Sunday 18 October 2015

असंगति और अंतर्विरोध का जटिल चेहरा



उर्मिलेश

एक लोकतांत्रिक समाज में लोग अपने आचार-विचार और भूमिका आदि बदलने के लिये स्वतंत्र होते हैं। पर समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव ने बीते दो दशकों में जिस पैमाने पर अपनी भूमिका, अपने फैसले और पैंतरे बदले हैं, वह हैरतंगेज है। उनके इन कारनामों ने उन्हें जितना महत्वपूर्ण  बनाया, उससे ज्यादा विवादास्पद। बदमानी की हद छूते इन विवादों के बावजूद वह राष्ट्रीय राजनीति में लगातार बने रहे हैं। बीते पचास सालों से वह अपने को समाजवादी कहते आ रहे हैं पर बड़े उद्योगपतियों-धनपतियों से अपने कामकाजी और सियासी रिश्ते उन्होंने कभी छुपाये नहीं। वह अपने को सामाजिक न्यायवादी कहते हैं पर इस वक्त सपा के सारे सांसद उनके अपने परिवार से हैं। मुसलमानों का समर्थन हासिल करने के लिये वह अपने को अमेरिकी साम्राज्यवाद का विरोधी बताते रहे पर न्यूक्लियर डील पर अमेरिका के सबसे बड़े मददगार बने। भाजपा-विरोध की राजनीति करते हुए वह यूपी में सेक्युलर सियासत का चेहरा बने लेकिन मौका आने पर वह भाजपा का समर्थन लेने और देने से भी पीछे नहीं हटे। कभी वह अपने को जनतादल परिवार की एकता के सूत्रधार के रूप में पेश करते हैं तो कुछ ही समय बाद उसके विध्वंसक बन जाते हैं। इस तरह वह राष्ट्रीय राजनीति में विरोधाभासों की बेमिसाल शख्सियत बनते गये हैं।
सत्ता, शक्ति और सम्पत्ति, तीनों उनके पास हैं। लेकिन उम्र के इस पड़ाव पर उनकी सियासत लगातार दयनीय दिख रही है। आखिर मुलायम के साथ ऐसा क्या और क्यों है? अस्सी दशक के बाद भी कुछ बरसों तक मुलायम की एक जुझारू और संघर्षशील नेता की छवि थी। यही कारण है कि चौधरी चरण सिंह के निधन के बाद मध्यमार्गी लोकदली-जनता दली राजनीति में उनका सिक्का जम गया। कामयाबी उनका पीछा करती रही और समय-समय पर उन्हें पद और प्रतिष्ठा मिलती गयी। तीन बार यूपी के मुख्यमंत्री और एक बार देश के रक्षामंत्री बने। एक समय तो लगा कि वह प्रधानमंत्री भी बन जायेंगे। उस दौर में वामपंथी नेता भी सरकार का नेतृत्व करने के लिये उन्हें सबसे भरोसेमंद मानते थे। लेकिन जिस तरह उन्होंने अप्रैल,1999 में वाजपेयी सरकार गिरने के बाद वैकल्पिक सरकार बनाने के कांग्रेसी प्रयासों को ऐन मौके पर पंचर किया, ठीक उसी तरह कुछ जनतादली समूहों ने मुलायम के प्रधानमंत्री बनने के रास्ते में रातोंरात रोड़ा अटकाया। सितम्बर, 2003 में वह यूपी जैसे बड़े सूबे के तीसरी बार मुख्यमंत्री बने। बहुमत नहीं था पर जुगाड़ हो गया। उन दिनों भाजपा के तत्कालीन बड़े नेता केसरी नाथ त्रिपाठी विधानसभा के स्पीकर थे। केंद्र में वाजपेयी-नीत एनडीए सरकार थी। संसदभवन से कुछ ही दूरी पर तत्कालीन पार्टी महासचिव अमर सिंह का दफ्तर था। उन दिनों वह सरकारी बंगला सपा सियासत का सदरमुकाम होता था। संसद के गलियारे और उक्त दफ्तर में यह आम चर्चा थी कि यह सरकार सपा के विधायकों की संख्या के बल पर नहीं, अमर-मुलायम और भाजपा के दो शीर्ष रणनीतिकारों की साझा पहल पर बनी है। दक्षिण दिल्ली के एक बंगले में डिनर की टेबुल पर सरकार गठन का सारा प्रबंधन हुआ। भाजपा ने समर्थन-वापस लेकर मायावती की सरकार गिरा दी थी। वह तत्काल चुनाव नहीं चाहती थी, इसलिये मुलायम सरकार का रास्ता साफ हुआ। कुछ ही दिनों बाद लखनऊ में सपा ने एक बड़ा सम्मेलन किया। उसमें मुलायम ने अमर की भूरि-भूरि प्रशंसा की और कहा कि उनकी पार्टी में अमर सिंह जैसे दो-तीन और लोग हो जायं तो उन्हें प्रधानमंत्री बनने से कोई रोक नहीं सकता। उन्हीं दिनों मुलायम के अमिताभ बच्चन सहित कई सिने स्टारों और मुंबई स्थित बड़े औद्योगिक घरानों, खासकर अंबानी बंधुओं से दोस्ताना रिश्ते चर्चा का विषय बने। इटावा-मैनपुरी के गांवों-कस्बों में सायकिल से चलकर डा. लोहिया की समाजवादी राजनीति और फिर चौधरी चरण सिंह के अजगर के सामाजिक गठबंधन के इर्दगिर्द रहकर लोगों के बीच पैठ बनाने वाले मुलायम इस कदर बदले कि अपने अतीत की शिनाख्त भी उनके लिये मुश्किल सी हो गई। किसानों और गरीब नौजवानों का नेता कारपोरेट-घरानों, फिल्म स्टारों, देसी-विदेशी उद्योगपतियों के साथ संगति बिठाता नजर आया। ऐसे में भला उनकी सोच और सियासत क्यों नहीं बदलती!
