Friday, 28 September 2018

धधकते बस्तर में ‘नीरो’ की बंसी


वीरेंद्र यादव



  ‘‘वे नग्न थे, बेघर और कई बार भूखे भी, पर वे नाचते थे, गाते थे। भला वह चीज कैसे छूट जाए जो नग्नता और भूख से भी ज्यादा अहम हो? वे बस इतना ही कहना चाहते थे कि उन्हें नहीं चाहिए तुम्हारा भरपेट खाना और कपड़े या यहीं कि जिसे तुम घर कहते हो या मानते हो.... वे सब रात को मदमस्त नाचना चाहते हैं.....
        हंसके सितंबर 2012 अंक में प्रकाशित अपनी कहानी चांद चाहता था कि धरती रूक जाएमें तरूण भटनागर बस्तर के आदिवासियों के संघर्ष का उपरोक्त सरलीकरण करते हुए उसी भूमिका में है, जिसमें छत्तीसगढ़ राज्य सरकार का पर्यटन विभाग। जिस प्रकार वहां पर्यटन विभाग बस्तर के आदिवासी जीवन को घोटुल का पर्याय मानता है उसी तरह कहानीकार बस्तर के समूचे संघर्ष को घोटुल बचाने और नष्ट करने की कोशिशों तक सीमित कर देता है। यूं तो बाहरी दुनिया सैलानी दृष्टि के चलते बस्तर और घोटुल एक-दूसरे के पर्याय लंबे समय से रहे हैं, लेकिन जब बस्तर सहित समूचे दंडकारण्य में जल, जंगल और जमीन को छीनने व बचाने का संघर्ष छीड़ा हो तब नाच बनाम भूखकी यह कथा-प्रस्तुति सचमुच स्तब्धकारी है। वैसे इसमें नया कुछ भी नहीं है। छत्तीसगढ़ सरकार के प्रचारक और समर्थक पत्रकार व बुद्धिजीवी आदिवासियों के समूचे संघर्ष को बस्तर की संस्कृति बनाम बाहरी व्यक्तिका विमर्श बनाकर प्रस्तुत करते रहे हैं। भाजपा के बलबीर पुंज सरीखों के लेख और कांग्रेस के महेंद्र कर्मा सरीखों के वक्तव्य इसके प्रमाण हैं। नया बस इतना है कि अब तक जो कार्य सरकारी प्रचार तंत्र और भाड़े के पत्रकारों द्वारा किया जाता था, अब वह साहित्यिक रचनाओं द्वारा भी किए जाने की शुरूआत हो चुकी है।  अब तक शिकायत यह थी कि हिंदी का रचनाकार जोखिम इलाके में जाने से बचता है, लेकिन अब हैरत इस बात पर है कि जोखिम के इलाके का रहवासी होने की सनद पेशकर वह किस प्रकार जोखिम का छद्म घटाटोप गढ़ता है।
        यह अकारण नहीं है कि तरूण भटनागर ने अपनी कहानी में आदिवासी बनाम बाहरी व्यक्तिका जो विमर्श रचा है उसमें बाहरी व्यक्ति न तो जंगलात का अमला है, न कार्पोरेट घराने, न ठेकेदार और न दमनकारी पुलिस और सैन्य तंत्र। बाहरी व्यक्ति आदिवासियों को अपने दमन के विरूद्ध एकजुट करने वाले उनके वे समर्थक, शुभचिंतक व संघर्षों के साथी हैं जिन्हें नक्सल व माओवादी करार देकर खलनायक की छवि में ढाला जाता है। बस्तर सहित समूचे दंडकारण्य में माओवादी आंदोलन व संगठन की उपस्थिति एक सर्वविदित तथ्य है , लेकिन उन्हें आदिवासियों के स्वर्ग में सेंध लगाने वाला बताकर प्रस्तुत करना सरकारी दुष्प्रचार को बल देना है। विचारणीय यह भी है कि आदिवासियों के बीच माओवादियों की जड़ें  जमीं क्यों? कैसा था बस्तर का घोटुलमय स्वप्निल संसार वहाँ माओवाद के पैठ के पहले? ये सारी स्थितियाँ अब पत्र-पत्रिकाओं और पुस्तकों में उपलब्ध हैं। अरुंधति  राय और गौतम नवलखा सरीखे आदिवासियों के हमदर्दों के आंखों  देखे वृत्तांत  पर जिन्हें न भी भरोसा हो तो उन्हें सुदीप चक्रवर्ती की  पुस्तक रेड सन’, जान मिर्डल की रेड स्टार ओवर इंडिया और राहुल पंडिता की हाल ही में प्रकाशित पुस्तक हेलो बस्तर के पृष्ठों से जरूर गुजरना चाहिए। इन्हें इसलिए भी पढना चाहिए कि ये तरुण भटनागर की  कहानी की तरह ट्राइबल टूरिज़्म के ब्रोशर न होकर विकास के नाम पर जल, जंगल,जमीन की लूट और आदिवासियों के उस उत्पीड़न का पता देते हैं जो माओवाद का जड़ जमाने का मूल कारण है। ये पुस्तकें बस्तर के हिंसक संघर्षों  के उन दो छोरों का खुलासा करती हैं जिनका  एक छोर आदिवासियों के बस में है तो दूसरा कार्पोरेट घरानों की लूटतंत्र के पक्ष में। तरुण भटनागर की कहानी लाल झण्डे की प्रतिरोधी हिंसा का विमर्श तो रचती है, लेकिन कार्पोरेट समर्थक राज्य की हिंसा का दृश्य ओझल कर देती है, क्यों? इसलिए कि प्रतिरोधी हिंसा को पथभ्रमित, लक्ष्यहीन और अन्यायपूर्ण करार दिया जा सके !             
        कहानीकार खुद को बस्तर की माटी का बताते हुए वहाँ उन्नीस साल का होने तक का वास्ता देकर बस्तर की स्थितियों का प्रत्यक्षदर्शी होने के नाते उसने घोटुल में सुधबुध खो चुके जवान जिस्म’,  कामोत्तेजक नृत्य और फड़फड़ती देहें तो देखीं लेकिन जंगल की उस लूट और बेदखली को नहीं देखा जिसका प्रतिरोध किए बिना न आदिवासियों का जीवन बचता न संस्कृति । आखिर ऐसा  क्यों है कि आदिवासियों के जिस शोषण को बाकी सब बाहरी वृत्तान्तकारों ने देखा वह भोगे हुए यथार्थ की  दुहाई देने वाले माटी के लाल कहानीकार ने नहीं? बेशक यह कहानीकार की अपनी चयन दृष्टि है कि वह कहानी की विषय वस्तु में क्या छोड़े और क्या शामिल करे । लेकिन कठिनाई तब पैदा होती है जब वह पूंजी  और पूंजी विरोधी दर्शन से आदिवासियों के विलगाव और अजनबियत की सैद्धांतिकी रचते हुए उनके शोषण और गरीबी को लाल झण्डे वालों की निर्मिति मान लेता है और उनके दाल, रोटी और झोपड़ी के संघर्ष को पूँजी का षडयंत्र ।

