सुनील यादव
चौथीराम यादव के
आलोचनात्मक दृष्टि की खोजबीन की प्रक्रिया में मुझे एक सूत्र नजर आया और उस सूत्र
ने उनकी सांस्कृतिक जनवाद की मुहिम को समझने तथा उनके आलोचनात्मक दृष्टि का सटीक
पता लगाने में काफी मदद की । चौथीराम जी ने नामवर जी को पत्र लिखते हुए एक बहुत ही
महत्वपूर्ण बात लिखी थी कि “मैं तो कबीर की तरह शास्त्र-वंचित
हूँ”...अपने संदर्भ में कबीर को याद किया जाना क्या अकारण है?, क्योंकि ‘पोथी पढ़कर पंडित हो जाना एक बात है और
बिना पोथी पढ़े कबीर जैसा स्वतंत्र चिंतक हो जाना बिलकुल दूसरी बात।’ क्या यह अकारण है कि सभा गोष्ठियों के मंचों से लेकर साहित्य की अकादमिक
दुनिया में कुंजी लेखकों के वक्तव्यों का तो जिक्र हो जाता है पर चौथीराम जी की
आलोचकीय दृष्टि और उसकी मौलिक स्थापनाओं का जिक्र नहीं होता?
क्या अनायास ही चौथीराम जी हिंदी आलोचना की वर्चस्ववादी परंपरा से लगभग बहिष्कृत कर
दिए जाते हैं ? इसके उत्तर के लिए उस जमीन तक पहुँचना होगा
जहां चौथीराम जी खड़े होकर तथाकथित कुलीनतावादियों को ललकारते हैं। वह जमीन बहुत ही
ठोस तर्कों से निर्मित है जो बहुजन के पसीने से सीची गई है। इसीलिए उनमें कबीर की अक्खड़ता तथा तनकर खड़े
होने की ताकत है। अगर ‘कबीर की कविता धर्म समाज के ठेकेदारों से खतरनाक सवाल पुछने की कविता है।’ तो चौथीराम जी के सर्जनात्मक
चिंतन को हिंदी आलोचना के वर्चस्ववादी तेवर के विरुद्ध काउंटर क्रिटिक के रूप में देखा
जाना चाहिए ।
यह अकारण नहीं है कि नामवर जी की
किताब ‘दूसरी परंपरा की खोज’ पर लिखा गया चौथीराम जी का लेख
‘सही इतिहास-बोध को रेखांकित करती दूसरी परंपरा की खोज’ जो स्थानीय ‘आज’ में छपा था, कहीं भी छपा उनका पहला लेख है । इस लेख के पीछे के कारकों को समझने के
लिए उनके मन में उठने वाले इन सवालों को देखना जरूरी है –‘यदि
तुलसीदास लोकधर्मी कवि हैं तो कबीर लोक धर्म विरोधी क्यों ?
क्या लोकधर्म को वर्ण-धर्म का पर्याय माने बिना कबीर को लोकधर्म विरोधी कहा जा
सकता है ? रामभक्ति की एक ही शाखा से जुड़े होने के बावजूद इनके
सामाजिक चिंतन में इतना अंतर क्यों है ? यदि सगुण धारा के
तुलसीदास में लोक-संग्रह का पूरा विस्तार है तो उसी धारा के सूरदास में लोक संग्रह
का अभाव क्यों है ?’ इस तरह के बहुत से सवाल हैं जिनके
संदर्भ में वे कहते हैं कि ‘मुझे आचार्य शुक्ल की अपेक्षा
आचार्य द्विवेदी के साहित्य में इन प्रश्नों का उत्तर पाने की कहीं ज्यादा संभावना
नजर आई।’ यहीं से उस दूसरी परंपरा के मूल्यांकन का दौर शुरू
होता है, पर यह ध्यान रहे कि चौथीराम जी जिस दूसरी परंपरा के
मूल्यांकन को आगे बढ़ाते हैं, उसे वे लोकधर्मी परंपरा कहते
हैं, यह परंपरा हजारी प्रसाद द्विवेदी और नामवर जी की दूसरी
परंपरा का विकास तो है पर इसमें कई संदर्भ ऐसे हैं जिन्हे चौथीराम जी ने अपने
चिंतन में विकाशित किया। इस लोकधर्मी परंपरा के मूल्यांकन के लिए चौथीराम जी की
किताब ‘लोकधर्मी साहित्य की दूसरी धारा’ अपना खासा महत्व रखती है । लोकधर्मी साहित्य की यह दूसरी धारा वही है जो
