Friday, 25 September 2015

प्रतिरोध और पुरस्कार



वीरेंद्र यादव

विगत दिनों कन्नड़ विद्वान और साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित लेखक प्रो.एम.एम.कलबर्गी की कट्टर धार्मिक तत्वों द्वारा कर्नाटक में उनके गृह नगर धारवाड़  में हत्या के बाद समूचे देश के लेखकों और बौद्धिकों में गुस्से और प्रतिरोध की लहर जिस तेजी से फ़ैली है वह पहली बार है. दिल्ली से लेकर समूचे देश में विरोध प्रदर्शनों और सभाओं का सिलसिला लगातार अभी भी जारी है.  महाराष्ट्र में तर्कशील सामाजिक चिन्तक नरेंद्र दाभोलकर और वामपंथी बुद्धिजीवी व राजनेता  गोविन्द पानसरे की हत्या के बाद  प्रो. कलबुर्गी की हत्या धार्मिक कट्टरपंथियों के बढ़ते हौसले और आक्रामकता का ही  परिचायक है. इन ताकतों का दुस्साहस इस सीमा तक बढ़ गया है कि प्रो. कलबर्गी की हत्या के तुरंत बाद  एक अन्य कन्नड़ लेखक के एस भगवान को जान से मारने की लगातार खुली धमकी दी जा रही है  . कर्नाटक में आज स्थिति यह है कि  कट्टरपंथ के विरोध में लिखने बोलने वाले अधिकांश लेखकों पर बढ़ते खतरे को दृष्टिगत रखते हुए उन्हें सुरक्षा के घेरे में रहने को विवश होना पड़ रहा है. इस  स्थिति के विरोध में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित कन्नड़ लेखक चंद्रकांत पाटिल ने कर्नाटक राज्य सरकार के शीर्ष साहित्य सम्मान ‘पम्पा अवार्ड’ को लौटाने की घोषणा की है . इस  बीच कर्नाटक के कई अन्य लेखकों ने भी प्रो. कलबुर्गी के हत्यारों की गिरफ्तारी और उन पर समयबद्ध  दंडात्मक कार्यवाही न होने पर कन्नड़ साहित्य परिषद के सम्मान लौटाने का बयान जारी किया है.  
       यह भी आश्वस्तिदायक है कि हिन्दी के बौद्धिक व साहित्यिक क्षेत्रों में भी  कट्टर हिन्दुत्ववादी ताकतों द्वारा नरेंद्र दाभोलकर, गोविन्द पानसरे के बाद प्रो. कलबुर्गी की हत्या के  विरुद्ध लखनऊ ,पटना ,इलाहाबाद ,गोरखपुर, आजमगढ़ , बेगूसराय .आरा , रांची ,जबलपुर ,ग्वालियर  आदि सहित कई बड़े छोटे शहरों में विरोध और प्रदर्शनों की कार्रवाईयां तेज हुयी हैं. प्रतिष्ठित हिन्दी लेखक उदय प्रकाश द्वारा एम एम कलबर्गी की हत्या के विरोध में साहित्य अकादमी पुरस्कार के वापस किये जाने की घोषणा से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पक्ष में इस मुहिम को और बल  मिला है. व्यापक हिन्दी समाज और लेखक संगठनों ने उनके इस निर्णय का स्वागत करते हुए साहित्य अकादमी की उस चुप्पी को प्रश्नांकित किया है जो अकादमी  द्वारा सम्मानित लेखक प्रो.कलबर्गी  की हत्या पर निंदा प्रस्ताव तो दूर शोक प्रस्ताव भी पारित करने की औपचारिकता का निर्वाह  न कर पाई. यद्यपि उदय प्रकाश की इस पुरस्कार वापसी के महत्व को  कुछ लोगों द्वारा बीते दिनों के  योगी आदित्यनाथ विवाद  से जोड़कर कमतर करने की  भी कोशिशें की गयीं लेकिन कुल मिलाकर उदय प्रकाश की इस घोषणा से प्रतिरोध की मुहिम को बल ही मिला .लेकिन इस बीच एक दिलचस्प घटनाक्रम यह भी हुआ कि ‘जनसत्ता’  के पूर्व संपादक ओम थानवी को के के बिडला फाऊंडेशन का ‘बिहारी सम्मान’ राजस्थान के वर्तमान राज्यपाल और बाबरी मस्जिद ध्वंस काण्ड के सुप्रीमकोर्ट द्वारा सजाप्राप्त  कल्याण सिंह के हाथों प्रदान किया गया. सोसल मीडिया पर जब इस पर टीका-टिप्पणी होने लगी तब ओम थानवी ने विरोधियों  पर पलटवार करते हुए यह प्रतिक्रिया व्यक्त की कि ..पुरस्कार मैंने कल्याण सिंह के हाथों नहीं ,राज्यपाल के हाथों लिया है राज्यपाल जो संविधान की सत्ता का प्रतीक होता है ,संविधान का प्रतिनिधि और कार्यपालक होने के नाते.  