Friday, 5 October 2018

देह धरे को दंड’: हाशिये पर धकेल दी गई अस्मिताओं का एक मुखर स्वर



सुनील यादव

आज जब स्त्री विमर्श को स्त्री यौनिकता तक सीमित करने की मुहिम जोरों पर हो, तथाकथित स्त्रीवादी आंदोलन से बहुजन स्त्री के सरोकार कट से गए हों, स्त्री सुचिता एवं नैतिकता की बहस सेमीनारों और गोष्ठियों तक सिमट रही हो । अस्मितावादी आंदोलनो को खत्म करने की राजनीतिक साजिसे अपने नए हथकंडे अख़्तियार कर रही हो, आरक्षण के नाम पर तमाम प्रवाद फैलाए जा रहे हो, जब बहुत से प्रगतिशील बुद्धिजीवी भी आरक्षण के मुद्दे पर चुप्पी साध लेते हों । जब हाशिये के समाज की लोकतंत्र तथा साहित्य में भागीदारी के लिए जद्दोजहद जारी हो । ऐसे में प्रीति चौधरी का लेखन खासा महत्व रखता है । वे अपनी सबाल्टर्न दृष्टि से इस हाशिये के समाज की समुचित भागीदारी का एक स्पेस तलाश करती हुई प्रतीत होतीं हैं।  उनकी किताब देह धरे को दंड आधी दुनिया उसमें भी विशेषकर बहुजन स्त्री के सवालों को पूरे सामाजिक परिप्रेक्ष्य में रखकर देखने  और परखने का नया नजरिया तो देती ही है साथ ही समाज के जनतांत्रिकरण की प्रक्रिया में महत्वपूर्ण हस्तक्षेप करती हैं ।   
सिमोन की विख्यात किताब द सेकेंड सेक्स का अनुवाद करते हुए उसकी भूमिका में प्रभा खेतान ने लिखा था कि “हममें से बहुतों ने पश्चिमी शिक्षा पाई है, पश्चिमी पुस्तकों का गहरा अध्ययन किया है, पर सारी पढ़ाई के बाद मैंने यही अनुभव किया कि भारतीय औरत कि परिस्थिति 1980 के आधुनिक पश्चिमी मूल्यों से नहीं आंकी जा सकती।” यहाँ भारतीय समाज में स्त्री की दशा का अध्ययन करके उनके मूल्यांकन के जिस सैद्धान्तिक आधार की बात प्रभा खेतान कर रहीं थीं, उस सैद्धांतिक आधार पर ही प्रीति चौधरी का पूरा चिंतन प्रौढ़ होता है। प्रीति चौधरी भारतीय स्त्री की समस्याओं पर बात रखने के लिए जो टूल्स इस्तेमाल करती हैं ये टूल्स पाश्चात्य चिंतन से आयातित न होकर भारतीय समाज के गहराई से अध्ययन के उपरांत सृजित किए गए हैं। इसीलिए उनका चिंतन अत्यंत प्रमाणिक नजर आता है।
 प्रीति चौधरी अपने जीवन के अनुभवो को अपने चिंतन में एक हथियार के तौर पर प्रयोग करती हैं, इसीलिए उनका भोजपुरिया समाज में स्त्री संबंधी चिंतन खासा महत्व का है, वे इस समाज परलिखते हुए लिखती हैं कि “क्या यह विडम्बना नहीं है कि पत्नी का ध्यान रखने वाले पुरुष हमारे गाँव समाज परिवेश में कमतर पुरुष (मौगा) आँके जाते हैं । असली मर्द तो रात के अंधेरे में आता है । पत्नी पर वर्चस्व स्थापित करता है और चलता बनता  है।” 
प्रभा खेतान की किताब बाजार के बीच: बाजार के खिलाफके बहाने प्रीति चौधरी ने भूमंडलीकरण के दौर में यौनिकता एवं वस्तुकरण में तब्दील होती स्त्री जैसे महत्पूर्ण सवाल उठते हुए लिखती हैं कि भूमंडलीकरण के इस दौर में पितृसत्तात्मक व्यवस्था को सरंक्षण प्राप्त है. इस व्यवस्था को चुनौती देने वाले नारी समूह कम ही हैं, सवाल ये है कि पढ़ी लिखी दुनिया के साथ कदम मिलाती सशक्त स्त्री, स्थानीय स्तर पर दलित वंचित महिलाओं के साथ स्वयं को जोड़ पाएगी ?बाजार की मार झेलती दलित स्त्री की चीख क्या वह सुन रही है ?”
