Saturday, 15 October 2016

आज की आलोचना के समक्ष चुनौतियां


वीरेंद्र यादव


   (आज जब साहित्य में कलावादी व कुलीनतावादी शक्तियाँ देश भर के पत्र -पत्रिकाओं में अवतरित होकर लीला कर रही हैं, और जनता के बीच से उठाकर प्रेमचंद को अपनी कुलीन महलों में बैठाकर भोजन कराने को आतुर हैं, ऐसे समय में 13 वर्ष पूर्व लिखा गया प्रख्यात आलोचक वीरेन्द्र जी का यह लेख एक बार फिर पढ़ा जाना चाहिए....माडरेटर)      
     


आज जब धार्मिक कट्टरतावाद की फासीवादी शक्तियां सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के खोल में आक्रामक हों और पूंजी का बाजार वैश्वीकरण के मुखौटे में सम्पूर्ण भारतीय समाज को लीलने की तैयारी में हो तो क्या होगा आज के साहित्य का स्वरूप और कैसी होगी आज की आलोचना? क्या साहित्य का स्वरूप ‘मुझे चाँद चाहिए’, ‘हमजाद’, ‘दो मुर्दों के लिए गुलदस्ता’ और ‘नर-नारी’ सरीखा होगा और आलोचना से ‘यही है राइट-च्वाइस बेबी’ करार देगी ? बाजारू साहित्य की यह बाजारू आलोचना हिंदी में किस ‘उत्तर-आधुनिक’ प्रवृत्ति की परिचायक है ?
साहित्य का बाजार बने इससे किसे इंकार लेकिन साहित्य बाजारू हो और समाज में विकृत मूल्य पद्धति का वाहक हो यह किसका अभीष्ट है ? साहित्य कलात्मक और उत्कृष्ट तकनीक से युक्त हो इससे किसे इंकार, लेकिन कलात्मकता व तकनीक के आवरण में यदि आज का समाज व सरोकार बहिष्कृत हों तो यह किसका अभीष्ट है ? साहित्य का अध्यात्म कुछ लोगों की पसंद हो सकता है, लेकिन अध्यात्म साहित्य का मूल्य बने यह किसकी पसंद हैं ?
साहित्य के केंद्र से होरी (गोदान) को बेदखल करके शेखर (शेखर एक जीवनी) को आधुनिक हिंदी कथा साहित्य का सबसे सशक्त प्रतिनिधि करार देना और ‘प्रेमचंद की परम्परा’ को ‘बिल्कुल अप्रासंगिक’ बताना किस साहित्यिक दृष्टि का परिचायक है ? आखिर क्यों यह कहने की जरुरत दरपेश हुई है कि “कबीर की रूचि सिर्फ धार्मिक मामलों तक सीमित थीं.....उन्हें सामाजिक यथार्थ का दृष्टा मानना भूल है.... कबीर की धार्मिकता समाज के संबंध रखती है, पर उन्होंने उसे महत्व मुख्यत: आध्यात्मिक कारणों से दिया था, भौतिक कारणों से नहीं.... उनका दुःख ईश्वरीय दुःख था.........?” (‘कसौटी-चार के सम्पादकीय से)
कबीर और प्रेमचंद से यह डर क्यों? ‘साहित्य के प्रासंगिक प्रश्न’ यही हैं | वे नहीं जो अज्ञेय व्याख्यानमाला के अंतर्गत निर्मल वर्मा द्वारा दिए गए व्याख्यान (11 मार्च, 2000) के रूप में (कसौटी-4) प्रकाशित हैं | अपने इस व्यख्यान में निर्मल वर्मा ने प्रेमचंद की परम्परा को अप्रासंगिक करार देते हुए यह शिकायत दर्ज की है कि “क्या यह अजीब विडंबना नहीं है कि पिछले वर्षों से हमर अधिकांश कथा साहित्य उन प्रश्नों को अप्रासंगिक मानता रहा है, जिनके बिना स्वयं मनुष्य का ‘मनुष्यत्व’ एकांगी, अधूरा और बंजर पड़ा रहता है? यथार्थवाद के नाम पर हमने मनुष्य को उस ‘यथार्थ’ से विलगित कर दिया जो उसके जीवन और मृत्यु के प्रश्नों को अर्थ प्रदान करता है | जैनेन्द्र और अज्ञेय के उपन्यासों के बाहर शायद ही किसी लेखक ने मनुष्य की आध्यात्मिक विडम्बनाओं को अपने कथा साहित्य में जगह देना जरुरी समझा हो| निर्मल वर्मा अपनी इन साहित्यिक चिंताओं के जरिये जिस साहित्य को ख़ारिज करते हैं, वस्तुत: वही आज का साहित्य है | यहां हिल स्टेशन की आरामगाह में न पियानों-सी बजती स्त्रियां हैं और न मृत्यु की प्रतीक्षा में घूंट भर कर चियर्स करती अम्मू | यह अपने आमित्क बंजरपन को अध्यात्म से भरते, ऊबे, सुखी लोगों की दुनिया नहीं