऋ" संस्कृत की विशिष्ट ध्वनि है। जब शुंग काल तक "ऋ" का लेखन अस्तित्व में नहीं था, तब ऋग्वेद, ऋषि, ऋत्विज जैसे ऋ से जुड़ी शब्दावली भी लेखन में नहीं थी।
46- आप कह सकते हैं कि तब "ऋ" मौखिक रही होगी। मगर आप सिर्फ "ऋ" को मौखिक क्यों और कैसे मानिएगा, जबकि उसके पहले हड़प्पाई लेखन के लगभग 4000 नमूने हैं, अशोक के अनेक अभिलेख उपलब्ध हैं, शेष स्वर-व्यंजन मौजूद हैं। आपको थक-हारकर मानना ही होगा कि संस्कृत शुंगकाल से पहले की नहीं है। वैदिक युग सही मायने में इतिहास का टर्मिनोलॉजी है ही नहीं! कहीं पढ़े हैं बाइबिल युग, कुरान युग?
47- ऋग्वेद की प्रमुख नदी सिंधु है। उसमें इसका बार-बार उल्लेख है। ऋग्वेद को पुराना बताने के लिए ही कहा जाता है कि सिंधु से हिंदू का विकास हुआ है। यदि कोई कहे कि हिंदू से सिंधु का विकास हुआ है तो ऋग्वेद बहुत बाद का साबित हो जाएगा। इसीलिए वेदवादी लोग इसका विरोध करते हैं।डॉ. बच्चन सिंह ने तो लिखा है कि आश्चर्य नहीं, आर्यों ने हिंदू को सिंधु कर दिया है। आश्चर्य इसलिए भी नहीं कि सिंधु गुप्तकाल से पहले किसी अभिलेख में मिलता ही नहीं है। अब आप ऋग्वेद का काल तय कर लीजिए।
48- इतिहासकार सुमित सरकार ने जिन मदारी पासी को जून 1922 में अंग्रेज पुलिस द्वारा गिरफ्तार बताया है , उन्हें चौरी - चौरा के लेखक सुभाषचंद्र कुशवाहा ने कभी गिरफ्तार नहीं किए जाने की बात बताई है ।
अंग्रेजों के पुलिस - रिकार्ड में ऐसा कोई सबूत नहीं है कि मदारी पासी गिरफ्तार हुए और अंग्रेजी अदालत में उन पर मुकदमा चला , जबकि उनके आंदोलन पर ताल्लुकेदारों - जमींदारों की फसल और संपति की लूट और उन पर हमले, बेगार और लगान बंद करने तथा पुलिस से मुठभेड़ के अनेक आरोप लगे हैं ।
मदारी पासी का जन्म उत्तर - प्रदेश के जिला हरदोई तहसील सण्डीला के गाँव मोहनखेड़ा में 1860 में हुआ था।
कोई 60 साल की उम्र में गरमपंथी मदारी पासी ने 1921 के अंत एवं 1922 के आरंभ में उत्तर-पश्चिमी अवध में किसानों-मजदूरों एवं निम्न वर्ग के दबे-कुचले लोगों के पक्ष में एका आंदोलन चलाए थे। ऐसा कि स्थिति अंग्रेजों - जमींदारों के नियंत्रण से बाहर हो गई थी।
मदारी पासी को केंद्र में रखकर कामतानाथ ने एक उपन्यास लिखा है। नाम है - कालकथा।
उपन्यास में मदारी पासी से जुड़े कई मिथकों एवं इतिहास का आख्यान है। हरदोई, बहराइच, बाराबंकी और सुल्तानपुर जिलों में मदारी पासी की लोकप्रियता गाँधी जी की तर्ज पर अलौकिक किस्म की थी।
मिसाल के तौर पर , ऐसा कहा जाता था कि मदारी पासी हनुमान की भाँति उड़कर कहीं भी पहुँच जाते हैं, जैसा की हम बिरसा मुंडा के आंदोलन में पाते हैं कि अंग्रेजों की बंदूकें और गोलियाँ पानी बन जाएँगी।
यह रही जिला हरदोई तहसील सण्डीला के गाँव पहाड़पुर में मदारी पासी की समाधि।
49- गुजरात में गाय की लड़ाई आज से थोड़े न चल रही है?
दयानंद सरस्वती गुजरात के ही तो थे, 1881 में "गौ-करुणानिधि" नाम से किताब प्रकाशित किया था और गौरक्षिणी सभाओं के गठन के नियम-कानून बनाए थे।
1881 के बाद तो उत्तरी भारत में गौरक्षिणी सभाओं की बाढ़ आ गई थी ।
यही तो है भारत के स्वतंत्रता संग्राम में सामाजिक-धार्मिक पुनर्जागरण का योगदान!
