उर्मिलेश
हर साल अगस्त आते ही आजादी की याद आने
लगती है। पर आजादी के सत्तरवें साल में प्रवेश करते हुए क्या हम यकीन के साथ कह
सकते हैं कि आजाद होते देश ने ‘नियति
के साथ जो वादा’ किया, वह सही दिशा में है! गरीबी हटाने, शोषण-उत्पीड़न
खत्म करने, सबको शिक्षित व सेहतमंद बनाने और
सेक्युलर-लोकतांत्रिक समाज गठित करने का सपना क्यों नहीं पूरा हुआ! औपनिवेशक दासता, राजशाही या गृहयुद्धों से मुक्त हुए
कुछ देश हमसे भी बुरी हालत में हैं पर कई हमसे बहुत अच्छी स्थिति में हैं। इन
देशों ने जिस तरह की आर्थिक प्रगति और मानव विकास सूचकांक, खासकर शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र
में उछाल हासिल किया, उसके आगे हम कहीं नहीं ठहरते। इसका
सीधा मतलब है कि जन सरोकार के बड़े मुद्दे हमारे शासकों की प्राथमिकता नहीं बने।
हमने अवाम के बदले अभिजन को केंद्र में रखा, ठोस
मसलों के बजाय ‘वोट-बटोरू मुद्दों’ पर जोर दिया। यह सिर्फ किसी एक व्यक्ति, एक दल या एक सरकार की बात नहीं,य़ह हमारा राष्ट्रीय स्वभाव बन गया।
क्या यह आश्चर्यजनक नहीं कि आजकल
ज्यादातर नेता जनता के बीच काम करके नहीं, टीवी
पर्दे पर चीख-पुकार से बनते हैं! कुछ ‘राष्ट्रवादी
संगठनों’ की अपनी-अपनी ‘निजी सेनाएं’ सक्रिय हैं, जो कभी ‘गो-रक्षा’ के नाम पर तो कभी अंतरजातीय-अंतरधर्मीय
प्रेम या विवाह रोकने के नाम पर ‘लव-जिहाद
विरोधी’ हथियारबंद अभियान चलाती हैं। ठोस
एजेंडा और वैकल्पिक मॉडल-विहीन विपक्ष उसके निष्किय निन्दा-अभियान में जुटता है।
ऐसे में ‘सर्वजन हिताय’, ‘सामाजिक न्याय’ या ‘सबका साथ-सबका विकास’ को
जमीनी असलियत बनाना कैसे संभव है! लोकतंत्र को अंगीकार करने के बावजूद
सामंती-औपनिवेशक दौर की हमारी संकीर्णताएं-कुंठाएं हमारे समाज में रची-बसी हैं। इन
सबके साथ हम तरक्की का रास्ता तलाश रहे हैं। शिक्षा और जन-स्वास्थ्य का मौजूदा
परिदृश्य हमारी भटकी प्राथमिकताओं का सबसे बड़ा उदाहरण है। दोनों क्षेत्रों के
निजीकरण की तेज रफ्तार ने हमें आतंकवाद या उग्रवाद से भी ज्यादा क्षति पहुंचाई है।
विश्वबैंक-आईएमएफ-अमेरिका की सिफारिश पर हम जीएसटी लागू कराने या तमाम सेक्टरों
में सौ फीसदी एफडीआई के लिये बैचैन हैं। लेकिन जन-स्वास्थ्य पर सरकारी खर्च बढ़ाने
की विश्व स्वास्थ्य संगठन की सिफारिश हरगिज नहीं मानते! स्वास्थ्य का मुद्दा सिर्फ
किसी व्यक्ति की जिन्दगी से जुड़ा नहीं है, वह
उसके पूरे परिवार और इस तरह देश की आर्थिक तरक्की से भी जुड़ा है। गंभीर बीमारी के
चलते किसी व्यक्ति का खाता-पीता मध्यवर्गीय या निम्न मध्यवर्गीय परिवार अचानक
गरीबी रेखा के नीचे खिसक जाता है।
आईआईटी-एमबीए के संस्थानों और ‘जेएनयू या टिस’ जैसे प्रतिष्ठित शिक्षा केंद्रों के
बावजूद प्राथमिक और उच्च शिक्षा के क्षेत्र में हम लगातार पिछड़ रहे हैं।
आविष्कार-इनोवेशन क्षेत्र में हम कहां हैं? इन
सवालों पर विचार करने के बजाय देश के कुछ गिने-चुने प्रतिष्ठित शिक्षा केंद्रों को
प्राचीन-शैली के गुरूकुलों जैसा बनाने की बात चल रही है! अंतरराष्ट्रीय मानक पर
