उर्मिलेश
वरिष्ठ
पत्रकार-लेखक प्रफुल्ल बिदवई के आकस्मिक निधन के बाद उनकी अंतिम और बेहद
महत्वपूर्ण किताब ‘द फीनिक्स मोमेंटः
चैलेंजेज कन्फ्रंटिंग द इंडियन लेफ्ट’
कुछ ही समय पहले छपकर आई है। कुल 586 पृष्ठों की किताब पढ़ते
हुए मेरे दिमाग में एक सवाल लगातार कौंधता रहा—लगभग एक ही दौर में अपना
राजनीतिक-सांगठनिक सफर शुरू करने वाले कम्युनिस्ट क्यों और कैसे राष्ट्रीय राजनीति
में कामयाब नहीं हो सके और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ कैसे कामयाब हो गया! कम्युनिस्ट पार्टी और आरएसएस, दोनों की स्थापना सन 1925 में हुई थी। एक
ने समाजवादी समाज का सपना देखा और दूसरे ने हिन्दू-राष्ट्र का। दोनों के सपने अब
तक नहीं पूरे हुए। पर आरएसएस की राजनीतिक कामयाबी कम्युनिस्टों के मुकाबले बहुत
बड़ी है। उसकी राजनीतिक संस्था-भाजपा आज केंद्रीय सत्ता में है। कई प्रांतों में
भी उसकी सरकारें हैं। इसके पहले भी वह लगभग छह साल तक केंद्र में सत्तारूढ़ गठबंधन
की अगुवाई कर चुकी है।
कम्युनिस्ट
पार्टी(या पार्टियों) के पास बौद्धिक रूप से बहुत प्रौढ़ और ईमानदार-समझदार नेताओं
की कभी कमी नहीं रही। संघ में कम्युनिस्टों के मुकाबले प्रखर बौद्धिकों की तादात
ज्यादा नहीं रही। पर समर्पित कार्यकर्ताओं की कतारें उनसे जुड़ती रहीं। शुरुआती
दौर में संघ-विचार से अनुप्राणित लोगों का समाज पर लंबे समय तक ज्यादा असर नहीं
रहा। आजादी की लड़ाई में वैसे भी उनकी कोई उल्लेखनीय भूमिका नहीं थी। लेकिन सत्तर-अस्सी
के दशक में उनका ग्राफ उठने लगा और आज वे सत्ता के केंद्र में हैं। कम्युनिस्ट एक
समय संसद में मुख्य विपक्षी दल थे और तीन-तीन राज्यों में उनकी सरकारें भी बनीं।
समूची दुनिया में लोकतांत्रिक ढंग से चुनी गयी पहली वामपंथी सरकार केरल(1957-59)
की थी, जिसने कई महत्वपूर्ण कदम उठाये। नाराज होकर केंद्र ने उसे बर्खास्त किया।
इससे केरल में कम्युनिस्टों की लोकप्रियता बढ़ी। आज भी वे वहां बड़ी ताकत हैं।
लेकिन केरल-बंगाल के बाहर वे नहीं फैल सके। हिन्दी पट्टी में प्रभाव के जो सीमित
आधार थे, वे भी खिसक गये। बड़ा सवाल है, ऐसा क्यों हुआ?
परस्पर घोर
विरोधी होने के बावजूद कम्युनिस्टों और संघियों में नेतृत्व के स्तर पर कुछ
विस्मयकारी समानताएं भी हैं। एक ही दौर में कामकाज शुरू करने वाली दोनों धाराओं की
अगुवाई सवर्ण हिन्दू, खासकर ब्राह्मण समुदाय से आये नेताओं के हाथ में रही है।
कम्युनिस्टों में कुलीन मुस्लिम परिवारों से भी कुछ नेता उभरे। पर दलित-पिछड़े
नदारद थे। संघ की अगुवाई एकाध अपवाद को छोड़कर हमेशा महाराष्ट्र के कुलीन ब्राह्मण
समुदाय से आये नेता ही करते रहे। आज भी लगभग वही स्थिति है। संघ नेतृत्व ने हिन्दू
धर्मावलंबियों को कट्टरता-आधारित ‘हिन्दुत्व’ से जोड़कर जनसंघ और बाद के दिनों में भाजपा के लिये नया जनाधार खड़ा करने
की कोशिश की। जन समस्याओं की निरंतर अनदेखी के चलते कांग्रेसी शासन लगातार
अलोकप्रिय होता रहा। ढहते कांग्रेसी आधार से संघी-संगठनों को काफी मदद मिली। सवर्ण
हिन्दुओं के अलावा व्यापारी समुदाय और कारपोरेट के बड़े हिस्से में भी उसने समर्थन
जुटाया। अपने यहां सामंती समाज का पूंजीवादी रूपांतरण स्वाभाविक ढंग से न होकर
औपनिवेशिक छाया में हुआ। विकलांग-पूंजीवाद और अंधविश्वास-ग्रस्त पिछड़े समाज का
समीकरण संघ-प्रेरित संगठनों के लिये बहुत मुफीद साबित हुआ। उस दौर में भी उन्होंने
समान नागरिक संहिता, ‘मंदिर-मस्जिद’ और
‘रामराज्य’ जैसे मुद्दे उछालकर माहौल
अपने पक्ष में करने की कोशिश की। तब उनकी दाल नहीं गली। अस्सी और उसके बाद के दशक
में उनके अयोध्या अभियान, शिलापूजन और मंदिर-मस्जिद विवाद ने समाज को बुरी तरह
प्रभावित किया। सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के बीच अनेक दंगे हुए। हाशिये पर पड़े
दलित-पिछड़ों और आदिवासियों में लगातार रोष बढ़ रहा था। उसकी अभिव्यक्ति कई विफल
