वीरेन्द्र यादव
भारतीय समाज आज जिन चुनौतियों से रूबरू है,
वे
साहित्य के लिए जितनी प्रेरक और संभावनापूर्ण हैं, उतनी ही कठिन और जोखिमभरी भी. यह वास्तव में विडम्बनापूर्ण है कि जिस
राजनीतिक जनतंत्र को अधिक समावेशी होकर सामाजिक
और आर्थिक जनतंत्र में बदलना था वह धनिक तंत्र में तब्दील होता जा रहा है .
नव-उदारवादी आर्थिक नीतियों ने इस दौर में भारतीय समाज में समृद्धों और धनिकों के बीच की खाई को जितना
गहरा और चौड़ा किया है, उतना शायद पहले कभी न था . धर्मनिरपेक्षता के जिस मूल्य के
लिए गांधी को शहादत देनी पड़ी थी आज बाबरी मस्जिद, गुजरात 2002 और हाल की मुज्जफ्फरनगर
(उ.प्र) की घटनाओं के बाद वह चिंदी चिंदी
हो गया है . गांधी ,नेहरू ,आंबेडकर और लोहिया के आदर्श भू-लुन्ठित होकर गर्द गुबार
से ढककर आज बे-चेहरा हो गए हैं . महाराष्ट्र से लेकर उतर भारत तक जहाँ आंबेडकर के
अनुयायियों की एक जमात ‘जातिउन्मूलन’ को अजेंडे से बहिष्कृत कर मनुवाद के भगवा रंग में रंग चुकी है वहीं लोहिया के
अनुयायी उनके ‘जातितोड़ो’
अभियान को ‘जतिजोड़ो’ में तब्दील कर चुके हैं . बहुसंख्यकवाद का इतना गंभीर खतरा पहले कभी ऐसा न था जितना आज
है . दुर्भाग्यपूर्ण यह भी है कि ‘आम आदमी’ की सारी राजनीतिक नारेबाजी के बावजूद समूचे तंत्र से आम आदमी के सवाल ख़ारिज हैं .
होरी, बलचनमा, चतुरी और लंगड़ अभी भी भारतीय समाज के हाशिये पर रहने को अभिशप्त हैं. ऐसे
में क्या भूमिका है
हिन्दी के उस लेखक और संस्कृतिकर्मी की जो प्रेमचंद की विरासत का दावेदार है ?
मुझे लगता है कि आज
का समय लेखकों की समूची जमात के लिए
आत्मालोचना और आत्मावलोकन का भी समय है .हमें याद रखना चाहिए प्रेमचंद ने अपने जीवन के जिस अंतिम वर्ष (1936) में लखनऊ के प्रगतिशील
लेखक संघ के स्थापना सम्मेलन में साहित्य के सौन्दर्य की कसौटी बदलने की बात कही
थी तब तक वे अपने लेखन और विचार में इसे बदल चुके थे .यह महज संयोग नहीं था कि 1936 ही वह वर्ष था जिस
वर्ष उन्होंने ‘गोदान’ सरीखा उपन्यास और ‘साम्प्रदायिकता और संस्कृति’ व ‘महाजनी सभ्यता’ सरीखा लेख लिख सके थे .दरअसल
यह उनके उस समग्र लेखकीय
सरोकारों का परिणाम था
जो साम्राज्यवाद,पूंजीवाद,
साम्प्रदायिकता और जातिगत कुलीनता को अलग खानों में न बांटकर एक समग्र दृष्टि अपनाने का कायल था . उन्होंने
अपनी इस प्रतिरोधी चेतना की कीमत
भी चुकाई थी अंग्रेजों का कोपभाजन होकर
,सरकारी नौकरी छोड़कर और सवर्ण कुलीनों
द्वारा ‘घृणा का प्रचारक’
कहे जाने का लांछन झेलकर. यह करते हुए उन्होंने वर्ग और वर्ण से मुक्त होकर
जिस प्रगतिशील साहित्यिक चेतना का निर्माण किया था वही
लम्बे समय तक हिन्दी साहित्य की मुख्य धारा के लिए
प्रेरणा का स्रोत रही . लेकिन
चिंता की बात यह है कि वर्तमान दौर में वह
नैतिक आक्रोश, नैतिक घृणा और परिवर्तनकामी जीवनमूल्यों के प्रति वह समर्पण दिनोदिन क्षीण होता जा रहा है . हाशिये के समाज
की चिंताएं आज हिन्दी साहित्य की
मुख्यधारा से बहिष्कृत होती जा रही हैं .
आखिर हमारी चिंता का विषय यह क्यों नही है कि जब आदिवासियों द्वारा जल,जंगल ,जमीन
को बचाने और कारपोरेट द्वारा इसकी खुली लूट की जंग छिड़ी हो तो कितने
उपन्यास और कहानियां इस विषय पर लिखे गए हैं ? क्या दलितों पर जातिगत अत्याचार का दौर समाप्त हो गया है ? यदि
नहीं तो आखिर क्यों पिछले दो दशकों में
मुख्यधारा के लेखकों द्वारा ‘धरती धन न
अपना’, ‘महाभोज’, ’परिशिष्ट’ ‘एक टुकड़ा
इतिहास’ या ‘मोरी की ईंट’ सरीखी रचनायें
क्यों नहीं लिखी गयीं ? सच है कि इस बीच दलितों, आदिवासियों और स्त्रियों द्वारा
हाशिये के समाज के सरोकारों की
अभिव्यक्ति एक सीमा तक हो रही है .
