वीरेन्द्र यादव
उत्तर प्रदेश की
वर्तमान राजनीति में देश के सबसे पुराने
और अखिल भारतीय राजनीतिक दल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का पराभव महज एक दल का
पराभव न होकर राजनीति के एक अध्याय और
संस्कृति का भी अवसान है .इसे महज
क्षेत्रीय और अस्मिता की राजनीति के उभार
में न सरलीकृत करके भारतीय जनतंत्र की अनिवार्य नियति के रूप में समझे जाने की जरूरत है . इसे
विलायती माडल के संसदीय जनतंत्र और वर्चस्ववादी
भारतीय सामाजिक तंत्र की अन्तःप्रक्रिया
का परिणाम भी माना जाना चाहिए .
इसे राही मासूम रज़ा के उपन्यास ‘आधा गाँव’ के दलित परुसराम
की उस नियति से भी समझा जा सकता है जो पहले आम चुनाव (1952) में आरक्षित सीट के चलते कांग्रेस पार्टी के
टिकट पर चुनाव तो जीत गया था लेकिन अशराफ जमींदारों की ऐंठ के चलते दुरभिसंधि का
शिकार होकर जेल के सीखचों के पीछे पहुँच गया . कांग्रेस के उस तंत्र में एक दलित का एम एल ए
बनना तो संभव था लेकिन अपनी स्वतंत्र अस्मिता बनाना कठिन था . दलितों के साथ साथ पिछड़ों की भी यही नियति थी
.अनायास नहीं है कि आज़ादी के तुरंत बाद के उस दौर की कथा कहते हुए अपने उपन्यास ‘मैला आँचल’ में फणीश्वरनाथ रेणु राजपूतों की जुबानी दर्ज करते हैं कि , “...ग्वाला होकर लीडरी ..?” और आज भी उत्तर प्रदेश और बिहार में मुलायम और लालू को
भैंस चराने की सलाह दिए जाने
के नारे की अनुगूंज सुना जाना कोई अजूबा नहीं है .
भारतीय समाज की इसी सोपानीकृत व्यवस्था के प्रतिकार स्वरुप डॉ.आंबेडकर ने ‘जाति उन्मूलन’ और डॉ.लोहिया ने
‘जाति तोड़ो’ का उद्घोष किया था . इसे दूरगामी लक्ष्य बनाये रखते हुए जहाँ डॉ.लोहिया ने ‘पिछड़े पायें सौ में साठ’ की
मुहीम छेड़ी तो कांशीराम ने ‘जिसकी जितनी संख्या
भारी उसकी उतनी भागीदारी’ का नारा बुलंद किया . इसी का परिणाम था कि उत्तर
प्रदेश की राजनीतिक सत्ता का पिरामिड पलट
गया . उच्च सवर्ण के इस राजनीतिक
पराभव और हाशिये के दलित- शूद्र बहुजन समाज की जनतंत्र में इस हिस्सेदारी को उचित ही ‘सायलेन्ट रिवाल्युशन’
के रूप में दर्ज किया गया . सत्ता के शीर्ष पर पिछड़े और दलितों का नेतृत्व काबिज
हुआ .लेकिन अफ़सोस कि अंततः वही हुआ जिसके विरुद्ध डॉ.लोहिया ने स्पष्ट चेतावनी दी
थी . उनकी आशंका थी कि जनतंत्र में संख्यात्मक भागीदारी की “इस नीति के फल को सैकड़ों छोटी जातियों के बीच
बांटे बिना वृहत्काय अहीर और चमार(जाटव) जातियां खुद ही चट कर सकती हैं ,जिसका
नतीजा होगा कि ब्राह्मण और चमार तो अपनी
जगहें बदल लेंगें पर जाति वैसे ही बनी रहेगी .” आज गैर-यादव पिछड़ों और गैर-जाटव
दलितों के मुलायम सिंह यादव और मायावती के नेतृत्व से बढ़ते अलगाव की शिनाख्त भी इस राजनीतिक परिघटना से की जा सकती है .