जो लोग उनके हाल के विवादास्पद बयानों, बिहार में नीतीश-लालू गठबंधन के खिलाफ तीसरा मोर्चा खोलने या भाजपा के प्रति मुलायमियत दर्शाने पर चकित हैं, वे शायद बीते दो दशकों के दौरान मुलायम की सियासत के विभिन्न पड़ावों को विस्मृत कर रहे हैं। सिर्फ दो-तीन अहम पड़ावों का जिक्र करना ही पर्याप्त होगा। ज्यादा पुरानी बात नहीं। सन 2008 में मुलायम ने ओमप्रकाश चौटाला के इनेलोद, वृन्दाबन गोस्वामी के एजीपी, चंद्रबाबू नाय़डू के टीडीपी और कुछ अन्य दलों को मिलाकर यूएनपीए नाम से एक नया मोर्चा बनाया। कुछ ही महीने बाद सिर्फ न्यूक्लियर डील के लिये उन्होंने इस मोर्चे को ध्वस्त कर दिया। सप्ताह भर पहले, यूएनपीए ने न्यूक्लियर डील मुद्दे पर मनमोहन सरकार के खिलाफ आंदोलन चलाने का फैसला किया था। यूपी में स्वयं सपा ने आंदोलन छेड़ा। लेकिन रातोंरात न जाने क्या हुआ कि मुलायम-अमर की जोड़ी ने फैसला पलट दिया, कहा-अब उनकी पार्टी न्यूक्लियर डील का संसद में समर्थन करेगी। रातोंरात पलटने के पीछे मुलायम ने बड़ा कारण बताया-पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम की सलाह को। हालांकि दिल्ली के सियासी गलियारे में यह भी चर्चा थी कि सरकार ने उन्हें सीबीआई जांच के नाम पर डराया और बड़े कारपोरेट घरानों ने अमेरिका के नाम पर पटाया। भाजपा सहित तब के कई विपक्षियों ने इसके पीछे कांग्रेस ब्यूरो आफ इन्वेस्टीगेशन(सीबीआई का यह व्यंग्यात्मक नामकरण भाजपा ने किय़ा था) का हाथ बताया। दूसरा उदाहरण तो और भी ताजा है। 2012 के राष्ट्रपति चुनाव के समय तृणमूल नेत्री ममता बनर्जी ने मुलायम और अन्य नेताओं के साथ मिलकर नयी मोर्चेबंदी की। फैसला हुआ कि राष्ट्रपति चुनाव में वे कांग्रेस प्रत्याशी का समर्थन न करके अब्दुल कलाम को फिर से मैदान में उतारेंगे। कांग्रेस ने प्रणव मुखर्जी को अपना प्रत्याशी बना दिया। इस बीच न जाने क्या हुआ कि मुलायम रातोंरात फिर पलट गये। उन्होंने ममता-नवीन आदि का साथ छोड़कर प्रणव को समर्थन देने का ऐलान किया। मजबूर होकर ममता को भी प्रणव का समर्थन करना पड़ा। तबसे ममता आज भी मुलायम के साथ सहज नहीं हो सकी हैं। तीसरा और सबसे ताजा उदाहरण है-संसद के पिछले सत्र में जारी गतिरोध के दौरान सपा की भूमिका। मुलायम ने भूमि अधिग्रहण से लेकर ललितगेट तक, अनेक मुद्दों पर विपक्षी-अभियान का हिस्सा बनने के बजाय या तो सरकार का साथ दिया या अपनी तटस्थता के जरिये भाजपा को मदद पहुंचाई। कांग्रेस सहित अन्य विपक्षियों ने इसके पीछे सेंट्रल भाजपा ब्यूरो(विपक्षियों द्वारा सीबीआई का नया व्यंग्यात्मक नामकरण) का हाथ बताना शुरू किय़ा। आज बिहार चुनाव में मुलायम की अगर भाजपा को प्रकारांतर से मदद करने की मंशा है तो यह कोई नयी बात नहीं। इस बार, कांग्रेस सहित अनेक विपक्षी दल इसके पीछे नोएडा के कुख्यात यादव सिंह प्रकरण की सीबीआई जांच को अहम कारण बता रहे हैं, जिसमें मुलायम के कुछ भाई-भतीजों की संलिप्तता बताई जाती है। बहरहाल, कारण जो भी हों, इस बात को शायद ही कोई नजरंदाज करे कि मुलायम आज अपने बेटे अखिलेश के लिये सियासी मुश्किलों का पहाड़ खड़ा कर रहे हैं और स्वयं अपने को आधुनिक राजनीतिक इतिहास में सर्वाधिक गैर-भरोसेमंद और विरोधाभासी राजनेता के तौर पर दर्ज कर रहे हैं।
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15 अक्तबूर,15
urmilesh218@gmail.com       
प्रभात खबरः 14 अक्तूबर,15

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