पहले से पिछड़े हमारे संस्थान फिर कहां ठहरेंगे? आखिर ‘सुधार’ का यह कैसा राजनीतिक-अर्थशास्त्र है, जिसमें हमारी शिक्षा, स्वास्थ्य
और रोजगार का इतना बुरा हाल हो रहा है? क्या
ये तथ्य हमारी भटकी प्राथमिकताओं के ठोस सबूत नहीं हैं? जन-मुद्दों की यहां मैं लंबी-चौड़ी
फेहरिश्त पेश नहीं करना चाहता। सिर्फ एक छोटा उदाहरण। क्या लोगों को यह बात नहीं
मालूम कि बुलेट ट्रेनों से ज्यादा जरूरी हैं-समय से चलने वाली ज्यादा से ज्यादा
रेलें, ज्यादा बर्थ, लाइनों का विस्तार, 12000 से ज्यादा जोखिम भरी रेलवे क्रांसिंग
पर ओवरब्रिज, अंडरपास या आटोमेटिक रेलवेगेट। पर
सरकार की प्राथमिकता कई लाख करोड़ रुपये की लागत वाली मुम्बई-अहमदाबाद बुलेट ट्रेन, दिल्ली-आगरा जैसे शहरों के बीच स्पीड
ट्रेन, मोनो ट्रेन या अनेक बड़े-मझोले शहरों
में मेट्रो चलाने पर है। मैं रेलवे के आधुनिकीकरण की सारी परियोजनाओं के खिलाफ
नहीं हूं। लेकिन जिस देश में सिर्फ 60 हजार
करोड़ खर्च करके असुरक्षित रेलवे-क्रांसिंग को सुरक्षित बनाया जा सकता है, वहां प्राथमिकता किसे मिलनी चाहिये? कुछ सौ करोड़ से हजारों की संख्या में
रेल-बर्थ बढ़ सकते हैं। फिर लाख करोड़ वाली बुलेट ट्रेन क्या बाद में नहीं दौड़
सकती?
इन दिनों स्मार्ट सिटी की बात हो रही
है, स्मार्ट विलेज की क्यों नहीं? बजट देखिये तो 100 करोड़। क्या 100 करोड़ से एक स्मार्ट सिटी बनता है? स्वच्छता अभियान की बात हो रही है पर
सफाई में लगे लोगों का जीवन नारकीय बना हुआ है। आजादी के बाद भी सफाई की
जिम्मेदारी समाज के खास ‘निम्नवर्णीय’ हिस्से की ही क्यों है? प्रति वर्ष 100 से अधिक सफाईकर्मी गटर या मेनहोल में
गिरकर या उससे निकलती गैसों के शिकार होते हैं। क्या दुनिया के किसी अन्य बड़े
मुल्क में ऐसा होता है? दुनिया के किस मुल्क में मरी गाय की चमड़ी निकालने वाले लोगों को कुछ
लोग गौरक्षा के नाम पर पीटते या उनकी जान लेते हैं? बेरोजगार और निराश युवाओं के लिये एक और अभियान जारी है।
सांप्रदायिकता, जातिवाद, टीवी चैनलों के झूठ-मक्कारी भरे रियल्टी शो और कथित मनोरंजन के फूहड़
कार्यक्रमों के मेल से युवाओं को खास तरह की ‘आक्रामक
भीड़’ में तब्दील किया जा रहा है।
इसमें शायद ही किसी को संदेह हो कि
शासन लगातार कारपोरेट-हितों की तरफ झुकता गया है। इसके लिये अब वह खुले तौर पर
दलील भी देता है कि गरीबी-बेरोजगारी जैसी समस्याओं का समाधान कारपोरेट के ‘विस्तार-विकास’ से हो सकेगा। सरकारों को किसी तरह के
कारोबार में नहीं उतरना चाहिये, यह
काम कारपोरेट का है। सवाल उठता है, इन
कारपोरेट-घरानों में कितनों के पास अपने विकास के अलावा देश के सामाजिक-आर्थिक
विकास का कोई मॉडल या सोच भी है? इस
दौर में अमीर लोगों का एक समूह इस कदर अमीर बना कि इनमें कुछ दुनिया के शीर्ष
अमीरों की सूची में स्थायी तौर पर दर्ज हैं। भारतीय गरीबी के दूर तक फैले
रेगिस्तान में वे हरे-भरे नखलिस्तान जैसे लगते हैं। नेशनल सैंपल सर्वे
संगठन(एनएसएसओ) के ताजा आंकड़े भी बताते हैं कि ‘सुधारों’ के दौर में अमीरी-गरीबी के बीच खाई