       तरुण भटनागर की दलील है कि  बस्तर  में आज ही तेंदु पत्ता, इमली, महुआ ज्यादा बड़ा मुद्दा है बनिस्पत जमीन के। लेकिन उनकी कहानी संघर्ष के इन मुद्दों का भी पता नहीं देती , क्यों ? शायद इसलिए कि इन संघर्षों में भी आदिवासियों का साथ देने के लिए वे बाहरी आदमी ही थे जिनका कोई सकारात्मक उल्लेख कहानीकार की अपनी राजनीति के लिए वर्जित है। राहुल राहुल पंडिता ने अपनी पुस्तक हेलो बस्तर में इन परिस्थितियों का उल्लेख करते हुए लिखा है कि,  “......इन जंगलो से मध्यप्रदेश सरकार को अस्सी के दशक तक प्रति वर्ष 250 करोंड़ का राजस्व प्राप्त होता था....... लेकिन आदिवासियों को उन दिनों 100 तेंदु पत्ता का बंडल बनाने पर सिर्फ 5 पैसे मिलते थे और 120 बांसों के बोझ को तैयार करने की उनकी मजदूरी मात्र एक रुपया थी । अक्सर आदिवासी भूखे पेट काम करने पर विवश होता था । जिस जंगल में वह काम करता था वहाँ साँप, बिच्छुओं, भालुओं, तेंदुओं और अन्य जंगली जानवरों कि भरमार थी .....एक किलो नमक के बदले उसे एक किलो सूखे मेवे या आठ किलो ज्वार देना पड़ता था। जिस इमली की कीमत अंतर्राष्ट्रीय बाजार में व्यापारी 400 रुपए वसूलता था उसे ही खरीदने के लिए वह आदिवासी को एक रुपए से भी काम कीमत चुकता था ।उद्योगपति और व्यापारी जंगल की जमीन को सस्ते दामों पर सरकार से खरीदकर भूमिहीन आदिवासियों को नाम मात्र ही मजदूरी देकर खेती करवाते थे। अक्सर जंगल में जलावन के लिए लकड़ी इकठ्ठा करते आदिवासियों को डरा-धमकाकर उसे अपने घर की स्त्रियों  को वन विभाग के अमले के पास भेजने के लिए मजबूर किया जाता था.......”  शोषण के इस अंतहीन सिलसिले के ही परिणाम स्वरूप वे परिस्थितियाँ बनी जिससे बस्तर के जंगलों में माओवादियों के पैर जमें । और नब्बे के दशक में उदारवादी नीतियों एवं मुक्त व्यापार के चलते जल, जंगल, जमीन, खदान और वन संपदा की लूट का जो सिलसिला शुरू हुआ उसी के चलते हिंसक संघर्ष भी तेज हुए, जिसके चलते आदिवासियों की जीवन स्थितियाँ और संस्कृति- दोनों ही खतरे में पड़ी । लेकिन इन सारी वस्तुपरक स्थितियों की अनदेखी करके कहानीकार घोटुल के बंद होने के सच के बहाने शोषण और संघर्ष की समूची विभीषिका को खारिज कर देता है ।  दरअसल, तरुण भटनागर की समस्या यह है कि वे अपनी उन्नीस साल की स्मृतियों और यथार्थ के  विपरीत कुछ नहीं लिख सकते ।  जबकि उन उन्नीस सालों के बाद बस्तर में जाने कितने तूफान आए गए ।  जिस घोटुल को वे पिंजड़े में बंद तोते के मानिंद आदिवासियों की जान बताकर पेश करते हैं, उसके बारे में आदिवासियों  के बीच संघर्षरत रहकर जिन अनुराधा घांडी ने सेरेब्रल मलेरिया की शिकार होकर अपनी जान गंवा दी, उनकी राय ध्यान देने योग्य है। उन्हीं के शब्दों ‘‘………क्षेत्र की लड़कियों में घोटुल प्रथा समाप्त करने के लिए सम्पर्क किया क्योंकि उन्हें यह तकलीफदेह लगता था कि रुचि न होने पर भी उन्हें हर रात घोटुल में नृत्य करने को विवश किया जाता था । इस मुद्दे पर बैठकें और रैलियां भी हुई और कईं  गांवों में घोटुल बंद किए गए या इतना तो हुआ ही कि लड़कियों के जबरन शामिल होने पर रोक लगी...... लेकिन कुछ बुजुर्गों के दबाव में कहीं-कहीं यह फिर से शुरु हो गया।  घोटुल का सच यह भी था कि आदिवासियों के बीच यौन खुलेपन का लाभ उठाकर बाहरी ठेकेदार, व्यापारी, पुलिसकर्मी और वन विभाग के कार्मिक भी मौके-बेमौके युवतियों का दैहिक शोषण कर उन्हें उनके भाग्य के भरोसे छोड़ देते थे. क्रांतिकारी महिला संगठन ने इस शोषण पर रोक लगाने के लिए जहां घोटुल प्रथा पर रोक लगाने की पहलकदमी की, वहीं उनके अधनंगेपन को भी ढंकने का अभियान शुरु किया ।  जिस घोटुल प्रथा की समाप्ति के अभियान पर कहानीकार ने अपना समूचा विमर्श केन्द्रित किया है, वह वस्तुतः उस क्रांतिकारी आदिवासी महिला संगठन का निर्णय था, जिसकी सदस्य संख्या आज एक लाख है । इस संगठन ने घोटुल के बिगड़ते स्वरूप पर ही प्रश्न चिन्ह नहीं लगाये बल्कि बाल-विवाह पर भी रोक लगाने की शुरुआत की और विधवा विवाह को भी आदिवासी समाज में प्रोत्साहित किया। इस क्रांतिकारी संगठन ने जहां भू-संपत्ति में महिलाओं की भागीदारी का समर्थन किया वहीं आदिवासी समाज की महिला विरोधी रुढ़ियों का भी विरोध किया। इनमें एक रुढ़ि मासिक धर्म के दौरान स्त्रियों केा गांव के बाहर रखने की परम्परा थी, जिस पर रोक लगाई ।
     सच तो यह है कि माओवादियों ने समूचे दंडकारण्य में आदिवासियों के जीवनयापन की एक ऐसी वैकल्पिक जीवन पद्धति विकसित करने का प्रयत्न किया जिसमें संस्कृति से लेकर शिक्षा, चिकित्सा और जनतांत्रिक अधिकार तक शामिल थे। जब माओवादियों को आदिवासी विरोधी सिद्ध करने के लिए उन्हें स्कूल को ध्वस्त करने वाला बताया जाता है तो इस सच पर पर्दा डाल दिया जाता है कि ये वही स्कूल है जहां सेना और पुलिस ने अपनी बैरकें बना रखी हैं । जिन मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और पत्रकारों ने माओवादियों के प्रभाव क्षेत्रों में भ्रमण किया है, उन्होंने अपने वृतांतों में आदिवासियों के बीच संस्कृति,शिक्षा, और चिकित्सा संबंधी वैकल्पिक प्रयासों  की विस्तृत चर्चा की है। इन प्रयासों के अंतर्गत जन चिकित्सालय, पुस्तकालय, रात्रि पाठशाला, प्राइमरी स्कूल व अध्यापकों के लिए निर्मित की गई झोंपड़ियों के बारे में तरुण भटनागर को जरूर जानकारी रखनी चाहिए थी क्योंकि ये घोटुल से कम जरूरी नहीं हैं ।
     दो राय नहीं कि कॉर्पोरेट घरानों के सफरमैना के रूप में की जाने वाली राज्य की हिंसा और आदिवासियों को बचाने के लिए की जाने वाली नक्सली हिंसा के बीच बस्तर सहित समूचा दंडकारण्य युद्ध क्षेत्र में तब्दील हो गया है और भोले, निरीह आदिवासी इसके सर्वाधिक शिकार हैं, विशेषकर तक जब सलवा जुडुम जैसे सरकारी अभियान के अंतर्गत लगभग सात सौं गांवों को नक्सलियों से सुरक्षा देने के नाम पर कॉर्पोरेट घरानों के लिए खाली करा लिया गया हो। छत्तीसगढ़ सरकार ने इन गांवों के पचास-पचपन हजार आदिवासियों को अपने कैम्पों  में शरण देने का दावा तो किया लेकिन बाकी आदिवासी किस दुर्दशा के भेंट चढ़ गए, इसका अता पता किसी का आज तक नहीं। समूचे सलवा जुडुम अभियान के दौरान आदिवासियों की सारी सांस्कृतिक व्यवस्थाएं, परंपराएं व तीज त्यौहार बंद हो गए । अब न तो उनकेग्रामों में मेला होता है न हाट बाजार । उस समूचे दौर में भयवश जाने कितने ही गांवों में शादी-ब्याह तक के उत्सव नहीं हुए। सलवा जुडुम के सदस्य और सुरक्षाकर्मी  समय-समय पर इन गाँवों में नक्सली उन्मूलन के नाम पर जाते थे और मासूम ग्रामीणों की हत्या तक कर देते थे ।  आदिवासी बालिकाओं और महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार व बलात्कार इस दौर की सामान्य बात रही है। समूचे क्षेत्र में आदिवासी मलेरिया सरीखी गंभीर बीमारियों के शिकार हो कर जान गंवा रहे हैं। न उनके इलाज की कोई व्यवस्था है न कोई मूलभूत सुविधा। लोग जंगल के कंदमूल और फल खाकर किसी तरह अपने जीवन को बचाए हुए है। वे डबरे के गंदे पानी को पीने व इस्तेमाल करने को अभिशप्त हैं, असमय बीमारियों का शिकार हो के वे असमय अपनी जान गंवा रहे हैं । यही कारण है कि आदिवासियों की संख्या में लगातार गिरावट हो रही है । दुर्भाग्य पूर्ण यह भी है कि जब इन हालातों से त्रस्त होकर कोई सजग आदिवासी अपनी पीड़ा व रोग व्यक्त करता है तो उसे देशद्रोह के अपराध में जेल के सीखचों के भीतर कैद कर लिया जाता है। सोनी सोरी व लिंगा कोडप्पी सरीखे जाने कितने ही ऐसे निरपराध आदिवासियों को सत्ता के दमन का शिकार इसलिए होना पड़ा कि वे उनकी मुखबिरी नहीं करते थे। इन आदिवासियों का अपराध यहीं है कि वे न तो सत्ता के साथ दलाली करना चाहते हैं और न नक्सलियों के साथ बंदूक उठाना ।  इन्हीं परिस्थितियों के चलते देश की सर्वोच्च अदालत ने सलवा जुडुम के इस समूचे सरकारी अभियान को गैर जनतांत्रिक और आदिवासी विरोधी करार देते हुए इस पर तुरंत रोक लगाने का आदेश दिया । क्या ही अच्छा होता यदि आदिवासियों की इस दारुण यातना को भी कहानीकार ने  अपनी विषय-वस्तु में शामिल किया होता । लेकिन वह इसे  अपने  कथ्य में शामिल करता भी तो कैसे ! ये तो भूख, उत्पीड़न और बेदखली के मुद्दे थे जो उसकी स्मृतियों और यथार्थ से बेदखल थे। स्वाभाविक ही था कि संस्कृति के दुर्ग में कैद होकर सत्ता के चश्मे से उसे बस्तर के अदृश्य व विरान नाचघर ही दीखते, उसके वे हाड़-मांस के रहवासी नहीं जो राजद्रोह के आरोप में छत्तीसगढ़ की जेलों में या तो बंद हैं या राज्य की हिंसा से बचने के लिए कहीं लुके-छिपे हैं। यह एक-दो नहीं, सैकड़ों-हजारों सोनी सोरी, लिंग कोडप्पी, सोमडु और कोण कुजंम की कथा है, जो कथा-वस्तु बनने से आज भी वंचित है।
        यह वास्तव में विडंबनात्मक है कि जब बस्तर की माटी में पला-बढ़ा कथाकार भारत भवन के बुर्ज से आदिवासियों के कामोत्तेजक नृत्य को न देख पाने से संतप्त हो तब कोई बाहरी हिमांशु कुमार बस्तर के आर्तनाद को दंतेवाड़ा वाणी के माध्यम से बहरे कानों को सुनाने के लिए रोज-ब-रोज उद्यत हो। गांधीवादी मानवाधिकार कार्यकर्ता हिमांशु कुमार ने लगभग दो दशक पूर्व बस्तर के दंतेवाड़ा के बासवगुड़ा ग्राम को अपनी कार्यस्थली तब बनाया था जब बस्तर का भद्र समाज सत्ता के गलियारों में अपनी ठौर तलाश रहा था। आदिवासियों के बीच काम करने के लिए उन्होंने वनवासी चेतना आश्रम की स्थापना की और उनकी भाषा गोंडवी सीखी। आदिवासियों को उनके अधिकारों की जानकारी दी और उन्हें जनतांत्रिक चेतना से लैस किया। गाँव-गाँव घूमकर उन्होंने अलग-थलग खड़े आदिवासियों को जनतांत्रिक व्यवस्था में शामिल होने की प्रेरणा दी, भ्रष्ट अफसरशाही के विरुद्ध अभियान छेड़ा और सलवा जुडुम के यातना चक्र का विरोध किया। लेकिन उनकी त्रासदी यह थी कि जहां नक्सल उन पर भरोसा नहीं करते थे, वहीं सरकारी तंत्र उन्हें नक्सल समर्थक मानता था। अंततः परिणाम यह हुआ कि उनका आश्रम सरकार द्वारा उजाड़ दिया गया और उन्हें छत्तीसगढ़ से बाहर जाने के लिए विवश कर दिया गया। आज भी अपने संपर्को के माध्यम से सरकारी दमन और उत्पीड़न के शिकार आदिवासियों की यातना कथा को जिस तरह से वे लगातार उद्घाटित कर रहे हैं, वह बेमिशाल है। कुछ ही समय पूर्व जब सलवा जुडुम अभियान अपने चरम पर था तब हिमांशु कुमार ने यह रहस्योद्घाटन कर सबको चौंका दिया था कि किस तरह सलवा जुडुम के कारकूनों ने इतिहासकार रामचन्द्र गुहा को नक्सलवादी कहकर गिरफ्तार करने की तैयारी उस समय कर ली थी जब वे पत्रकारों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के एक दल के साथ आदिवासियों के हालात जानने दंतेवाड़ा के कुछ गांवों में गए थे। विनायक सेन को नक्सल समर्थक करार देकर देशद्रोही सिद्ध करने की सरकारी मुहिम अब जगजाहिर है।
        आखिर ऐसा क्यों है कि विनायक सेन, गौतम नवलखा, अरुंधति राय, रामचन्द्र गुहा और हिमांशु कुमार सरीखे बाहरी लोग कार्पोरेट लूट से उत्पन्न जिस आदिवासी विस्थापन और उजाड़ से अवसन्न और आक्रोशित हैं, वह कहानीकार तरुण भटनागर के लिए मात्र एक गैर-मार्क्सवादी दुष्कर्म है? और कोबाड घांडी सरीखे सुख-सुविधा में पले-बढ़े बाहरी लोग अपने उस मार्क्सवाद का क्या करें?  जो उन्हें बस्तर के बीहड़  जंगलों में घातक रूप से आकर्षित कर तीहाड़ जेल के सींखचों के भीतर कैद कर देता है? और वह कौन सा दुर्निवार आकर्षण था जो अभिजातवर्गीय अनुराधा को मुंबई विश्वविधालय के अध्यापन से विरत कर बस्तर में घातक मलेरिया से ग्रस्त होकर जान तक गंवानी पड़ी? दरअसल ये आदिवासियों के उत्पीड़न व दुर्दशा के वे हालात थे जिनसे विचलित होकर पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह तक ने कहा कि इन हालात में मैं भी नक्सलवादी हो जाता। जब देश का योजना आयोग तक नक्सलवाद को असंतुलित विकास और आर्थिक वंचना का परिणाम मानता हो तब एक कहानीकार का इसे घोटुल समस्या बना देना सचमुच हैरतअंगेज है। तरुण भटनागर का कहना है कि “मैं अपने आप को कहीं किसी दल में फिट नहीं पाता, मेरी असहमतियां मुझे अकेला बनाती हैं ” सच यह है कि वे किस दल में और किसके साथ हैं, यह उनकी कहानी स्वतः बताती है। कहने की आवश्यकता नहीं कि वे सत्ताधारी पक्ष में कार्पोरेट घरानों के साथ हैं।
        संस्कृति अक्सर छद्दम आवरण धारण करती है। इस बार वह घोटुल रुदन के नाम पर कार्पोरेट घरानों के पक्ष में तरुण भटनागर की कहानी के रूप में अवतरित हुई है। काश, यह कहानी बस्तर के कथाकार द्वारा लिखी गई होती, भारत भवन के सी. ई. ओ. द्वारा नहीं!
 

