Friday 13 November 2015

टीपू की तलवार और विचार

                                                                                                                                              उर्मिलेश
संघ परिवार प्रेरित संगठनों के आह्वान से प्रभावित राज्य की मुख्य विपक्षी पार्टी-भाजपा ने कर्नाटक शासन द्वारा 10 नवम्बर को आयोजित भव्य समारोह से अपने को अलग रखा या दूसरे शब्दों में उसका बहिष्कार किया। विश्व हिन्दू परिषद की तरह भारतीय जनता पार्टी ने भी टीपू की विरासत पर सवाल उठाये हैं। पार्टी का कहना है कि वह एक मुस्लिम कट्टरपंथी था, इसलिये उसकी जयंती नहीं मनाई जानी चाहिये। वे चाहते हैं कि टीपू सुल्तान को किताबों, शासकीय दस्तावेजों और लोगों की स्मृतियों यानी इतिहास से बाहर रखा जाय। क्या इतिहास के प्रति यह स्वस्थ दृष्टिकोण है? विख्यात रंगकर्मी और विचारक गिरीश कर्नाड ने संघ-भाजपा के रवैये को इतिहास-विरोधी करार देते हुए कहा कि टीपू अगर मुसलमान न होता तो इस ‘भगवा परिवार’ को लोग उसे छत्रपति शिवाजी की तरह याद करते!  कर्नाड की बातें निराधार नहीं हैं। अपने देश में कुछ लोगों, समूहों और संगठनों को हर समय किसी न किसी विवाद के विषय या अपने शत्रु की तलाश रहती है। उत्तर में कभी मंदिर-मस्जिद मसले, कभी ‘लव जिहाद’ तो कभी बीफ या गाय को बड़े राजनीतिक विवाद में तब्दील करने वालों को दक्षिण के कर्नाटक में इन दिनों टीपू सुल्तान में नये विवाद का मसाला मिल गया है। 18वीं सदी में मैसूर के शासक रहे टीपू में वे इतिहास का खलनायक खोज रहे हैं। पिछले दिनों कर्नाटक सरकार ने ब्रिटिश साम्राज्य-विरोधी शख्सियत और मैसूर के बहादुर शासक के तौर पर टीपू की यादों को सहेजने के लिये कुछ आयोजनों के फैसले लिये तो राज्य में सक्रिय हिन्दुत्ववादी समूहों ने बवाल मचा दिया। बीते 10  नवम्बर को हालात ज्यादा खराब हो गया और टीपू के जयंती समारोह के विरोध में निकाले जुलूस के दौरान हिंसक झड़प में विश्व हिन्दू परिषद के कार्यकर्ता बताये जा रहे एक व्यक्ति की मौत हो गयी। टीपू को याद करने पर ऐसा हिंसक विरोध क्यों? अगर मैसूर टीपू की विरासत के सकारात्मक मूल्यों और विचारों को याद करना चाहता है, उसे प्रेरणापुंज के तौर पर देखता है तो उसका विरोध क्यों?  सिर्फ इसलिये कि टीपू एक मुसलमान था? 
कैसी विडम्बना है, राजशाही या सामंती समाज व्यवस्था के दौर के तमाम हिन्दू राजाओं, रणबांकुरों-सेनापतियों में ‘महान देशभक्त’ की शख्सियत तलाशने वालों को इतिहास में अगर कोई ‘देशद्रोही’ या ‘शत्रु’ दिखता है तो वह सिर्फ मुसलमान हैं! भगवा ब्रिगेड ने अभी सिने स्टार रजनीकांत को भी चेताया है कि वह टीपू पर बन रही फिल्म ‘टाइगर आफ मैसूर’ में टीपू का किरदार न निभायें। कोई भी नहीं कह सकता कि भारत के मध्यकालीन या मध्य से आधुनिक काल की तरफ संक्रमण करते भारतीय समाज में आततायी या क्रूर मुस्लिम शासक नहीं हुए। कई ऐसे हुए, ठीक वैसे ही जैसे असंख्य गैर-मुस्लिम या हिन्दू शासक बेहद आततायी और क्रूर हुए। ऐसे गैर-मुस्लिम शासकों की कट्टरता और क्रूरता से हमारा इतिहास अटा पड़ा है। फिर किसी एक धर्मावलंबी या समुदाय के शासक में ही देशद्रोही या शत्रु की तलाश क्यों? 
इतिहास के प्रति संघ परिवारी संगठनों का यह संकीर्ण रवैया इतिहास से ज्यादा वर्तमान समाज और सियासत की दिशा के निर्धारण की उनके आग्रहों-दुराग्रहों से निर्धारित होता है। वे मौजूदा समाज और सियासत को एक खास ढंग से ढालना और संचालित करना चाहते हैं, इसलिये अपने बने-बनाये खांचे में इतिहास की हर घटना, नायक-प्रतिनायक या घटना-दुर्घटना को रखकर वे व्याख्यायित करना चाहते हैं। इसके लिये कभी उन्हें औपनिवेशिक सोच से प्रेरित इतिहासकारों का लेखन उपयोगी लगने लगता है तो कभी कोई लोक आख्यान या मिथक! जब ऐसा कुछ भी नहीं मिलता तो वे अपनी पसंद का कोई मिथक गढ़ लेते हैं और उसका भरपूर प्रचार करते हैं। उसे एक विचार या तथ्य के तौर पर स्थापित करने की कोशिश करते हैं। टीपू सुल्तान के साथ बिल्कुल ऐसा ही हुआ है। संघ परिवार से जुड़े संगठनों ने बड़े योजनाबद्ध ढंग से टीपू में ‘शत्रु’ तलाशने का विमर्श तैयार किया। 