है | यह खेत, खलिहान, गलियों व मुहल्लों में जीवन-संग्राम में जूझते, परास्त होते, छोटी-छोटी खुशियों एवं बेहतर मानव मूल्यों की चाहत रखने वालों का वह जीवंत संसार हैं, जहां इस देश की धड़कने कैद हैं | साहित्य के इस यथार्थ में अपने खेत से बेदखल होता होरी है, बुनकर की बीवी होकर भी एक साड़ी का सपना संजोये खून थूकती अलीमुन है, साम्प्रदायिकता की भेंट चढ़ता रशीदा का प्रेम है, काम पर जाते बच्चे हैं, टेम्पों पर घर बदलते लोग हैं, पेंशन और बाजार भाव का समीकरण है तालाब में डूबी लड़कियां हैं और सिर पर मैला ढोते इन्सान हैं | कुलीन साहित्य की दुनिया में इन पात्रों का प्रवेश वर्जित है, वहां उनकी उपस्थित मात्र अनाम अनुचर माली कुली या दास की है |
साहित्य की कुलीन परंपरा का लम्बा इतिहास रहा है | कालिदास से लेकर अशोक बाजपेयी तक रीति-शिथिला की थकान पर लिखित ‘देह-गेह’ के साहित्य की समृद्ध परम्परा रही है | साहित्य की इस कुलीन परम्परा की प्रासंगिकता को सैद्धान्तिकता का पुट देते हुए अशोक बाजपेयी की स्थापना है कि “......एक ऐसे समय में जब देह सर्वथा अलक्षित जा रही है मानो भारतीय परम्परा में देह और श्रृंगार का इतना बड़ा प्रचलन न रहा हो, ऐसे समय में जब मसलन ऐसा लिखा जा रहा है मानो हिंदी समाज में या हिंदी के मनुष्य में सेक्सुअलिटी होती ही नहीं है.....ऐसे में देह की बात करना वैचारिक हस्तक्षेप है |” (सीढियां शुरू हो गई हैं, पृ 46) देह की इस वैचारिकता का ही परिणाम है कि ‘मुझे चाँद चाहिए’ से साहित्य का बाजार बनाने वाला उपन्यासकार ‘दो मुर्दों के लिए गुलदस्ता’ और ‘कसप’ व ‘कुरु-कुरु-स्वाहा’ का लेखक ‘हमजाद’ लिखने लगता है | इसी देह-दृष्टि का नतीजा है कि ‘उसका बचपन’ जैसे उपन्यास का लेखाक ‘नर-नारी’ सरीखी यौन गाथा लिखने लगता है | देह-दर्शन के इस ‘माइंड-सेट’ का ही परिणाम है कि उम्र के बढ़ने को ‘ब्रा के साइज’(सुरेन्द्र वर्मा) और नारी मुक्ति को ‘इन्सेस्ट’ से (मनोहर श्याम जोशी) पारिभाषिक किया जाने लगा है |
यह महज संयोग नहीं है कि अज्ञेय व जैनेन्द्र के जिन उपन्यासों की चर्चा निर्मल वर्मा आध्यात्मिक विडम्बनाओं को रेखांकित करने के लिए करते हैं, वही उपन्यास हिंदी में आधुनिकतावाद के भोगवादी दर्शन के घोषणा पत्र भी हैं | जैनेन्द्र की ‘सुनीता’ का नग्नवाद और अज्ञेय के ‘शेखर’ का अपनी सगी बहन सरस्वती और मौसेरी बहन शशि से रातिक सम्बन्ध आधुनिक हिंदी साहित्य में देहदर्शन का सैद्धान्तिकीकरण है | संभोग से समाधि के इस अध्यात्म का हिंदी साहित्य में केन्द्रीयता न प्राप्त कर पाना निर्मल वर्मा सरीखे अभिजन साहित्यकारों की अस्तित्ववादी चिंता का मूल आधार है। इस चिंता के मूल में उनके अपने वर्गीय सरोकार हैं, जिन्हें वे ‘हर समय और समाज के प्रसंग में प्रासंगिक सार्वभौमिक सत्यों को उजागर करने’ के आवरण में सम्पूर्ण साहित्य पर थोपना चाहते हैं | इसी उपक्रम में वे यह सैद्धांतिक स्थापना भी करते हैं कि “अमूर्त-सी दिखने वाली रूपवादी रचनाएँ, जिन पर विदेशी प्रभाव का आरोप अक्सर लगाया जाता है, भारतीय अनुभव के बीहड़पन को अधिक अंतरंगता से अभिव्यक्त कर पाती हैं |” (निर्मल वर्मा, कसौटी-4, पृष्ट -79) सच तो यह है कि जिस अभिजात्य जीवन के यथार्थ को निर्मल वर्मा ‘भारतीय अनुभव’ बनाकर पेश करते हैं वे अभिजन समाज के वे वैश्विक अनुभव हैं जो रोम, प्राहा, लन्दन से लेकर शिमला तक हर कहीं एक ही तरह से उपस्थित हैं |