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बहिष्कृत होतीं हाशिए के समाज की चिंताएं


वीरेन्द्र यादव



भारतीय समाज आज  जिन चुनौतियों से  रूबरू है,  वे  साहित्य के लिए जितनी   प्रेरक  और संभावनापूर्ण हैं, उतनी  ही कठिन और जोखिमभरी  भी. यह वास्तव में विडम्बनापूर्ण है कि जिस राजनीतिक जनतंत्र को अधिक समावेशी होकर सामाजिक  और आर्थिक जनतंत्र में बदलना था वह धनिक तंत्र में तब्दील होता जा रहा है . नव-उदारवादी आर्थिक नीतियों ने इस दौर में भारतीय समाज में  समृद्धों और धनिकों के बीच की खाई को जितना गहरा और चौड़ा किया है, उतना शायद पहले कभी न था . धर्मनिरपेक्षता के जिस मूल्य के लिए गांधी को शहादत देनी पड़ी थी आज बाबरी मस्जिद, गुजरात 2002 और हाल की मुज्जफ्फरनगर (उ.प्र)  की घटनाओं के बाद वह चिंदी चिंदी हो गया है . गांधी ,नेहरू ,आंबेडकर और लोहिया के आदर्श भू-लुन्ठित होकर गर्द गुबार से ढककर आज  बे-चेहरा हो गए हैं .  महाराष्ट्र से लेकर उतर भारत तक जहाँ आंबेडकर के अनुयायियों की एक जमात ‘जातिउन्मूलन’ को अजेंडे से बहिष्कृत कर मनुवाद के  भगवा रंग में रंग चुकी है  वहीं  लोहिया के  अनुयायी उनके  ‘जातितोड़ो’ अभियान  को ‘जतिजोड़ो’  में तब्दील कर चुके हैं . बहुसंख्यकवाद  का इतना गंभीर खतरा पहले कभी ऐसा न था जितना आज है . दुर्भाग्यपूर्ण यह भी है कि ‘आम आदमी’ की सारी  राजनीतिक नारेबाजी के बावजूद   समूचे तंत्र से आम आदमी के सवाल ख़ारिज हैं . होरी, बलचनमा, चतुरी और लंगड़ अभी भी भारतीय समाज के  हाशिये पर रहने को अभिशप्त हैं.  ऐसे  में  क्या  भूमिका है   हिन्दी के  उस  लेखक और संस्कृतिकर्मी की  जो प्रेमचंद की विरासत का दावेदार है ?

   मुझे लगता है कि आज का समय लेखकों की  समूची जमात के लिए आत्मालोचना और आत्मावलोकन का भी समय है .हमें याद रखना चाहिए  प्रेमचंद ने अपने जीवन के  जिस अंतिम वर्ष  (1936) में लखनऊ के प्रगतिशील लेखक संघ के स्थापना  सम्मेलन में  साहित्य के सौन्दर्य की कसौटी बदलने की बात कही थी तब तक वे अपने लेखन और विचार में इसे बदल चुके थे .यह महज संयोग नहीं था कि 1936 ही वह वर्ष था जिस वर्ष उन्होंने ‘गोदान’ सरीखा उपन्यास और ‘साम्प्रदायिकता और संस्कृति’ व  ‘महाजनी सभ्यता’ सरीखा लेख लिख सके थे .दरअसल यह उनके  उस समग्र  लेखकीय  सरोकारों  का परिणाम  था  जो  साम्राज्यवाद,पूंजीवाद, साम्प्रदायिकता और जातिगत कुलीनता को अलग खानों में न  बांटकर एक समग्र दृष्टि अपनाने का कायल  था . उन्होंने  अपनी  इस प्रतिरोधी चेतना की कीमत भी चुकाई थी  अंग्रेजों का कोपभाजन होकर ,सरकारी नौकरी छोड़कर  और सवर्ण कुलीनों द्वारा   ‘घृणा का  प्रचारक’  कहे जाने का लांछन झेलकर. यह करते हुए उन्होंने वर्ग और वर्ण से मुक्त होकर जिस  प्रगतिशील  साहित्यिक चेतना का निर्माण किया था  वही   लम्बे समय तक हिन्दी साहित्य की मुख्य धारा  के लिए  प्रेरणा का  स्रोत रही . लेकिन चिंता की बात यह है कि वर्तमान दौर में  वह नैतिक आक्रोश, नैतिक घृणा और परिवर्तनकामी  जीवनमूल्यों के प्रति वह समर्पण  दिनोदिन क्षीण होता जा रहा है . हाशिये के समाज की चिंताएं आज हिन्दी साहित्य  की मुख्यधारा से बहिष्कृत होती जा रही हैं .
       आखिर  हमारी चिंता का  विषय यह  क्यों नही है कि जब आदिवासियों द्वारा  जल,जंगल ,जमीन  को  बचाने और कारपोरेट द्वारा इसकी  खुली लूट की जंग छिड़ी हो तो  कितने  उपन्यास और कहानियां इस विषय पर लिखे गए हैं ? क्या दलितों पर  जातिगत अत्याचार का दौर समाप्त हो गया है ? यदि नहीं तो आखिर क्यों पिछले दो  दशकों में मुख्यधारा के लेखकों  द्वारा ‘धरती धन न अपना’, ‘महाभोज’, ’परिशिष्ट’  ‘एक टुकड़ा इतिहास’ या ‘मोरी की ईंट’  सरीखी रचनायें क्यों नहीं लिखी गयीं ? सच है कि इस बीच दलितों, आदिवासियों और स्त्रियों  द्वारा  हाशिये के समाज  के सरोकारों की अभिव्यक्ति  एक सीमा तक हो रही है . साहित्य के जनतांत्रिकरण की यह एक स्वागत योग्य पहल है .लेकिन  वर्णाश्रमी पितृसत्ता  के  विरुद्ध  मुख्यधारा के अधिकांश लेखकों का मौन क्या  वर्ण और वर्ग से मुक्त होने की  प्रेमचंद की परंपरा के नकार का संकेत तो  नहीं  है ? क्या सचमुच आज का लेखक अपने वर्ण और वर्ग  के पैरोकार की भूमिका में सीमित हो गया है ? दो राय नहीं कि   लेखक कमोबेश  हमेशा पढ़े लिखे मध्यवर्ग का ही हिस्सा रहा है लेकिन आज यह अंतर अवश्य आया है कि वह जीवन में  मध्यवर्गीय होने के साथ साथ अपने  लेखकीय सरोकारों में भी मध्यवर्गीय होता जा रहा है .उसका अनुभव संसार भी सिमटता जा रहा है . वह आदिवासी समाज और निम्नमध्यवर्ग  को अपनी विषयवस्तु बनाते हुए भी अपने वर्गीय संस्कारों से मुक्त नहीं हो पाता . विनोद कुमार शुक्ल के उपन्यास ‘नौकर की कमीज’, ‘खिलेगा तो देखेंगें’ और ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’ इसके ज्वलंत  उदाहरण  हैं . अलका सरावगी भी गांधीवादी मुहावरे में  उपभोक्तावाद का क्रिटिक रचते हुए अंततः अपने उपन्यास ‘कलिकथा वाया बाईपास’ और ‘शेष कादम्बरी’ में अपने वर्ग के पक्ष में ‘क्लास अपोलोजिया’ ही रचती नज़र आती हैं . क्यों?
        हाँ, यह जरूर है कि जिस एक मुद्दे पर हिन्दी के लेखकों ने इस दौर में  शिद्दत के साथ लिखा है वह साम्प्रदायिकता और धर्मान्धता का विरोध रहा है . बाबरी मस्जिद ध्वंस  की विभीषिका से लेकर गुजरात की पृष्ठभूमि लिए इस विषय पर  साहित्य की सभी विधाओं में विपुल लेखन हुआ है .लेकिन यह  भी सच है कि इस लेखन में ‘आखिरी कलाम’, ‘काला पहाड़’ और ‘हमारा शहर उस बरस’ सरीखी कुछ कृतियों को यदि छोड़ दिया जाये तो अधिकांश साम्प्रदायिकता  विरोधी लेखन एक ऐसे निरापद ‘धर्मनिरपेक्ष’ नज़रिए का  परिणाम है  जिसे लिखने में कोई  जोखिम नहीं है . यह भली भली  सी  धर्मनिरपेक्षता  धर्म की उस उंच नीच की  श्रेणीगत  शोषक भूमिका के प्रति आँख मूँद लेती है जो गाँव कस्बों में हजारों हज़ार दलितों, अल्पसंख्यकों  और मेहनतकश जातियों को भेदभाव का ही शिकार नहीं बनाता बल्कि उन्हें हिंसा की भेंट भी चढ़ाता है . दरअसल हिन्दी की मुख्यधारा के अधिकांश  लेखकों  का यह अंधत्व गंभीर चिंता की बात है .
        हिन्दी का लेखक आज सुरक्षित  लेखन कर रहा है ,वह जोखिम के इलाके के लेखन से बच  रहा है . ‘मरंग  गोडा नीलकंठ हुआ’  और’ ‘ग्लोबल गाँव के देवता’ सरीखे   उपन्यासों को अपवाद स्वरुप यदि  छोड़ दिया  जाए तो  नए विषयों का संधान भी लेखक कम कर पा रहे हैं .ऐसे में यह सुखद है कि कश्मीर  जैसे सुलगते विषय पर क्षमा कौल, मधु कांकरिया , मनीषा कुलश्रेष्ठ, जयश्री राय   सहित  कई  लेखिकाओं के उपन्यास इस बीच इस विषय पर आये हैं . लेकिन यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि हिन्दी  लेखकों की बड़ी जमात को  न तो  अभी तक विदर्भ  के आत्महत्या करते किसानों की खबर है और न  देशद्रोह का दंश जीते दलित ,आदिवासियों और अल्पसंख्यकों की कोई चिंता . जरूरत है कि हिन्दी की  मुख्य धारा के लेखक   आस्वाद्परक दृष्टि से मुक्त होकर  सफल और सुरक्षित लेखन ही नहीं बल्कि सार्थक और जोखिमभरे लेखन  को भी अपनी रचनात्मक का हिस्सा बनाएं . अभिव्यक्ति  की   स्वतंत्रता  तभी सार्थक हो सकती है जब इसमें अभिव्यक्ति का जोखिम भी शामिल हो .
वीरेन्द्र यादव . सी -855, इंदिरा नगर ,लखनऊ -226016 .  मो. 09415371872.  


