Saturday, 9 May 2015

बहुजन समाज और साहित्य की मुख्यधारा



                                                   वीरेंद्र यादव



बहुजन साहित्य की चर्चा  के इस दौर में यह जानना सचमुच दिलचस्प है कि कैसी और कितनी रही है हिन्दी साहित्य की मुख्य धारा में बहुजन समाज की उपस्थिति ? यदि हिन्दी कथा-साहित्य को दृष्टिगत रखकर ही बात की जाय तो यह तथ्य महत्वपूर्ण है कि  हिन्दी कथा साहित्य के आधुनिक दौर की शुरुआत ही बहुजन समाज की केन्द्रीयता से हुयी है. याद कीजिये ‘गोदान’ के होरी महतो  , ‘प्रेमाश्रम’ के मनोहर व बलराज अहीर , ‘सवा सेर गेहूं’ के शंकर कुर्मी और ‘बाबा जी का भोग’  के रामधन अहीर , ‘बलिदान’ के गिरधारी ,’पूस की रात’ के हल्कू और ‘कर्मभूमि’ की उस  अहीरिन को जिसने अपनी इज्जत बचाने के लिए अंग्रेजी राज के   दो पुलिस सिपाहियों को  मौत के घाट उतार  दिया था .प्रेमचंद साहित्य में सिलिया ,हरखू, दुखी,,गंगी ,मुलिया ,सुखिया,और जोखू सरीखे जाने कितने दलित  पात्रों की उपस्थति से तो व्यापक हिन्दी पाठक वर्ग परिचित है ही .प्रेमचंद के कथालेखन की यह विशिष्टता थी कि वे बहुजन समाज के पात्रों को महज प्रसंगवश चित्रित न करके उनके समूचे सामाजिक परिप्रेक्ष्य और वर्णाश्रमी शोषण तंत्र के उत्पीड़ित के रूप में प्रस्तुत करते हैं. यह तथ्य भी महत्वपूर्ण है कि प्रेमचंद ने बहुजन सामाज के अधिकाँश  पात्रों  को उत्पीडित ही नही बल्कि प्रतिरोधी चेतना से युक्त भी किया है. ‘प्रेमाश्रम’ के दुखरन भगत द्वारा जमीन लीपने की बेगार से इनकार करने पर तहसीलदार उन्हें जूते से पिटवाता है और तर्क देता है कि बेगार करने वाले ये किसान ,    जात के अहीर, जुलाहे और कुर्मी हैं . तहसीलदार की इस दलील के प्रतिकार में प्रेमचंद उपन्यास के एक अन्य पात्र इरफ़ान से कहलाते हैं कि,  मगर ये सब काश्तकार हैं ,मजदूर नहीं ,उनसे आपको घास छिलवाने की क्या मजाल थी ?...  प्रेमचंद का एक दलित पात्र जो चमार समाज का चौधरी है विद्रोही तेवर अपनाते हुए ‘कायाकल्प’ उपन्यास में जमींदार को मुंहतोड़ जवाब देते हुए कहता है कि ...जब लात खाते थे, तब खाते थे .अब न खायेंगें....वह समय लद गया ..कि मार खाते रहें और मुंह न खोलें ?...
