सुनील यादव
16 मई, 1933 को
जन्में शानी का पूरा जीवन मुस्लिम अस्मिता तथा छद्म धर्मनिरपेक्षता जैसे बेचैन कर
देने सवालों से जूझते हुए बिता । वे अपने बाल्यावस्था में ही देखते हैं कि राष्ट्रीय
स्वयं सेवक संघ सुदर्शन के नेतृत्व में हिन्दुओं की गोलबंदी शुरू कर चुका है,
इसके बरक्स मुस्लिम साम्प्रदायिक संगठन मुस्लिमों की गोलबंदी शुरू कर चुके हैं ।
बदरू कसाई मुस्लिम युवकों को लड़ना सिखा रहा है । ऐसे में शानी का बालमन परेशान हो
उठता,
वो सोचते कि ''मैं बिल्कुल नेक होता तो
कितना अच्छा होता । क्या होता? छोटा-मोटा वली अल्लाह । क्या करता? सबसे पहले
बदरू कसाई और दर्शन भैया को इमली के पेड़ से लटकवाता और कहता बदरू मियाँ, तुम बकरे
काटो और लोगों को उनके हाल पर छोड़ दो और दर्शन भैया, उठाओ तुम अपना टांड-टबीला और
दफा हो जाओ यहाँ से । यहाँ बहुत सीधे-सादे और एक दूसरे को टूटकर प्यार करने वाले
लोग रहते हैं, खुदा के लिए उन्हें खराब मत करो ।'' ( अभी दिल्ली दूर है (हंस
फरवरी-1988), पृ.16)
आजाद भारत में मुस्लिम अस्मिता तथा छद्म
धर्म-निरपेक्षता के सवाल से शानी हमेशा टकराते रहे । ग्वालियर में पहली बार उन्हें
यह अहसास हुआ कि इस देश में अल्पसंख्यक होना कितना पीड़ादायी है । मकान की तलाश
में उन्हें आखिरकार मुस्लिम मुहल्ले में ही मकान मिल पाया और एक सुबह उन्होंने
देखा कि कुछ सांप्रदायिक मुस्लिम युवकों ने उनके दरवाजे के सामने गाय का गोश्त और
कुछ हड्डियाँ इसलिए फैला दी थीं कि ये मकान छोड़कर भाग जाएं । दरअसल वे शरारती तत्व
इन्हें साहनी नामक कोई पंजाबी हिंदू समझते थे । उधर शानी के लिए मकान खोजते एक
महाराष्ट्रीय सज्जन भी शानी को हिंदू समझते थे, जब शानी ने कहा कि मकान 'मुस्लिम
मुहल्ले में न हो तो बेहतर होगा ।' इस पर उस सज्जन ने कहा ''डरने की कोई बात
नहीं । आप बिल्कुल मत डरिए । यहाँ साले मियाँ लोगों को इतना मारा, इतना मारा है
कि आँख उठाने की भी हिम्मत नहीं रही... ।'' (एक शहर में सपने बिकते हैं-शानी, पृ. 45) जगदलपुर से
ग्वालियर आने पर शानी को पहली बार हिन्दुस्तान के इस कड़वे सच का भान हुआ । वे
लिखते हैं कि ''न रोजा, न नमाज, न हज, न जकात- फिर भी मुस्लमान । सिर्फ इसलिए कि
जिसके वसिले से तुम्हारी पैदाइश हुई उसने रिवाज के मुताबिक तुम्हें एक नाम दे
दिया और तुम्हारी जात तय हो गयी । वल्दियत तुम बदल नहीं सकते थे लिहाजा नाम बदल
लिया । तुम सोचते थे कि शानी जैसे दो अक्षरों के एक छोटे से नाम में तुम अपने आपको
छिपा लोगे । लेकिन वल्दियत और जात के साथ तुम्हारे मुसलमानी नाम ने तुम्हारा
पीछा नहीं छोड़ा ।'' ( अभी दिल्ली दूर है (हंस, फरवरी 1988) पृ. 18) राजेन्द्र यादव ने इस संदर्भ में लिखा है कि
''शानी की यह यात्रा 'गुलेशेर खाँ' से शानी और फिर 'गुलशेर खाँ शानी' बन जाने की
यात्रा है । यानी पहले वह मुसलमान था, फिर इस सांचे को तोड़कर लेखक बना, मगर
धीरे-धीरे सिर्फ मुसलमान हिंदी लेखक बन कर रह गया ।''
छत्तीसगढ़ के एक अखबार ने खबर उड़ा दी थी कि