साहित्य के जनतांत्रिकरण की यह एक स्वागत योग्य पहल है .लेकिन वर्णाश्रमी पितृसत्ता के
विरुद्ध मुख्यधारा के अधिकांश
लेखकों का मौन क्या वर्ण और वर्ग से मुक्त
होने की प्रेमचंद की परंपरा के नकार का संकेत तो नहीं है ? क्या सचमुच आज का लेखक अपने वर्ण और
वर्ग के पैरोकार की भूमिका में सीमित हो
गया है ? दो राय नहीं कि लेखक कमोबेश हमेशा पढ़े लिखे मध्यवर्ग का ही हिस्सा रहा है
लेकिन आज यह अंतर अवश्य आया है कि वह जीवन में
मध्यवर्गीय होने के साथ साथ अपने
लेखकीय सरोकारों में भी मध्यवर्गीय होता जा रहा है .उसका अनुभव संसार भी
सिमटता जा रहा है . वह आदिवासी समाज और निम्नमध्यवर्ग को अपनी विषयवस्तु बनाते हुए भी अपने वर्गीय
संस्कारों से मुक्त नहीं हो पाता . विनोद कुमार शुक्ल के उपन्यास ‘नौकर की कमीज’,
‘खिलेगा तो देखेंगें’ और ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’ इसके ज्वलंत उदाहरण हैं . अलका सरावगी भी गांधीवादी मुहावरे
में उपभोक्तावाद का क्रिटिक रचते हुए
अंततः अपने उपन्यास ‘कलिकथा वाया बाईपास’ और ‘शेष कादम्बरी’ में अपने वर्ग के पक्ष
में ‘क्लास अपोलोजिया’ ही रचती नज़र आती हैं . क्यों?
हाँ, यह जरूर है कि जिस एक
मुद्दे पर हिन्दी के लेखकों ने इस दौर में
शिद्दत के साथ लिखा है वह साम्प्रदायिकता और धर्मान्धता का विरोध रहा है .
बाबरी मस्जिद ध्वंस की विभीषिका से लेकर
गुजरात की पृष्ठभूमि लिए इस विषय पर साहित्य की सभी विधाओं में विपुल लेखन हुआ है
.लेकिन यह भी सच है कि इस लेखन में ‘आखिरी
कलाम’, ‘काला पहाड़’ और ‘हमारा शहर उस बरस’ सरीखी कुछ कृतियों को यदि छोड़ दिया जाये
तो अधिकांश साम्प्रदायिकता विरोधी लेखन एक
ऐसे निरापद ‘धर्मनिरपेक्ष’ नज़रिए का
परिणाम है जिसे लिखने में कोई जोखिम नहीं है . यह भली भली सी
धर्मनिरपेक्षता धर्म की उस उंच नीच
की श्रेणीगत शोषक भूमिका के प्रति आँख मूँद लेती है जो गाँव
कस्बों में हजारों हज़ार दलितों, अल्पसंख्यकों
और मेहनतकश जातियों को भेदभाव का ही शिकार नहीं बनाता बल्कि उन्हें हिंसा
की भेंट भी चढ़ाता है . दरअसल हिन्दी की मुख्यधारा के अधिकांश लेखकों
का यह अंधत्व गंभीर चिंता की बात है .
हिन्दी का लेखक आज
सुरक्षित लेखन कर रहा है ,वह जोखिम के
इलाके के लेखन से बच रहा है . ‘मरंग गोडा नीलकंठ हुआ’ और’ ‘ग्लोबल गाँव के देवता’ सरीखे उपन्यासों को अपवाद स्वरुप यदि छोड़ दिया
जाए तो नए विषयों का संधान भी लेखक
कम कर पा रहे हैं .ऐसे में यह सुखद है कि कश्मीर
जैसे सुलगते विषय पर क्षमा कौल, मधु कांकरिया , मनीषा कुलश्रेष्ठ, जयश्री
राय सहित कई
लेखिकाओं के उपन्यास इस बीच इस विषय पर आये हैं . लेकिन यह दुर्भाग्यपूर्ण
है कि हिन्दी लेखकों की बड़ी जमात को न तो
अभी तक विदर्भ के आत्महत्या करते किसानों
की खबर है और न देशद्रोह का दंश जीते दलित
,आदिवासियों और अल्पसंख्यकों की कोई चिंता . जरूरत है कि हिन्दी की मुख्य धारा के लेखक आस्वाद्परक दृष्टि से मुक्त होकर सफल और सुरक्षित लेखन ही नहीं बल्कि सार्थक और
जोखिमभरे लेखन को भी अपनी रचनात्मक का
हिस्सा बनाएं . अभिव्यक्ति की
स्वतंत्रता तभी सार्थक हो सकती है
जब इसमें अभिव्यक्ति का जोखिम भी शामिल हो .
वीरेन्द्र यादव . सी -855, इंदिरा नगर ,लखनऊ -226016 . मो. 09415371872.
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