आज की आलोचना के समक्ष चुनौतियां


वीरेंद्र यादव
(आज जब साहित्य में कलावादी व कुलीनतावादी शक्तियाँ देश भर के पत्र -पत्रिकाओं में अवतरित होकर लीला कर रही हैं, और जनता के बीच से उठाकर प्रेमचंद को अपनी कुलीन महलों में बैठाकर भोजन कराने को आतुर हैं, ऐसे समय में 13 वर्ष पूर्व लिखा गया प्रख्यात आलोचक वीरेन्द्र जी का यह लेख एक बार फिर पढ़ा जाना चाहिए....माडरेटर)      


आज जब धार्मिक कट्टरतावाद की फासीवादी शक्तियां सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के खोल में आक्रामक हों और पूंजी का बाजार वैश्वीकरण के मुखौटे में सम्पूर्ण भारतीय समाज को लीलने की तैयारी में हो तो क्या होगा आज के साहित्य का स्वरूप और कैसी होगी आज की आलोचना? क्या साहित्य का स्वरूप ‘मुझे चाँद चाहिए’, ‘हमजाद’, ‘दो मुर्दों के लिए गुलदस्ता’ और ‘नर-नारी’ सरीखा होगा और आलोचना से ‘यही है राइट-च्वाइस बेबी’ करार देगी ? बाजारू साहित्य की यह बाजारू आलोचना हिंदी में किस ‘उत्तर-आधुनिक’ प्रवृत्ति की परिचायक है ?
साहित्य का बाजार बने इससे किसे इंकार लेकिन साहित्य बाजारू हो और समाज में विकृत मूल्य पद्धति का वाहक हो यह किसका अभीष्ट है ? साहित्य कलात्मक और उत्कृष्ट तकनीक से युक्त हो इससे किसे इंकार, लेकिन कलात्मकता व तकनीक के आवरण में यदि आज का समाज व सरोकार बहिष्कृत हों तो यह किसका अभीष्ट है ? साहित्य का अध्यात्म कुछ लोगों की पसंद हो सकता है, लेकिन अध्यात्म साहित्य का मूल्य बने यह किसकी पसंद हैं ?
साहित्य के केंद्र से होरी (गोदान) को बेदखल करके शेखर (शेखर एक जीवनी) को आधुनिक हिंदी कथा साहित्य का सबसे सशक्त प्रतिनिधि करार देना और ‘प्रेमचंद की परम्परा’ को ‘बिल्कुल अप्रासंगिक’ बताना किस साहित्यिक दृष्टि का परिचायक है ? आखिर क्यों यह कहने की जरुरत दरपेश हुई है कि “कबीर की रूचि सिर्फ धार्मिक मामलों तक सीमित थीं.....उन्हें सामाजिक यथार्थ का दृष्टा मानना भूल है.... कबीर की धार्मिकता समाज के संबंध रखती है, पर उन्होंने उसे महत्व मुख्यत: आध्यात्मिक कारणों से दिया था, भौतिक कारणों से नहीं.... उनका दुःख ईश्वरीय दुःख था.........?” (‘कसौटी-चार के सम्पादकीय से)
कबीर और प्रेमचंद से यह डर क्यों? ‘साहित्य के प्रासंगिक प्रश्न’ यही हैं | वे नहीं जो अज्ञेय व्याख्यानमाला के अंतर्गत निर्मल वर्मा द्वारा दिए गए व्याख्यान (11 मार्च, 2000) के रूप में (कसौटी-4) प्रकाशित हैं | अपने इस व्यख्यान में निर्मल वर्मा ने प्रेमचंद की परम्परा को अप्रासंगिक करार देते हुए यह शिकायत दर्ज की है कि “क्या यह अजीब विडंबना नहीं है कि पिछले वर्षों से हमर अधिकांश कथा साहित्य उन प्रश्नों को अप्रासंगिक मानता रहा है, जिनके बिना स्वयं मनुष्य का ‘मनुष्यत्व’ एकांगी, अधूरा और बंजर पड़ा रहता है? यथार्थवाद के नाम पर हमने मनुष्य को उस ‘यथार्थ’ से विलगित कर दिया जो उसके जीवन और मृत्यु के प्रश्नों को अर्थ प्रदान करता है | जैनेन्द्र और अज्ञेय के उपन्यासों के बाहर शायद ही किसी लेखक ने मनुष्य की आध्यात्मिक विडम्बनाओं को अपने कथा साहित्य में जगह देना जरुरी समझा हो| निर्मल वर्मा अपनी इन साहित्यिक चिंताओं के जरिये जिस साहित्य को ख़ारिज करते हैं, वस्तुत: वही आज का साहित्य है | यहां हिल स्टेशन की आरामगाह में न पियानों-सी बजती स्त्रियां हैं और न मृत्यु की प्रतीक्षा में घूंट भर कर चियर्स करती अम्मू | यह अपने आमित्क बंजरपन को अध्यात्म से भरते, ऊबे, सुखी लोगों की दुनिया नहीं है | यह खेत, खलिहान, गलियों व मुहल्लों में जीवन-संग्राम में जूझते, परास्त होते, छोटी-छोटी खुशियों एवं बेहतर मानव मूल्यों की चाहत रखने वालों का वह जीवंत संसार हैं, जहां इस देश की धड़कने कैद हैं | साहित्य के इस यथार्थ में अपने खेत से बेदखल होता होरी है, बुनकर की बीवी होकर भी एक साड़ी का सपना संजोये खून थूकती अलीमुन है, साम्प्रदायिकता की भेंट चढ़ता रशीदा का प्रेम है, काम पर जाते बच्चे हैं, टेम्पों पर घर बदलते लोग हैं, पेंशन और बाजार भाव का समीकरण है तालाब में डूबी लड़कियां हैं और सिर पर मैला ढोते इन्सान हैं | कुलीन साहित्य की दुनिया में इन पात्रों का प्रवेश वर्जित है, वहां उनकी उपस्थित मात्र अनाम अनुचर माली कुली या दास की है |
साहित्य की कुलीन परंपरा का लम्बा इतिहास रहा है | कालिदास से लेकर अशोक बाजपेयी तक रीति-शिथिला की थकान पर लिखित ‘देह-गेह’ के साहित्य की समृद्ध परम्परा रही है | साहित्य की इस कुलीन परम्परा की प्रासंगिकता को सैद्धान्तिकता का पुट देते हुए अशोक बाजपेयी की स्थापना है कि “......एक ऐसे समय में जब देह सर्वथा अलक्षित जा रही है मानो भारतीय परम्परा में देह और श्रृंगार का इतना बड़ा प्रचलन न रहा हो, ऐसे समय में जब मसलन ऐसा लिखा जा रहा है मानो हिंदी समाज में या हिंदी के मनुष्य में सेक्सुअलिटी होती ही नहीं है.....ऐसे में देह की बात करना वैचारिक हस्तक्षेप है |” (सीढियां शुरू हो गई हैं, पृ 46) देह की इस वैचारिकता का ही परिणाम है कि ‘मुझे चाँद चाहिए’ से साहित्य का बाजार बनाने वाला उपन्यासकार ‘दो मुर्दों के लिए गुलदस्ता’ और ‘कसप’ व ‘कुरु-कुरु-स्वाहा’ का लेखक ‘हमजाद’ लिखने लगता है | इसी देह-दृष्टि का नतीजा है कि ‘उसका बचपन’ जैसे उपन्यास का लेखाक ‘नर-नारी’ सरीखी यौन गाथा लिखने लगता है | देह-दर्शन के इस ‘माइंड-सेट’ का ही परिणाम है कि उम्र के बढ़ने को ‘ब्रा के साइज’(सुरेन्द्र वर्मा) और नारी मुक्ति को ‘इन्सेस्ट’ से (मनोहर श्याम जोशी) पारिभाषिक किया जाने लगा है |
यह महज संयोग नहीं है कि अज्ञेय व जैनेन्द्र के जिन उपन्यासों की चर्चा निर्मल वर्मा आध्यात्मिक विडम्बनाओं को रेखांकित करने के लिए करते हैं, वही उपन्यास हिंदी में आधुनिकतावाद के भोगवादी दर्शन के घोषणा पत्र भी हैं | जैनेन्द्र की ‘सुनीता’ का नग्नवाद और अज्ञेय के ‘शेखर’ का अपनी सगी बहन सरस्वती और मौसेरी बहन शशि से रातिक सम्बन्ध आधुनिक हिंदी साहित्य में देहदर्शन का सैद्धान्तिकीकरण है | संभोग से समाधि के इस अध्यात्म का हिंदी साहित्य में केन्द्रीयता न प्राप्त कर पाना निर्मल वर्मा सरीखे अभिजन साहित्यकारों की अस्तित्ववादी चिंता का मूल आधार है। इस चिंता के मूल में उनके अपने वर्गीय सरोकार हैं, जिन्हें वे ‘हर समय और समाज के प्रसंग में प्रासंगिक सार्वभौमिक सत्यों को उजागर करने’ के आवरण में सम्पूर्ण साहित्य पर थोपना चाहते हैं | इसी उपक्रम में वे यह सैद्धांतिक स्थापना भी करते हैं कि “अमूर्त-सी दिखने वाली रूपवादी रचनाएँ, जिन पर विदेशी प्रभाव का आरोप अक्सर लगाया जाता है, भारतीय अनुभव के बीहड़पन को अधिक अंतरंगता से अभिव्यक्त कर पाती हैं |” (निर्मल वर्मा, कसौटी-4, पृष्ट -79) सच तो यह है कि जिस अभिजात्य जीवन के यथार्थ को निर्मल वर्मा ‘भारतीय अनुभव’ बनाकर पेश करते हैं वे अभिजन समाज के वे वैश्विक अनुभव हैं जो रोम, प्राहा, लन्दन से लेकर शिमला तक हर कहीं एक ही तरह से उपस्थित हैं |