          प्रेमचंद के कथा-साहित्य में बहुजन समाज के पुरुष पात्र ही  नहीं ,बल्कि स्त्रियाँ भी प्रतिरोध की चेतना से युक्त है. ‘गोदान’ उपन्यास में ही धनिया के अतरिक्त झुनिया ,नोहरी, चुहिया ,सोना सहित कई अन्य स्त्री पात्रों में नारी अस्मिता  के अंकुरण एवं सशक्तिकरण को लक्षित किया जा सकता है. झुनिया तो एक पंडित जी द्वारा छेड़े जाने पर अपना आक्रोश व्यक्त करते  हुए कहती है ,  मैं अहीर  की  लडकी हूँ .मूंछ का एक एक बाल नुचवा लूंगीं. पुन्नी भी दमड़ी बंसोर द्वारा छेड़े जाने पर उसकी पिटाई करती  है . प्रश्न  यह है कि प्रेमचंद के कथा साहित्य में मौजूद बहुजन समाज की इस प्रतिरोधी चेतना को हिन्दी के आलोचनात्मक साहित्य में क्यों नहीं दर्ज किया गया  ? यह अनायास नही है कि ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ लिखते हुए आचार्य रामचंद्र शुक्ल इसे दर्ज करने के बजाय प्रेमचंद की इस साहित्य दृष्टि को ‘प्रोपेगैडिस्ट’ और ‘समाजसुधारीय’ करार देते हैं. आचार्य शुक्ल के ही शब्दों में ,   प्रेमचंद के उपन्यासों और कहानियों में भी ऐसे आन्दोलन (सामाजिक और राजनीतिक) का आभास प्रायः मिलता है. पर उनमें भी जहाँ राजनीतिक उद्धार या समाजसुधार का लक्ष्य बहुत स्पष्ट हो गया है वहां उपन्यासकार का रुख छिप गया है  और प्रचारक (प्रोपेगैडिस्ट) का रुख ऊपर आ गया है. सच तो यह है कि आचार्य रामचंद्र शुक्ल की वर्णाश्रमी सोच के दायरे में  संघर्षशील   बहुजन समाज के प्रतिरोधी चेतना से युक्त पात्रों की कोई गुंजाईश ही नही थी . उनका तो यह मानना था कि,   ऊंची-नीची श्रेणियां समाज में बराबर थीं और बराबर रहेंगीं .अतः शूद्र  शब्द को नीची श्रेणी के मनुष्य का –कुल ,शील, विद्या, बुद्धि ,शक्ति आदि सब में अत्यंत न्यून का –बोधक मानना चाहिए. उस दौर की अतीतोन्मुखी और पुरातनपंथी दृष्टि का ही यह परिणाम था कि प्रेमचंद को ‘ब्राह्मणद्रोही’ और ‘घृणा का प्रचारक’ भी उस दौर में कहा गया . दरअसल वह समूचा दौर ही ‘हिंदुत्ववाद’ को ‘राष्ट्रवाद’ के रूप में महिमामंडित करने का दौर था जिसके साक्ष्य भारतेंदु और मैथिलीशरण गुप्त तक के लेखन  में मौजूद हैं.  यह अनायास नही है कि जहाँ भारतेंदु ने यह लिखा कि,  भारत कृतघ्न नही है .यह सदा  मुक्त कंठ से स्वीकार करेगा कि अंग्रेजों ने मुसलमानों के कठिन दंड  से हमको छुडाया ; वहीं मैथिलीशरण गुप्त ने आह्लादपूर्वक यह लिखा कि अन्याय यवनों का हमें निज दोष से सहना पड़ा / है किन्तु नारायण अहा ! न्यायी तथा सकरुण बड़ा /देते हुए भी कर्म-फल हम पर हुयी उसकी दया /भेजा प्रसिद्ध उदार उसने ब्रिटिश राज्य यहाँ नया . कहने की आवश्यकता नहीं कि यहाँ मैथिलीशरण गुप्त ब्रिटिश राज की उदारता के सन्दर्भ मुग़ल शासन की समाप्ति और हिंदुत्व की वापसी में तलाश रहे थे ना कि  ज्योतिबा फुले की तर्ज़ पर   अंगरेजी राज में वर्णाश्रमी शोषण-तंत्र की जकडबंदी के नरम होने की उम्मीद पाल रहे थे .