यह वास्तव में विडंबनात्मक है
कि उत्तर प्रदेश के वर्तमान पिछड़ा और दलित नेतृत्व ने पिछड़ों व दलितों की जमीनी एकता सुनिश्चित
करने के बजाय वोट की राजनीति के लिए जिस ‘सोशल इन्जीनियरिंग’ को हथकंडे के
रूप में अपनाया वह उसी ‘ब्राह्मणवाद’ की
पुनर्प्रतिष्ठा थी जिसके विरुद्ध पिछड़ों और दलितों को लामबंद होना था .यह
महज परशुराम जयन्ती के सरकारी अवकाश तक
सीमित न रहकर बसपा सरकार द्वारा
अनुसूचितजाति अत्याचार निरोधक क़ानून को शिथिल किये जाने से लेकर सपा सरकार द्वारा पिछड़ों के लिए पदोन्नति में
आरक्षण के विरोध तक विस्तृत हो गया . समाजवादी
पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के बैनर तले सवर्णवाद की इस
विषबेल का पनपना सामाजिक परिवर्तन
के संकल्प को तिलांजलि देना है . चिंता की बात यह भी है कि ‘जाति तोड़ो’ की जगह
‘जाति जोड़ो’ का यह चुनावी अवसरवाद सवर्ण तुष्टिकरण की जो पगडंडी अपना रहा है वह
उंच नीच में बंटी पारम्परिक सामाजिक संरचना को प्रश्नांकित करने के बजाय उसे वैधता प्रदान कर रहा है . यह अनायास
नहीं है कि बहुजन समाज पार्टी ने उत्तर प्रदेश के लोकसभा चुनाव में इस बार
ब्राह्मण उम्मीदवारों को सर्वाधिक टिकट
दिए हैं और एक भी दलित को अनारक्षित सीट से अपना उम्मीदवार नहीं बनाया है . सपा ने तो दलित और पिछड़ा आयोग की
तर्ज पर सवर्ण आयोग के गठन तक का वायदा अपने चुनावी घोषणापत्र में कर डाला है .
यह वास्तव में गंभीर चिंता की बात
है कि कांग्रेस की ‘राष्ट्रीय’ राजनीति की जिन अनुपस्थितियों को बसपा और सपा ने अपनी प्रभावी
हिस्सेदारी द्वारा संभव बनाया था वही अब
चुकने के कगार पर है . दरअसल सवर्ण
मुहावरे में पिछड़ों और दलिर्तों की राजनीति किये जाने के ये अनिवार्य दुष्परिणाम
हैं . यही कारण है कि आगामी लोकसभा चुनाव को
सवर्ण समाज महज अपनी जनतांत्रिक भागीदारी
के रूप में ही नहीं बल्कि सवर्णवाद की वापसी के अवसर के रूप में भी देख रहा
है . भारतीय बहुसंख्यक समाज में वर्णाश्रमी पितृसत्ता के पक्ष और अल्पसंख्यक समाज के विरोध की एक सशक्त धारा
हमेशा से मौजूद रही है . इसे न गांधी का नायकत्व स्वीकार रहा
है और न ही भारतीय संविधान का सामाजिक समानता का संकल्प. आंबेडकर का चिंतन तो इसके
लिए अस्पर्श्य ही रहा है . इसी
बहुसंख्यकवाद के चलते बाबरी मस्जिद , गुजरात 2002 और ओडीसा के पादरी स्टेन्स की हत्या व कंधमाल
जैसे हादसे संभव हो सके . नरेन्द्र मोदी
इस बहुसंख्यकवाद के नए नायक हैं . सवर्ण
युग की वापसी, अपमान का बदला , पशुधन बनाम पशुहत्या ,पिंक रेवाल्युशन एवं काशी को बौद्धिक राजधानी बनाने की
गर्जना भारतीय जनतंत्र के लिए अच्छी खबर
नहीं है . अफ़सोस यह कि गुजरात के बाद उत्तर प्रदेश को बहुसंख्यकवाद की प्रयोगशाला
बनाने के इन मंसूबों को जिन ताकतों द्वारा
चुनौती दी जानी थी वे ‘कांख भी दबी रहे और मुट्ठी भी तनी रहे’ कि समर्पणकारी मुद्रा के चलते अपनी विश्वसनीयता
खो चुके हैं . ‘राष्ट्रीयता’ के पराभव से
लेकर ‘बहुसंख्यकवाद’ के उभार तक का उत्तरप्रदेश की राजनीति का यह सफ़र सचमुच
स्तब्द्धकारी है .
संपर्क : 09415371872.
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