साहित्य की यह अभिजात्य दृष्टि वातावरण, प्रकृति व परिवेश का ऐसा ऐन्द्रजालिक संगीतात्मक वितान रचाती है, जहाँ ‘समय सरगम’ हो जाता है और पाठक ‘अंतिम अरण्य’ की उपत्यका में खो जाता है | प्रकृति की इस सुरम्य व मनोरमा उपत्यका को देखकर ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’ के रघुबर प्रसाद के पिता को सहसा यह अहसास होता है कि ‘लगता है बहुत दिन जी गए और मृत्यु यहाँ से बहुत समीप हो’ क्लासिकी संगीत की ऊँचाइयों को छूती प्रकृति प्रेम की यह सार्वभौमिकता निम्न-मध्यवर्गीय रघुबर प्रसाद के पिता को जिस काल्पनिक सुख-संसार में ले जाती है, वह उनका अपना निजी अनुभव न होकर उस आभिजात्य सौन्दर्य दृष्टि का परिणाम है, जिसका वास्तविक जीवन जगत से सीधा कोई रिश्ता नहीं हैं | विजातीय अनुभवों को सहज और काम्य बनाकर वास्तविकता यह भ्रम जिस ऐन्द्रिकतावाद को प्रश्रय देता है वही आभिजात्य सौन्दर्यदृष्टि का गंतव्य है |
साहित्य को बैठे-ठाले का शगल बनाता रचना का यह अस्वादपरक दृष्टिकोण जिन मूल्यों पर टिका है उसके एक छोर पर अभिजन मूल्य पद्धति है तो दूसरे छोर पर बाजार है | यूं तो आभिजात्य व बाजार बाह्य तौर एक-दूसरे से विमुख दीखते हैं, लेकिन दोनों एक ही वर्गीय आधार पर टिके हैं | आभिजात्य पूंजीवादी जनतंत्र का अतीत है तो बाजार उसका भविष्य | आज के साहित्य को आभिजात्य व बाजार दोनों ही मोर्चों पर लड़ना है, क्योंकि साहित्य की बची हुई जमीन को दोनों ही अधिग्रहीत करना चाहते है। इन अर्थों में निर्मल वर्मा का उपन्यास ‘अंतिम अरण्य’ और सुरेन्द्र वर्मा के ‘मुझे चाँद चाहिए’ में कोई मौलिक भेद नहीं है क्योंकि ‘अंतिम अरण्य का अध्यात्म दर्शन भी उतना ही वायवीय है, जितना ‘मुझे चाँद चाहिए’ की मखमली सफलता का यथार्थ |
यह अकारण नहीं है कि आभिजात्य सौन्दर्य दृष्टि से लिखी गई रचनाओं में यह तथ्य गौण हो जाता है कि साहित्य की विषयवस्तु क्या है | कस्बाई जीवन व आदिवासी पृष्ठभूमि के बावजूद विनोद कुमार शुक्ल के उपन्यासों की मूल्य चेतना यदि महाश्वेता देवी के आदिवासी जीवन पर लिखित उपन्यासों से भिन्न है तो इसके मूल में दोनों की भिन्न सौन्दर्य दृष्टि व सामाजिक सरोकार ही है | आंचलिक पृष्ठभूमि के बावजूद यदि रेणु के ‘मैला आंचल’ व कृष्णा सोबती के उपन्यास ‘जिंदगीनामा’ के सरोकार भिन्न हैं तो इसके मूल में लेखक की अपनी वर्गीय मूल्य चेतना ही है | इस सन्दर्भ में कृष्णा सोबती के बारे में विजयमोहन सिंह का यह प्रश्न उचित ही है कि, “क्या सोबती जी का रचनाकार की हैसियत से अलग, उस सामंती व्यवस्था से अतिरिक्त लगाव है, जो अंतत: और मूलत: अपने अंतर्विरोधों में जीती हुई दूसरी जातियों और वर्गों के शोषण के आधार पर टिकी हुई है ?” (कथा समय, पृष्ट 72) कृष्णा सोबिती द्वारा ‘जिंदगीनामा’ के शाह परिवार के प्रति आलोचनात्मक भाव न रखना इस उपन्यास को ‘आधा गाँव’ सरीखे उपन्यासों से अलग करता है, जहाँ यह आलोचनात्मक दृष्टि लगातार उपस्थित है | हिंदी साहित्य के कुलीन तंत्र में ‘जिंदगीनामा’ की सहज स्वीकृति एवं ‘आधा गाँव’ के प्रति उपेक्षाभाव के मूल में भी यह कुलीनता बोध ही है | यही कुलीनता बोध के परिणाम स्वरूप विनोद कुमार शुक्ल प्रकृति को उसके यथार्थ से काटकर ‘पैस्टोरल’ बनाते हैं | ‘खिलेगा तो देखेंगे’ एवं ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’ उपन्यासों में विनोद कुमार शुक्ल जन-जीवन के कोलाहल से दूर प्रकृति की छाया में एकांत का जो नीड़ रचते हैं वह आभिजात्य रचना दृष्टि की वह पलायनस्थली है जहाँ यह तथ्य गौण हो जाता है कि रचना की पृष्ठभूमि में कोई हिल-स्टेशन है या कोई छोटा क़स्बा या कि आदिवासियों का कोई गाँव |