विद्रोहों में हुई। दूसरी तरफ, दक्षिणपंथियों की तरफ से दलित-पिछड़ों के ‘हिन्दुत्वीकरण’ की कोशिश भी जारी रही। कम्युनिस्टों
का एक हिस्सा इंदिरा गांधी की इमर्जेन्सी का समर्थन करके पहले ही अपनी राजनीतिक
विश्वसनीयता गंवा बैठा था। संघ और उसकी अन्य संस्थाओं ने पहले की तरह अपना
प्रचार-अभियान जारी रखा। ‘हिन्दुत्व’
के प्रचार-प्रसार में गीता प्रेस के प्रकाशनों, बम्बइया धार्मिक फिल्मों, टीवी
सीरियलों और गांव-शहर में फैले असंख्य बाबाओं-कथावाचकों का कुछ कम योगदान नहीं
रहा। वरिष्ठ पत्रकार अक्षय मुकुल की हाल में प्रकाशित शोध-आधारित पुस्तक ‘गीता प्रेस एंड मेकिंग आफ
हिन्दू इंडिया’(2015) आंख खोलने वाली
है कि गीता प्रेस की किताबों, ‘कल्याण’
जैसी पत्रिकाओं और टीकाओं की ‘हिन्दुत्व’ की जमीन तैयार करने में कितनी बड़ी भूमिका रही। अब तो यह काम ढेर सारे
हिन्दी चैनलों के जरिये और तेज गति से हो रहा है। लेकिन धर्म और संस्कृति के
विकृतीकरण की हिन्दुत्ववादी साजिशों की समाजवादियों-वामपंथियों के बड़े हिस्से ने
लगातार अनदेखी की। उनको लगता था कि उनके समाजवाद के दायरे में ये मुद्दे आते ही
नहीं!
कम्युनिस्टों ने
जाति-वर्ण के सवाल की भी लगातार उपेक्षा की। यह महज सैद्धांतिक कारणों से हुआ या
इसके पीछे नेतृत्व की सवर्ण-पृष्ठभूमि से बनी सोच की भी भूमिका थी? प्रफुल्ल बिदवई ने दलितों में वामपंथियों के सीमित
आधार का सवाल तो उठाया है पर वह इसके कारणों की तह में नहीं जा सके। सत्तर-अस्सी
के दशकों में, जब भारतीय समाज में बदलाव की बेचैनी थी, दलित-पिछड़े-आदिवासी समुदाय
के बड़े सरोकारों पर वामपंथियों का क्या रवैया रहा? आरक्षण
के सवाल पर वामपंथी शिविरों में जिस तरह का संकोच दिखा, वह हैरतंगेज था।
वामपंथियों के बड़े हिस्से ने शुरू में आरक्षण को मुद्दा ही नहीं माना। बाद में
कहना शुरू किया कि लागू करना है तो वह ‘सामाजिक-आर्थिक आधार’ पर लागू हो। जबकि संविधान ने आरक्षण का आधार सिर्फ ‘सामाजिक-शैक्षिक पिछड़ेपन’ को माना है। काफी बाद में
भाकपा ने मंडल-आधारित आरक्षण प्रावधानों का समर्थन किया। कन्फ्यूजन में पड़ी माकपा
की बंगाल इकाई विरोध में थी तो केरल इकाई समर्थन में। ऐसे में पिछड़ों को ‘आर्थिक आधार की लकीर खींचना’ एक नया बखेड़ा पैदा
करने वाली बात लगी। कम दिलचस्प नहीं कि संघ ने भी आरक्षण को कभी पसंद नहीं किया।
नेहरू से लेकर इंदिरा युग के बीच देश के विश्वविद्यालयों और बौद्धिक निकायों/संस्थानों में वामपंथी बौद्धिकों की संख्या अच्छी खासी थी। वे प्रशासनिक
स्तर पर असरदार थे। ऐसे संस्थानों में दलित-पिछड़ों से उभरते प्रथम या द्वितीय
पीढ़ी के पढ़े-लिखे युवाओं की निरंतर उपेक्षा होती रही। विख्यात वामपंथी पृष्ठभूमि
के बौद्धिकों-प्रशासकों के स्तर से हो रहे इस तरह के जातिगत-भेदभाव का संदेश बहुत
खराब गया। उत्पीड़ित वर्गों के युवाओं ने अपने समाजों को आगाह किया कि उन्हें
कांग्रेस की तरह वामपंथियों से भी ज्यादा उम्मीद नहीं करनी चाहिये। इसी दौर में
देश के विभिन्न हिस्सों में मंडलवादी, बहुजनवादी या आंबेडकरवादी नेताओं-संगठनों का
उभार सामने आया। कांग्रेस से नाराजगी के साथ उत्पीड़ितों के बीच से उभरते
पढ़े-लिखे समूहों में कम्युनिस्टों से भी मोहभंग देखा गया। बाद के दिनों में
मंडलवादी-बहुजनवादी नेतृत्व की निजी स्वार्थपरता और कूपमंडूकता भी सामने आई।
दलितों-पिछड़ों के बीच पैदा इस निराशाभरे माहौल का संघ-प्रेरित ‘हिन्दुत्व’ को फायदा मिला। हाशिये पर पड़े
वामपंथियों को आज ‘हिन्दुत्व-उभार’ के
खतरे चारों तरफ दिख रहे हैं। पर उनके हाथ से विकल्प का राजनीतिक मंत्र फिसल चुका
है। शायद, अतीत की विफलताओं और बेचारगी-भरे वर्तमान की ईमानदार पड़ताल से कोई
रास्ता दिखे!
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14 jan,2016
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