शानी सी. आई. ए. के एजेंट हैं । इस पर शानी ने लिखा है कि ''तुम इतने बड़े कारीगर
हो, यह खुद नहीं जानते थे । ग्वालियर में तुम पाकिस्तानी जासूस थे और भोपाल
पहुँचकर सी.आइ.ए.के एजेंट हो गये ।'' (अभी दिल्ली दूर है (हंस, फरवरी 1988) पृ. 17) यही
हिंदुस्तानी मुसलमान का कड़वा सच है, जिसके उत्तर में शानी बेहद पीड़ा से लिखते
हैं कि ''मैं हिंदू होता तो कितना अच्छा होता, तुम सबसे छिपाकर चुपचाप सोचते थे ।
क्या करता? जरूरत क्या थी-बस हो जाना ही काफी था ।'' (अभी दिल्ली दूर है (हंस, फरवरी 1988)
पृ. 17) जब मध्यप्रदेश
में श्यामाचरण शुक्ल मुख्यमंत्री हुए, तो मध्य प्रदेश साहित्य परिषद के सचिव
पद से हटाने के लिए एक बार फिर शानी को सी.आई.ए. का एजेंट कहा गया । ये सारी
परिस्थितियाँ शानी को अल्पसंख्यक होने तथा उनकी असुरक्षा-भावना, दहशत से उनका एक
दूसरे से चिपके रहने, हमेशा शक और संदेह की तेज रोशनियों के बीच घिरे होने के
अहसास से दो-चार करा रही थीं । अल्पसंख्यकों की भारतीय अस्मिता के सवाल पर शानी
और राही मासूम रज़ा दोनों बहुत ही गुस्से से जवाब देते हैं। राही ‘आधा गाँव’ की भूमिका में लिखते हैं कि “जनसंघ का
कहना है कि मुसलमान यहाँ के नहीं हैं । मेरी क्या मजाल की मैं झुठलाऊँ । मगर यह
कहना ही पड़ता है कि मैं गाजीपुर का हूँ । गंगौली से मेरा अटूट संबंध है । वह एक
गाँव ही नहीं । वह मेरा घर भी है ।...और मैं किसी को यह हक नहीं देता कि वह मुझसे
यह कहे, राही! तुम गंगौली के नहीं हो ।'' (आधा गाँव-रही मासूम रज़ा पृ.
303) शानी कहते हैं कि ''मैं भी नहीं मानता कि मेरे पुरखे कहीं ईरान-तूरान से
आये होंगे, वे वहाँ बस्तर के जंगलों में कहाँ ऐसी तैसी कराने पहुँचते? हो सकता है
वे हिंदू ही रहे हों । मगर तीन पीढ़ियों से मैं मुसलमान हूँ और वही बने रहना चाहता
हूँ । यह मुल्क, यह जबान, यह राष्ट्र सिर्फ उनके बाप का नहीं, मेरा भी उतना ही
है जितना उनका । मैं उनकी शर्तों और कृपा पर यहाँ का नागरिक नहीं हूँ । क्यों खत्म
कर दूँ मैं अपनी आइडैंटिटी...? सिर्फ इसलिए कि मैं अल्संख्यक हूँ...मुझसे क्यों
मांग की जाती है कि मैं हर बार अपने को साबित करूँ जो वो चाहते हैं?'' (शानी, आदमी और अदीब (सं.)-जानकी
प्रसाद शर्मा, पृ. 14)
स्वातंत्रयोत्तर
भारत में एक खास तरह की अवसरवादी नस्ल उभरी है जिसने धर्मनिरपेक्षता की एक अजीब
परिभाषा गढ़ ली है । उसके लिए सेक्युलर हिंदू या अच्छा मुसलमान बनने के लिए हिंदू
को हिंदू-विरोधी या मुसलमान को मुसलमान-विरोधी होना जरूरी है । मुसलमान का मुस्लिम
विरोधी और हिंदू का हिंदू विरोधी होना आडंबर छल और मुखौटा जिस बात को शानी शिद्दत
से महसूस कर रहे थे । भारत पाकिस्तान के
युद्ध के दौरान वे पीड़ा से गुजर रहे थे । उन्होंने लिखा ''मेरी ट्रेजडी यह थी कि
युद्ध ने मुझे खामोश और उदास कर रखा था । न तो मेरे मन में तमाशबीनों जैसा जोश और
उत्साह था और न रस लेने वाली प्रखरता । अगर यह सब न होता और मेरी जेब में उफनती
हुई राष्ट्रीयता और देशप्रेम का झुनझुना होता तो भी काफी होता, लेकिन बदकिस्मती
