Saturday, 2 January 2016

2016 में भारत-पाक रिश्तों का भविष्य!

                                                                                                                                           उर्मिलेश
प्रधानमंत्री मोदी ने सबको चौंकाते हुए बीते 25 दिसम्बर को रूस-अफगानिस्तान के दौरे से लौटते हुए अचानक लाहौर जाने का फैसला किया। उनके दौरे से बने खुशनुमा माहौल को रौंदते हुए महज पांच दिनों बाद पठानकोट के वायु सेना केंद्र पर आतंकी हमला हो गया। अब तक इसमें भारतीय वायुसेना के तीन जवानों और चार आतंकियों के मारे जाने की खबर है। भारत-पाक के बीच औपचारिक-अनौपचारिक वार्ताओं के तुरंत बाद आतंकी हमले, घुसपैठ और संवाद के सिलसिले को पटरी पर उतराने की यह कोई पहली घटना नहीं है। बीते बीस सालों में इस तरह के घटनाक्रमों की लंबी श्रृंखला है। ऐसे में सवाल उठना लाजिमी है कि भारत-पाकिस्तान के जटिल रिश्तों का नये वर्ष-2016 में क्या भविष्य है? क्या सबकुछ वैसा रहेगा, जैसा हमने पहले देखा है या इस बार कुछ बदला सा होगा? 
25 दिसम्बर के लाहौर दौरे से शुरू कूटनीतिक पहल, जो वाकई लीक से हटकर थी, प्रधानमंत्री मोदी और नवाज शरीफ के लिये बडी चुनौती बन गयी है। देखना दिलचस्प होगा कि वे इस सिलसिले को रोकते हैं या जारी रखते हैं। इस तरह की बड़ी पहलकदमियों के अपने आकर्षण हैं तो जोखिम भी। आकर्षण का पहलू देखेः अगर प्रधानमंत्री मोदी ने काबुल से लौटते हुए अचानक कुछ घंटों के लिये पाकिस्तान जाने का कदम न उठाया होता तो वर्ष 2015 उनकी सरकार के खाते में शायद ही कोई चमकदार पहलकदमी होती। ‘सबका साथ-सबका विकास’, ‘न खायेंगे, न खाने देंगे’, ‘कालाधन वापस लायेंगे’ जैसे उनके सारे वायदों-नारों की चमक महज अठारह महीने की सरकार में फीकी पड़ चुकी थी। दिल्ली और बिहार में चुनावी हार के बाद उनकी पार्टी का उत्साह मंद पड़ गया था। रिकार्डतोड़ वैदेशिक दौरौं के बावजूद मोदी जी को निवेश-व्यापार में बहुत ठोस कामयाबी नहीं मिली। अपने शपथग्रहणसमारोह में पड़ोसी देशों के प्रमुखों को बुलाकर नये तरह के रिश्तों का संकेत देने वाले प्रधानमंत्री की नेपाल-कूटनीति की कमजोरियां तत्काल सामने आयीं। इतनी सारी नकारात्मकता के बीच प्रधानमंत्री ने वर्षांत में लीक से हटकर पाकिस्तान के साथ कूटनीति का नया शास्त्र गढ़ने की कोशिश की है। 
जोखिमः यह सिर्फ दो देशों के रिश्तों का मसला नहीं है, हमारी घरेलू राजनीति और अर्थनीति को भी यह प्रभावित करता है।
प्रधानमंत्री मोदी के आलोचक ही नहीं, उनके पारंपरिक प्रशंसकों का एक हिस्सा भी इस पहल से ज्यादा उत्साहित नहीं है। पठानकोट आतंकी हमले के बाद तो सवालों का शोर कुछ ज्यादा हो गया है। कुछ तो बेहद सख्त और नाराज हैं। दूसरी तरफ, उनके ज्यादातर आलोचक इसे ऐसी नुमायशी पहल मान रहे हैं, जिसका कोई नतीजा नहीं निकलने वाला। बहरहारल, कोशिश चाहे नुमायशी ही क्यों न हो, संभव है, काबुल से दिल्ली के रास्ते में लाहौर रूकने