सुनील
यादव
भारत में सांप्रदायिकता क जनम अउर
विकास क चर्चा करत खानी स्त्री के तरफ
तनिको ध्यान ना जाला।जबकि सांप्रदायिक भेद-भाव आ झगड़ा क
सबसे ढेर शिकार स्त्रीये होलीन। कउनो न कउनो तरह से हर घरी ओकर इज्जत-आबरू के
मटियामेट करे के कोशिश कइल जाला। “बंटवारा के बाद देखल जाव त सांप्रदायिकता के
संकट एहर बीस-पच्चीस साल में ढेर खतरनाक भइल बा। ठीक-ठीक ढंग से कहल जाय त
अङ्ग्रेज़ी हुकूमत के लोग हिंदू अउर मुसलमान के बीच झगड़ा कराके दूनों के भाईबंदी
में रोड़ा डालल चाहत रहले। बंटवारा के बाद उठउआ स्त्रीयन के बड़ा दुरगति भइल ।
बंटवारा तमाम लोगन के आपन सब कुछ त्याग के एक जगह से दूसरा जगह जा के बसे खातिर
मजबूर कइलस, साथे-साथ बंटवारा से दूनों देश के बीच जवन
छरदेवारी पड़ल ओकरा आड़ में हजारन महिला के चोरी, छिनारी आ
कुकर्म के दास्तान छिपल बा।”1 भारत में
सांप्रदायिकता जइसे-जइसे बढ़ल, इहाँ के स्त्री लोग के बड़ा
कष्ट दिहल गइल। मेहरारून के जवन दूरगति भइल उ बड़ा तकलीफ़देह बाटे। “सीमा के
दूनो ओर हजारों औरतन के उठावल गईल । उन सबके जबरन वियाह
करे के पड़ल अऊर जवन उठवले रहलन उनकर धरमों स्वीकार करे के पड़ल। अ कई बार त इहों भईल कि आपन इज्जत-आबरू बचावे खातिर खुदै परिवार क लोग
अपनिए घर के बहू-बेटी के मार डलनै।”2
स्त्री अउरी सांप्रदायिकता क सवाल से
टकराये से पहिले इ बात
जान लेवल जाय कि ई सांप्रदायिकता का बा ? सांप्रदायिकता आज क जमाना के विकृत
मानसिकता से उपजे वाली समस्या बा । एही विकृत मानसिकता क कुछ लोग धरम के नाम पर, संस्कृति के नाम पर
अउरे न जानी कउनी कउनी नाम पर
बरियाई से भारत के एगो खास समुदाय क देश बनावल चाहत बाड़न। ‘‘ई
ठीक बा कि हर आदमी क एगो सामुदायिक पहचान होले। ई पहचान ओके पैदा होते मिल जाले । एसे कऊनों आदमी अलग न हो सकेला। ए पहचान क कऊनों आधार व्यक्ति क नाम हो सकेला। कऊनों अदमी के नाम से हम लोग खाली ओकर नाम अ परिचय
ही न जान सकीला बाकी ओकर समुदायो अउर सामाजिक
हैसियतों जान लेवल जाला। ईहां त कि उ का करेला इहों जान सकल जाला। एही तरह कऊनों अदमी क दूसर पहचान होला कि उ कऊनी धरम क बा। ओकरी ई पहचान के हम लोग धार्मिक पहचान आ सांप्रदायिक पहचान भी कह सकीला।”3
आजादी के पहिले भारतीय राजनीति में कुछ राजनीतिक
तत्व अइसन रहलन जवन मनई के सांप्रदायिक पहचान के आक्रामक रूप दे दिहलन अउर आज के राजनीति में भी सांप्रदायिक पहचान को आक्रमक बनावल जात बा। आदमी के मन के ए तरह से बनावल जाला कि उ सांप्रदायिक पहचान के ही आपन पहचान मान लेला। ई एक
तरह से बहुते खतरनाक स्थिति बाटे। काहें से कि भारत में कई जाती के लोग एक साथे रहेलन। एमे अनेक ईकाई बा अउरी इनकर बनावट बहुते जटिल बा। एमे सबके सामुदायिक पहचान
जुड़ल बा। ई खराब बात नईखे लेकिन जब सामुदायिक पहचान कवनों
कारण से सांप्रदायिक पहचान में बदल जाला तब सांप्रदायिकता के खतरा बढि जाला। सांप्रदायिकता एगो अइसन विचारधारा ह जेकरा अनुसार कवनों धरम के
माने वाला लोगन के समूह के सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक हित बराबर होला। ए तरह के हित दूसर लोगन के धरम के हित से अलगे होखेला। “सांप्रदायिकता के तीनगो रूप होखेला। पहिलका रूप में एगो धरम के माने वाला लोगन के हित एगो होला। ई सांप्रदायिकता के शुरू होखे के पहिलका आधार ह। सांप्रदायिकता क दूसर रूप उदार सांप्रदायिकता के ह। ए मान्यता के अनुसार भारत जइसन बहुभासी समाज में एगो धरम के माने वालन के हित अलग-अलग होखेला। सांप्रदायिकता, तिसरा रूप में तब शुरू होखेले जब ई मान लिहल जाला की कई धरमन