वर्चस्ववादी परंपरा के प्रतिरोध के रूप में हमेशा से चलती रही है, इस धारा को मुख्यधारा की ब्राह्मणवादी ताक़तों द्वारा जान बुझ कर नजर
अंदाज करने तथा उसे खत्म करने की साजिस चलती रही । इसी लोकधर्मी साहित्य का
मूल्यांकन चौथीराम जी के चिंतन का केंद्र बिन्दु रहा है । इसी कारण कबीर के संदर्भ में चौथीराम जी का यह
वक्तव्य उनकी खुद की दृष्टि के बारें में दिया गया वक्तव्य की तरह लगता है - “कबीर
मध्ययुगीन सामंती पुरोहिती जाति व्यवस्था के प्रभा मण्डल का सबसे बड़ा आलोचक है।
उसकी आलोचना दृष्टि समेकित , संतुलित और सर्जनात्मक है और
शैली आक्रामक । वह अपने समय में प्रचलित सभी परम्पराओं के सामने पूरी सप्रश्नता और
चुनौतियों के साथ खड़ा है – ‘निडर और अडिग।’ चाहे वह भारतीय वेदान्त हो चाहे सूफियों का एकेश्वरवाद और चाहे बौद्ध
चिंतन से अनुभावित सिद्धों – नाथों का चिंतन। वह किसी भी ज्ञान परंपरा का न तो अंध
समर्थक है और न ही अंध विरोधी। वह सार्थक मानव- मूल्यों की खोज में सभी ज्ञान
परम्पराओं के साथ सार्थक संवाद स्थापित करना चाहता है, इसलिए
उसके वाद-विवाद में विरोध सामंजस्य का युगपत संबंध है । वह पूर्व स्थापित
मान्यताओं और सुनी सुनाई बातों का ज्यों का त्यों मान लेने का कायल नहीं है । अपने
अनुभव की कसौटी पर ही वह किसी विचार को स्वीकार या अस्वीकार करता है। सहमति और असहमति
का उसका अपना प्रतिमान है, और वह है उसका अनभै साँचा
व्याहारिक ज्ञान।” यह पूरी बात जितना कबीर के संदर्भ में महत्व की है उससे कम चौथीराम
जी के नहीं । अगर कबीर अपने समय में प्रचलित सभी परम्पराओं के सामने पूरी
सप्रश्नता और चुनौतियों के साथ निडर और अडिग खड़े नजर आते हैं तो चौथीराम जी भी
अपनी गुरु हजारी प्रसाद द्विवेदी के गुरु मंत्र ‘किसी से न
डरना ,गुरु से भी नहीं, मंत्र से भी
नहीं, लोक से भी नहीं, वेद से भी नहीं।’(बाणभट्ट की आत्मकथा पृ.85) के साथ अपने समय की प्रचलित
आलोकतांत्रिक आलोचना के रवैये का क्रिटिक पेश करते हुए आलोचना के लोकतन्त्र के लिए
संघर्ष करते दिखते हैं । चौथीराम जी इस आलोकतांत्रिक आलोचना के संदर्भ में लिखते
हैं कि ‘हिंदी साहित्य जितना लोकतान्त्रिक है, उसकी आलोचना उतनी ही आलोकतांत्रिक । यदि ऐसा न होता तो मध्यकाल के सबसे
विद्रोही और लोकधर्मी कवि कबीर और मीरा न तो आचार्य शुक्ल के कविता जनपद के सीमांत
पर खड़े दिखाई देते और न ही प्रतिरोध के लोकधर्मी कवि नागार्जुन, आलोचना के लोकतन्त्र पर लंबी बहस चलाने वाले अशोक वाजपेयी के कविता जनपद
से एक दम बेदखल हो जाते ।आचार्य शुक्ल तो कबीर पर लोकधर्म विरोधी होने का आरोप भी
लगाते हैं, क्योंकि कबीर वर्णाश्रम धर्म के प्रति अश्रद्धा
पैदा करता है । तुलसी इसलिए प्रिय हैं कि वे वर्णाश्रम धर्म के पक्के समर्थक थे।’
भक्तिकालीन साहित्य के संदर्भ में चिंतन
चौथीराम जी की आलोचना की मूल विशेषता है। भक्तिकाल के संदर्भ में चौथीराम जी ने
