Friday 25 September 2015

सिर्फ घोषणापत्र नहीं, शपथपत्र दें नेता



उर्मिलेश
इन दिनों सिर्फ क्षेत्रीय ही नहीं, राष्ट्रीय न्यूज चैनलों और अखबारों में भी बिहार चुनाव को लेकर आये दिन ओपिनियन पोल आ रहे हैं। एक पत्रकार के रूप में मैं सीटों की संख्या और जीत-हार की भविष्यवाणी वाले ओपिनियन पोल्स को बहुत पेशेवर, वस्तुगत और वजिब पड़ताल नहीं मानता। बीते कई सालों से देख रहा हूं, ज्यादातर ओपिनियन पोल्स चुनाव के दौरान मतदाताओं के बीच किसी दल या नेता के लिये ओपिनियन बनाते नजर आये हैं। इसलिये मेरी ज्यादा रूचि इस बात में नहीं कि कौन जीतेगा-कौन हारेगा? इससे ज्यादा रूचि यह जानने में है कि दोनों बड़े गठबंधन बिहार की अवाम के लिये क्या वादे कर रहे हैं और जीतने पर उसे कैसे लागू करेंगे!
चुनाव-सरगर्मी में दलों-नेताओं की तरफ से बड़े-बड़े वादे हो रहे हैं, घोषणापत्र भी आयेंगे। पूरे देश की तरह बिहार का अनुभव भी यही है चुनाव के बाद वायदों का बड़ा हिस्सा एक तरफ रह जाता है और सरकारें कुछ और करने लगती हैं! नहीं कर पाने पर अपने वादों को चुनावी जुमला बताने लगती हैं। आम आदमी से ज्यादा खास आदमी का काम होता है। क्या गारंटी है कि चुनाव के बाद इस परिघटना की बिहार में पुनरावृत्ति नहीं होगी?  राज्य की प्राथमिकताओं की लंबी सूची हो सकती है। पर मोटे तौर पर उसे एक ऐसी सक्षम-जनोन्मुख सरकार चाहिये जो रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य, गरीबी और हर तरह के सामाजिक-आर्थिक भेदभाव जैसी बड़ी समस्या को हल करे। इन बड़ी समस्याओं का समाधान यकायक नहीं होगा लेकिन इन्हें संबोधित करने और हल करने का कम से कम सरकार के पास नजरिया हो। विकास की गति तेज करने की जरूरत है पर वह समावेशी नहीं होगा तो अलग तरह की समस्याएं पैदा होंगी। विकास और गवर्नेंस के लिये शांति, सुरक्षा और सद्भाव का माहौल बुनियादी शर्त हैं। इसे हासिल करने के लिये सभी दलों को जनता के सामने ठोस कार्ययोजना साफ करनी चाहिये। ऐसा न हो कि घोषणापत्र में जो दर्ज है, वह तो पीछे छूट जाय और जो कहीं न हो, वह पहले एजेंडे के तौर पर ले लिया जाय!
हाल का उदाहरण देखें। देश और कुछ प्रदेशों के पिछले चुनावों में सभी प्रमुख दलों-गठबंधनों ने घोषणापत्र जारी किये। उनमें विकास और लोकहित के मनभावन मुद्दे दर्ज थे। लेकिन जब सरकारें बनीं तो ऐसी कई चीजें अचानक सामने आ गईं, जिनका दलों-गठबंधनों के घोषणापत्रों में कहीं कोई जिक्र ही नहीं था। राष्ट्रीय स्तर पर देखिये। सन 2014 लोकसभा चुनाव के भाजपा घोषणापत्र में भूमि अधिग्रहण अधिनियम में तब्दीली का मुद्दा नहीं था। लेकिन सरकार बनने के कुछ ही दिनों के अंदर भूमि अधिग्रहण के महज सवा साल पहले बने नये कानून को पूरी तरह बदलने का फैसला हो गया। जब संसद से उसे मंजूरी नहीं मिली तो पिछले दरवाजे से अध्यादेश लाया गया। उसे कई बार जारी कराया गया। अंततः जनता, खासकर किसानों के भारी विरोध के चलते मोदी सरकार ने फैसला वापस लिया। इसी तरह, बिहार के पिछले चुनाव में जद(यू)-भाजपा ने शिक्षा और स्वास्थ्य क्षेत्र को प्राथमिकता देने का वायदा किया। पर न तो शिक्षा में सुधार हुआ और न सेहत की हालत बदली। मुचकुन्द दुबे की शिक्षा कमेटी की सिफारिशों से सरकार ने आंख मूंद लिया, ठीक वैसे ही जैसे भूमि-मामलों में वंदोपाध्याय कमेटी से मूंदा था। इस तरह के कई और भी मामले गिनाये जा सकते हैं। एक बात और। अगर राजद के साथ जद(यू) की सत्ता में वापसी होती है तो गवर्नेंस के कुछ अहम सवाल भी मतदाताओं के मन में उठेंगे। सन 90-93 में लालू प्रसाद का कार्यकाल आशा जगाने वाला था। लेकिन बाद के दिनों में, खासकर उनके जेल-प्रवास के दौरान जिस तरह उनके दो विवादास्पद रिश्तेदारों ने प्रशासन पर रौब जमाया, उससे शासकीय कामकाज को गहरा आघात लगा। क्या लालू-नीतीश इस बात की गारंटी करेंगे कि सत्ता में आने पर ऐसे असंवैधानिक हस्तक्षेप की स्थिति हरगिज नहीं पैदा होगी? ऐसे सवाल भाजपा से भी हो सकते हैं। बिहार में भाजपा गुजरात-महाराष्ट्र के मुकाबले सांप्रदायिक मामलों में अगर कुछ बेहतर दिखती रही तो सिर्फ इसलिये कि वह आरएसएस या हिन्दुत्व की वजह से नहीं, सवर्ण-गोलबंदी के कारण यहां मजबूत होकर उभरी है। सवर्ण जातियां कांग्रेस छोड़ उसकी तरफ मुखातिब हो गईं। अब उसके सामने दोहरी चुनौती है। क्या मतदाताओं को वह आश्वस्त करेगी कि सत्ता में आने पर किसी संघी-रिमोट से नहीं चलेगी? उसके पास मुख्यमंत्री पद का कोई चेहरा भी फिलहाल नहीं, ऐसे में आशंका ज्यादा हो सकती है।