से वह भी नहीं था । अगर आप भारतीय मुसलमान हैं और चाहते हैं कि आपकी बुनियादी
ईमानदारी पर शक न किया जाय तो यह झुनझुना बहुत जरूरी है ।'' (एक शहर में सपने बिकते हैं,
शानी, पृ. 46) इसी समस्या को आधार बनाकर शानी ने 'युद्ध' और
'जनाजा' नामक कहानियाँ लिखीं । ‘जनाजा’
कहानी का एक पात्र शंकरदत्त, शानी के प्रिय पात्र वसीम रिजवी से सवाल करता है कि
''तुम्हें पता है तुम अकेले पड़ते जा रहे हो?...और यह भी पता है कि मुसलमान तुम्हें
काफिर समझते हैं । इसके जवाब में रिज़वी कहता है 'हाँ यह भी पता है कि मुसलमान
मुझे काफिर समझते हैं और हिंदू यह समझते हैं कि मैं...लेकिन क्या आदमी सिर्फ स्याह
और सफेद ही होता है? ऐसा नहीं कि दोनों के बीच कई-कई रंग घुले हो? कई पल रुक कर
दत्त ने कहा था, 'क्या यह जरूरी है कि जो रंग आपका भीतर से हो वह बाहर भी दिखाया
जाये?' 'दत्त जी, अगर यह जरूरी नहीं तो हिप्पोक्रेसी और ईमानदारी में क्या फर्क
हुआ?' रिज़वी ने कहा था, 'कुरैशी और मुझमें क्या फर्क हुआ?'' (प्रतिनिधि कहानियाँ, शानी, पृ.
90) कुरैशी इस कहानी का ऐसा पात्र है जो सामूहिक बातचीत के
दौरान देश और राष्ट्रीयता की बात करता है ''तुम आदमी हो या मुसलमान यह उसका ऐसा
तकिया कलाम था, जिससे वह अपने हिंदू दोस्तों को खूब हँसाया करता था ।'' (प्रतिनिधि कहानियाँ, शानी, पृ.
91) हिंदुओं
को खुश करने के लिए वह ओलम्पिक टूर्नामेंट में पाकिस्तान की पराजय पर मिठाई
बाँटता है । रिज़वी की नजर में कुरैशी का यही आचरण हिप्पोक्रेसी की श्रेणी में
आता था । जितना रिज़वी इस हिप्पोक्रेसी से नफरत करता है उतना ही शानी भी । शानी
ने इसी हिप्पोक्रेसी के लिए राही मासूम रज़ा की आलोचना करते हुए कहा था कि
''प्रखर सामाजिक दृष्टि और सोद्देश्य चेतना से युक्त होने के बावजूद उनके बहुत
कम पात्र जिन्दगी के उस व्यापक स्तर पर भय और अपने अंतर्विरोधों से मुठभेड़
करते दिखाई देते हैं जिनसे आज का भारतीय मुसलमान अपनी वास्तविक जिन्दगी में दो
चार हो रहा है । बदकिस्मती से वे 'कुरैशी' जैसे पात्रों को बहुत प्रमुखता से
चित्रित करते हैं ताकि वे एक व्यापक स्तर पर हिंदू सांप्रदायिकता को गुदगुदाएं और
वे लोग खुश हों । संभवतः इसीलिए वे मुझसे ज्यादा लोकप्रिय हैं, क्योंकि जिस वर्ग को वे खुश करते हैं, मैं उसे नाराज करता हूँ ।''
(सब एक जगह (दूसरी जिल्द)-शानी,
पृ. 3) यह छद्म धर्मनिरपेक्षता ''विभाजित भारत में मुसलमान के लिए यह
बहुत चमकीला अभेद कवच होता हैा उस पर कोई संदेह नहीं करता वह सेक्युलर कहलाने
लगता है ।...सेक्युलर क्या होता है? क्या इस सेक्युलर की सजावट के बगैर क्या
कोई गैर सांप्रदायिक सोच नहीं होती?'' (नैना कभी न दीठ-शानी, पृ.4) इन सभी सवालों से शानी एक योद्धा लेखक की तरह अपनी रचनाशीलता और जीवन
दोनों में दो चार होते रहे, इसलिए शानी को पढ़ना उस
हिंदुस्तान को पढ़ना है जो आज भी इन सवालों
से जूझ रहा है ।
Shani ke jivan ka yatharth varnan.....
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