की योजना अचानक नहीं, कुछ पहले तय हुई हो(नये खुलासों से इस बात में दम भी दिखता है), हो सकता है  दोनों तरफ से कुछ खास कारपोरेट घरानों के व्यापारिक-हित हों, संभव है, इसके जरिये प्रधानमंत्री का राष्ट्रीय मीडिया की सुर्खियां बदलने का मकसद भी हो, पर मैं निजी तौर पर भारत-पाकिस्तान के बीच संवाद की हर कोशिश के पक्ष में हूं, आतंकी हमलों और अन्य खुराफातों के बावजूद। मैं इसीलिये प्रधानमंत्री मोदी की लौहार जाने की पहल को 2015 की एक बड़ी घटना मानता हूं। यह सही है कि उनके आकस्मिक दौरे के पीछे किसी सुसंगत कूटनीतिक पृष्ठभूमि का अभाव दिखता है पर दो प्रधानमंत्रियों के अनौपचारिक ढंग से मिलने के भी फायदे होते हैं। रिश्तों की बेहतरी की हर कोशिश को पंचर करने वाली कट्टरपंथी मानसिकता भी इस तरह की पहल से कुछ कमजोर होती है। 
दोनों देशों के रिश्तों के बीच बहुत सारे ‘विघ्न-संतोषी तत्व’ देश-विदेश में हमेशा सक्रिय रहते हैं। इसमें एक बड़ा खेमा तो स्वयं प्रधानमंत्री जी का अपना ‘राजनीतिक परिवार’ है, जिसमें उनकी पार्टी के अलावा राष्ट्रीय संघ, विहिप आदि शामिल हैं। क्या प्रधानमंत्री मोदी वर्ष 2016 में भारत-पाक रिश्तों को लेकर अपने ‘परिवार’ की दशकों की सोच को बदल पायेंगे? उनके दौरे के ऐन बाद भाजपा के महासचिव राम माधव, जिनकी संघ-पृष्ठभूमि सर्वविदित है, का भारत-पाक-बांग्लादेश पर आया विवादास्पद बयान मेरे सवाल को जायज ठहराता है। हालांकि भाजपा ने फौरन माधव के बयान को उनका निजी मंतव्य बताते हुए स्पष्टीकरण भी जारी किया। कुछ खास अंतराष्ट्रीय शक्तियों की भी भारत-पाक रिश्तों को पेंचदार बनाने में हमेशा भूमिका रही है। अत्याधुनिक हथियार बनाने वाली कंपनियों के आर्थिक हितों के लिये लाबिंग करने वाली विदेशी सरकारें और उनके शीर्ष नेताओं की भूमिका का समय-समय पर पर्दाफाश भी होता रहा है। दोनों देशों के तूफानी रिश्तों में इनकी नौकरशाही, खासकर फौज, सुरक्षा एजेंसियों और मीडिया की भी हमेशा से अहम भूमिका रही है। अभी देखिये, 25 दिसम्बर को प्रधानमंत्री का लाहौर दौरा था। लेकिन महज दो-तीन दिनों के अंदर हमारे मीडिया के एक हिस्से में माहौल पर सवाल उठाती कहानियां शुरू हो गयीं। दरअसल, हमारे यहां कम से कम आधे दर्जन अंगरेजी-हिन्दी न्यूज चैनल भारत-पाक रिश्तों में सुधार के ‘आदि-शत्रु’ बने हुए हैं। हर शाम अपनी अग्निवर्षी बहसों में ‘देश जवाब चाहता है’ का आह्वान करने वाले एक खास अंगरेजी चैनल और उसका देखा-देखी वैचारिक रूप से दरिद्र कई हिन्दी चैनल दोनों देशों के रिश्तों को ज्यादा से ज्यादा खराब करने के जुगाड़ में कुछ यूं लगे रहते हैं, मानो रिश्ते ठीक होने से उनके ‘न्यूज आवर’ या ‘प्राइम-टाइम’ का एक स्थायी मसला ही खत्म हो जायेगा। दोनों देशों के मीडिया कवरेज को ध्यान से देखने के बाद हम आसानी से समझ सकते हैं कि भारत के मुख्यधारा मीडिया के अहम हिस्से में आज भी दोनों देशों के रिश्तों को लेकर ज्यादा उग्रता है, जबकि पाकिस्तान में ऐसी उग्रता वहां के उर्दू अखबारों में ज्यादा दिखती है। 