50- जब सिंधु घाटी की सभ्यता वैदिक सभ्यता थी, तब इंद्र जिन्हें पुरंदर अर्थात किला ढाहने वाला कहा जाता है, किसका किला ढाह रहे थे? अपना ही?
51- (1812-13) में फ्रांसिस बुकानन दक्षिण बिहार आया, स्मारकों को देखा, अभिलेखों को पढ़ा और दांतों तले उंगली दबाते लिखा कि पूरे मगध तथा कीकट में कभी चेरो-खरवारों का विशाल आदिवासी साम्राज्य था।
इतिहास-ग्रंथों में कहां है चेरो-खरवारों का विशाल आदिवासी साम्राज्य?
आपने तो चेरो-खरवारों को चेला, दास और नौकर बना रखा है। जंगल-पहाड़ में, दाने-दाने को मोहताज, दर-दर भटकते, वहीं चेरो-खरवार जिनके पुरखों के साम्राज्य की अमर-गाथा कैमूर की पहाड़ी पर जगह-जगह अंकित है।
वे कभी रोहतासगढ़ किला के शासक थे। वही रोहतासगढ़ जिसका घेरा 28 मील तक फैला है और जिसमें कुल 83 दरवाजे हैं।
फ्रांसिस बुकानन ने ''डिस्ट्रिक्ट ऑफ शाहाबाद(1812-13) में बड़े गर्व के साथ तुतला भवानी, ताराचंडी, फुलवारी में स्थित आदिवासी राजाओं के शिलालेखों का जिक्र किया है।
फ्रांसिस बुकानन ने प्राचीन काल के आदिवासी राजा फुदी चंद्र की बखान में कई पन्ने खर्च किए हैं और फिर बांदूघाट अभिलेख को पढ़कर 11 आदिवासी राजाओं की सूची प्रस्तुत की है। एक से बढ़कर एक आदिवासी राजा- प्रताप धवल, विक्रम धवल से लेकर महानृपति उदय चंद्र तक।
महानृपति जपिल प्रताप धवल ( 1162 ई.) ने तो अकेले 21 सालों तक शासन किया और झारखंड का जपला इसी प्रतापी राजा जपिल के नाम से मशहूर हुआ।
किला चुनारगढ़ से लेकर गिद्धौर तक, बुद्ध काल से लेकर मध्यकाल तक, न जाने कितने इस क्षेत्र में आदिवासी साम्राज्य के निशान हैं- सासाराम, रोहतासगढ़, शेरगढ़, गुप्ताधाम, देव मार्कण्डेय, गड़हनीगढ़।
52-अभी तक पुरातत्व ने कृष्ण की गुत्थी को ठीक से सुलझा नहीं पाया है, मगर पुरातत्व भाषाविज्ञान इस गुत्थी को सुलझाने में थोड़ी मदद कर सकता है। बशर्ते कि आप कृष्ण का मूल नाम किसन से थोड़ा आगे बढ़कर किसान मान लें। किसान मुंडा वर्ग की जनजाति है। इसी मुंडा वर्ग के शबरों ने बाँसुरी की खोज की है। कदंब और अहीर मुंडा वर्ग की भाषाओं के शब्द हैं। आप विचार कीजिए कि किसन ( किसान ), बाँसुरी, अहीर और कदंब सभी के सभी मुंडा वर्ग से क्यों जुड़ते हैं? संभवतः कृष्ण रहे होंगे तो इसी नृवंशीय नस्ल के रहे होंगे।
53-प्राचीन काल में " पाखंड " परिव्राजकों की एक नास्तिक विचारधारा थी। इसके अनुयायी पाखंडी कहे जाते थे। पाखंडियों का मौर्य काल में काफी सम्मान था। ये परिव्राजक लोग ईश्वर, ढोंग आदि के विरोधी थे। मगर आज पाखंड जैसे सम्मानित श्रमण संप्रदाय को बेइज्जत करने के लिए पाखंडी का अर्थ ढोंगी कर दिया गया है। समय होत बलवान।
54-वे भारत में कम ही की संख्या में आए थे। मूल निवासियों की संख्या बहुत थी। ऐसे में वे मारे जाते। इसलिए मूल निवासियों को डराने के लिए वे हवा उड़ा दिए। वह यह कि ये मत सोचो कि हम लोग इतना ही हैं। तैंतीस करोड़ की फौज हरवा- हथियार लिए नदियों को घेरे, पहाड़ों पर खड़ी है। बेमौत मारे जाओगे। यही तैंतीस करोड़ की उत्पति का मनोवैज्ञानिक सिद्धांत है।
55-तो क्या सोने का लंका पाटलिपुत्र ही था? ... मेगस्थनीज ने लिखा है कि मौर्यों के शाही महल के स्तंभों पर सोने की बेलें चढ़ी थीं ... चाँदी के पक्षियों को उन पर सजाया गया था। सोने- चाँदी से शाही महल सुसज्जित था। मौर्यों के शाही महल के जलाए जाने का प्रमाण है ... सोने- चाँदी से सुसज्जित होने के भी प्रमाण हैं, जिसकी जबरदस्त पुष्टि अशोक वाटिका उजाड़े जाने के प्रसंग से भी होती है।
56-जिस यूनान के सिकंदर का इतिहास में ढोल पीटा जाता है, उसी यूनान का दूत मेगस्थनीज ने बताया है कि पटना में मौर्यों के शाही महल के मुकाबले फारसी साम्राज्य के सूसा तथा एकबटान के शाही महल कुछ नहीं थे और यह वही फारसी साम्राज्य है जो सिकंदर के अपने साम्राज्य से 40 गुना बड़ा था। अशोक का मूल्यांकन अभी बाकी है।
57-संस्कृत का पहला लंबा अभिलेख जूनागढ़ के उसी चट्टान पर लिखा हुआ है, जिस चट्टान पर सम्राट अशोक का पहले से लिखा हुआ शिलालेख है।संस्कृत का दूसरा लंबा अभिलेख प्रयाग के उसी लाट पर लिखा हुआ है, जिस लाट पर सम्राट अशोक का पहले से लिखा हुआ स्तंभलेख है। अब कहने को क्या बाकी है?
