उर्मिलेश
गुजरात अब सिर्फ हिन्दुत्ववादियों की राजनीतिक प्रयोगशाला ही नहीं
रही, वहां कुछ बिल्कुल नये राजनीतिक प्रयोग हो रहे हैं। इसमें सबसे उल्लेखनीय है,
दलित-नेतृत्व में उभरती शूद्र-अल्पसंख्यक एकता। इसे नये कंटेट की बहुजन-एकता भी कह
सकते हैं। वैसे तो अपेक्षाकृत समृद्ध इस तटीय राज्य में दलितों की आबादी कई अन्य
राज्यों और देश में औसत दलित आबादी के मुकाबले कम है। पर उन्होंने
हिन्दुत्ववादियों और अन्य उत्पीड़कों द्वारा ढाये जुल्मोसितम के खिलाफ अपने ताकतवर
प्रतिरोध से पूरे देश का ध्यान आकृष्ट किया है।
एक समय, डा. भीमराव आंबेडकर के विचारों की रोशनी में दलित-बहुजन को
संगठित करने की जोरदार कोशिश कांशीराम ने की थी। पहले बामसेफ के मंच से और बाद मे
बहुजन समाज पार्टी के मंच से। पर कुछ बरस बाद ही दलित-बहुजन नवजागरण और आंदोलन की
वह धारा चुनावी-राजनीति तक सीमित होकर हो गयी। वह बड़े सामाजिक-राजनीतिक और आर्थिक
बदलाव की मशाल नहीं बन सकी। उत्तर प्रदेश में दलितों-पिछड़ों यानी बहुजन के बीच
जिस तरह का विभाजन हुआ, उसने पूरे देश के बहुजन-आंदोलन को प्रभावित किया। इसके
लिये मुलायम सिंह यादव जैसे फर्जी समाजवादी और बसपा नेतृत्व में हावी जिद्दी और
दूरदृष्टिविहीन लोग जिम्मेदार थे। तब से गंगा-यमुना और साबरमती-कृष्णा-गोदावरी में
काफी पानी बह चुका है। हैदराबाद में भयावह किस्म के उत्पीड़न के शिकार रोहित
वेमुला की आत्महत्या और गुजरात सहित देश के विभिन्न हिस्सों में हिन्दुत्ववादी
गौररक्षकों के नृशंस हमलों ने देश के बहुजन को नये ढंग से सोचने के लिये बाध्य
किया। इसमें दलितों-पिछड़ों-अल्पसंख्यकों की युवा पीढ़ी का सबसे अहम योगदान रहा।
गुजरात आज इस नये राजनीतिक विचार का बड़ा केंद्र बनता जा रहा है। क्या गुजरात के
उना से उठी दलित-चेतना की नई लहर पूरे देश में दलित-बहुजन आंदोलन की मशाल बनने
वाली है?
इस नयी दलित चेतना में कई नये आयाम हैं। पहली बात तो यह कि इसमें अपने
आंदोलन और जनजागरण के दायरे को व्यापक किया है। अहमदाबाद और उना की रैलियां हों या
उनका दलित अस्मिता मार्च हो या अन्य कार्यक्रम, इन सब में किसी सार्वजनिक घोषणा के
बगैर हर जगह व्यापक बहुजन या शूद्र एकता(दलित-पिछड़े और अन्य उत्पीड़ित) की कोशिश
दिखाई दे रही है। अभी हाल ही में उना की रैली में दलितों के साथ भारी संख्या में
मुस्लिम हिस्सेदारी देखी गई। बहुजन एकता का यह बिल्कुल नया आयाम है। कांशी राम की
बहुजन समाज पार्टी के अभ्युदय के समय भी ऐसा नहीं देखा गया था। गुजरात के इन
कार्यक्रमों में पिछड़े वर्ग(ओबीसी) के लोगों की मौजूदगी भी दिखी। वह अपेक्षाकृत
कम थी पर उनकी हिस्सेदारी अपने आप में नया संकेत है। सिर्फ गुजरात ही नहीं,
महाराष्ट्र और आंध्र-तेलंगाना के दलित-पिछड़े संगठनों के लोग भी इसमें शामिल होने
आये थे। दिवंगत रोहित वेमुला की मां राधिका वेमुला और उनके भाई भी इस रैली में
शामिल थे। यही नहीं, मंच पर जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्रसंघ अध्यक्ष
कन्हैया कुमार मौजूद थे, जिन्हें केंद्र सरकार, संघ परिवार और दिल्ली पुलिस
देशद्रोही साबित करने मे जुटे हुए हैं। कुमार बिहार के एक बेहद सामान्य पृष्ठभूमि
के सवर्ण परिवार से आते हैं। इससे दलित अस्मिता मार्च के आयोजकों की व्यापक दृष्टि
का संकेत मिलता है। उन्हें पहले के कई दलित अभियानों या संगठनों की तरह अपने
आंदोलन के साथ सवर्ण समुदाय के प्रगतिशील तबकों को भी जोड़ने में कोई हिचक नहीं
है। इससे पहले बहुजन समाज पार्टी या अन्य दलित संगठनों के लोग सवर्ण समुदाय के
प्रगतिशील हिस्सों को जोड़ने में इस तरह का उत्साह नहीं दिखाते थे।
इस दलित अस्मिता जागरण का दूसरा महत्वपूर्ण आयाम है, इसके मंच से जमीन
का सवाल उठाया जाना। हर दलित परिवार को 5 एकड़ जमीन देने की मांग रखी गयी है। साथ
में यह भी कहा गया है कि सरकार ने एक महीने के अंदर इसका बंदोबस्त नहीं किया तो