हजारीप्रसाद द्विवेदी और मुक्तिबोध की दृष्टि को सिर्फ अपनाया भर नहीं बल्कि उसका
सर्जनात्मक विकास किया । मुक्तिबोध ने अपने प्रसिद्ध लेख ‘मध्ययुगीन
भक्ति आंदोलन का एक पहलू’ में जिस दृष्टि से भक्तिकालीन
कविता को देखा और समझा था, उसका विस्तार में मूल्यांकन
चौथीराम यादव ने किया । चौथीराम जी की वैचारिकी का निर्माण मार्क्स से होते हुए
बुद्ध, अंबेडकर, फुले, पेरियार तथा ललई सिंह यादव जैसे बहुजन हीरो के वैचरिकी को भी अपने अंदर
समेटते हुए हुई है,
इसलिए उनकी आलोचनात्मक दृष्टि को सिर्फ हजारी प्रसाद द्विवेदी या मुक्तिबोध के आगे
की कड़ी में ही नहीं देखा जा सकता, क्योंकि उनका चिंतन सिर्फ
वर्ग संघर्ष को अपने केंद्र में नहीं रखता बल्कि इस देश की ब्राह्मणवादी वर्चस्व
का भंडाफोड़ भी करता है । ‘डॉ. अंबेडकर जहां पूंजीवाद के
विरोध में कार्ल मार्क्स के साथ खड़े हैं वहीं ब्राह्मणवाद विरोधी अभियान में बुद्ध
के साथ।’ और चौथीराम जी अपने चिंतन में इन तीनों के साथ खड़े
दिखाई देते हैं । इसलिए उनकी चिंता उस हाशिये पर धकेल दी गई बहुजन विरासत को
केन्द्रीयता प्रदान करने की है जो वर्चस्ववादियों के खिलाफ हमेशा तनकर खड़ी रही। वे
लिखते हैं कि “यह मनुवादियों का बड़ा पुराना हथकंडा है-महापुरुषों के क्रांतिकारी
विचारो की धार को कुन्द बनाकर उन्हें अपने अनुकूल बनाकर आत्मसात कर लेना। शंकर और
कुमारिल ने बुद्ध के क्रांतिकारी विचारों के साथ किया,यही
हथकंडा अपनाते हुए तुलसीदास ने सिद्धो-नाथों और कबीर-रैदास के क्रांतिकारी विचारों
की धार को कुन्द बनाकर मानस में आत्मसात कर लिया और और अब यही सलूक दलित आंदोलन और
उनके नायकों के साथ किया जा रहा है । हमारे पास प्रतिरोध की शानदार परम्परा है
जिसमे बुद्ध, सरहपा, कबीर, रैदास, फुले, पेरियार, शाहूजी, नारायण गुरु, ललई
सिंह यादव, रामस्वरूप वर्मा, जगदेव
कुशवाहा आदि चमकते रत्न हैं, जिसे वर्चस्ववादियों ने हाशिए
पर ढकेल दिया है।” यही कारण है कि चौथीराम जी का अधिकांश लेखन इस परंपरा के
सटीक मूल्यांकन तथा उसके महत्व को
रेखांकित करने का रहा है । इसलिए उनकी इस
विचार यात्रा को ‘भौतिकवादी
चिंतकों चार्वाको, लोकायतों, आजीवकों
और बौद्ध आंदोलनों’ की तरह ही एक स्वाभाविक विकास के रूप में
देखा जाना चाहिए, क्योंकि इनकी तरह ही चौथीराम जी ने भी अपने
चिंतन में ‘ब्राह्मण विरोधी समानता के लिए वर्ण व्यवस्था, ब्राह्मण श्रेष्ठता और धार्मिक रूढ़ियों पर कड़े प्रहार किए हैं ।’ अद्वैत वेदान्त के अंतर्विरोध
तथा शंकराचार्य के संदर्भ में चौथीराम जी की मौलिक स्थापनाएँ उनके चिंतन की गहराई
को रेखांकित करने के लिए पर्याप्त हैं। शंकराचार्य के अनुसार ब्रह्म ही एक मात्र
यथार्थ है और ब्रह्म के अतिरिक्त कहीं कुछ नहीं है । ‘इस
सिद्धान्त के चलते यदि ब्रह्म जगत की सभी घटनाएँ और मानव प्राणियों सहित सभी
वस्तुएँ ब्रह्म ही हैं तो क्या इससे यह निष्कर्ष नहीं निकलता कि वही ब्रह्म
ब्राह्मण में भी है और शूद्र में भी, स्त्री में भी और पुरुष
में भी, हिंदू में भी है और