निर्मल वर्मा का यह कथन अनायास नहीं है कि “एक छोटे हिंदुस्तान कस्बे की विसंगतियों का बखान जो हमें विनोद कुमार शुक्ल के उपन्यासों में मिलता है, क्या वह उसी ‘लघु-मानव’ की संवेदन कथा नहीं है, जिसे आज तक मानव मुक्ति के उदात्त आदर्शों की ओट में अनदेखा करते आये थे |” (कसौटी-4, पृ॰ 79) ‘लघु-मानव’ की ‘परिमलियन’ दौर की जो बहस अपनी गति को प्राप्त कर चुकी है, उसे निर्मल वर्मा यदि आज पुन: प्रासंगिक बनाना चाहते हैं तो इसके निश्चित वैज्ञानिक सन्दर्भ हैं | ये सन्दर्भ हैं व्यापक जनसमुदाय को भीड़ व भेड़ समझने के | मुक्तिबोध ने ‘समीक्षा की समस्याएं’ शीर्षक अपने लेख में इन्हीं ‘लघु-मानवों के बारे में व्यंग्यात्मक टिप्पणी की थी कि “हम सब जन साधारण नहीं, लघुमनाव हैं, क्यों? इसलिए कि आदर्शों ने हमें दगा दिया है, छला है, प्रवंचना की है।..... आदर्श एक छलावा है | लघु-मानव हम अपने लघु प्रयत्नों द्वारा अपनी उन्नति और विकास करते हैं और भारी-भरकम शब्दावली में हम नहीं फसते | हम अपने लघु-जीवन में, अपने दैनिक कार्यक्रमों में, अपनी-अपनी बुद्धि और विवेक के अनुसार लगे रहते हैं और अपने भावनाओं को काव्य में व्यक्त करते हैं | .....जनता? वह एक भीड़ है, भीड़ की कोई आत्मा नहीं होती | व्यक्ति, चेतन व्यक्ति- वह तो आत्मतंत्रवादी है | इसलिए उसका कर्तव्य है कि वह भीड़ का हिस्सा न बने | भीड़ में व्यक्तित्व का नाश होता है |” (मुक्तिबोध रचनावली, खण्ड पांच, पृष्ट 177)
जनता को भीड़ समझने का यह ‘लघुमानववादी’ दर्शन निर्मल वर्मा सरीखे कुलीन संप्रदाय के लेखक को इसलिए रास आता है कि यह जनकेंद्रिय साहित्य और जनता के राजनीति के प्रति भी अवमानना व उपेक्षा का भाव रखता है | राजनीति को लेकर निर्मल वर्मा की आपत्ति है कि ‘हमने अपने देखने का तरीका राजनीतिक बना लिया’ और उन्हें यह संतोष है कि ‘जहाँ-जहाँ कुछ लेखकों ने इसे तोड़ने की कोशिश की है वहां-वहां वे सफल हुए हैं?’ (साहित्य वार्षिक, इंडिया टुडे, 1992) | जनविमुखता का यह साहित्य दर्शन अध्यात्म के जिस ‘अंतिम अरण्य’ में शरणागत होता है वह अभिजन समाज की अपनी जरूरत है | ‘परम्परा’, ‘अतीत’, ‘जातीय-स्मृति’ व ‘संस्कार साहित्यिकी अभिजनवाद के वे मुखौटे हैं जो साहित्य संसार से जीवंत संदर्भों व व्यापक सामाजिक सरोकारों को बेदखल कर देना चाहते है | यही कारण है कि कभी ‘उन्हें प्रेमचन्द को प्रेमचंद की परम्परा’ से मुक्त करने की जरूरत दरपेश होती है तो कभी ‘कबीर के दुःख’ को ईश्वरीय दुःख करार देते हुए उन्हें सिर्फ ‘धार्मिक मामलों तक सीमित’ करने का प्रयत्न किया जाता है |
यह अकारण नहीं है कि अज्ञेय स्मृति व्याख्यान देते हुए निर्मल वर्मा जिस ‘आध्यात्मिक विडंबना’ पर जोर देते हैं, ‘अज्ञेय की अनुपस्थिति’ पर लिखते हुए अशोक बाजपेयी उसी मांग को इन शब्दों में दुहराते हैं, “हर समाज को अपना अध्यात्म चाहिए और कोई भी साहित्य, बिना आध्यात्मिक अनुभव को आत्मसात किये पूरा और सामाजिक दृष्टि से उपयोगी या मूल्यवान नहीं हो सकता |” इसी दृष्टि से कबीर की व्याख्या करते हुए नंदकिशोर नवल द्वारा कबीर के दुःख को ‘ईश्वरीय दुःख’ और उनकी धर्मिकता की सामाजिक व्याख्या को नकारते हुए उसे आध्यात्मिक करार देना एक निश्चित दृष्टि बोध का परिचायक है | ‘कसौटी’ (संपादन नंदकिशोर नवल) नकारते हुए उसे ‘अध्यात्मिक’ करार देना एक निश्चित दृष्टि-बोध का परिचायक है | ‘कसौटी’ (संपादन नंदकिशोर नवल) के पृष्ठों पर निर्मल-अशोक वाजपेयी-नवल त्रिमूर्ति का यह अध्यात्मवाद तीस के दशक में टी.