साहित्य की यह अभिजात्य दृष्टि वातावरण, प्रकृति व परिवेश का ऐसा ऐन्द्रजालिक संगीतात्मक वितान रचाती है, जहाँ ‘समय सरगम’ हो जाता है और पाठक ‘अंतिम अरण्य’ की उपत्यका में खो जाता है | प्रकृति की इस सुरम्य व मनोरमा उपत्यका को देखकर ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’ के रघुबर प्रसाद के पिता को सहसा यह अहसास होता है कि ‘लगता है बहुत दिन जी गए और मृत्यु यहाँ से बहुत समीप हो’ क्लासिकी संगीत की ऊँचाइयों को छूती प्रकृति प्रेम की यह सार्वभौमिकता निम्न-मध्यवर्गीय रघुबर प्रसाद के पिता को जिस काल्पनिक सुख-संसार में ले जाती है, वह उनका अपना निजी अनुभव न होकर उस आभिजात्य सौन्दर्य दृष्टि का परिणाम है, जिसका वास्तविक जीवन जगत से सीधा कोई रिश्ता नहीं हैं | विजातीय अनुभवों को सहज और काम्य बनाकर वास्तविकता यह भ्रम जिस ऐन्द्रिकतावाद को प्रश्रय देता है वही आभिजात्य सौन्दर्यदृष्टि का गंतव्य है |
साहित्य को बैठे-ठाले का शगल बनाता रचना का यह अस्वादपरक दृष्टिकोण जिन मूल्यों पर टिका है उसके एक छोर पर अभिजन मूल्य पद्धति है तो दूसरे छोर पर बाजार है | यूं तो आभिजात्य व बाजार बाह्य तौर एक-दूसरे से विमुख दीखते हैं, लेकिन दोनों एक ही वर्गीय आधार पर टिके हैं | आभिजात्य पूंजीवादी जनतंत्र का अतीत है तो बाजार उसका भविष्य | आज के साहित्य को आभिजात्य व बाजार दोनों ही मोर्चों पर लड़ना है, क्योंकि साहित्य की बची हुई जमीन को दोनों ही अधिग्रहीत करना चाहते है। इन अर्थों में निर्मल वर्मा का उपन्यास ‘अंतिम अरण्य’ और सुरेन्द्र वर्मा के ‘मुझे चाँद चाहिए’ में कोई मौलिक भेद नहीं है क्योंकि ‘अंतिम अरण्य का अध्यात्म दर्शन भी उतना ही वायवीय है, जितना ‘मुझे चाँद चाहिए’ की मखमली सफलता का यथार्थ |
यह अकारण नहीं है कि आभिजात्य सौन्दर्य दृष्टि से लिखी गई रचनाओं में यह तथ्य गौण हो जाता है कि साहित्य की विषयवस्तु क्या है | कस्बाई जीवन व आदिवासी पृष्ठभूमि के बावजूद विनोद कुमार शुक्ल के उपन्यासों की मूल्य चेतना यदि महाश्वेता देवी के आदिवासी जीवन पर लिखित उपन्यासों से भिन्न है तो इसके मूल में दोनों की भिन्न सौन्दर्य दृष्टि व सामाजिक सरोकार ही है | आंचलिक पृष्ठभूमि के बावजूद यदि रेणु के ‘मैला आंचल’ व कृष्णा सोबती के उपन्यास ‘जिंदगीनामा’ के सरोकार भिन्न हैं तो इसके मूल में लेखक की अपनी वर्गीय मूल्य चेतना ही है | इस सन्दर्भ में कृष्णा सोबती के बारे में विजयमोहन सिंह का यह प्रश्न उचित ही है कि, “क्या सोबती जी का रचनाकार की हैसियत से अलग, उस सामंती व्यवस्था से अतिरिक्त लगाव है, जो अंतत: और मूलत: अपने अंतर्विरोधों में जीती हुई दूसरी जातियों और वर्गों के शोषण के आधार पर टिकी हुई है ?” (कथा समय, पृष्ट 72) कृष्णा सोबिती द्वारा ‘जिंदगीनामा’ के शाह परिवार के प्रति आलोचनात्मक भाव न रखना इस उपन्यास को ‘आधा गाँव’ सरीखे उपन्यासों से अलग करता है, जहाँ यह आलोचनात्मक दृष्टि लगातार उपस्थित है | हिंदी साहित्य के कुलीन तंत्र में ‘जिंदगीनामा’ की सहज स्वीकृति एवं ‘आधा गाँव’ के प्रति उपेक्षाभाव के मूल में भी यह कुलीनता बोध ही है | यही कुलीनता बोध के परिणाम स्वरूप विनोद कुमार शुक्ल प्रकृति को उसके यथार्थ से काटकर ‘पैस्टोरल’ बनाते हैं | ‘खिलेगा तो देखेंगे’ एवं ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’ उपन्यासों में विनोद कुमार शुक्ल जन-जीवन के कोलाहल से दूर प्रकृति की छाया में एकांत का जो नीड़ रचते हैं वह आभिजात्य रचना दृष्टि की वह पलायनस्थली है जहाँ यह तथ्य गौण हो जाता है कि रचना की पृष्ठभूमि में कोई हिल-स्टेशन है या कोई छोटा क़स्बा या कि आदिवासियों का कोई गाँव |
निर्मल वर्मा का यह कथन अनायास नहीं है कि “एक छोटे हिंदुस्तान कस्बे की विसंगतियों का बखान जो हमें विनोद कुमार शुक्ल के उपन्यासों में मिलता है, क्या वह उसी ‘लघु-मानव’ की संवेदन कथा नहीं है, जिसे आज तक मानव मुक्ति के उदात्त आदर्शों की ओट में अनदेखा करते आये थे |” (कसौटी-4, पृ॰ 79) ‘लघु-मानव’ की ‘परिमलियन’ दौर की जो बहस अपनी गति को प्राप्त कर चुकी है, उसे निर्मल वर्मा यदि आज पुन: प्रासंगिक बनाना चाहते हैं तो इसके निश्चित वैज्ञानिक सन्दर्भ हैं | ये सन्दर्भ हैं व्यापक जनसमुदाय को भीड़ व भेड़ समझने के | मुक्तिबोध ने ‘समीक्षा की समस्याएं’ शीर्षक अपने लेख में इन्हीं ‘लघु-मानवों के बारे में व्यंग्यात्मक टिप्पणी की थी कि “हम सब जन साधारण नहीं, लघुमनाव हैं, क्यों? इसलिए कि आदर्शों ने हमें दगा दिया है, छला है, प्रवंचना की है।..... आदर्श एक छलावा है | लघु-मानव हम अपने लघु प्रयत्नों द्वारा अपनी उन्नति और विकास करते हैं और भारी-भरकम शब्दावली में हम नहीं फसते | हम अपने लघु-जीवन में, अपने दैनिक कार्यक्रमों में, अपनी-अपनी बुद्धि और विवेक के अनुसार लगे रहते हैं और अपने भावनाओं को काव्य में व्यक्त करते हैं | .....जनता? वह एक भीड़ है, भीड़ की कोई आत्मा नहीं होती | व्यक्ति, चेतन व्यक्ति- वह तो आत्मतंत्रवादी है | इसलिए उसका कर्तव्य है कि वह भीड़ का हिस्सा न बने | भीड़ में व्यक्तित्व का नाश होता है |” (मुक्तिबोध रचनावली, खण्ड पांच, पृष्ट 177)
जनता को भीड़ समझने का यह ‘लघुमानववादी’ दर्शन निर्मल वर्मा सरीखे कुलीन संप्रदाय के लेखक को इसलिए रास आता है कि यह जनकेंद्रिय साहित्य और जनता के राजनीति के प्रति भी अवमानना व उपेक्षा का भाव रखता है | राजनीति को लेकर निर्मल वर्मा की आपत्ति है कि ‘हमने अपने देखने का तरीका राजनीतिक बना लिया’ और उन्हें यह संतोष है कि ‘जहाँ-जहाँ कुछ लेखकों ने इसे तोड़ने की कोशिश की है वहां-वहां वे सफल हुए हैं?’ (साहित्य वार्षिक, इंडिया टुडे, 1992) | जनविमुखता का यह साहित्य दर्शन अध्यात्म के जिस ‘अंतिम अरण्य’ में शरणागत होता है वह अभिजन समाज की अपनी जरूरत है | ‘परम्परा’, ‘अतीत’, ‘जातीय-स्मृति’ व ‘संस्कार साहित्यिकी अभिजनवाद के वे मुखौटे हैं जो साहित्य संसार से जीवंत संदर्भों व व्यापक सामाजिक सरोकारों को बेदखल कर देना चाहते है | यही कारण है कि कभी ‘उन्हें प्रेमचन्द को प्रेमचंद की परम्परा’ से मुक्त करने की जरूरत दरपेश होती है तो कभी ‘कबीर के दुःख’ को ईश्वरीय दुःख करार देते हुए उन्हें सिर्फ ‘धार्मिक मामलों तक सीमित’ करने का प्रयत्न किया जाता है |
यह अकारण नहीं है कि अज्ञेय स्मृति व्याख्यान देते हुए निर्मल वर्मा जिस ‘आध्यात्मिक विडंबना’ पर जोर देते हैं, ‘अज्ञेय की अनुपस्थिति’ पर लिखते हुए अशोक बाजपेयी उसी मांग को इन शब्दों में दुहराते हैं, “हर समाज को अपना अध्यात्म चाहिए और कोई भी साहित्य, बिना आध्यात्मिक अनुभव को आत्मसात किये पूरा और सामाजिक दृष्टि से उपयोगी या मूल्यवान नहीं हो सकता |” इसी दृष्टि से कबीर की व्याख्या करते हुए नंदकिशोर नवल द्वारा कबीर के दुःख को ‘ईश्वरीय दुःख’ और उनकी धर्मिकता की सामाजिक व्याख्या को नकारते हुए उसे आध्यात्मिक करार देना एक निश्चित दृष्टि बोध का परिचायक है | ‘कसौटी’ (संपादन नंदकिशोर नवल) नकारते हुए उसे ‘अध्यात्मिक’ करार देना एक निश्चित दृष्टि-बोध का परिचायक है | ‘कसौटी’ (संपादन नंदकिशोर नवल) के पृष्ठों पर निर्मल-अशोक वाजपेयी-नवल त्रिमूर्ति का यह अध्यात्मवाद तीस के दशक में टी.एस. इलियट के द्वारा सम्पादित पत्रिका ‘क्राइटेरियन’ के सरोकारों का भारतीय रूपांतरण है | महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय द्वारा प्रकाशित पत्रिका ‘बहुबचन’ (सपादक अशोक वाजपेयी) तो अभिजन समाज के आध्यात्मिक चिंतन का मुख-पत्र ही है | यह स्वाभाविक भी है क्योंकि म.गां.अं.विश्वविद्यालय के नीति निर्देशक दस्तावेजों में ही यह तथ्य उल्लिखित है कि संस्कृति को वैज्ञानिक चेतना से मुक्त कर इसे आध्यात्मिक चिंतन से जोड़ा जाये |
