प्रतिभा यादव
[प्रतिभा
जी के लेखनी की एक खास विशेषता है मौलिकता। ...बेहद मौलिक। जब वे अपने कड़वे अनुभवों को रचना के रूप में रूपांतरित
करती हैं तो वह एक स्त्री की चीख के रूप में सुनाई देता है, इसीलिए इनके लेखन के केंद्र में स्त्री
का दर्द और उसके अधिकार के लिए एक मुहिम दिखती है। इनके यहाँ याचना नहीं है बल्कि प्रतिरोध
की ताकत है पूरी तरह धड़कती हुई ...एम. ए. करते हुए अपने अनुभवों को साझा करना अपनी
ज़िम्मेदारी मानती हैं। इसे आप रचना माने या न माने क्या फर्क पड़ता है- मोडरेटर]
हमारे
छोटे कपड़े देखकर
तुम्हारे सब्र का बाँध टूट जाता है।
तुम्हारे
छोटे कपड़े देखकर
हम
तो कभी बेसब्र नहीं हुए।
तुम्हारा
इगो हर्ट होगा तो
तुम हम स्त्रियों में सीता - सती देखना चाहते
हो।
हमने तो कभी भी तुमसे कोई अपेक्षा नहीं की।
हमारे
वेस्टर्न कपड़ों से तुम्हारी संस्कृति लहूलुहान हो जाती है।
तुमने भी तो वेस्टर्न छोड़ कभी धोती कुर्ता नहीं
पहना?
तुम
अब भी चाहते हो कि हम सीता -सती सावित्री बने रहे।
आखिर
हम क्यों बने रहे सीता सती और लक्ष्मी टाइप के।
हमें अभी तक इनसे मिला क्या है?
हम तुम्हारे भोग की वस्तु रहे हैं।
तुमने
हमपर अत्याचार ही किया है
इस रूप में तुमने हमें इंसान माना ही कब है?
तुमने तो हमारी तुलना गाय से कर दी।
तब
पर भी तुम अब भी हम मे सीता सावित्री और लक्ष्मी को देखना चाहते हो।
वो भी इसलिए क्योंकि तुम्हारी संस्कृति लहूलुहान
हो रही है।
हम
क्या तुम्हारी संस्कृति का ठेका लेकर बैठे हैं?
आखिर
दिया क्या है तुम्हारी संस्कृति ने हमें.......????
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