एस. इलियट के द्वारा सम्पादित पत्रिका ‘क्राइटेरियन’ के सरोकारों का भारतीय रूपांतरण है | महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय द्वारा प्रकाशित पत्रिका ‘बहुबचन’ (सपादक अशोक वाजपेयी) तो अभिजन समाज के आध्यात्मिक चिंतन का मुख-पत्र ही है | यह स्वाभाविक भी है क्योंकि म.गां.अं.विश्वविद्यालय के नीति निर्देशक दस्तावेजों में ही यह तथ्य उल्लिखित है कि संस्कृति को वैज्ञानिक चेतना से मुक्त कर इसे आध्यात्मिक चिंतन से जोड़ा जाये |
‘बहुवचन’ के प्रवेशांक में रमेशचंद शाह का यह आध्यात्मिक चिंतन अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के नीति-निर्देशों के अनुकूल ही है, जिससे उन्होंने यह स्थापना की है कि “साहित्यिक कृति के कालजयित्व की कसौटी अंतत: धार्मिक मूल्य चेतना ही होगी |” (पृष्ठ 272) धार्मिक मूल्य चेतना किन खतरनाक परिणतियों तक जा सकती है, इसका उदाहरण पं विद्यानिवास मिश्र का यह उद्घोष है कि “अयोध्या आज भी आस्था का केंद्र है | जन्मभूमि का निर्णय अदालत या इतिहास नहीं करता | यह आस्था का विषय होता है | जो सनातन है इसके लिए प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती |” विद्यानिवास मिश्र की यह आस्था चिंता का विषय नहीं है | चिंता का विषय है वह अवसर व मंडली है जब यह घोषणा की गई | यह तथ्य दर्ज किये जाने योग्य है कि विद्यानिवास मिश्र ने अपनी इस धार्मिक मूल्य चेतना की सार्वजानिक अभिव्यक्ति (23 जुलाई, 2000) अयोध्या में आयोजित, ‘सहित’ प्रत्रिका के उस विमोचन समारोह में की जिसमें निर्मल वर्मा और कुंवरनारायण उपस्थित थे |
 निर्मल वर्मा मंडली की यह धार्मिक मूल्य-चेतना सन तीस के दशक की उस इलियट मण्डली की याद दिलाती है, जो धर्म को साहित्य की कसौटी बताती हुई पश्चिमी आधुनिकतावादी दर्शन की बोधक थी | टी.एस. इलियट, एजरा पाउंड, वैलेस स्टीवेंस व कार्लोस विलियम की यह कवि मण्डली अभिजनवादी व अनुदार मूल्यों की कट्टर पोषक होने के साथ-साथ नंस्लवादी झुकाव भी लिए हुए थी | साहित्य का यह आधुनिकतावादी दर्शन समाज के निम्न वर्गों के उन लोगों के प्रति अमानवीय व कठोर रवैये का पक्षधर था जो पारंपरिक समाज द्वारा निर्धारित सामाजिक और राजनैतिक सीमाओं का अतिक्रमण कर रहे थे | यह करते हुए इलियट व उनकी मंडली अपने वर्गीय हितों के अनुकूल ही उन निम्नजनों के प्रति अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त कर रही थी, जिनका राजनीतिक व सामाजिक परिदृश्य पर सहसा उभार हुआ था | इस आंग्ल मंडली के साथ निर्मल वर्मा का सहचिन्तन स्वाभाविक ही है | निर्मल वर्मा की स्वीकारोक्ति है कि, “इलियट मेरे बहुत निकट रहे | एक समय था जब इलियट के ‘फोर क्वाट्रेट्स’ मुझे उतनी ही शांति देते थे (और शायद आज भी देते हैं) जितनी शांति मुझे सुबह भगवद्गीता पढ़ते हुए मिलती है |” (पूर्वगृह, अंक 27, पृष्ठ 24)
सच तो यह है कि निर्मल वर्मा हिंदी साहित्य के जिस आभिजात्य चिंतन के प्रवक्ता हैं, उसकी जड़े टी.