‘बहुवचन’ के प्रवेशांक में रमेशचंद शाह का यह आध्यात्मिक चिंतन अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के नीति-निर्देशों के अनुकूल ही है, जिससे उन्होंने यह स्थापना की है कि “साहित्यिक कृति के कालजयित्व की कसौटी अंतत: धार्मिक मूल्य चेतना ही होगी |” (पृष्ठ 272) धार्मिक मूल्य चेतना किन खतरनाक परिणतियों तक जा सकती है, इसका उदाहरण पं विद्यानिवास मिश्र का यह उद्घोष है कि “अयोध्या आज भी आस्था का केंद्र है | जन्मभूमि का निर्णय अदालत या इतिहास नहीं करता | यह आस्था का विषय होता है | जो सनातन है इसके लिए प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती |” विद्यानिवास मिश्र की यह आस्था चिंता का विषय नहीं है | चिंता का विषय है वह अवसर व मंडली है जब यह घोषणा की गई | यह तथ्य दर्ज किये जाने योग्य है कि विद्यानिवास मिश्र ने अपनी इस धार्मिक मूल्य चेतना की सार्वजानिक अभिव्यक्ति (23 जुलाई, 2000) अयोध्या में आयोजित, ‘सहित’ प्रत्रिका के उस विमोचन समारोह में की जिसमें निर्मल वर्मा और कुंवरनारायण उपस्थित थे |
 निर्मल वर्मा मंडली की यह धार्मिक मूल्य-चेतना सन तीस के दशक की उस इलियट मण्डली की याद दिलाती है, जो धर्म को साहित्य की कसौटी बताती हुई पश्चिमी आधुनिकतावादी दर्शन की बोधक थी | टी.एस. इलियट, एजरा पाउंड, वैलेस स्टीवेंस व कार्लोस विलियम की यह कवि मण्डली अभिजनवादी व अनुदार मूल्यों की कट्टर पोषक होने के साथ-साथ नंस्लवादी झुकाव भी लिए हुए थी | साहित्य का यह आधुनिकतावादी दर्शन समाज के निम्न वर्गों के उन लोगों के प्रति अमानवीय व कठोर रवैये का पक्षधर था जो पारंपरिक समाज द्वारा निर्धारित सामाजिक और राजनैतिक सीमाओं का अतिक्रमण कर रहे थे | यह करते हुए इलियट व उनकी मंडली अपने वर्गीय हितों के अनुकूल ही उन निम्नजनों के प्रति अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त कर रही थी, जिनका राजनीतिक व सामाजिक परिदृश्य पर सहसा उभार हुआ था | इस आंग्ल मंडली के साथ निर्मल वर्मा का सहचिन्तन स्वाभाविक ही है | निर्मल वर्मा की स्वीकारोक्ति है कि, “इलियट मेरे बहुत निकट रहे | एक समय था जब इलियट के ‘फोर क्वाट्रेट्स’ मुझे उतनी ही शांति देते थे (और शायद आज भी देते हैं) जितनी शांति मुझे सुबह भगवद्गीता पढ़ते हुए मिलती है |” (पूर्वगृह, अंक 27, पृष्ठ 24)
सच तो यह है कि निर्मल वर्मा हिंदी साहित्य के जिस आभिजात्य चिंतन के प्रवक्ता हैं, उसकी जड़े टी.एस. इलियट के दर्शन से नाभिनाबद्ध हैं | अपने निबंध ‘नोट्स टुवार्ड्स डेफिनिशन आफ कल्चर’ में इलियट ने समाज में अभिजन की जिस केन्द्रीय भूमिका को रेखांकित किया है निर्मल वर्मा भारतीय सन्दर्भ में उसकी अनुकृति करते हैं | समाज में आभिजात्य वर्ग की प्रभुत्वकारी भूमिका को निर्दिष्ट करते हुए इलियट का विचार था कि, “पीढ़ी दर पीढ़ी से धन व समृद्धि को संजोता आभिजात्य वर्ग और उसके क्षेत्र तले पीढ़ी दर पीढ़ी रहता किसान ही कवि के लिए स्मृति का समुचित आधार तैयार करता है |” विरासत और जन्म के आधार पर बनी इस पारंपरिक सामाजिक संरचना को औद्योगिक सभ्यता द्वारा दी गई चुनौती पर जिस तरह इलियट खिन्न होते हैं, उसी तरह निर्मल वर्मा यह चिन्ता व्यक्त करते हैं कि “जीवन के हर क्षेत्र में अपनी जगह चाहे वह वर्ण व्यवस्था में ही निहित क्यों न हो, के प्रति निष्ठा रखने में ही मनुष्य का देवत्व छिपा रहता है | मनुष्य की जबाब देही यहाँ भी है – वह एक ‘दी हुई’ पूर्व निर्धारित जिम्मेदारी है, समाज के प्रति, जाति के प्रति परिवार के प्रति इसलिए मनुष्य की पीड़ा उन विवशताओं से उत्पन्न होती है, जो उसे अपनी बुनियादी ‘अच्छाई’ से स्खलित करती है-उसे अपनी परंपरागत जगह से उन्मूलित करती है” (ढलान से उतरते हुए, पृष्ठ 53)
‘परम्परागत जगह’ से उन्मूलित होते जिस ‘मनुष्य की पीड़ा’ को निर्मल वर्मा अपने साहित्यिक चिंतन का विषय बनाते हैं, वह अर्धसामंती भारतीय समाज का वह अभिजन है, जिसके ऐश्वर्य व विलासिता का आधार बहुजन समाज तैयार करता है | हिंदु धर्म का वर्णाश्रामी चिंतन इस ‘परंपरागत जगह’ को सुरक्षित बनाये रखने का जो धार्मिक आधार प्रदान करता है उसकी त्रासद परिणति दुखी चमार की जिस ‘सद्गति’ में होती है, वह निर्मल वर्मा की चिंता का विषय न होकर प्रेमचंद की परम्परा से डर लगता है | यही कारण है कि प्रेमचंद को ‘प्रेमचंद की परंपरा’ से मुक्त करते हुए निर्मल वर्मा ‘कफ़न’ कहानी को व्यक्ति स्वातंत्र्य की कहानी के रूप में व्याख्या करते हैं और इसे ‘दो पियक्कड़ हिन्दुस्तानियों का मुक्ति समारोह’ करार देते हैं | ‘कफ़न’ का यह उत्तर आधुनिक पाठ उसे देशज सामाजिक सन्दर्भों से काटकर जिस तरह सार्वभौमिक बनाता है, वाज सांस्कृतिक वैश्वीकरण की एक बानगी भर है |
अभिजन समाज के लेखकों का यह सार्वभौमिक चिंतन कोई नई बात नहीं है | अजनबी द्वीपों पर अपने ‘अंतिम अरण्य’ तलाशता साहित्य का यह आभिजात्य दर्शन कुलीन लेखकों की अपनी पसंद व प्राथमिकता है | उनसे यह अनुचित है कि वे उस साहित्य की रचना करें जो उनके अनुभव क्षेत्र व सरोकारों से परे हैं | लेकिन उनसे यह अपेक्षा अवश्य की जा सकती है कि वे अपने आभिजात्य दर्शन सरोकारों प्राथमिकताओं एवं अनुभव ससार को समूचे ‘साहित्य के प्रासंगिक प्रश्न’ न बनाये और यह उद्घोषणा न करें की “यथार्थवाद की समूची बहस जो प्रेमचंद की परंपरा के नाम पर पिछले पचास वर्षों से हिंदी में चल रही है, आज बिल्कुल अप्रासंगिक हो गई है |” (निर्मल वर्मा, कसौटी, अंक-4,पृष्ठ 79)
दरअसल निर्मल वर्मा की इस प्रेमचंद-ग्रंथि के मूल में प्रेमचन्द का वह आभिजात्य विरोधी चिंतन है जो यह स्पष्ट आवाहन करता है की हमे सुंदरता की कसौटी बदलनी  होगी’ और जिसकी यह साफ समझ है कि ‘साहित्य मन बहलाव व विलासिता का सामान नहीं है |’ प्रेमचंद की इस वैचारिक स्थापना को समसामयिक सन्दर्भों में विस्तार देते हुए ही आज का साहित्य बहुजन के विरुद्ध अभिजन की दुरभिसंधि की आलोचनात्मक व्याख्या करता है | अभिजन को जिस तरह जनतंत्र नहीं रास आता उसी तरह आभिजात्य धारा के लेखकों को साहित्य के यथार्थ का जनतंत्र नहीं सुहाता | इसीलिए वे प्रेमचंद, रेणु, मुक्तिबोध व धूमिल के समानांतर जैनेन्द्र, अज्ञेय, निर्मल वर्मा व विनोद कुमार शुक्ल की पांत खड़ी करते हैं | ‘यथार्थ के सिकंचों’ से मुक्त करने के नाम पर वे साहित्य को अपने वर्गीय हितों की पूर्ति का साधन बनाना चाहते हैं | इसीलिए उन्हें ‘शेखर’ का चरित्र ‘होरी’ की उपस्थिति से अधिक विराट और प्रासंगिक लगता है | वास्तविकता यह है कि ‘होरी’ व ‘शेखर’ एक दुसरे के स्थानापन्न न होकर साहित्य की दो भिन्न व विरोधी दृष्टियों के प्रतिनिधि नायक हैं |एक दृष्टि यदि साहित्य को ‘सामाजिक संरचना’ मानती है तो दूसरी दृष्टि इसे महज एक ‘साहित्यिक उत्पाद’ बनाकर रख देती है | एक जीवन संग्राम का साहित्य है तो दूसरा जीवन से पलायन का |