58-सिंधु घाटी से लेकर मौर्य काल तक जो भी मुहरें, अभिलेख मिलते हैं, वे सब लिखित हैं। कैसे मान लिया जाए कि पाणिनि जैसे व्याकरण के साँचे में ढली संस्कृत अलिखित थी?
59-ईसा से पहले संस्कृत के अभिलेख नहीं मिलते हैं, जो अभिलेख मिलते हैं, वे प्राकृत के मिलते हैं और जो प्राकृत के अभिलेख मिलते हैं, उनमें एक भी शब्द संस्कृत के नहीं मिलते हैं।ऐसा कैसे हो सकता है कि मौर्य काल में संस्कृत मौजूद हो और उसका एक भी शब्द अशोक के अभिलेखों में न आए।
60-मौखिक रूप से कोई चाहे जितनी भी डींग हाँक ले, पुरातात्विक दृष्टिकोण से भारत की सबसे प्राचीन किताबें बौद्ध साहित्य की हैं। ये मानना होगा। कारण कि इसके सबूत पत्थरों पर लिखित हैं। अशोक के कलकत्ता - बैराठ शिलालेख पर सात किताबों का नाम लिखा है, वे हैं - विनयसमुकस, अलियवसाणि, अनागतभयानि, मुनिगाथा, मोनेयसूते, उपतिसपसिने और लाघुलोवादे। ये सातों किताबें बौद्ध साहित्य की हैं। अभी तक जितनी किताबों को सबसे प्राचीन होने का दावा किया गया है, उसके सबसे अधिक प्राचीन होने के पुरातात्विक सबूत नहीं मिले हैं।
61-वैदिक युग, महाकाव्य युग और सूत्र युग मूलतः इतिहास का नहीं बल्कि संस्कृत साहित्य के चैप्टर्स हैं वरना दुनिया के इतिहास में किसी देश का ऐतिहासिक चैप्टर्स के नाम बाइबिल युग, कुरान युग और हदीस युग नहीं हैं।
62-अवधपुरी में जरि मुए, दुष्टन दिया जराई।
जगरनाथ की गोद में, पलटू सूते जाई।।
कवि पलटू को अयोध्या में जिंदा जलाए जाने की यह कविता डा. रामकुमार वर्मा की प्रसिद्ध पुस्तक हिंदी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास से ली गई है। कविता का अर्थ है कि दुष्टों ने अयोध्या में कवि पलटू को जलाकर मार डाला और वे जगरनाथ की गोद में मृत्यु को प्राप्त हुए। सवाल यह है कि आखिर यह जगन्नाथ की गोद अर्थात जगन्नाथ धाम कहाँ था? उत्तर स्पष्ट है कि यह जगन्नाथ धाम वहीं कहीं अयोध्या में था। अयोध्या का भूगोल बदल चुका है। इसीलिए कुछेक आलोचकों ने जगन्नाथ का अर्थ उड़ीसा के जगन्नाथ से कर डाला है। जगन्नाथ अर्थात गौतम बुद्ध।









जनता का डाक्टर: जिसने विभेद से भरे हुए समाज का इलाज भी जरुरी समझा

 सुनील यादव  डाक्टर शब्द का का नाम आते ही एक ऐसे प्रोफेसनल व्यक्ति का अक्स उभरता है जो खुद के लिए बना हो. चिकित्सा के क्षेत्र में चिकित्सक क...