दरअसल कल्याण सिंह द्वारा पुरस्कार लेने को लेकर आपत्ति उनका भाजपा और आरएसएस की पृष्ठभूमि का होना उतना नही है जितना उनके द्वारा बाबरी मस्जिद ध्वस्त किये जाने के दौरान संवैधानिक  दायित्व का निर्वहन न कर पाना है. सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें इसी दायित्व निर्वाह न कर पाने के लिए एक दिन की सजा भी दी थी . और यही कारण था कि जब केंद्र की भाजपा सरकार द्वारा उन्हें राज्यपाल बनाने की चर्चा हुयी तो अधिकांश विरोधी दलों और नागरिक संगठनों ने इस पर अपनी आपत्ति भी दर्ज़ की थी . कल्याण सिंह स्वयं बाबरी मस्जिद के ध्वंस का श्रेय लेने में आज भी गर्व का अनुभव करते हैं. ओम थानवी ने इस सब पर धूल डालते हुए आगे यह ढीठ तर्क भी दिया कि पुरस्कार अगर मोदी या उनकी पार्टी या संघ परिवार का नही है तो प्रधानमंत्री के नाते मोदी से ले लेने में मुझे कोई गुरेज नहीं  . आदमी की आदमी से इतनी घृणा भी उचित नहीं .  इतना ही नहीं अब उन्होंने कल्याण सिंह के हाथों पुरस्कार लेने की औचित्यसिद्धि के लिए वामपंथियों के विरुद्ध सोसलमीडिया  पर हल्ला भी  बोल दिया है. उन्हें अज्ञेय ,निर्मल वर्मा से लेकर अशोक वाजपेयी के विरुद्ध वामपंथी बौद्धिकों द्वारा की गयी कथित ज्यादतियां और ‘नागरिको की स्वाधीनता’ और ‘मनुष्यगत स्वाधीनता का हनन’ भी  याद आने लगा है. कल्याण सिंह का सवैधानिक पद पर होना तो उन्हें याद है लेकिन उनके द्वारा की गयी  सैवाधानिक मर्यादा का उल्लंघन नहीं . उन्हें न तो अब बाबरी मस्जिद के ध्वन्सकर्ता  याद रहे और न गुजरात २००२ के अपराधी . सचमुच कुतर्क का यह शीर्षासन न भूतो न भविष्यत् है.  विचार और व्यवहार की यह फांक  आज हिन्दी लेखकों- बुद्धिजीवियों के बीच बड़े नैतिक संकट के रूप में उपस्थित है. . मुक्तिबोध ने ऐसे ही समय में इस तरह के लोगों के बारे में कहा था ,   वे अपनी घृणा के प्रति भी सच्चे नहीं हैं .यदि उन्हें वस्तुतः किसी अनैतिक कार्य के प्रतिनिधि व्यक्ति के प्रति इतनी घृणा है तो वे उससे मिलने क्यों जाते हैं ,और उससे मिलकर अपने को महत्वपूर्ण क्यों समझते हैं ? आजकल प्रेम के प्रति सच्चे होने में इतनी तपश्चर्या नहीं लगती जितनी घृणा के प्रति सच्चे होने में .कम से कम इतना तो सही है कि घृणा के लिए भी बड़ा त्याग करना पड़ता है .छोटे मोटे फायदों और लोगों की कुर्बानी तो उसका प्रधान अंग है.  मुक्तिबोध के इस कथन को चरितार्थ करते हुए ओम थानवी की स्वीकारोक्ति है कि-पुरस्कारों से मुझे कोई खास खुशी तो नहीं होती ,लेकिन एक लाख रुपये से जरूर होती है ,बेरोजगारी में और ज्यादा.  यह सचमुच दिलचस्प  है कि ऊंची नौकरी से  सेवानिवृति के बाद की इस बेरोजगारी पर जब कल्याण सिंह के हाथों मिले एक लाख रुपये का यह पुरस्कार ओम थानवी को घृणा भाव से मुक्त कर ‘आदमी-आदमी ‘ के बीच प्रेम की गंगा का अहसास कराता  है  उसी समय  स्थायी बेरोजगार उदय प्रकाश एक लाख रुपये का साहित्य अकादमी का  पुरस्कार वापस कर ‘हिन्दुत्ववादी अपराधियों’ के प्रति अपनी घृणा का इज़हार करते हैं.  यह अनायास नही है कि प्रेमचंद ने ‘जीवन में घृणा का स्थान’ शीर्षक अपने लेख में घृणा को एक नैतिक संबल मानते हुए लिखा था कि यह घृणा ही है जो पाखंड और धूर्तता का दमन करती है...जिस वस्तु का जीवन में इतना मूल्य है उसे शिथिल होने देना अपने पाँव में कुल्हाड़ी मारना है.