साहित्य की दो भिन्न जीवन दृष्टियों के इस अन्तर को शाश्वत साहित्यिक मूल्यों व सार्वभौमिकता के आवरण से नहीं झुठलाया जा सकता | समाज व जीवन की बीहड़ सच्चाइयों से विमुख होने के लिए अक्सर काव्यात्मक अमूर्तन व बिम्बधर्मिता का सहारा लिया जाता है| टेरी ईगलटन का यह मत यहाँ दृष्टव्य है कि, “आधुनिक साहित्य की सैद्धांतिकी में कविता की तरफ झुकाव विशेष महत्व का तथ्य है | इसलिए कि समस्त साहित्यिक विधाओं में कविता ही ऐसी विधा है जो सर्वथा प्रकट रूप से इतिहास से मुक्त एक ऐसी विधा है जहाँ ‘संवेदना’ अपने सर्वाधिक शुद्धतम रूप में बिना सामाजिकता से प्रदूषित हुए अपना कार्य कर सकती है |” (लिटरेरी थियेरी, पृष्ठ 51) शायद यही कारण है कि अभिजन समाज के लेखकों द्वारा इन दिनों गद्य की कविताई पर अधिक बल है, क्योंकि गद्य में जीतनी अधिक कविताई होगी, उतनी कम धार होगी | यह विडंबना ही है कि ज्यों-ज्यों वैचारिकता के दबाव में कविता गद्य के अधिक निकट जा रही है त्यों-त्यों आभिजात्य रूचि के लेखकों द्वारा गद्य में कविता की मांग बढ़ी है |
कवि के जिस गद्य पर साहित्य का प्रभु वर्ग झूम जाता है, वह निराला और मुक्तिबोध का गद्य न होकर अज्ञेय विनोद कुमार शुक्ल का वह गद्य है, जहाँ से जीवन संग्राम बेदखल है | गद्य की यह कविताई गद्य की अपार व असीमित संभावनाओं को संकुचित कर उसे अमूर्त वायवीय व् आस्वादपरक बनाती है जो साहित्य को जीवंत सामाजिक सन्दर्भों से काटकर एक ऐसी ‘स्वायत्त कला’ का रूप देती है, जो जीवन की प्रतीति कराते  हुए भी उससे अलग ऊपर है | इस सम्पूर्ण प्रक्रिया में यह तथ्य गौण हो जाता है कि क्या कहा गया है, महत्वपूर्ण यह रह जाता है कि कैसे कहा गया है!
निर्मल वर्मा मंडली की रेणु की पसंदगी के मूल में उनकी कथा भूमि के सामाजिक सन्दर्भ न होकर ‘मैला आंचल’ व ‘परती परिकथा’ के काव्यगुण ही हैं | रेणु को ‘कवि-कथाकार’ बताते हुए निर्मल वर्मा का कथन है कि “वह शायद पहले लेखक थे जिन्होंने हिंदी के मैदान में कविता के जल-स्रोतों को खोजा था.....लोकगीतों की संवेदना में उनका लहलहाता गद्य एक अदभुत लयात्यकता लिए है जो पहले किसी हिंदी गद्यकार में नहीं देखा गया था |”(बहुवचन-तीन, पृष्ठ 66) यह साहित्य का वह रुपवाद है जिसके चलते साहित्य की हर विधा का आकलन काव्य निकर्षों पर किया जाता है | हिंदी आलोचना का यह दुर्भाग्य रहा है कि उसने अब तक अपनी कथा-आलोचना के स्वतन्त्र निकष नहीं गढ़े हैं | वह अभी भी अंग्रेजी के एफ. आर. लेविस के ‘स्क्रूटनी ग्रुप’ और न्यू क्रिटिसिज्म’ की छाया से मुक्त नहीं हो पाई है | यही कारण ही की अभी भी यह गांठ खुलना शेष है कि एक ही परम्परा और कथा-भूमि के लेखक होने के बावजूद साहित्य के कुलीनतंत्र से प्रेमचंद क्यों बहिष्कृत हैं और रेणु क्यों समादृत? सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और वर्णाश्रमी हिंदुत्व का जो ‘क्रिटीक’ रेणु के साहित्य में उपस्थित है, क्या उसका खुलासा होने के बाद भी रेणु कुलीन साहित्य तंत्र के बीच उतने ही दुलारे लेखक रहेंगे? निम्नमध्य वर्ग के कीचड़ में आभिजात्य सौन्दर्य दृष्टि का जो कमल विनोद कुमार शुक्ल ने खिलाया है क्या इसका रहस्य-भेदन होना जरुरी नहीं है ?
आज की आलोचना का प्रमुख दायित्व साहित्य के ‘टेक्स्ट’ (पाठ) को ‘कंटेक्स्ट’ (सन्दर्भ) प्रदान करना है| साहित्य का सन्दर्भ रहित पाठ रचना को महज एक तकनीक में बदल देता है | तकनीक की केन्द्रीयता जो ‘अपने अपने अजनबी’ (अज्ञेय) सरीखे सन्दर्भविहीन उपन्यास को प्रासंगिक बनाती है और ‘धरती धन न अपना’ सरीखे महत्वपूर्ण उपन्यास को आलोचना के कुलीनतंत्र से बहिष्कृत रखती है | जब बात महज तकनीकी दक्षता पर केन्द्रित होगी तो साहित्य से समाज, लोक जीवन, इतिहास, नारी-विमर्श और दलित-अस्मिता सरीखे प्रश्न बेदखल हो जायेंगे और साहित्य महज एक उत्पाद बनकर रह जायेगा जिसके न कोई सामाजिक सन्दर्भ होंगे और न कोई जीवन मूल्य | 
  साहित्य में तकनीक की केन्द्रीयता के पक्षधर भाषायी स्वायत्तता के भी प्रवक्ता हैं| भाषा यहाँ समाज से संवाद न कर भाषा के भीतर स्वयं अपना एक समाज बनाती है, जो कभी-कभी सामाजिक यथार्थ का भ्रम भी पैदा करता है!  विनोद कुमार शुक्ल की औपचारिक दुनिया की भाषा का स्वायत्त संसार रचते हुए यथार्थ का एक ऐसा ही भ्रम रचती है | औपन्यासिक तकनीक और भाषा यहाँ साधन न रहकर साध्य बन जाती है, जिसके लिए कथा की विषयवस्तु महज एक अवलंब भर है |
लेकिन वर्मा भाषा के इस ‘रूपवाली, कलावादी शगल’ से संतुष्ट नहीं हैं | वे भाषा को ‘परंपरा और जातीय स्मृति के मूल स्रोतों’ से जोड़ना चाहते हैं | भाषा को ‘समूची सांस्कृतिक मनीषा’ के साथ जोड़ते हुए | वे यह प्रश्न उठाते हैं कि, “क्या इस मनीषा की महीन बुनावट किसी ऐसी भाषा में परिलक्षित हो सकती है, जिसमे हमारे भारतीय संस्कार और स्मृतियों का निपट आभाव हैं ?” (कसौटी-4, पृष्ठ 80) भारतीय संस्कार और स्मृतियों के सहारे भारतीयता का प्रश्न उठाते हुए निर्मल वर्मा का कहना है कि “हर संवेदनशील भारतीय के लिए अपनी खोई हुई पहचान को ऐतिहासिक विस्मृति के कुहासे से निकालकर दिन के उजाले में लाना है ताकि हम अपने ‘चेहरे’ को वैस ही देख सकें, जैसा वह है ......? (वही,पृष्ठ 79)
प्रश्न यह है कि निर्मल वर्मा का संवेदनशील भारतीय अतीत के अपने किस ‘चेहरे’ को देखना चाहता है ? उस चेहरे को, जो प्रेमचंद ने पंडित दातादीन (गोदान), पंडित घासीराम (सद्गति), विप्र महाराज (सवा सेर गेहूं) व ठाकुर साहब (ठाकुर का कुआँ) सरीखे दावों में देखा था या होरी, धनिया, दुखी चमार, सिलिया चमाइन, शंकर कुर्मी या भोला अहीर जैसे पात्रों में जो अज्ञेय, निर्मल वर्मा व विनोदकुमार शुक्ल के साहित्य में अनुपस्थित हैं|
दरअसल सच तो यह है कि जिस भारतीय ‘चेहरे’ के मुखौटे में निर्मल वर्मा ‘अपनी खोई हुई पहचान को ऐतिहासिक विस्मृति के कुहासे’ से निकालकर दिन के उजाले में लाना चाहते हैं, वह एक ऐसा अमूर्त भारतीय चेहरा है जो पंडित दातादीन और होरी, पंडित घासीराम व दुखी चमार तथा विप्र महाराज व शंकर कुर्मी सरीखे भारतीय चेहरों के बीच में अंतर्विरोधी क दृश्य-ओझल कर सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का जो विमर्श रचता है, व् न तो सांस्कृतिक है और न ही राष्ट्रीय | अपनी सम्पूर्णता में यह संस्कृति का वह पुनरुत्थानवादी भाष्य है जो बकौल निर्मल वर्मा ‘रामायण-महाभारत की स्मृतियों, पौराणिक कथाओं और मिथकों’ के सहारे ‘संस्कृति ए स्मृतिचिह्न’ गढ़ता है | संस्कृति के इन स्मृतिचिन्हों के सहारे जब साहित्यकार ‘जय जानकी यात्रा’ रामायण मेले व कुम्भ की जुटान में अपनी ‘जातीय स्मृति के मूल श्रोत तलाशेंगे तो परिणाम वहीं होंगे जो इस देश में 6 दिसंबर, 1992 को हुए| अयोध्या में निर्मल वर्मा की उपस्थिति में राम जन्मभूमि के प्रश्न को आस्था का प्रश्न बताने सम्बन्धी पंडित विद्यानिवास मिश्र की ताजातम घोषणा (23 जुलाई, 2000) को इन्हीं सन्दर्भों में ग्रहण करना चाहिए |
साहित्य के प्रासंगिक प्रश्न यही हैं | आज के साहित्य व् आज की आलोचना को इन्हीं प्रश्नों से मुठभेड़ करना है | सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के मुखौटे में फासीवाद की आहटें ज्यों-ज्यों तेज हो रही हैं, त्यों-त्यों साहित्य को अपनी सामाजिक जड़ों की तलाश करते हुए सार्थक हस्तक्षेप की जरुरत भी दरपेश है | प्रेमचंद की परम्परा इस सार्थक हस्तक्षेप का वह घोषणा पत्र है, जो आज भी उतना ही प्रासंगिक है, जितना पूर्व-स्वाधीन भारत में | जरुरत है इसको पुनर्परिभाषित का अद्यतन बनाने की, आज की आलोचना का यही साहित्यिक दायित्व है |
(स्वाधीन: शारदीय विशेषांक -2000 से साभार)