मुसलमान में भी है। इस प्रकार जब मानव मात्र में ही ब्रह्म का अस्तित्व
स्वीकार कर लिया गया तब उंच-नीच के भेदभाव पर आधारित वर्ण व्यवस्था और उसमें
व्याप्त असमानता को किस आधार पर न्याय संगत ठहराया जा सकता है ?....शंकराचार्य को यह समझने में देर नहीं लगी कि जीव,
जगत और ब्रह्म सबंधी उनका अद्वैत सिद्धान्त जातिवादी और सामंती हितों के विरुद्ध
जा रहा है । अतः सामंती पुरोहिती हितों की विरुद्धगामी इस वर्ण विरोधी संभावना को
निरस्त करने के लिए उनको नस्लवादी चेहरा लगाकर यह कहना पड़ा कि उच्च वर्णों
में उत्पन्न लोग ही ब्रह्म और आत्मा की
अभिन्नता को समझ सकते हैं । इस प्रकार “भारतीय वेदान्त की सबसे बड़ी विडम्बना यही है कि वह
वर्ण व्यवस्था के पोषक धर्मशास्त्रों की संकीर्ण मान्यताओं से कभी मुक्त न हो सका।
यही कारण है कि अपने तमाम पांडित्य और विलक्षण प्रतिभा के बावजूद शंकराचार्य बहुजन
समाज के हितों के विरुद्ध हिंदू शास्त्रकारों की घिनौनी साजिश में सम्मिलित होकर
वर्ण-व्यवस्था के पक्के समर्थक बन गए । एक उच्च कोटि का दार्शनिक जब जाति-धर्म का
लबादा ओढ़ लेता है तो कितना कुरूप लगने लगता है, शंकराचार्य
इसके सुंदर उदाहरण हैं।” इसी क्रम में चौथीराम जी शंकर के वेदान्त
और निर्गुण भक्ति कवियों द्वारा स्वीकार किए गए वेदान्त में स्पष्ट विभाजन करते
हुए लिखते है कि ‘सिद्धान्त और व्यवहार की अंतर्विरोधी
स्थितियों को पहचानते हुए निर्गुण आंदोलन के संत कवियों ने अद्वैत वेदांत को उसी
सीमा तक स्वीकार किया है जहां तक वह उनके जाति विरोधी भक्ति आंदोलन के अनुकूल हो
सकता था ।’
पुनर्जन्म के सिद्धान्त को चौथीराम जी
ने ‘इतिहास का सबसे घिनौना
षड्यंत्र कहा है।’ वे अपने चिंतन से इस सवर्णवादी साजिस पर न
सिर्फ सवाल उठाते हैं बल्कि उसे बेनकाब भी कर देते हैं। उन्होने इस पर जो लिखा है
उसे यहाँ विस्तृत रूप से उल्लेख किया जाना जरूरी है - ‘धर्मशास्त्रीय
विधानों भौतिक ताकत के बल पर निम्न वर्ण और स्त्रियॉं का शोषण और उत्पीड़न करने
वाले ब्राह्मण और क्षत्रिय यदि स्वर्ग और पृथ्वी के स्वामी बन बैठे थे तो इसलिए कि
पूर्वजन्म में उन्होने ढेर सारे पुण्य कमाए थे, जबकि प्रमुख
उत्पादक वर्ग से सम्बद्ध नीचे के दोनों वर्ण कड़ी मेहनत के बावजूद दुखों और अभावों-
भरा जीवन जी रहे हैं तो ये इनके पूर्व जन्मों के पापों का फल है। लिहाजा इस जन्म
में तो उनकी मुक्ति संभव नहीं, हाँ,
सुख-समृद्धि का उच्च-जीवन जीने के लिए बस इतना कर सकते हैं कि कष्टों का अनुभव किए
बिना अपने उच्च वर्णों की सेवा कर अगले जन्म में मेवा खाने का पुण्य अर्जित करें
ताकि वर्णक्रम से उन्हें उच्चतर जाति में पैदा होने का अधिकार मिल सके, तात्पर्य यह है कि जीवन में एश्वर्य-वैभव और सुख- भोग का संबंध केवल उच्च
वर्णों से है । ......अतः सेवा धर्म ही शूद्र का सबसे बड़ा धर्म और पुण्य का कर्म
था। यानि हाड़ तोड़ परिश्रम करने वाले पापी और उनकी कमाई पर गुलछर्रे उड़ाने वाले