      दरअसल उदय प्रकाश द्वारा हिंदुत्ववाद के अपराधियों के विरुद्ध पुरस्कार वापसी की यह पहल  और ओम थानवी द्वारा हिंदुत्ववाद के पैरोकार और बाबरी मस्जिद ध्वंस को न रोक पाने के लिए  सजायाफ्ता कल्याण सिंह  द्वारा पुरस्कार ग्रहण करने के विचलन की  इस परिघटना से हिन्दी समाज के उस  परिदृश्य को समझा जा सकता है जहाँ साम्प्रदायिकता और हिंदुत्ववाद विरोध अधिकांश के लिए महज एक सुविधा है.   छतीसगढ़ के  भाजपा शासन के ग्यारह वर्ष पूरे होने पर रायपुर में आयोजित  तीन दिन के साहित्य महोत्सव से उपजी बहस और विवाद में यह सब कुछ उभरकर पहले भी  सामने आ चुका है. रायपुर में शामिल होने वाले दिग्गजों ने भाजपा सरकार के इस जश्न की आवभगत ही नही स्वीकार की बल्कि रमन सिंह सरकार को ‘असहमति के सम्मान’ का प्रमाणपत्र भी उसी तरह दिया जिस तरह  ओम थानवी द्वारा कल्याण सिंह को संवैधानिक पद की  मर्यादा का. यह सचमुच गहरी चिंता का विषय है कि आखिर क्यों इस दौर में  हिन्दी  बौद्धिक  समाज के बीच ‘रचनात्मक नैतिक आग्रह’ का स्थान ‘लाभ-लोभ की समझदारी’ ने ले लिया है.
         केंद्र की भाजपा सरकार द्वारा अपने बहुसंख्यकवादी इरादों के तहत साहित्यिक ,सांस्कृतिक , अकादमिक और अन्य संस्थानों का विकृतिकरण अब एक नंगी सच्चाई है लेकिन लेखकों और बुद्धिजीवियों द्वारा अपने प्रतिरोध के अधिकार का समर्पण वर्तमान परिदृश्य का एक चिंताजनक पहलू है. साहित्य अकादमी सरीखी संस्था में संकीर्ण राजनीतिक दखलंदाज़ी , मंत्रियों की शिरकत और सरकारी अभियानों से उसका प्रत्यक्ष जुड़ाव अकादमी की स्वायत्तता पर प्रहार है. ऐसी  स्वायत्त संस्था में लेखकों की भागेदारी उनका अधिकार है लेकिन संस्था की स्वायत्तता बचाना उनका कर्तव्य भी. इधर यह भी देखने में आ रहा है कि ऐसे  साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्थान जो सरकार के नियंत्रण और दखल से पूरी तरह मुक्त हैं वहां भी भाजपा सरकार का दबदबा सिर चढ़कर बोल रहा है. उदाहरण स्वरुप अभी हाल में मराठी लेखक भालचंद्र नेमाड़े को  ज्ञानपीठ सम्मान प्रधानमंत्री के नरेंद्र मोदी द्वारा दिए जाने की कोई बाध्यता नही थी ,न  श्रीलाल शुक्ल के नाम पर दिया जाने वाले  इफ्को सम्मान को  रविशंकर प्रसाद द्वारा दिए जाने की , और न ही  के के बिड़ला फाऊंडेशन के बिहारी सम्मान को कल्याण सिंह द्वारा दिए जाने का  कोई सैवाधानिक औचित्य  था  . पुरस्कृत लेखक चाहते तो पुरस्कार देने वाली संस्था पर विवादित या विरोधी  विचारधारा के व्यक्ति द्वारा पुरस्कार दिए जाने पर अपनी आपत्ति और असहमति प्रकट कर सकते थे . कुछ वर्ष पूर्व  अरुंधति राय साहित्य अकादमी पुरस्कार ठुकराकर अपनी आपत्ति दर्ज भी करवा चुकी हैं.  इस तरह के प्रतिवाद लेखकीय सम्मान और गरिमा के अनुकूल हैं. प्रतिरोध के इन हथियारों का परित्याग सर्वाधिकारी बहुसंख्यकवाद की पैरोकार  सत्ता के समक्ष समर्पण और बौद्धिक कायरता है. जरूरत है कि   ‘लाभ-लोभ की समझदारी’ से मुक्त होकर  नैतिक घृणा और  नैतिक आक्रोश  को प्रतिरोध के साधन के रूप में अपनाने  और  कट्टरपंथियों के जनतंत्र विरोधी हत्यारे मंसूबों के विरुद्ध  एकजुट होने की. .लेखकीय अस्मिता  और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सचमुच खतरे में है ,क्या हिन्दी का बौद्धिक समाज इस  चुनौती को सचमुच स्वीकार कर सकने की स्थिति में हैं ???
वीरेंद्र यादव ,सी -855,इदिरा नगर ,लखनऊ -226016. Mo.09415371872.
(शुक्रवार 16-30 सितंबर 2015 से साभार)
      
      

No comments:

Post a Comment

जनता का डाक्टर: जिसने विभेद से भरे हुए समाज का इलाज भी जरुरी समझा

 सुनील यादव  डाक्टर शब्द का का नाम आते ही एक ऐसे प्रोफेसनल व्यक्ति का अक्स उभरता है जो खुद के लिए बना हो. चिकित्सा के क्षेत्र में चिकित्सक क...