Sunday, 12 July 2015

उदास कर गया अब्दुल्ला हुसैन का जाना



वीरेंद्र यादव


विगत 5 जुलाई को लाहौर में पाकिस्तान के मशहूर लेखक अब्दुला हुसैन का  निधन   सचमुच एक उदास कर देने वाली  खबर है.  भारत विभाजन पर केन्द्रित ‘उदास नस्लें’ उपन्यास के लेखक के रूप में उनकी विश्वव्यापी ख्याति  एक सुखद  परिघटना रही है.  मूलतः उर्दू में लिखित यह उपन्यास जब 1963 में ‘ दि वियरी जेनरेशन्स’ शीर्षक से अंगरेजी में प्रकाशित हुआ तो इससे जो नया  विभाजन-विमर्श शुरू  हुआ वह कमोबेश आज भी जारी है. बाद में तो यह हिन्दी सहित कई अन्य भाषाओँ में अब तक  प्रकाशित हो चुका है.  अब्दुला हुसैन  अविभाजित भारत के गुजरात में जन्में पले-बढे ऐसे लेखक थे जो विभाजन को महज राजनीतिक सन्दर्भों तक सीमित न कर इसे मानवीय अस्तित्व और त्रासदी के वृहत सन्दर्भों से जोड़ने के कायल थे. उर्दू में लिखने और पाकिस्तान के नागरिक होने के बावजूद अन्य पाकिस्तानी लेखकों की तरह उनका विभाजन विमर्श पाकिस्तान निर्माण  की औचित्य-सिद्धि  न होकर उस प्रक्रिया को समझने की ईमानदार कोशिश था ,  जिसने विभाजन को उसकी राजनीतिक परिणतियों तक पहुंचाया .लेकिन इसके बावजूद इस उपन्यास को आम पाठकों से लेकर पाकिस्तान के सत्ता प्रतिष्ठान तक से जो सहज स्वीकृति मिली वह अद्भुत  है. ‘उदास नस्लें’ के प्रकाशन वर्ष में ही इसे पाकिस्तान के सबसे बड़े ‘आदम जी अवार्ड’ से सम्मानित किया जाना पकिस्तान के साहित्यिक और राजनीतिक समाज के लिए एक महत्वपूर्ण  घटना थी . विशेषकर इसलिए कि अब्दुला हुसैन अपने शुरूवाती दौर से लेकर अंत तक कभी सत्ता प्रतिष्ठान के मुखापेक्षी नही रहे थे .  वे स्वभाव से इतने एकान्तिक और अंतर्मुखी प्रकृति के थे कि बरसों बरस इंग्लैंड में रहते  आजीविका के लिए एक पब –बार का संचालन करते हुए अपनी लेखकीय पहचान को गुमनाम बनाये रहे .उनकी बार में आने-जाने वाले कई नामी-गिरामी  लेखक भी उन्हें पब संचालक के ही रूप में बरसों बरस जानते रहे लेखक के रूप में नहीं. विगत  वर्षों  लाहौर अपनी वतन वापसी के बाद भी उन्होंने अपना यह मिज़ाज कायम रखा था .