एस. इलियट के दर्शन से नाभिनाबद्ध हैं | अपने निबंध ‘नोट्स टुवार्ड्स डेफिनिशन आफ कल्चर’ में इलियट ने समाज में अभिजन की जिस केन्द्रीय भूमिका को रेखांकित किया है निर्मल वर्मा भारतीय सन्दर्भ में उसकी अनुकृति करते हैं | समाज में आभिजात्य वर्ग की प्रभुत्वकारी भूमिका को निर्दिष्ट करते हुए इलियट का विचार था कि, “पीढ़ी दर पीढ़ी से धन व समृद्धि को संजोता आभिजात्य वर्ग और उसके क्षेत्र तले पीढ़ी दर पीढ़ी रहता किसान ही कवि के लिए स्मृति का समुचित आधार तैयार करता है |” विरासत और जन्म के आधार पर बनी इस पारंपरिक सामाजिक संरचना को औद्योगिक सभ्यता द्वारा दी गई चुनौती पर जिस तरह इलियट खिन्न होते हैं, उसी तरह निर्मल वर्मा यह चिन्ता व्यक्त करते हैं कि “जीवन के हर क्षेत्र में अपनी जगह चाहे वह वर्ण व्यवस्था में ही निहित क्यों न हो, के प्रति निष्ठा रखने में ही मनुष्य का देवत्व छिपा रहता है | मनुष्य की जबाब देही यहाँ भी है – वह एक ‘दी हुई’ पूर्व निर्धारित जिम्मेदारी है, समाज के प्रति, जाति के प्रति परिवार के प्रति इसलिए मनुष्य की पीड़ा उन विवशताओं से उत्पन्न होती है, जो उसे अपनी बुनियादी ‘अच्छाई’ से स्खलित करती है-उसे अपनी परंपरागत जगह से उन्मूलित करती है” (ढलान से उतरते हुए, पृष्ठ 53)
‘परम्परागत जगह’ से उन्मूलित होते जिस ‘मनुष्य की पीड़ा’ को निर्मल वर्मा अपने साहित्यिक चिंतन का विषय बनाते हैं, वह अर्धसामंती भारतीय समाज का वह अभिजन है, जिसके ऐश्वर्य व विलासिता का आधार बहुजन समाज तैयार करता है | हिंदु धर्म का वर्णाश्रामी चिंतन इस ‘परंपरागत जगह’ को सुरक्षित बनाये रखने का जो धार्मिक आधार प्रदान करता है उसकी त्रासद परिणति दुखी चमार की जिस ‘सद्गति’ में होती है, वह निर्मल वर्मा की चिंता का विषय न होकर प्रेमचंद की परम्परा से डर लगता है | यही कारण है कि प्रेमचंद को ‘प्रेमचंद की परंपरा’ से मुक्त करते हुए निर्मल वर्मा ‘कफ़न’ कहानी को व्यक्ति स्वातंत्र्य की कहानी के रूप में व्याख्या करते हैं और इसे ‘दो पियक्कड़ हिन्दुस्तानियों का मुक्ति समारोह’ करार देते हैं | ‘कफ़न’ का यह उत्तर आधुनिक पाठ उसे देशज सामाजिक सन्दर्भों से काटकर जिस तरह सार्वभौमिक बनाता है, वाज सांस्कृतिक वैश्वीकरण की एक बानगी भर है |
अभिजन समाज के लेखकों का यह सार्वभौमिक चिंतन कोई नई बात नहीं है | अजनबी द्वीपों पर अपने ‘अंतिम अरण्य’ तलाशता साहित्य का यह आभिजात्य दर्शन कुलीन लेखकों की अपनी पसंद व प्राथमिकता है | उनसे यह अनुचित है कि वे उस साहित्य की रचना करें जो उनके अनुभव क्षेत्र व सरोकारों से परे हैं | लेकिन उनसे यह अपेक्षा अवश्य की जा सकती है कि वे अपने आभिजात्य दर्शन सरोकारों प्राथमिकताओं एवं अनुभव ससार को समूचे ‘साहित्य के प्रासंगिक प्रश्न’ न बनाये और यह उद्घोषणा न करें की “यथार्थवाद की समूची बहस जो प्रेमचंद की परंपरा के नाम पर पिछले पचास वर्षों से हिंदी में चल रही है, आज बिल्कुल अप्रासंगिक हो गई है |” (निर्मल वर्मा, कसौटी, अंक-4,पृष्ठ 79)
दरअसल निर्मल वर्मा की इस प्रेमचंद-ग्रंथि के मूल में प्रेमचन्द का वह आभिजात्य विरोधी चिंतन है जो यह स्पष्ट आवाहन करता है की हमे सुंदरता की कसौटी बदलनी  होगी’ और जिसकी यह साफ समझ है कि ‘साहित्य मन बहलाव व विलासिता का सामान नहीं है |’ प्रेमचंद की इस वैचारिक स्थापना को समसामयिक सन्दर्भों में विस्तार देते हुए ही आज का साहित्य बहुजन के विरुद्ध अभिजन की दुरभिसंधि की आलोचनात्मक व्याख्या करता है | अभिजन को जिस तरह जनतंत्र नहीं रास आता उसी तरह आभिजात्य धारा के लेखकों को साहित्य के यथार्थ का जनतंत्र नहीं सुहाता | इसीलिए वे प्रेमचंद, रेणु, मुक्तिबोध व धूमिल के समानांतर जैनेन्द्र, अज्ञेय, निर्मल वर्मा व विनोद कुमार शुक्ल की पांत खड़ी करते हैं | ‘यथार्थ के सिकंचों’ से मुक्त करने के नाम पर वे साहित्य को अपने वर्गीय हितों की पूर्ति का साधन बनाना चाहते हैं | इसीलिए उन्हें ‘शेखर’ का चरित्र ‘होरी’ की उपस्थिति से अधिक विराट और प्रासंगिक लगता है | वास्तविकता यह है कि ‘होरी’ व ‘शेखर’ एक दुसरे के स्थानापन्न न होकर साहित्य की दो भिन्न व विरोधी दृष्टियों के प्रतिनिधि नायक हैं |एक दृष्टि यदि साहित्य को ‘सामाजिक संरचना’ मानती है तो दूसरी दृष्टि इसे महज एक ‘साहित्यिक उत्पाद’ बनाकर रख देती है | एक जीवन संग्राम का साहित्य है तो दूसरा जीवन से पलायन का |