तेजी से बढ़ रही है। इस बड़ी समस्या को संबोधित करने के बजाय हमारे शासकों का
एजेंडा ही अलग है। वे देश के तेजी से फैलते विशाल मध्यवर्ग को देखकर मुग्ध हैं।
आर्थिक सुधारों का सबसे अधिक फायदा अगर कारपोरेट के बाद किसी को मिला तो वह शहरी
उच्च और मध्यवर्ग ही है। इसका बड़ा हिस्सा उच्चवर्णीय है। शासक-योजनाकारों को लगता
है, यही वर्ग उनका असल संकटमोचक है। किसी
तरह के गुणात्मक बदलाव की राजनीति या बड़े जन आंदोलन को भी यही मध्यवर्ग रोकेगा।
इनके आर्थिक और योजना सलाहकार बता रहे हैं कि उच्च विकास-दर बनाए रखने के लिए
प्रत्यक्ष विदेशी निवेश(एफडीआई) लाने जैसी पहल की जरूरत है। उच्च विकास दर का
फायदा अंततः नीचे तक जाएगा(ट्रिकल डाउन थिउरी) और गरीबी अपने आप खत्म हो जाएगी।
आखिर हम विश्वबैंक-आईएमएफ के इस ‘टपकन(ट्रिकल
डाउन) सिद्धांत’ में क्यों यकीन कर रहे हैं, जब कि दुनिया के अनेक विकासशील देशों
में इसकी पोल खुल चुकी है!
मुझे लगता है, समय गंवाए बगैर राजनीति और गवर्नेंस की
कार्यदिशा में जरूरी बदलाव नहीं हुआ तो आगे का वक्त हमारे समाज के लिए तूफानी और
खतरनाक साबित हो सकता है। दुखद है कि हमारे शासकों के पास बदलाव की कोई रणनीति
नहीं है। डा. आंबेडकर ने बहुत पहले आगाह किया था, ‘26 जनवरी,
1950 को हम
अंतविर्रोधों के जीवन में दाखिल होने जा रहे हैं। राजनीति के स्तर पर तो हमारे
समाज में समानता होगी लेकिन सामाजिक और आर्थिक जीवन में असमानता होगी। राजनीति में
‘एक व्यक्ति-एक वोट-एक हैसियत’ का सिद्धांत लागू रहेगा लेकिन सामाजिक-आर्थिक
जीवन में ‘एक व्यक्ति-एक वोट-एक हैसियत’ के सिद्धांत को नजरंदाज किया जाता
रहेगा। हमें अपने समाज के इस अंतविर्रोध को जल्दी से जल्दी खत्म करना होगा। अगर
ऐसा नहीं किया गया तो जो लोग असमानता के शिकार हैं, एक दिन वे लोकतंत्र की ऐसी संचरना को ध्वस्त करने में जुटेंगे।’ विडम्बना यह है कि हमारे योजनाकारों और
नेताओं ने डा.आंबेडकर के इस महत्वपूर्ण आह्वान को भुला दिया। ऐसे में सवाल उठना
स्वाभाविक है, कैसा देश बना रहे हैं हम? किधर जा रहा है देश?
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कार्यकारी संपादक हैं और स्तम्भकार हैं)
31,जुलाई,16
महानुभाव, हमारे खेत में ऐसी घास उग आई है कि जिस भी फसल को लगाता-उगाता हूॅं, वह बहुत कमजोर हो जाती है और वह अवांछित घास दिन - दूना, रात - चौगुना बढ़ जाती है। कोई भी कृषि वैज्ञानिक या कृषि विश्व विद्यालय पिछले 8000 हजार साल से उस विषाक्त घास का कोई सार्थक निदान नहीं ढ़ूढ़ पाया। पिछले 2500 साल पहले एक वैज्ञानिक हिमालय की तराई में पैदा हुआ था। उन्होंने कुछ ऐसे उपाय खोज निकाला था जिसके प्रयोग से उक्त विषाक्त घास की वृद्धि रुक गई थी। लेकिन उक्त विषाक्त घास ने अपना प्रभाव ऐसा दिखाया कि करीब 1500 साल में ही उस वैज्ञानिक की खोज हिमालय के दक्षिणी भूभाग से लुप्तप्राय होकर विश्व-व्यापी फैल गई। वह विषाक्त घास अस भूभाग के सभी प्रजाति के जानवरों,जीव-जन्तुओं पर अपना कुप्रभाव डाल रही है।
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