राजनीतिक दलों के स्तर पर भी पाकिस्तान के मुकाबले भारत में इन रिश्तों को लेकर अभी तक आम-सहमति का माहौल नहीं है। प्रधानमंत्री मोदी के लाहौर दौरे को लेकर वहां के लगभग सारे प्रमुख विपक्षी दलों ने प्रधानमंत्री नवाज शरीफ का साथ दिया। मुख्य विपक्षी-पीपीपी ने भी खुलकर समर्थन किया। यह बात किसी से छुपी नहीं कि इस दौरे में निजता-अनौपचारिकता ज्यादा थी, पर इससे वहां के विपक्षी दल नवाज शरीफ से बेवजह नहीं बिदके। जबकि भारत में हालात ऐसे नहीं दिखे। मुख्य विपक्षी कांग्रेस हो या अन्य क्षेत्रीय दल, कइयों ने मोदी के लाहौर दौरे को अलग-अलग दलीलें और वजहें गिनाकर लगभग खारिज ही किया। इनमें कुछ की सैद्दांतिक वजहें हो सकती हैं पर ज्यादातर की निजी राजनीतिक वजहें थीं। प्रधानमंत्री मोदी और उनकी पार्टी का विपक्षी दलों के साथ या अतीत के सत्ताधारी दलों से ऐसे मामलों में जिस तरह का रिश्ता रहा, उसे आज तक कोई नहीं भूला है। प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी की कूटनीतिक कोशिशों के विफल हो जाने के बाद सन 2004 में सत्ता में आने के बाद प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह ने रिश्तों को जोड़ने की नये सिरे से कोशिश की। दोनो देशों के बीच सबसे पहली शिखर-मुलाकात क्यूबा के हवाना में हुई। मनमोहन सिंह और परवेज मुशर्ऱफ के बीच मुद्दों और उनके समाधान को लेकर अच्छी समझदारी बनी। इसके साथ ही कश्मीर मसले की रोशनी में मुशर्ऱफ ने अपना 4-सूत्री फार्मूला पेश किया। बात काफी आगे बढ़ी। लेकिन उस पूरे दौर में तत्कालीन विपक्षी भाजपा डा. मनमोहन सिंह की हर पहल को ध्वस्त करने में जुटी रही। राजनीतिक दबाव कुछ इस प्रकार बनाया गया कि कांग्रेस के अंदर भी एक बड़ी लाबी पार्टी आलाकमान को भरमाने में कामयाब रही कि भारत-पाक कूटनीति का मनमोहन फार्मूला देश और पार्टी के हक मे नहीं होगा। मनमोहन पाकिस्तान जाना चाहते थे पर कांग्रेस और सरकार के अंदर से ही ऐसा दबाव बनता रहा कि उनके पाक-दौरे का कार्यक्रम नहीं बन सका। उधर, मुशर्ऱफ भी लाल-मस्जिद उग्रवादी कब्जे के बाद लगातार कमजोर होते गये और इस तरह नतीजा दिये बगैर एक बड़ी संभावना का अंत हो गया। ऐसे में प्रधानमंत्री मोदी के पास सबक लेने के लिये काफी कुछ है। क्या वर्ष 2016 एक नया प्रस्थानविन्दु बनेगा? क्या मोदी घरेलू-राजनीति में अनावश्यक टकराव पैदा करने की अपनी रणनीति खत्म कर बेहतर कामकाजी माहौल बनाने की पहल करेंगे? हमारे जैसे लोकतंत्र में विदेश नीति अंततः गृह-नीति के बिल्कुल उलट नहीं हो सकती। इसलिये मोदी अगर पड़ोसियों से रिश्तों की नई इबारत लिखना चाहते हैं तो उन्हें अपनी सरकार के घरेलू एजेंडे के कुछ खास पहलुओं में भी बदलाव करना होगा। उनकी सरकार को ज्यादा लोकतांत्रिक, सहिष्णु और पूरी तरह सेक्युलर बनना होगा। क्या मोदी यह सब कर सकेंगे?  
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