पुण्यात्मा हैं जो अकर्मण्यता और उपभोक्ता संस्कृति का प्रचार कर रहे थे। चातुर्वर्ण
व्यवस्था को दुर्भेद बनाने वाले पुनर्जन्म और कर्मफल का यही मूल सिद्धान्त था, जिसके द्वारा द्विज संस्कृति ने शूद्र संस्कृति(कर्म संस्कृति) के खिलाफ
इतिहास का सबसे घिनौना षड्यंत्र किया है ।’ भक्तिकालीन कविता की वर्चस्व और प्रतिरोध की दो
धाराओं के द्वंद को दिखाने के लिए चौथीरम जी ने
कबीर, रैदास और तुलसी की जिन पंक्तियों का प्रयोग
किया है, वह गहरी छानबिन का नतीजा है,
एक उदारण के माध्यम से इसे देखा जाय तो – “जन्मना के प्रश्न पर बुद्ध से सहमत होते
हुए रैदास ने लिखा –
रविदास
ब्राह्मण मत पुजिए, जौ होवे गुनहीन ।
पुजीही चरन
चंडाल के, जौ होवे गुन प्रबीन॥
इससे आहत होकर
तुलसीदास ने पलटवार करते हुए जन्मना का समर्थन करते हुए ब्राह्मण श्रेष्ठता को
पुंरप्रतिष्ठित किया –‘पूजिय विप्र सील गुनहीना,सूद्र न गुन-गन ज्ञान
प्रवीना ।”
चौथीराम जी का लेख ‘अवतारवाद
का समाजशास्त्र और लोक धर्म’ को उनके चिंतन के उत्कर्ष के रूप में देखा जाना चाहिए । इस लेख
में उनकी स्थापनाओं को देखते हुए यह अकारण नहीं है कि से. तोकारेव की प्रसिद्ध
पुस्तक ‘धर्म का इतिहास’ और डी. डी.
कोसंबी की पुस्तक ‘प्राचीन भारत की संस्कृति और सभ्यता’ बार-बार याद आएँ । इसका कारण यह कि अवतारवाद के समाजशास्त्र को समझने
समझाने की प्रक्रिया में चौथीराम जी की दृष्टि
से. तोकारेव और डी. डी. कोसंबी के करीब खड़ी दिखती है । डी. डी. कोसंबी अपनी पुस्तक में जिस कृष्ण के मिथक
की विकास यात्रा की पड़ताल करते हैं उसी चर्चा को चौथीराम जी ने अपने इस लेख में
विस्तार दिया है, वे
लिखते हैं कि ‘अवतारवाद की अवधारणा पुराणकारों की मौलिक
प्रतिभा, विराट कल्पना और उनके स्वतंत्र चिंतन की
भविष्योंमुखी दृष्टि का प्रमाण है, जिसकी सहायता से उन्होने
छिन्न- भिन्न हो चुकी वर्णव्यवस्था को पुनरव्यवस्थित कर वर्ण-धर्म की रक्षा करने में सफलता अर्जित की थी, इसी प्रक्रिया में कृष्ण को पूर्णावातार माना गया ? ..... मिथकीय संश्लिष्टताओं में उलझा हुआ कृष्ण का
चमत्कारी व्यक्तित्व आर्य और अनार्य, निगम और आगम, ब्राह्मण और अब्राह्मण आदि न जाने कितने परस्पर विरोधी युग्मों के बीच
सामंजस्य सेतु बनता आया है । वैदिक काल के नर देवता, पुराण
काल में विष्णु का पूर्णावातार, द्वापर युग का निर्माता,
गीता का महान कर्मयोगी, नटखट बालगोपाल,
गोपियों का प्रेमी, राधा का अनन्य अनुरागी,
अप्सराओं के साथ रमण करने वाला ....आश्चर्य होता है इतने सारे चेहरे
क्या एक ही कृष्ण के हैं ?परस्पर विरोधी गुणो वाला ऐसा
विलक्षण व्यक्तितत्व ही परस्पर विरोधी परम्पराओं में सामञ्जसय स्थापित कर सकता था,
कितना मिथकीयकरण किया गया है यदु कबीले के नर देवता का, यज्ञ विरोधी गो रक्षक कृष्ण का, इन्द्र को अपदस्त
करने वाले जन नायक का ! वह जिस रूप में आया मनुष्यता सदैव उसके साथ रही। वैदिक काल
से लेकर मध्यकालीन सूरदास के गोचारी काव्य तक कृष्ण की ऐतिहासिक यात्रा जननायक से