आंदोलन का अगला कदम होगा रेल का चक्का जाम करना। एक अंतराल के बाद दलित आंदोलन के
एजेंडे में जमीन हासिल करने जैसा आर्थिक एजेंडा शामिल हुआ है। अब तक इस तरह की
मांग आमतौर पर वामपंथी संगठन करते रहे हैं, जो अब केरल और त्रिपुरा छोड़ पूरे देश
में सिमटते नजर आ रहे हैं। यह राजनीतिक सोच भी इस आंदोलन को पहले के कई दलित
आंदोलनों और अभियानों के बीच विशिष्ट बनाती है। ज्यादातर दलित संगठन अपने अभियानों
को दलित-अधिकारिता और उत्पीड़न-प्रतिरोध के मुद्दे पर ही केंद्रित करते रहे हैं।
वे आर्थिक मुद्दों को उतनी तवज्जो नहीं देते रहे हैं। ऐसा लगता है, इस दलित अभियान
के संयोजक जिग्नेश मेवानी अपने आंदोलन को सामाजिक के साथ आर्थिक मुद्दों से भी
जोड़ने के प्रति सचेष्ट हैं। वह एक पढ़े-लिखे दलित कार्यकर्ता हैं। उनके एक-एक कदम
फिलहाल बहुत सुचिंतित और समझदारी भरे दिख रहे हैं।
गुजरात जैसे सूबे में दलित-मुस्लिम भाई-भाई का नारा लगना और रैली में
दोनों समुदायों के लोगों का साथ-साथ चलना, सिर्फ गुजरात के लिये पूरे देश के लिये
सर्वथा नयी परिघटना है। संघ-संपोषित सवर्णवादी हिन्दुत्ववादियों के हमलों के दोनों
शिकार होते रहे हैं। लेकिन पहले इस तरह वे कभी एक मंच और साझा अभियान में साथ नहीं
नजर आये। हमारी जानकारी है कि जिग्नेश मेवानी और उऩकी टीम ने इसके लिये बड़े
नियोजित ढंग से काम किया। टीम के सदस्यों ने अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग समुदाय के
नुमायंदों से व्यापक एकजुटता के लिये बातचीत की। उत्तर भारत मे इस तरह की गोलबंदी
सिर्फ चुनाव में वोट हासिल करने के लिये कुछ पार्टियां या संगठन करते रहे हैं। पर
व्यापक राजनीतिक-सामाजिक आंदोलन या जागरण के लिये ऐसा प्रयोग बिल्कुल नया है।
भारतीय राजनीति की विडम्बना रही कि यहां सभी दलों ने माना कि दलित
सबसे ज्यादा उत्पीड़ित हैं, सबसे ज्यादा गरीब और बेहाल भी वही हैं, लेकिन उन्होंने
इनके लिये अलग से ठोस एजेंडा नहीं तलाशा। बड़े या मुख्यधारा के राजनीतिक दलों
द्वारा जब कभी इन समुदायों के लिये अभियान चलाये गये, उन अभियानों का राजनीतिक
नेतृत्व आमतौर पर गैर-दलित, प्रमुखतः सवर्ण समुदाय से आये नेताओं ने किया। आजादी
के बाद लंबे समय तक यह सिलसिला जारी रहा। लेकिन कांशीराम की बहुजन समाज पार्टी के
अभ्युदय के बाद कम से कम उत्तर प्रदेश जैसे सूबे में यह सिलसिला पूरी तरह थम गया।
कई अन्य प्रदेशों में भी छोटे-मझोले दलित-बहुजन संगठन उभरते नजर आये। लेकिन
ज्यादातर दलित संगठनों या दलों में दलितों के अलावा अन्य समुदायों का हिस्सेदारी
ज्यादा नहीं है। महाराष्ट्र में रिपब्लिकन पार्टी या दलित पैंथर्स की विफलता का
यही प्रमुख कारण था। उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी ने बाद के दिनों में अन्य
समुदायों को भी अपने दायरे में लाया। पर ‘सर्वजन’ की उसकी राजनीति अंततः चुनावी मकसद तक सीमित
रही। इसके चलते बहुजन आंदोलन और संगठन का कंटेट ही विलुप्त होता नजर आया। कांशीराम
के निधन के बाद बसपा के वैचारिक पतन का यह सिलसिला और तेज हो गया।
ऐसे दौर में उना के
दलित-प्रतिरोध से सिर्फ एक नया दलित उभार ही नहीं पैदा हुआ है, यह दलित जागरण को
नया कंटेट भी देता नजर आ रहा है। दलित-बहुजन समाज और संपूर्ण भारत के लिये आज यह
बड़ा सवाल है, क्या यह अभियान देश मे व्यापक शूद्र-एकता का आधार बन सकता है? अगर एक नये तरह की शूद्र एकता को जमीन मिलती है
तो भारत का अल्पसंख्यक उसके साथ स्वतः जुड़ेगा। इसका संकेत हमें गुजरात में दिख
चुका है। ठोस राजनीतिक एजेंडे पर आधारित इस तरह की जन-एकता अगर देशव्यापी आकार
लेती है तो निस्संदेह वह देश में बड़े सामाजिक-राजनीतिक बदलाव का आधार बनेगी। तब
देश की संसदीय राजनीति के मौजूदा समीकरण भी बदलेंगे। सामाजिक-राजनीतिक संरचना के
लिये वह बड़ी चुनौती होगी। सार्थक और ऐतिहासिक चुनौती।
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