महाराष्ट्र और हरियाणा के पिछले चुनाव में भाजपा को अप्रत्याशित सफलता मिली। लेकिन महाराष्ट्र सरकार अब ऐसे-ऐसे काम कर रही है, जिनका उसके घोषणापत्र में दूर-दूर तक जिक्र नहीं था। पिछले दिनों ऐलान हुआ कि सरकार, उसके मंत्रियों या निर्वाचित प्रतिनिधियों के खिलाफ लिखने-बोलने पर देशद्रोह का मामला चलेगा। क्या इस तरह का शासनादेश किसी भी लोकतांत्रिक समाज में जारी हो सकता है? इसी तरह मांस-बिक्री सम्बन्धी विवादास्पद शासनादेश न केवल अलोकतांत्रिक अपितु हास्यास्पद भी है। विविधता भरे हमारे समाज में खान-पान, रहन-सहन को सरकारें कैसे निर्धारित कर सकती हैं? हरियाणा में खट्टर सरकार के आने के कुछ ही दिन बाद फरीदाबाद क्षेत्र के एक हिस्से में दंगे भड़क गये। उससे प्रभावित लोग आज भी दर-दर ठोकरें खा रहे हैं। अब स्कूलों के पाठ्यक्रम में पूर्वाग्रही फेरबदल की प्रक्रिया शुरू है। केंद्र की तरह यहां भी एक धर्म-विशेष से जुड़े ग्रंथों को पाठ्यक्रम में लाने की कोशिश है। छत्तीसगढ़ की स्कूली किताब में बाकायदा पढ़ाया जा रहा है कि महिलाओं के नौकरी करने की वजह से भी हमारे देश में बेरोजगारी बढ़ी! इस तरह के लैंगिक-पूर्वाग्रह क्या लोकतंत्र के लक्षण हैं? अभी राजस्थान में संवैधानिक प्रावधानों के उलट आरक्षण का कानून पारित हुआ। हमारे संविधान में आरक्षण का आधार सिर्फ सामाजिक-शैक्षिक पिछड़ापन है, आर्थिक पिछड़ापन नहीं। गरीबों के लिये अन्य कागर योजनाएं हैं। संघ प्रमुख भागवत के आरक्षण-विषयक बयान के बाद यह सवाल और प्रासंगिक बना है। भाजपा-शासित छत्तीसगढ़ में जिस तरह दलित-आदिवासियों का उत्पीड़न हुआ है, उससे बिहार को सबक लेने की जरूरत है। राज्य के गरीब तबके में आमधारणा है कि नीतीश सरकार भाजपा के साथ गठबंधन में होने के कारण ही रणवीर सेना जैसे हिंसक-उपद्रवी गिरोहों के खिलाफ निर्णायक कदम नहीं उठा सकी। ऐसे मामलों में प्रशासकीय पड़ताल इतनी कमजोर रही कि पिछले वर्षों लक्ष्मणपुर बाथे और शंकरबिगहा जैसे नृशंस हत्याकाडों के अभियुक्तों को कोर्ट से मुक्ति मिल गई! क्या भाजपा अपने उन नेताओं को अंकुश में रखेगी, जिन पर रणवीरसेना को शह देने के आरोप रहे हैं?
बिहार को आज कृषि-संकट से बाहर लाने, कुछ जरूरी भूमिसुधार के अलावा औद्योगिक विकास की भी दरकार है। डेयरी क्षेत्र में उसके पास सुधा जैसा कामयाब प्रयोग है, वह खाद्य-उत्पाद और फल-आधारित लघु-मझोले उद्योगों के विस्तार में अगर पहल करे तो उसके बेहतर नतीजे आ सकते हैं। बिजली, उर्वरक और चीनी उत्पादन के क्षेत्र में भी ठोस कदम उठाने होंगे। इसके अलावा कुछ बड़े उद्योगों की आधारशिला रखनी होगी, जिससे राज्य में औद्योगिक विकास का माहौल बने। राज्य के समक्ष ऐसे अनेक सवाल हैं। चुनावों के बाद बाद इतनी वादाखिलाफी होती रही है कि आज मतदाताओं का मन वादों से नहीं मानता, ऐसे में सत्ता के दावेदारों को बाकायदा शपथपत्र जारी करने चाहिये कि जो वादा कर रहे हैं, उसे लागू करेंगे। भटकेंगे नहीं। उसे चुनावी जुमला नहीं बतायेंगे। अगर एजेंडा या विचार बदलना है तो यूनान के प्रधानमंत्री अलेक्सिस सिप्रास की तरह नया जनादेश लेने की पहल करेंगे। हमारे नेता भी सिप्रास की तरह साहस और ईमानदारी दिखायेंगे!
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{प्रभात खबर 25 सितम्बर,15}



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