दरअसल ‘उदास नस्लें’ के लेखक अब्दुला हुसैन के मिज़ाज की यह उदासीनता उनकी उस बौद्धिक निर्मिति का परिणाम थी जो उन्हें भीड़ और प्रभुत्ववादी सोच से एक साथ अलग करती थी . पाकिस्तान बनने का कारण हो या कश्मीर समस्या उनके अपने अलग तर्क थे . विभाजन के तुरंत बाद के  कश्मीर घटनाक्रम के लिए वे अकेले भारत को जिम्मेदार न मानकर पाकिस्तान को भी दोषी करार देते थे .जिस मजहबी बुनियाद पर पाकिस्तान का निर्माण हुआ था अब्दुला हुसैन उसे ही विभाजक शक्ति मानते थे .उनका दो टूक कहना था कि यह मिथक है कि धर्म लोगों को जोड़ता  है .सच है कि यह विभाजित  करता है  क्योंकि हर धर्म का आधार आत्म-औचित्य है . जहाँ वे मजहबी आधार पर पाकिस्तान के बनने को सही  नही   मानते थे  वहीं अखंड भारत में अल्पसंख्यकों की भाषा ,संस्कृति और नियति को लेकर भी आश्वत नही थे . उनकी यह धारा- विरुद्ध सोच ही उन्हें मौलिक और प्रतिष्ठान निरपेक्ष बनाती थी . यहाँ यह उल्लेख दिलचस्प होगा कि फील्ड मार्शल अयूब खान ने जब आथर्स गिल्ड की संस्तुति पर उन्हें ‘उदास नस्लें’ के लिए सम्मानित किया तो उनसे यह अपेक्षा भी कि वे कोई ‘कौमी नावेल’ भी लिखें. लेकिन सच तो यह है कि उन्हें पुरस्कृत किया जाना महज़ एक संयोग था क्योंकि ‘उदास नस्लें’  को प्रतिबंधित करने की मांग भी उन्ही दिनों कुछ प्रभावशाली लोगों द्वारा उठाई जा  रही थी . उनके दूसरे उपन्यास ‘बाघ’ पर भी जिया शासन के दौरान ‘खुदा’ विरोधी होने के आरोप में प्रतिबंधित किये जाने की कोशिशें हुयी थीं. सच तो यह है कि संकीर्ण धार्मिक और प्रतिष्ठानी  प्रतिबद्धताओं से मुक्त अब्दुला हुसैन का कथात्मक लेखन अन्याय के विरुद्ध न्याय के पक्ष में जिरह सरीखा था . वैसे यह जानना दिलचस्प है कि उनका लेखक बनना और ‘उदास नस्लें’ का लिखा जाना एक सुखद संयोग ही था .   फैक्ट्री की नौकरी ने यदि    समय काटने और बोरियत की समस्या  न पैदा की होती तो शायद वे लेखक ही न बनते . लेखक होकर भी लेखक होने के अहसास और गुरूर से मुक्ति के पीछे शायद उनकी  बेफिक्र और बेपरवाह शख्सियत का यही  पहलू था .  ’उदास नस्लें’ को भी वह एक संयोग मानते थे क्योंकि इसकी शुरुवात तो उन्होंने प्रेम कथा लिखने से की थी लेकिन अंततः वह विभाजन की क्लासिक गाथा बन गया.
     यहाँ यह उल्लेख जरूरी है कि ‘उदास नस्लें’ उपन्यास की कोई चर्चा कुर्रतुल ऐन हैदर  के उपन्यास ‘आग का दरिया’ के बिना अधूरी है. कारण  यह कि   ये दोनों उपन्यास इस तथ्य को शिद्दत के साथ रेखांकित करते हैं कि पाकिस्तान की मांग के पीछे वह मुस्लिम अभिजात वर्ग था जिसने अपने हितों को समूचे मुस्लिम समाज के हित का पर्याय बनाकर पाकिस्तान को एक अलग मुल्क बनाने  की मुहिम  में सफलता हासिल की थी . ये दोनों उपन्यास व्यापक फलक भी लिए हुए हैं. जहाँ ‘आग का दरिया’ में समूची भारतीय सांस्कृतिक पृष्ठभूमि समाहित है ,वहीं ‘उदास नस्लें’ 1857 , प्रथम विश्वयुद्ध और आजादी के आन्दोलन का विस्तार लिए हुए है. ‘उदास नस्लें’ का नईम  और ‘आग का दरिया’ की चंपा अहमद दोनों ही इतिहास के वात्याचक्र में फंसे ऐसे मानवीय चरित्र हैं जो वक्त के सैलाब में अपने अस्तित्व को विलयित करने के लिए अभिशप्त हैं. यह मात्र संयोग नही है कि ‘आग का दरिया’ के  कमाल की तरह  ‘उदास नस्लें’ का नईम  भी  वामपंथी नेशनलिस्ट होने के बावजूद अंततः पाकिस्तान के कारवां में शामिल हो जाता है. स्वीकार करना होगा कि ‘उदास नस्लें’ उपन्यास में अब्दुला हुसैन ने ‘पर्सनल’ को जिस तरह विभाजन की त्रासदी के साथ ‘पोलिटिकल’ बनाया है ,वह इसको क्लासिक ऊंचाईयों तक ले जाता है. यह सच है कि अब्दुला हुसैन की अन्य औपन्यासिक कृतियाँ ‘बाघ,’ ‘नादार लोग’, ‘कैद’ तथा कहानी संग्रह ‘नशेब’,’फरेब’  आदि  अनुपलब्ध होने के कारण  व्यापक पाठक समुदाय के बीच अपेक्षित लोकप्रियता न प्राप्त कर सकीं . लेकिन इस सच्चाई से समूचा साहित्य समाज एकमत है कि ‘उदास नस्लें’ निश्चित रूप से एक ऐसा कालजयी उपन्यास है जो अब्दुला हुसैन को सार्वकालिक और सार्वदेशिक बनाने के लिए पर्याप्त है. समूछे  भारतीय महाद्वीप का साहित्य समाज उनके न रहने से उचित ही वंचित महसूस कर रहा है. उन्हें आखिरी सलाम.
वीरेंद्र यादव ,सी -855, इंदिरा नगर, लखनऊ -226016.   मो. 09415371872’
EMAIL—virendralitt@gmail.com
(इस लेख को दैनिक भाष्कर के इस लिंक पर भी पढ़ा जा सकता है -http://epaper.bhaskar.com/magazine/rasrang/211/12072015/mpcg/1/)
 

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