लोकनायक बनने की ही अंतर्रयात्रा है, भले ही समय समय पर उसे
ईश्वर का मुकुट पहनाया जाता रहा हो । लेकिन सूरदास के लिए वह मुकुट किसान संस्कृति
के किसी प्रभावशाली मुखिया की पगड़ी से ज्यादा अहमियत नहीं रखता।" कृष्ण के
संदर्भ में चौथीराम जी का यह मूल्यांकन हिंदू धर्म के अवतारवाद की संकल्पना का
क्रिटिक पेश करते हुए ही विकाशित हुआ है। वे आगे लिखते हैं कि ‘यज्ञ और इन्द्र का विरोध करने के कारण गोरक्षक कृष्ण ने किसानों का
प्रवक्ता बन, जन नायक का गौरव अर्जित कर लिया और लगातार बढ़ती
लोकप्रियता ने उसे पूज्य बना दिया । यही कारण है कि इन्द्र पूजा को अपदस्थ कर
कृष्ण पूजा का प्रचलन आरंभ हुआ। पुराण काल तक आते-आते इन्द्र का वर्चस्व टूटने लगा
और ऋग्वेद के उपेक्षित देवता विष्णु सहसा महत्वपूर्ण हो उठे । ...बुद्ध के प्रभाव के चलते ब्राह्मण
धर्म काफी कमजोर हो चला था । बुद्ध ने वैदिक यज्ञ प्रणाली और उसके जटिल कर्मकांड
का विरोध किया और वर्णव्यवस्था की असंगतियों और ब्राह्मण श्रेष्ठता को चुनौती देते हुए दो
वर्णों का क्रम ही उलट दिया ।....अतः पूरी तरह छिन्न-भिन्न हो चुकी वर्ण व्यवस्था
की रक्षा और श्रेष्ठता का गौरव पुनः अर्जित करना वर्णाश्रम समर्थक बुद्धिजीवियों
की प्राथमिक चिंता थी।’ इस प्रसंग पर से. तोकारेव ने बहुत
स्पष्ट लिखा कि ‘बौद्ध धर्म के विरुद्ध ब्राहमणों का संघर्ष
वर्ण व्यवस्था और आबादी पर अपना प्रभुत्व बनाए रखने के लिए किया जाने वाला संघर्ष
था। इस संघर्ष में ब्राहमण धर्म के लिए जरूरी था कि वे अपने हथियारों को बदले।
अभिजातमूलक रूप वाले पुराने ब्राहमण धर्म का जन सामान्य पर प्रभाव कम था। उसे अपनी
शिक्षा और कर्मकांड को लोगों की जरूरत के मुताबिक ढालना पड़ा, ताकि बौद्ध धर्म से सफल टक्कर ले सके। धर्म के क्षेत्र में इन नए
परिवर्तनों के साथ एक नया युग आरंभ हुआ, जिसे हिंदू काल या
हिंदू धर्म का काल कहा जाने लगा ।इस युग की की लाक्षणिक विशेषता यह थी कि कर्मकांड
जनपरक बन गया। व्यापक जनसामान्य पर प्रभाव डालने के नए तरीके निकाले गए। सबसे पहले
जनता को कर्मकांड में भाग लेने की संभावना देना आवश्यक था और सार्वजनिक सामाजिक
समारोह, अनुष्ठान, पूजास्थल, मंदिर, तीर्थस्थान आदि भी आवश्यक थे ।... भारत में
इस युग में पहली बार मंदिरों का निर्माण आरंभ हुआ। भारत में सबसे पुराने मंदिर
बौद्धों के हैं । आरंभ में ये समाधि-स्तूप तथा गुफ़ानुमा चैत्य थे। उनकी देखि देखा
हिंदू मंदिर बने, जिन्हे अपने विराट आकार और भव्य तथा
विलक्षण वास्तु से जनसमान्य कि कल्पना से अभिभूत कर डालना था और श्रद्धा युक्त भय
का संचार करना था।... दूसरी ओर देवताओं से संबन्धित धारणाओं का स्वरूप भी अधिक
जनवादी बन गया । समझ में न आने के कारण देवताओं के बिम्ब जन समान्य को कम प्रभावित
करते थे । अतः यह जरूरी हो गया कि उन्हे जन समान्य के निकट लाया जाय, लोक देवताओं की लोक रक्षक देवताओं की कल्पना की जाय । इस तरह अवतारों की
संकल्पना हुई। ...कुछ अवतार जन सामान्य के प्रिय देवता बन गए । उनमें से कुछ का