राष्ट्रीयता के पराभव से बहुसंख्यकवाद के उभार तक


वीरेन्द्र यादव



उत्तर प्रदेश की वर्तमान  राजनीति में देश के सबसे पुराने और अखिल भारतीय राजनीतिक दल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का पराभव महज एक दल का पराभव न होकर राजनीति के एक अध्याय  और संस्कृति का भी अवसान  है .इसे महज क्षेत्रीय और अस्मिता की राजनीति के उभार  में न सरलीकृत करके भारतीय जनतंत्र की अनिवार्य नियति  के रूप में समझे जाने की जरूरत है . इसे विलायती माडल के संसदीय जनतंत्र और वर्चस्ववादी  भारतीय सामाजिक तंत्र की अन्तःप्रक्रिया  का परिणाम  भी माना जाना चाहिए . इसे   राही मासूम रज़ा के उपन्यास ‘आधा गाँव’ के दलित  परुसराम  की  उस नियति  से भी   समझा जा सकता है जो पहले  आम चुनाव (1952)  में आरक्षित सीट के चलते कांग्रेस पार्टी के टिकट पर चुनाव तो जीत गया था  लेकिन  अशराफ जमींदारों की ऐंठ के चलते दुरभिसंधि का शिकार होकर जेल के सीखचों के पीछे पहुँच गया  . कांग्रेस के उस तंत्र में एक दलित का एम एल ए बनना तो संभव था लेकिन अपनी स्वतंत्र अस्मिता बनाना कठिन था .  दलितों के साथ साथ पिछड़ों की भी यही नियति थी .अनायास नहीं है कि आज़ादी के तुरंत बाद के उस दौर की कथा कहते हुए  अपने उपन्यास ‘मैला आँचल’ में  फणीश्वरनाथ रेणु राजपूतों की जुबानी दर्ज करते  हैं कि ,    “...ग्वाला होकर लीडरी ..?   और आज भी उत्तर प्रदेश और बिहार में मुलायम और लालू  को  भैंस चराने की सलाह दिए जाने  के   नारे की अनुगूंज  सुना जाना कोई अजूबा नहीं है . 
        भारतीय समाज की इसी   सोपानीकृत व्यवस्था के प्रतिकार स्वरुप  डॉ.आंबेडकर ने ‘जाति उन्मूलन’ और डॉ.लोहिया ने ‘जाति तोड़ो’ का उद्घोष किया था . इसे दूरगामी लक्ष्य  बनाये रखते हुए जहाँ  डॉ.लोहिया ने ‘पिछड़े पायें सौ में साठ’ की मुहीम छेड़ी तो कांशीराम ने ‘जिसकी जितनी संख्या  भारी उसकी उतनी भागीदारी’ का नारा बुलंद किया . इसी का परिणाम था कि उत्तर प्रदेश  की राजनीतिक सत्ता का पिरामिड पलट गया . उच्च सवर्ण के   इस राजनीतिक  पराभव और हाशिये के दलित- शूद्र बहुजन समाज की जनतंत्र में इस  हिस्सेदारी को उचित ही ‘सायलेन्ट रिवाल्युशन’ के रूप में दर्ज किया गया . सत्ता के शीर्ष पर पिछड़े और दलितों का नेतृत्व काबिज हुआ .लेकिन अफ़सोस कि अंततः वही हुआ जिसके विरुद्ध डॉ.लोहिया ने स्पष्ट चेतावनी दी थी . उनकी  आशंका थी कि   जनतंत्र में संख्यात्मक भागीदारी की  इस नीति के फल को सैकड़ों छोटी जातियों के बीच बांटे बिना वृहत्काय अहीर और चमार(जाटव) जातियां खुद ही चट कर सकती हैं ,जिसका नतीजा होगा कि ब्राह्मण और चमार तो अपनी  जगहें बदल लेंगें पर जाति वैसे ही बनी रहेगी .   आज गैर-यादव पिछड़ों और गैर-जाटव दलितों के मुलायम सिंह यादव और मायावती के नेतृत्व से बढ़ते अलगाव की  शिनाख्त भी इस राजनीतिक परिघटना से की जा  सकती है .
       यह वास्तव में विडंबनात्मक है कि उत्तर प्रदेश के वर्तमान पिछड़ा और दलित नेतृत्व ने   पिछड़ों व दलितों की जमीनी  एकता सुनिश्चित  करने के बजाय वोट की राजनीति के लिए जिस ‘सोशल इन्जीनियरिंग’ को हथकंडे के रूप में अपनाया वह उसी ‘ब्राह्मणवाद’ की  पुनर्प्रतिष्ठा थी जिसके विरुद्ध पिछड़ों और दलितों को लामबंद होना था .यह महज परशुराम जयन्ती के सरकारी  अवकाश तक सीमित न रहकर  बसपा सरकार द्वारा अनुसूचितजाति अत्याचार निरोधक क़ानून को शिथिल किये जाने से लेकर  सपा सरकार द्वारा पिछड़ों के लिए पदोन्नति में आरक्षण के विरोध तक विस्तृत हो गया .  समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के बैनर तले सवर्णवाद  की इस  विषबेल का पनपना  सामाजिक परिवर्तन के संकल्प को तिलांजलि देना है . चिंता की बात यह भी है कि ‘जाति तोड़ो’ की जगह ‘जाति जोड़ो’  का  यह चुनावी अवसरवाद  सवर्ण तुष्टिकरण  की जो पगडंडी अपना रहा है  वह   उंच नीच में बंटी पारम्परिक सामाजिक संरचना को प्रश्नांकित करने के  बजाय उसे वैधता प्रदान कर रहा है . यह अनायास नहीं है कि बहुजन समाज पार्टी ने उत्तर प्रदेश के लोकसभा चुनाव में इस बार ब्राह्मण उम्मीदवारों  को सर्वाधिक टिकट दिए हैं और एक भी दलित को अनारक्षित सीट से अपना उम्मीदवार नहीं  बनाया है . सपा ने तो दलित और पिछड़ा आयोग की तर्ज पर सवर्ण आयोग के गठन तक का वायदा अपने चुनावी घोषणापत्र में कर डाला है .
     यह वास्तव में गंभीर चिंता की बात है कि कांग्रेस की ‘राष्ट्रीय’ राजनीति की जिन अनुपस्थितियों  को बसपा और सपा ने  अपनी प्रभावी  हिस्सेदारी द्वारा संभव बनाया था वही अब  चुकने  के कगार पर है . दरअसल सवर्ण मुहावरे में पिछड़ों और दलिर्तों की राजनीति किये जाने के ये अनिवार्य दुष्परिणाम हैं . यही कारण है कि आगामी लोकसभा चुनाव को  सवर्ण समाज महज अपनी जनतांत्रिक भागीदारी  के रूप में ही नहीं बल्कि सवर्णवाद की वापसी के अवसर के रूप में भी देख रहा है . भारतीय बहुसंख्यक समाज में वर्णाश्रमी पितृसत्ता के पक्ष  और अल्पसंख्यक समाज के विरोध की एक सशक्त धारा हमेशा से मौजूद रही है . इसे न गांधी का  नायकत्व स्वीकार रहा है और न ही भारतीय संविधान का सामाजिक समानता का संकल्प. आंबेडकर का चिंतन तो इसके लिए अस्पर्श्य ही रहा है .  इसी बहुसंख्यकवाद के चलते बाबरी मस्जिद , गुजरात 2002 और ओडीसा के पादरी स्टेन्स की हत्या व कंधमाल जैसे हादसे संभव हो सके .  नरेन्द्र मोदी इस बहुसंख्यकवाद के नए  नायक हैं . सवर्ण युग की वापसी, अपमान का बदला , पशुधन बनाम पशुहत्या ,पिंक रेवाल्युशन  एवं काशी को बौद्धिक राजधानी बनाने की गर्जना  भारतीय जनतंत्र के लिए अच्छी खबर नहीं है . अफ़सोस यह कि गुजरात के बाद उत्तर प्रदेश को बहुसंख्यकवाद की प्रयोगशाला बनाने के इन  मंसूबों को जिन ताकतों द्वारा चुनौती दी जानी थी वे ‘कांख भी दबी रहे और मुट्ठी भी तनी रहे’ कि    समर्पणकारी मुद्रा के चलते अपनी विश्वसनीयता खो चुके हैं . ‘राष्ट्रीयता’ के पराभव  से लेकर ‘बहुसंख्यकवाद’ के उभार  तक का   उत्तरप्रदेश की राजनीति का यह सफ़र सचमुच स्तब्द्धकारी है .
संपर्क : 09415371872.

       
             

Tuesday, 16 May 2017


                                                        दर्शनशास्त्र पर विशेष

जनता का डाक्टर: जिसने विभेद से भरे हुए समाज का इलाज भी जरुरी समझा

 सुनील यादव  डाक्टर शब्द का का नाम आते ही एक ऐसे प्रोफेसनल व्यक्ति का अक्स उभरता है जो खुद के लिए बना हो. चिकित्सा के क्षेत्र में चिकित्सक क...