       स्वीकार करना होगा कि प्रेमचंद पहले ऐसे गैर-दलित लेखक थे जिन्होंने बहुजन समाज के पात्रों और जीवनस्थितियों को ही अपने साहित्य में केन्द्रीयता नही प्रदान की बल्कि यह आह्वान भी किया कि ,  राष्ट्रीयता की पहली शर्त वर्ण-व्यवस्था ,ऊंच-नीच के भेद और धार्मिक पाखंड की जड़ खोदना है. और यह भी कि हमारा स्वराज्य केवल विदेशी जुए से अपने को मुक्त करना नही है ,बल्कि उस सामाजिक जुए से भी –उस पाखंडी(ब्राह्मणवादी) जुए से भी जो विदेशी शासन से कहीं घातक है . राहुल सांकृत्यायन ने प्रेमचंद की इस परंपरा को और भी संवर्धित किया  . ‘भागो नही बदलो’ ,‘वोल्गा से गंगा तक’ से लेकर  ‘सतमी के बच्चे’ सरीखी कहानियों  तक उन्होंने जिस वर्णाश्रमी विरोधी चेतना के साथ बहुजन समाज को केन्द्रीयता प्रदान की वह सचमुच ऐतिहासिक महत्व का है. ‘वोल्गा  से गंगा’ में रेखा अहीर के माध्यम से राहुल सांकृत्यायन ने खेतिहर किसान जातियों की दुर्दशा  को कुछ इस तरह अभिव्यक्त किया है-...सबेरे रेखा का दूध नहीं आया. प्यादा के जाने पर रेखा ने गाय-भैंस न होने की बात  खी .मालिक ने पांच मुस्टंडों को हुक्म दिया –जाओ ,हरामजादे की औरत का दूध दुह्कर लाओ....प्यादों  ने चिल्लाती  हुयी मंगरी के स्तन को पकड़ कर गिलास में सचमुच कई धार दूध की मारी ....   रेखा अहीर , भोला भर, मंगरू चमार , दुखराम, संतोखी, और सतमी सरीखे पात्रों  की जीवनस्थितियों के मध्यम से राहुल जी ने  भारतीय सामाजिक संरचना का जो क्रिटीक रचा है उसका साहित्यिक महत्व तो है ही  सामाजशास्त्रीय महत्व भी है. इस प्रसंग में राहुल सांकृत्यायन की पुस्तक  ‘कनैला की कथा’ का ‘1857’  शीर्षक अध्याय विशेष महत्व का है ,क्योंकि यह उनके गाँव कनैला में घटित घटनाक्रम का यथार्थ-विवरण है. इससे 1857 की  समूची परिघटना की वर्णाश्रमी निर्मिति उजागर होती है.  हुआ यह था कि गाँव के मुखियों की सभा में उच्च सवर्ण जातियों के बारह जवानों का भेजा जाना  तय हुआ था .इस समूची प्रक्रिया में भोला भर और मंगरू चमार जैसे सेवक वर्ग के लोग किस तरह वंचित रखे गए ,इसका खुलासा राहुल सांकृत्यायन इस प्रकार  करते हैं –पड़ोस के गाँव की लड़ाईयों में गाँव के ब्राह्मण ,अहीर ,कहार,भर, चुडिहारे ,दर्जी, चमार, सभी को सम्मिलित होने का अधिकार था .मार की खबर मिलनी चाहिए ,जो जहाँ होता ,वहीं से लाठी लेकर दौड़ पड़ता .पर फिरंगियों की लड़ाई में शामिल होने के लिए उनके मुखिया को पंचायत में नहीं बुलाया गया था .बड़ी जाति छोटी जाति वाले कैसे एक पाँती में लड़ते ? खान-पान में विशेष ध्यान देने की जरूरत पड़ती .आयी  हुयी चिट्ठी में यह नहीं लिखा था कि सभी  कौमों के जवानों को भेजना चाहिए .वातावरण में एक मौन सन्देश फैला हुआ था ,पड़ोसी गाँव की लड़ाईयों  में चाहे गाँव के सभी जाति के लोग शामिल हों ,पर अंग्रेजों से लड़ने के योग्य बड़ी जाति वाले ही हैं ....जहाँ  महाभारत और कुरुक्षेत्र का सवाल उठे वहां उनको (निम्न जाति)  वीरगति प्राप्त करने का अधिकार नहीं था.