निर्माण जनता पर अधिक प्रबल प्रभाव डालने के लिए बौद्ध देवमण्डल की नकल पर किया
गया था। अवतार पार्थिव देवता थे । उनमें जो सबसे लोकप्रिय था, विष्णु का अवतार कृष्ण था। बुद्ध जन्म के मिथक की भांति और संभवतः ईसा के
मिथक के प्रभाव से भी पृथ्वी पर कृष्ण के जन्म के मिथक की रचना हुई । उसके
पराक्रमों उसके जनहित में किए गए कार्यो और उसकी मृत्यु के बारे में कहानियाँ कही
जाने लगी ।” [धर्म का इतिहास - से. तोकारेव, पृ.226] चौथीराम जी अवतारवाद की पौराणिक कल्पना पर बात करते हुए कहते कि
यह हिंदू शास्त्रकारों के शातिर दिमाग का
शतरंजनुमा एक खेल है ‘जिसमें कभी महावीर को, कभी बुद्ध को तो कभी कृष्ण को कारगर मोहरे के रूप में इस्तेमाल किया गया
है । इस खेल कि विशिष्टता यह है कि मोहरे
काले हो या सफ़ेद, जीत हमेशा ईश्वर कि होती है । वस्तुतः यह
वर्चस्व और प्रतिरोध कि संस्कृति के बीच शह और मात का ऐसा खेल है जो धरती कि पुकार
पर ईश्वर और असुरों के बीच खेला जाता है और रिमोट कंट्रोल गगन विहारी देवताओं के
हाथ में होता है ।’
अवतारवाद के समाजशास्त्र पर चर्चा के
उपरांत चौथीराम जी ने ‘समन्वय’ के दर्शन कि पड़ताल कि है - “समन्वय का दर्शन अपने आप में बड़ा खतरनाक दर्शन
है। वर्णाश्रम विरोधी क्रांतिकारी विचारों को निरस्त करने के लिए यह वर्णाश्रम
समर्थक बुद्धिजीवियों का पुराना हथकंडा है। इसके अनुसार पहले तो विरोधी विचारों का
जमकर विरोध करना, फिर उसे विकृत करके प्रचारित करनाऔर इसके
बाद भी यदि वे जीवित रह जाते हैं तो उनकी धार को कुंद बनाकर आत्मसात कर लेना ।
गोस्वामी तुलसीदास ने भी शंकर और कुमारिल की तरह इसी अमोघ अस्त्र का इस्तेमाल करते
हुए ‘अलख जगाने वालों’ ‘साखी सबदी दोहरा’ एवं कहनी उपखान’ कहने वालों के साथ वही सलूक किया है ।जब समन्वय की विराट चेष्टा में
सबकुछ समाहित हो गया तो अलग से उनके साहित्य का क्या महत्व ?
अतः तुलसी तुलसी के पौराणिक मतवाद से पूरी तरह सहमत आचार्य रामचन्द्र शुक्ल यदि
उसे साहित्य ही न मानें तो क्या आश्चर्य ?.... वर्णाश्रम
धर्म की रक्षा और यथास्थितिवाद को बनाए रखना ही पौराणिक अवतारवाद का प्रमुख
उद्देश्य है जिसे चरितार्थ करने के लिए तुलसीदास ने एक पुराण काव्य ही लिख डाला।”
चौथीराम जी के चिंतन का फ़लक बहुत
विस्तृत है वे लोकधर्मी प्रतिरोध की परंपरा का मूल्यांकन करते हुए भक्तिकालीन साहित्य से लेकर नवजागरण तथा आज के
विमर्शों पर अपनी बेबाक तथा तर्कपूर्ण राय रखते हैं। वे सवाल करते हैं कि ‘नवजागरण
के व्याख्याकारों ने फुले-अम्बेडकर के दलित स्त्री जागरण को क्यों नही शामिल किया? हिंदी नवजागरण के प्रसंग में स्वामी अछूतानन्द के जागरण को क्यों भुला
दिया गया?’ उनका नवजागरण
के संदर्भ में यह वक्तव्य सोचने के लिए नए गवाक्ष खोलता है – ‘रानाडे और राम मोहन राय के सामाजिक सुधार की अपेक्षा ज्योतिबा फुले की
सामाजिक क्रान्ति कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण और अग्रगामी रही है। फुले की स्त्री