के माने वाला लोगन के समुदाय के
हित आपस में टकराए लागेला। एकरा के उग्र सांप्रदायिकता कहल जाला। एकरे आधार पर सांप्रदायिकता के राजनीति खड़ा
बा।”4 इहे सांप्रदायिकता के शुरुआती विचारधारा ह, जेकरा जमीन पर सांप्रदायिक राजनीति क विकास भइल बा। सांप्रदायिक हिंसा, सांप्रदायिक विचारधारा क ही सहजे नतीजा ह। एही तरह से हिन्दू, मुस्लिम, सिख या ईसाई सांप्रदायिकता एक दूसरे से अलग नइखे। उ एक ही पेड़ के कई गो शाखा ह।
सांप्रदायिकता के शुरुआत आधुनिक राजनीति के साथे भइल बा। ‘‘भारत में सांप्रदायिक चेतना के जनम उपनिवेशवाद क दबाव अउर ओकरा खिलाफ जंग छेड़ला के जरूरत से पैदा भइल बदलाव के चलते भइल। सांप्रदायिकता त बीतल जमाना के एगो विरासत हवे, बलुक सच्चाई ई बा की सांप्रदायिकता बहुते पुरान अउर ओकरा बाद के जमाना के सोच-विचार के उपयोग करेला। बलुक असली
रूप में ई एगो नया जमाना के बात-विचार अउर राजनीतिक सोच से उपजल रूप रहे। सांप्रदायिकता
भारतीय समाज में आपन जड़ केतना गहराई से जमउले बा एकर सामाजिक, राजनीतिक अउर आर्थिक रूप भारत के इतिहास अउर आज के समय में खोजल जा सकेला।”5 आज के समय में एकर फरल-फुलाईल रूप
देखल जा सकेला।
सांप्रदायिकता क दंश सबसे ढेर समाज
में स्त्रीये जाति के झेले के पड़ेला।
उ चाहे कऊनों देश क
जंग होखे, चाहे समाज में होखे वाला कऊनों दंगा फसाद ।सांप्रदायिकता एगो बड़
समस्या बा जवना से स्त्री समाज क विकास ठीक से ना हो पावत बा। सच्चाई ई बा की मर्दवादी (
पितृसत्तात्मक) समाज में उभरे वाला हिंसक सोच विचार क रूप में देखल जा सकेला। भारतीय समाज का असली रूप
मर्दवादी ही हवे। ई मर्दवादी (पितृसत्ता)
सत्ता स्त्रीयन के भोग क समान (comodity) समझेले।
ई मेहरारून के सम्मान के खिलाफ बा। मेहरारून के लेके ई भोग क दृष्टि कुल्ही धरमन में समान रूप से देखल जा सकेला।ई
एगो खास बात बा कि क कुल्ही धरमन क अगुआ मरदाना रहल बाने। स्त्रीयन के समाज में मान-सम्मान
के भाव से भी देखल जाला। इहे कारण ह क कि सांप्रदायिक मार-काट के समय मे एगो
समुदाय क लोग दूसर समुदाय के लोगन के स्त्रीयन के बेइज्जत करल चाहेले। एही कारण से
मेहरारू ज्यादा हिंसा क शिकार होखेली। साल 1955 में आनंद पटवर्धन एगो फिलिम- ‘पिता, पुत्र और धर्मयुद्ध’ बनवलन, जेवना में सांप्रदायिकता क
शिकार स्त्रीयन क दर्द पिरोवल रहे। सांप्रदायिक मार काट में स्त्रीये सबसे ज्यादा हिंसा क शिकार होलीं ,सतावल जालीं अउर उनकर इज्जत-आबरू
से खेलल जाला।
स्त्री
अऊर सांप्रदायिकता पर कुल्ही ढंग से सोचला-समझला के बाद ई कहल जा सकेला कि ए विषय
पर अब नया ढंग से सोचले क जरूरत बा । पुरनकी आँख से एकरा के ना देखल जा सकेला। अब
मर्दवादी दृष्टि के बदले के पड़ी, काहें कि दंगा के दवरान स्त्री स्त्री होलीन, हिन्दू अऊरी मुसलमान नाहीं ।
संदर्भ
सूची:
1-भारतीय
समाज में महिलाएं– नीरा देसाई, ऊषा ठक्कर, (अनु.)- सुभी धुसिया, नेशनल
बुक ट्रस्ट, नयी
दिल्ली, सं.
2011 पृ. सं. 155
2-स्वतंत्र
भारत में राजनीति (एन.सी.ई.आर.टी), सं. 2007, पृ. 10
3-आलोचना
(पत्रिका)- सं. परमानंद श्रीवास्तव, अंक- अप्रैल-जून, 2000
पृ. 77
4- भारत का स्वतंत्रता संघर्ष- बिपिन चंद्रा, हिंदी माध्यम कार्यान्वयन
निदेशालय, दिल्ली विश्वविद्यालय , पृ. सं. 319
5- भारत का स्वतंत्रता संघर्ष- बिपिन चंद्रा, हिंदी माध्यम कार्यान्वयन
निदेशालय, दिल्ली विश्वविद्यालय, पृ. सं. 319
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