        कोई आश्चर्य की बात नहीं यदि ‘1857’ के समूचे इतिहास-विमर्श में  राहुलजी के इस लेख का कहीं उल्लेख तक नही है. कारण यह कि इस लेख में  जहाँ वे भारतीय   समाज की  ब्राह्मणवादी कुलीनता का विमर्श रचते हैं ,वहीं भोला भर और मंगरू चमार के माध्यम से भर,चमार,और अन्य दलित-पिछड़ी जातियों की उस सेवक स्थिति का भी  ‘जो दासों की तरह मर-मर के काम करते थे.’ राहुल सांकृत्यायन 1857 की परिघटना में कुलीन सवर्ण आधिपत्य को दर्ज करने के साथ साथ खदेरू सरीखे उन दलित बहादुरों की  भी पीड़ा  को अभिव्यक्त करते हैं जिन्हें ‘महाभारत और कुरुक्षेत्र’ में वीरगति पाने के अधिकार  से भी इसलिए वंचित किया गया था क्योंकि ‘युगों से चले आये सेतु को कौन तोड़ सकता था ?’ यह वास्तव में दुर्भाग्यपूर्ण है कि 1857 की समूची बहस में राहुलजी द्वारा लक्षित जातीय  श्रेष्ठता के इस पक्ष की सायास अनदेखी की गयी वर्ना 1857 के ‘जनक्रांति’ होने के मिथक-भेदन में देर न लगती !
       यहाँ यह तथ्य भी विचारणीय है कि फणीश्वरनाथ रेणु के उपन्यास ‘मैला आँचल’ को डॉ.रामविलास शर्मा सरीखे आलोचक ख़ारिज क्यों करते हैं ?  दरअसल रेणु सत्ता और जनता का द्वि-विभाजन करके उसका अमूर्तन नहीं करते . वे अपने औपन्यासिक कथ्य में सत्ता-संरचना के स्रोतों की तलाश भारतीय सामजिक संरचना में उसी तरह करते हैं जैसे प्रेमचंद . इसीलिये रेणु ‘मैला आँचल’ के बालदेव के सन्दर्भ में इस प्रश्न से भी संबोधित होते हैं कि ‘ग्वाला होकर लीडरी ,,?’ और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सन्दर्भ में इस तथ्य को भी रेखांकित करते हैं कि ...काली टोपीवाले दल के संयोजकजी आये हैं .लाठी-भाला टरेनिं देते हैं .छोटी जाति के लोगों की सभा में वे नहीं जा सकते. रेणु उस दलित प्रतिरोध को भी दर्ज करते हैं ,जिसके चलते दलितों ने सहदेव मिसिर को रात-भर फुलिया की झोपडी में बंधक बनाये रखा था .लेकिन साथ ही उस सामाजिक संरचना को भी विश्लेषित करते हैं जिसके आधिपत्य के  चलते पंचायत में फुलिया, सहदेव मिसिर को निर्दोष बताती है ,क्योंकि उसका पिता सहदेव मिसिर का कर्ज़दार है. रेणु ग्राम्य समाज के जिस ब्राह्मणवादी  वर्चस्व को ‘मैला आँचल’ में पृष्ठ-दर-पृष्ठ उजागर करते हैं,  डॉ.रामविलास शर्मा  उस ब्राह्मणवाद के अस्तित्व  को ही नकारते हैं. उनका स्पष्ट कहना है कि शोषण का माध्यम वर्ग शोषण है.किसी का शोषण इस वजह से नहीं होता कि वह पंडित है या चमार या किसी जाति का है. सच तो यह है कि डॉ. रामविलास शर्मा के आलोचनात्मक अजेंडे से उस ब्राह्मणवाद का क्रिटिक सिरे से अनुपस्थित है जिसे समझे  बिना ग्राम्ययथार्थ की किसी भी रचना के अर्थ को ग्रहण नहीं किया जा सकता है.  न गोदान, न मैला आँचल , न बलचनमा , न  आधा गाँव और न ही ‘धरती धन न अपना’ .