शिक्षा का आंदोलन 18 विद्यालय खोलकर हर वर्ग की स्त्रियों को
शिक्षित किया ,वह एक मिशन था। राम मोहन राय ने कितने विद्यालय
खोले? विधवा विवाह की समस्या कुलक समाज की समस्या थी जिसे
राम मोहन राय ने उठाया । फुले ने उससे आगे बढ़ कर पुणे में बाकायदा पंपलेट बांटा की
जो विधवाएं प्रसूति कराकर बच्चे को ले जाना चाहे ले जाय या फिर छोड़ जायँ हम पालन
पोषण करेंगे। साबित्री बाई फुले उन बच्चों का नार काटने से लेकर पालन-पोषण का पूरा
दायित्व निभाती थीं। इसके लिए फुले ने बाकायदा पहले ने अपने घर में बाल हत्या
प्रतिबन्धक गृह खोल रखा था और विधवा केश मुंडन के खिलाफ मोर्चा भी। फुले की
सामाजिक क्रान्ति के सामने राम मोहन राय,राणा डे और तिलक के
समाज सुधार कहीं नहीं ठहरते जब कि भारतीय नव जागरण में उन्ही को महत्व दिया गया,फुले को नहीं।’ इसी क्रम में उत्तर शती के विमर्शों
का महत्व रेखांकित करते हुए वे लिखते हैं कि –“स्त्री-विमर्श और दलित-विमर्श
उत्तरशती के अत्यंत महत्वपूर्ण विमर्श हैं ,ये जमाने की आवाज़
हैं। अतः खण्डित विमर्श मान कर इनकी उपेक्षा नही की जा सकती बल्कि यही कि समकालीन
महिला-लेखन और दलित-लेखन को उत्तरशती में हिंदी नवजागरण के अगले विकास के रूप में
देखा जाना चाहिए । कारण यह कि ये विमर्श आधे-अधूरे नवजागरण को पूर्णता प्रदान करने
वाले विमर्श हैं और आज का महिला-लेखन और दलित-लेखन मुख्यधारा के लेखन का ही
महत्वपूर्ण अंग है। सच पूछा जाय तो स्त्री-मुक्ति और दलित-मुक्ति के प्रश्न ही
मानव-मुक्ति के प्रवेश द्वार हैं क्योंकि आज भी दलित और स्त्रियाँ ही शोषण और
उत्पीड़न से सर्वाधिक प्रभावित हैं। इसलिए रक्त-गोत्र की शुद्धता और यौन-शुचिता के
एकपक्षीय खोखले आदर्श और श्रेष्ठता के पितृसत्तात्मक दम्भ के चलते दलितों और
स्त्रियों की उपेक्षा कर न तो किसी मानव-मुक्ति की कल्पना की जा सकती है और न ही
मानव-मुक्ति के वृहत्तर जीवन-मूल्यों से जुड़े बिना अस्मिताओं के ये समकालीन आंदोलन
अपने व्यापक लक्ष्य को ही प्राप्त कर सकते हैं।"
‘जिस प्रकार सेकुलर इतिहास को
जिंदा रखने के लिए मशाल उठाना सीखने के लिए, साहसपूर्ण खतरा
उठाने के लिए और खुद की प्रतिबद्धता को ठीक से पहचानने के लिए कबीर को जानना जरूरी
है ।’ उसी प्रकार भारतीय चिंतन धारा के प्रतिरोधी परंपरा को
सही रूप में जानने और उसका मूल्यांकन करने
के लिए चौथीराम जी के चिंतन को समझना जरूरी है । उनके ही शब्दों में ‘कबीर कोई चुका हुआ कवि नहीं है। वह सांस्कृतिक जनवाद की अपनी कीमती विरासत
के साथ आधुनिक भी है और हमारा समकालीन भी।जब जब सामाजिक परिवर्तन के आंदोलन तेज होंगे
वह जलती मशाल लिए हमारे आगे-आगे चलता दिखाई देगा।’ ठीक इसी
प्रकार हम कह सकते हैं कि जब-जब वर्चस्ववादी चिंतन के खिलाफ आवाजें बुलंद होगी तो
उसमें तर्कों तथा दृष्टि सम्पन्न एक मजबूत और दमदार आवाज के साथ चौथीराम जी हमारा
नेतृत्व करते हुए मिलेंगे ।
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