यह सही है कि टीपू को अपने शासन के दौर में अनेक राजाओं, समूहों और संस्थाओं से टकराना पड़ा। कुछ ज्यादतियां भी कीं, जैसा कोई भी राजा या सामंत करता ही रहा है। अपने शत्रुओं का निर्दयता के साथ दमन किया। लेकिन यह उसका एक रूप है। औपनिवेशिक सोच से प्रेरित विदेशी या कुछ देसी इतिहासकारों ने टीपू के व्यक्तित्व के इस पहलू को ज्यादा बढ़ाचढ़ाकर पेश किया है। मसलन, उसने अगर कुर्ग लोगों के खिलाफ अभियान चलाया तो इसलिये कि कुछेक हलकों में कुर्ग विद्रोहियों ने उसके शासन के खिलाफ छापामार लड़ाई शुरू कर दी थी। केरल के नायरों या दक्षिण कर्नाटक के कैथोलिक ईसाइयों के खिलाफ दमन के लिये भी उसकी आलोचना हुई है। पर इन परिघटनाओं को लेकर ठोस ब्यौरेवार तथ्य बहुत सीमित हैं, ज्यादातर ये बातें आख्यानों और उस क्षेत्र के कुछ समुदायों से जुड़े तत्कालीन साहित्य में दर्ज हैं। कुछ बातें औपनिवेशिक सोच के इतिहासकारों ने प्रचारित की हैं। अगर उसने कुछ हिन्दू या गैर-मुस्लिम समूहों का दमन किया तो श्रृंगेरी मठ सहित 156 से अधिक हिन्दू धार्मिक प्रतिष्ठानों को हर संभव अनुदान या सहायता भी दी। टीपू को किसी मजहबी संकीर्ण दायरे में देखना इतिहास और उसके साथ अन्याय होगा। वह एक बहादुर, दूरदर्शी और समझदार शासक था, जिसने अपने वक्त के अन्य शासकों-सामंतों से ज्यादा आगे बढ़कर देश और समाज के बारे में सोचा-समझा। 
अठारहवीं सदी में टीपू सुल्तान अपने ढंग का अनोखा शासक रहा, जिसने ब्रिटिश कंपनी और उससे उभरते नये शासकीय तामझाम के खतरों को अच्छी तरह समझा था। उसने दक्षिण और उत्तर-मध्य में अपने कई समकालीन शासकों को संदेश भिजवाये कि ब्रिटिश जिस तरह समाज, अर्थव्यवस्था और सियासत में पांव फैला रहे हैं, उससे इस भूखंड पर एक नये ढंग का खतरा मंडरा है। वे पहले के शासकों से अलग और ज्यादा शातिर हैं। उनकी मंशा कुछ और है। वे सूबों की आजादी की खत्म कर सबको गुलाम बनाकर रखना चाहते हैं। उस वक्त के सूबाई या रियासती शासकों में यह सर्वथा नया विचार था। उसके सोच का दूसरा पहलू भी बहुत महत्वपूर्ण है। उस दौर के भारतीय समाज का वह पहला सूबाई शासक था, जिसे फ्रांस की राज्यक्रांति ने बेहद प्रभावित किया। उसने समाज और सभ्यता में बदलाव की बात की। स्वतंत्रता और मुक्ति के मूल्यों को आगे बढ़ाने की बात की। यहां तक कि उसने महल में फ्रांस की क्रांति के अभिनंदन स्वरूप ‘ट्रीज और लिबर्टी’ लगाये थे। 
धार्मिक-वर्णगत आग्रहों से प्रेरित होकर इतिहास की निहायत एकांगी व्याख्या करने वालों ने टीपू की राजनीतिक विरासत के एक खास पहलू को आमतौर पर नजरंदाज किया है। उसने अपने शासन के दौरान मैसूर राज और आसपास के इलाकों के समृद्ध उच्च वर्णीय लोगों, बड़े जमींदारों-सामंतों और पुरोहितों की बेशुमार सम्पत्तियों में से कुछ हिस्से जबरन लेकर गरीबों और शूद्रों में बांटा था। यह महज संयोग नहीं कि उसकी सेना में शूद्रों की संख्या सबसे ज्यादा थी। टीपू के जीवन और शासन पर शोध कार्य कर चुके इतिहासकारों ने इस बात को ठोस तथ्यों के साथ पेश किया है। हमें टीपू की तलवार और विचार, दोनों पर गौर करना होगा। इतिहास के चरित्रों-शख्सियतों की भूमिका की व्याख्या ठोस तथ्यों और साक्ष्यों के आधार पर होनी चाहिये, किसी धर्म, जाति या क्षेत्र के अपने संकीर्ण आग्रहों के दायरे में नहीं! 
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12 नवम्बर,  15


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