साहित्य की दो भिन्न जीवन दृष्टियों के इस अन्तर को शाश्वत साहित्यिक मूल्यों व सार्वभौमिकता के आवरण से नहीं झुठलाया जा सकता | समाज व जीवन की बीहड़ सच्चाइयों से विमुख होने के लिए अक्सर काव्यात्मक अमूर्तन व बिम्बधर्मिता का सहारा लिया जाता है| टेरी ईगलटन का यह मत यहाँ दृष्टव्य है कि, “आधुनिक साहित्य की सैद्धांतिकी में कविता की तरफ झुकाव विशेष महत्व का तथ्य है | इसलिए कि समस्त साहित्यिक विधाओं में कविता ही ऐसी विधा है जो सर्वथा प्रकट रूप से इतिहास से मुक्त एक ऐसी विधा है जहाँ ‘संवेदना’ अपने सर्वाधिक शुद्धतम रूप में बिना सामाजिकता से प्रदूषित हुए अपना कार्य कर सकती है |” (लिटरेरी थियेरी, पृष्ठ 51) शायद यही कारण है कि अभिजन समाज के लेखकों द्वारा इन दिनों गद्य की कविताई पर अधिक बल है, क्योंकि गद्य में जीतनी अधिक कविताई होगी, उतनी कम धार होगी | यह विडंबना ही है कि ज्यों-ज्यों वैचारिकता के दबाव में कविता गद्य के अधिक निकट जा रही है त्यों-त्यों आभिजात्य रूचि के लेखकों द्वारा गद्य में कविता की मांग बढ़ी है |
कवि के जिस गद्य पर साहित्य का प्रभु वर्ग झूम जाता है, वह निराला और मुक्तिबोध का गद्य न होकर अज्ञेय विनोद कुमार शुक्ल का वह गद्य है, जहाँ से जीवन संग्राम बेदखल है | गद्य की यह कविताई गद्य की अपार व असीमित संभावनाओं को संकुचित कर उसे अमूर्त वायवीय व् आस्वादपरक बनाती है जो साहित्य को जीवंत सामाजिक सन्दर्भों से काटकर एक ऐसी ‘स्वायत्त कला’ का रूप देती है, जो जीवन की प्रतीति कराते  हुए भी उससे अलग ऊपर है | इस सम्पूर्ण प्रक्रिया में यह तथ्य गौण हो जाता है कि क्या कहा गया है, महत्वपूर्ण यह रह जाता है कि कैसे कहा गया है!
निर्मल वर्मा मंडली की रेणु की पसंदगी के मूल में उनकी कथा भूमि के सामाजिक सन्दर्भ न होकर ‘मैला आंचल’ व ‘परती परिकथा’ के काव्यगुण ही हैं | रेणु को ‘कवि-कथाकार’ बताते हुए निर्मल वर्मा का कथन है कि “वह शायद पहले लेखक थे जिन्होंने हिंदी के मैदान में कविता के जल-स्रोतों को खोजा था.....लोकगीतों की संवेदना में उनका लहलहाता गद्य एक अदभुत लयात्यकता लिए है जो पहले किसी हिंदी गद्यकार में नहीं देखा गया था |”(बहुवचन-तीन, पृष्ठ 66) यह साहित्य का वह रुपवाद है जिसके चलते साहित्य की हर विधा का आकलन काव्य निकर्षों पर किया जाता है | हिंदी आलोचना का यह दुर्भाग्य रहा है कि उसने अब तक अपनी कथा-आलोचना के स्वतन्त्र निकष नहीं गढ़े हैं | वह अभी भी अंग्रेजी के एफ. आर. लेविस के ‘स्क्रूटनी ग्रुप’ और न्यू क्रिटिसिज्म’ की छाया से मुक्त नहीं हो पाई है | यही कारण ही की अभी भी यह गांठ खुलना शेष है कि एक ही परम्परा और कथा-भूमि के लेखक होने के बावजूद साहित्य के कुलीनतंत्र से प्रेमचंद क्यों बहिष्कृत हैं और रेणु क्यों समादृत? सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और वर्णाश्रमी हिंदुत्व का जो ‘क्रिटीक’ रेणु के साहित्य में उपस्थित है, क्या उसका खुलासा होने के बाद भी रेणु कुलीन साहित्य तंत्र के बीच उतने ही दुलारे लेखक रहेंगे? निम्नमध्य वर्ग के कीचड़ में आभिजात्य सौन्दर्य दृष्टि का जो कमल विनोद कुमार शुक्ल ने खिलाया है क्या इसका रहस्य-भेदन होना जरुरी नहीं है ?