डॉ. रामविलास शर्मा भारतीय समाज की अपनी वर्गीय व्याख्या में शोषण के जातिगत  आधार को अंत तक ख़ारिज करते रहे .यही कारण था कि न तो वे दलित साहित्य के पक्षधर थे , न सामाजिक न्याय एवं आरक्षण के .स्वाभाविक ही है कि जिन कारणों से उनके आलोचना कर्म में  ब्राह्मणवाद का क्रिटीक अनुपस्थित है ,उन्ही कारणों से वे दलित विमर्श को भी अस्वीकार करते थे क्योंकि उनकी राय थी कि ,   यदि  आप पूंजीवादी व्यवस्था को कायम रखना  चाहते हैं ,तो आपको दलित साहित्य रचना चाहिए.  वे जाति-भेद आधारित सामजिक अन्याय से भी इनकार करते थे क्योंकि उनका कहना था कि ..भारत में  कोई मानव-समुदाय ऐसा नहीं है जो सामाजिक अन्याय से पीड़ित नहीं है.
            दरअसल आचार्य रामचंद्र शुक्ल से लेकर डॉ.रामविलास शर्मा और उनके बाद तक चली आ रही इस आलोचना दृष्टि का ही परिणाम है कि वे साहित्यिक रचनाएँ हिन्दी साहित्य की मुख्यधारा में अपने सही सन्दर्भों में विश्लेषित व समादृत नहीं हो पायीं  जिनमें बहुजन समाज की केन्द्रीयता है. बाबा नागार्जुन का उपन्यास ‘बलचनमा’ इसी अनदेखी की भेंट चढ़ गया .कौन है बलचनमा ? जाति का ग्वाला जिसकी दुर्दशा बंधुवा मजदूर सरीखी है . अपने औपन्यासिक पात्र बलचनमा की जुबानी स्वाधीनता आन्दोलन का जो क्रिटीक नागार्जुन रचते हैं उसमें यह अंतर्धारा लगातार उपस्थित है कि सोराजी हो गए तो क्या ,थे तो आखिर बाबू-भैय्या ही न ! गरीब-गुरबा का दुःख ये लोग क्या जानें ?...जैसे अंगरेज बहादुर  से सोराज लेने के लिए बाबू-भैय्या लोग एक हो रहे हैं ,हल्ला-गुल्ला और झगडा –झंझट  मचा रहे हैं उसी तरह जन-बनिहार ,कुली-मजूर और बहिया –खवास लोगों  को अपने हक़ के लिए बाबू-भैया से लड़ना पडेगा.  कहने की आवश्यकता नहीं की बहुजन समाज की इस संघर्ष चेतना को ग्रामीण समाज के उन अंतर्विरोधों को स्वीकार किये बिना नहीं समझा जा सकता जो जातीय –वर्णाश्रमी श्रेष्ठता का परिणाम है. इसी प्रकार राही मासूम रज़ा के उपन्यास ‘आधा गाँव’ का परशुराम चमार का एमएलए बनने का वह प्रसंग जो इस तथ्य को रेखांकित करता है कि भारतीय समाज की सामंती संरचना हिन्दू व मुस्लिम का भेद किये बिना दलितों के राजनीतिक उभार को लेकर कितनी असहज थी . एमएलए बनने के बाद भी दलित परशुराम लुटे-पिटे टूटपुन्जिये भूतपूर्व जमींदारों की निगाह में भी सम्मानजनक सम्बोधन का अधिकारी  न था . ‘आधा गाँव’ आज़ादी के तुरंत बाद के संसदीय  जनतंत्र में आरक्षित सीट से  जहाँ एक दलित के एमएलए होने के बदलाव को दर्ज करता है वहीं यह भी कि किस तरह एक दलित राजनीतिक कार्यकर्ता द्वारा अपनी स्वतंत्र अस्मिता की तलाश करना महंगा पड़ सकता था . एमएलए होकर भी परशुराम का जेल के सीखचों के पीछे भेजा जाना  सामंती ठसक की दुरभिसंधि का ही खुलासा करता है.  अफ़सोस है कि ‘आधा गाँव’ के इन निहितार्थों को खोलना हिन्दी आलोचना के कुलीनतंत्र द्वारा अभी भी शेष है.
