Saturday, 15 October 2016

हाँ तुम मुझे अच्छे लगते हो

लक्ष्मी यादव
हाँ तुम मुझे अच्छे लगते हो,
अच्छे लगते हो क्योंकि
तुम मुझसे "तुम"बनकर नही
मैं बनकर बात करते हो
अच्छे लगते हो क्योंकि
तुम्हारी आँखें मुझसे कोई
सवाल नही पूछतीं
अच्छे लगते हो क्योंकि
तुम्हारा नारीत्व मुझे लुभाता है
मेरे भीतर एक पुरुषत्व जगाता है
हाँ तुम मुझे अच्छे लगते हो क्योंकि
तुम मुझे सहारा नही देते
बढ़ चले मेरे क़दमों से कदम मिलाते हो
हाँ तुम मुझे अच्छे लगते हो क्योंकि
ठोकरों पर काँप उठते मेरे हाथों को
अपना हाथ नही देते बल्कि मेरे हाथो में
लहराता जीत का परचम थमाते हो
हाँ तुम मुझे अच्छे लगते हो क्योंकि
मेरे अंगों की कोमलता ही नही पसंद तुम्हे
मेरे भीतर की सख्त ज्वाला को भी अपनाते हो
हाँ तुम मुझे पसंद हो क्योंकि
रूढ़ियों में कैद नही है ज़ेहन तुम्हारा
स्वतंत्र आकाश की जिस ख़ोज में
निकली हूँ मैं,उसमे तुम हर पल साथ होते हो
हाँ तुम मुझे अच्छे लगते हो क्योंकि
जब कभी मेरा घायल स्त्री मन
तुम्हारे पुरुष मन पर बरसता है
तुम प्रतिरोध नही करते,
मुझे रोकते भी नही, सुनते हो
जैसे मैं तुमको सुनती हूँ
तुम समझ जाते हो मेरी टीस
मेरे चोटिल मन को स्त्रीत्व भरे
शब्दों से सहलाते हो
तुम मुझे तब और अच्छे लगते हो जब
तुम्हारा और मेरा अस्तित्व
दो लिबासों के बावजूद
एक रंग,एक रूप बन
कड़ी धूप में एक साये में सिमट जाता है।
लक्ष्मी यादव (हर स्त्री शायद ऐसा ही कुछ तो चाहती है ...स्त्री मन को समर्पित)

2 comments:

  1. अति सुंदर ! आप तो हमें अच्छे लगते ही हो लेकिन उससे भी कई अच्छे लगते है तुम्हारे शब्द। स्त्रीत्व अंतस की खुली गांठे से पल्लवित निर्मल निर्मोही भावनाओे को पढ़कर बेहद अच्छा लगा।

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  2. अति सुंदर ! आप तो हमें अच्छे लगते ही हो लेकिन उससे भी कई अच्छे लगते है तुम्हारे शब्द। स्त्रीत्व अंतस की खुली गांठे से पल्लवित निर्मल निर्मोही भावनाओे को पढ़कर बेहद अच्छा लगा।

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