आज की आलोचना का प्रमुख दायित्व साहित्य के ‘टेक्स्ट’ (पाठ) को ‘कंटेक्स्ट’ (सन्दर्भ) प्रदान करना है| साहित्य का सन्दर्भ रहित पाठ रचना को महज एक तकनीक में बदल देता है | तकनीक की केन्द्रीयता जो ‘अपने अपने अजनबी’ (अज्ञेय) सरीखे सन्दर्भविहीन उपन्यास को प्रासंगिक बनाती है और ‘धरती धन न अपना’ सरीखे महत्वपूर्ण उपन्यास को आलोचना के कुलीनतंत्र से बहिष्कृत रखती है | जब बात महज तकनीकी दक्षता पर केन्द्रित होगी तो साहित्य से समाज, लोक जीवन, इतिहास, नारी-विमर्श और दलित-अस्मिता सरीखे प्रश्न बेदखल हो जायेंगे और साहित्य महज एक उत्पाद बनकर रह जायेगा जिसके न कोई सामाजिक सन्दर्भ होंगे और न कोई जीवन मूल्य | 
  साहित्य में तकनीक की केन्द्रीयता के पक्षधर भाषायी स्वायत्तता के भी प्रवक्ता हैं| भाषा यहाँ समाज से संवाद न कर भाषा के भीतर स्वयं अपना एक समाज बनाती है, जो कभी-कभी सामाजिक यथार्थ का भ्रम भी पैदा करता है!  विनोद कुमार शुक्ल की औपचारिक दुनिया की भाषा का स्वायत्त संसार रचते हुए यथार्थ का एक ऐसा ही भ्रम रचती है | औपन्यासिक तकनीक और भाषा यहाँ साधन न रहकर साध्य बन जाती है, जिसके लिए कथा की विषयवस्तु महज एक अवलंब भर है |
लेकिन वर्मा भाषा के इस ‘रूपवाली, कलावादी शगल’ से संतुष्ट नहीं हैं | वे भाषा को ‘परंपरा और जातीय स्मृति के मूल स्रोतों’ से जोड़ना चाहते हैं | भाषा को ‘समूची सांस्कृतिक मनीषा’ के साथ जोड़ते हुए | वे यह प्रश्न उठाते हैं कि, “क्या इस मनीषा की महीन बुनावट किसी ऐसी भाषा में परिलक्षित हो सकती है, जिसमे हमारे भारतीय संस्कार और स्मृतियों का निपट आभाव हैं ?” (कसौटी-4, पृष्ठ 80) भारतीय संस्कार और स्मृतियों के सहारे भारतीयता का प्रश्न उठाते हुए निर्मल वर्मा का कहना है कि “हर संवेदनशील भारतीय के लिए अपनी खोई हुई पहचान को ऐतिहासिक विस्मृति के कुहासे से निकालकर दिन के उजाले में लाना है ताकि हम अपने ‘चेहरे’ को वैस ही देख सकें, जैसा वह है ......? (वही,पृष्ठ 79)
प्रश्न यह है कि निर्मल वर्मा का संवेदनशील भारतीय अतीत के अपने किस ‘चेहरे’ को देखना चाहता है ? उस चेहरे को, जो प्रेमचंद ने पंडित दातादीन (गोदान), पंडित घासीराम (सद्गति), विप्र महाराज (सवा सेर गेहूं) व ठाकुर साहब (ठाकुर का कुआँ) सरीखे दावों में देखा था या होरी, धनिया, दुखी चमार, सिलिया चमाइन, शंकर कुर्मी या भोला अहीर जैसे पात्रों में जो अज्ञेय, निर्मल वर्मा व विनोदकुमार शुक्ल के साहित्य में अनुपस्थित हैं|
दरअसल सच तो यह है कि जिस भारतीय ‘चेहरे’ के मुखौटे में निर्मल वर्मा ‘अपनी खोई हुई पहचान को ऐतिहासिक विस्मृति के कुहासे’ से निकालकर दिन के उजाले में लाना चाहते हैं, वह एक ऐसा अमूर्त भारतीय चेहरा है जो पंडित दातादीन और होरी, पंडित घासीराम व दुखी चमार तथा विप्र महाराज व शंकर कुर्मी सरीखे भारतीय चेहरों के बीच में अंतर्विरोधी क दृश्य-ओझल कर सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का जो विमर्श रचता है, व् न तो सांस्कृतिक है और न ही राष्ट्रीय | अपनी सम्पूर्णता में यह संस्कृति का वह पुनरुत्थानवादी भाष्य है जो बकौल निर्मल वर्मा ‘रामायण-महाभारत की स्मृतियों, पौराणिक कथाओं और मिथकों’ के सहारे ‘संस्कृति ए स्मृतिचिह्न’ गढ़ता है | संस्कृति के इन स्मृतिचिन्हों के सहारे जब साहित्यकार ‘जय जानकी यात्रा’ रामायण मेले व कुम्भ की जुटान में अपनी ‘जातीय स्मृति के मूल श्रोत तलाशेंगे तो परिणाम वहीं होंगे जो इस देश में 6 दिसंबर, 1992 को हुए| अयोध्या में निर्मल वर्मा की उपस्थिति में राम जन्मभूमि के प्रश्न को आस्था का प्रश्न बताने सम्बन्धी पंडित विद्यानिवास मिश्र की ताजातम घोषणा (23 जुलाई, 2000) को इन्हीं सन्दर्भों में ग्रहण करना चाहिए |
साहित्य के प्रासंगिक प्रश्न यही हैं | आज के साहित्य व् आज की आलोचना को इन्हीं प्रश्नों से मुठभेड़ करना है | सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के मुखौटे में फासीवाद की आहटें ज्यों-ज्यों तेज हो रही हैं, त्यों-त्यों साहित्य को अपनी सामाजिक जड़ों की तलाश करते हुए सार्थक हस्तक्षेप की जरुरत भी दरपेश है | प्रेमचंद की परम्परा इस सार्थक हस्तक्षेप का वह घोषणा पत्र है, जो आज भी उतना ही प्रासंगिक है, जितना पूर्व-स्वाधीन भारत में | जरुरत है इसको पुनर्परिभाषित का अद्यतन बनाने की, आज की आलोचना का यही साहित्यिक दायित्व है |
(स्वाधीन: शारदीय विशेषांक -2000 से साभार)

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