        यहाँ यह जानना भी दिलचस्प है कि आखिर क्यों हिन्दी आलोचना के कुलीनतंत्र से ‘गोदान’,’बलचनमा’ और ‘आधा गाँव’ सरीखी रचनाएँ बहिष्कृत हैं लेकिन उसी आस्वाद्परक  कलावादी खेमे द्वारा ‘मैला आँचल’ समादृत . दरअसल इसके मूल में रेणु की कथा-भूमि के सामाजिक सन्दर्भ न होकर उनकी रचनात्मकता के काव्यगुण ही हैं. निर्मल वर्मा  की रेणु की पसंदगी के मूल में ‘लोकगीतों की संवेदना’, ‘लहलहाता गद्य’ और ‘अद्भुत लयात्मकता’ ही है. प्रश्न यह है कि सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और वर्णाश्रमी हिंदुत्व का जो  क्रिटीक रेणु के साहित्य में उपस्थित है ,क्या उसके निहितार्थ समझने  के बाद भी रेणु कुलीन साहित्य तंत्र के बीच उतने ही समादृत  रहेंगें ? विशेषकर तब जब निर्मल वर्मा सरीखे कुलीनदृष्टि के कलावादी लेखक  वर्णाश्रम व्यवस्था के भी पैरोकार रहे  हों. यह अनायास नही था कि निर्मल वर्मा ‘वर्णाश्रमी व्यवस्था’ को ‘दी हुयी’ पूर्व निर्धारित  जिम्मेदारी के रूप में व्याख्यायित कर भारतीय समाज की ‘बुनियादी अच्छाई’ के रूप में  प्रस्तुत करते हैं . इसी के चलते वे ‘गोदान’ में  होरी की यातना के स्रोत ‘गोदान के लिए पैसे न जुटा पाने’ में तलाश लेते हैं . निर्मल वर्मा द्वारा होरी की गाय की लालसा को गोदान की लालसा में बदल देना ‘गोदान’ का कुपाठ ही नही है बल्कि उसे उन धार्मिक निहितार्थों से लैस करना है प्रेमचंद जिनका लगातार प्रतिवाद करते रहे .
     यह निसंकोच कहे जाने की जरूरत है कि आज बहुजन समाज के सुख-दुःख, आशा-आकांक्षाओं और संघर्ष व विफलताओं पर केद्रित रचनाएँ दुतरफा षड्यंत्र की शिकार हैं. एक तरफ उन्हें सन्दर्भ-विहीन किये जाने के खतरे हैं तो दूसरी तरफ उनके अधिग्रहीत किये जाने के .प्रेमचंद  को जहाँ उनकी परम्परा से बेदखल करने के प्रयत्न जारी  है वहीं रेणु  का  कलावादियों द्वारा अधिग्रहीत किये जाने के . बहुजन समाज की ही केन्द्रीयतावाले ‘धरती धन न अपना’(जगदीश चन्द्र), ‘एक टुकड़ा इतिहास’(गोपाल उपाध्याय), ‘महाभोज’ (मन्नू भंडारी), ‘डूब’(वीरेंद्र जैन) , ‘मोरी की ईंट’(मदन दीक्षित) , ‘मुखड़ा क्या देखे’(अब्दुल बिस्मिल्लाह) आदि सरीखी औपन्यासिक कृतियाँ तो हाशिये के सामाज की कथा कहे जाने के चलते हाशिये पर ही  ढकेल दी गयी हैं. जरूरत है मुख्यधारा के लेखकों द्वारा रचे गए इस बहुजन समाज के साहित्य को नयी अर्थवत्ता और सही सन्दर्भ प्रदान करने की  ना कि लेखक की जाति देखकर उसे ख़ारिज करने की . बहुजन साहित्य की कसौटी  बहुजन समाज की  विषयवस्तु होनी चाहिए   ना कि बहुजन समाज के लेखकों की जाति. प्रेमचंद ने साहित्य के जनतांत्रिकरण के लिए साहित्य की कसौटी बदलने का आह्ववान किया था ,आज जरूरत है इसे पुनर्परिभाषित कर बहुजन समाज के अनुकूल उस  नए निकष को निर्मित करने  की जिसमें वर्णाश्रमी ब्राह्मणवाद और कार्पोरेट पूंजीवाद का क्रिटीक  अनिवार्यतः शामिल हो. बहुजन साहित्य के समक्ष आज  यह चुनौती भी दरपेश है कि वह अपनी नयी परम्परा बनाने के साथ अपनी उस पूर्व परम्परा की भी निशानदेही कर सके जिसने साहित्य का जनतांत्रिकरण करके बहुजन समाज की केन्द्रीयता की दिशा तय की थी. कहने की आवश्यकता नही कि बहुजन समाज को मुख्य धारा के साहित्य में केन्द्रीयता उन लेखकों द्वारा  संभव की गयी थी जिन्होंने अपने वर्ग और वर्ण से मुक्त या च्युत(डी-कास्ट व डी क्लास) होकर इसे संभव किया था .यह वास्तव में चिंता की बात है कि  मुख्यधारा के लेखकों के बीच यह परम्परा अब  क्षीण ही नही होती जा रही है, बल्कि उच्च सवर्ण वर्ग के लेखकों की एक बड़ी जमात  अपने वर्ग और वर्ण में वापस भी हो रही है. यही कारण है कि साहित्य की मुख्यधारा में दलित,आदिवासी, किसान और हाशिये के  समाज की अपेक्षित उपस्थिति अब अपवाद स्वरुप ही दर्ज  हो  पा रही है. इतना ही नहीं प्रेमचंद ने जिस ‘सौन्दर्य की कसौटी’ को बहुजन समाज के जीवन-संघर्षों के साथ जोड़ा था उसे ही अब प्रश्नांकित किया जाने लगा है. साहित्य को  सामाजिक संरचना न मानकर महज साहित्यिक संरचना तक सीमित करने की बहसें भी अब तेज होने लगी हैं.
      यह अकारण नही है  कि   सहित्य के केंद्र से   ‘गोदान’ के होरी को बेदखल करके अभिजन समाज के नायक ‘शेखर’ को स्थापित करने के तर्क भी इन दिनों दिए जाने लगे  हैं . होरी की यह बेदखली साहित्य में बहुजन समाज के सरोकारों की ही बेदखली होगी .  उम्मीद की जानी चाहिए कि बहुजन समाज के बौद्धिक इन दुरभिसंधियों को समझेंगें  और अपनी ऐतिहासिक व हस्तक्षेपकारी भूमिका का निर्वहन करेंगें..

*वीरेंद्र यादव ,सी -855, इंदिरा नगर ,लखनऊ -226016.mo.09415371872  email – virendralitt@gmail.com .

            

1 comment:

जनता का डाक्टर: जिसने विभेद से भरे हुए समाज का इलाज भी जरुरी समझा

 सुनील यादव  डाक्टर शब्द का का नाम आते ही एक ऐसे प्रोफेसनल व्यक्ति का अक्स उभरता है जो खुद के लिए बना हो. चिकित्सा के क्षेत्र में चिकित्सक क...