अगर एक तरफ इतिहास के साथ मिथकों का  स्त्रीवादी पाठ प्रस्तुत करते हुए  प्रीति जी अपने लेख नकली दुनिया के किस्सेमें इलेक्ट्रानिक मीडिया में गढ़ी जा रही स्त्री छवि का क्रिटिक रचती हैं तो दूसरी तरफ प्रेम को बख्शियेलेख मे प्रेम के संदर्भ में देश का तालिबानीकरण करने पर आमादा तथाकथित समाज नियंताओं को कटघरे में खड़ी करती हैं. प्रेम जैसे विषय पर जब रोज सैकड़ो पृष्ठ खर्च किए जा रहे हों ऐसे में प्रीति चौधरी के लेख  जरुरत है रोम रोम में महसूसने की का अपना ख़ास महत्व है, उन्होंने इस लेख में कामुकता और प्रेम का जो फर्क किया है, वह अद्भुत है वे लिखती हैं कि किसी नियामक बिंदु पर खुद को निर्वासित कर देना ही प्रेम की पवित्रता में आस्था और मनुष्यता में विश्वास जगाता है. प्रेम और वासना का फर्क यहीं से शुरू होता है
      इस पुस्तक का दूसरा खंड जो हाशिये का विमर्श नाम से है, हाशिये के समाज  के विविध पहलुओं पर विस्तार से बात करता है। इस खंड का विस्तार आरक्षण से लेकर राजनीति तथा लोकतन्त्र के विविध आयामों तक है । भारतीय राजनीति के संदर्भ में बात करते हुए अक्सर यह जुमला उछाला जाता है कि भारतीय राजनीति जातिवादी हो गयी है . यह जुमला नारा के रूप में तब उछाला जाने लगा जब दलित एक पिछड़ी जातियां राजनीति में भागीदारी करते हुए सत्ता तक पहुंची..  प्रख्यात राजनीतिक चिन्तक रजनी कोठारी ने राजनीति में जातिवाद जैसे जुमले का क्रिटिक पेश करते हुए जातियों के राजनीतिकरण का सिद्धांत प्रस्तुत किया, उन्होंने लिखा जिस समाज में जातिगत सरंचनाओं के माध्यम से संगठन और गोलबंदी की सुविधा हो और जिस समाज में अधिकांश जनगण जातियों के रूप में ही संगठित हों, वहां राजनीति जाति आधारित गोलबंदी की कोशिश करेगी ही. इस विश्लेषण से साफ हो जाना चाहिए कि राजनीति में जातिवादकी कथित परिघटना असल में जाति का राजनीतिकरणही है.रजनी कोठारी के इस सिद्धांत के आलोक में प्रीति चौधरी लिखती हैं कि आज स्वतंत्रता के साथ वर्षों बाद हमें राजनीतिक के स्वरूप और चरित्र में बहुत बदलाव नजर आते हैं, जैसे अस्मितावादी व पहचान की राजनीति का मुख्य भूमिका में आ जाना. मझली एवं छोटी जातियों का उभार भारतीय लोकतंत्र के लिए एक स्वाभाविक किन्तु बेहद अहम् मोड़ है .। इसी क्रम में प्रीति चौधरी मंडल कमीशन की सिफारिसें तथा आरक्षण विरोधियों के कुतर्को का सटीक विश्लेषण करती हैं . दुनिया भर में स्त्री मुक्ति आंदोलन को ब्लैक एंड वाईट में बंटते हुए हम देख सकते हैं . जाति विमर्श को आगे बढ़ाते हुए प्रीति चौधरी उसे जेंडर की बहस तक ले आती हैं यहाँ भारत की विडंबना है कि चाहे वह वामपंथी आंदोलन हो या स्त्रीवादी आंदोलन जाति के सवाल से जूझे बिना वे एकांगी और अधूरे हैं . भारत में इतनी व्यापक गरीबी के बावजूद यदि वामपंथी अपनी व्यापक पैठ न बना सके तो इसकी वजह यही थी कि उन्होंने वर्ग की अवधारणा पर जरुरत से ज्यादा भरोसा कर जाति को किनारे रखा।
      ‘समान प्रतिस्पर्धा के भोथरे तर्क’, ‘खैरात नहीं सामजिक न्याय का तकाजा है आरक्षण नामक इस किताब के दो लेख आरक्षण के विविध पहलुओं पर गहराई से विचार करते हैं. इसी क्रम में प्रीति चौधरी अकादमिक दुनिया में सवर्णों के वर्चस्व और न्युक्तियों में भाई भतीजावाद के कारण यू जी से नेट जैसी परीक्षाओं की भूमिका की एक सार्थक पड़ताल पेश करती हैं . आज स्थिति और भी भयावह है नेट, पीएच. डी. और आपकी योग्यता से ज्यादा मायने आपकी जाति और आपके संबंध रखते हैं भारत में सबसे बड़ी पहचान जाति है, जिसे योग्यता का पर्याय मान लिया गया है. साक्षात्कार बोर्डों में जाति विशेष का होना अपने आप में एक सोर्स मान लिया जाता है ....द्रोणाचार्यों की परम्परा खत्म नहीं हुई है अब भी एकलव्यों के सामने अर्जुन खड़े मिलते हैं .हजारों सालों से एक वर्ग विशेष को शिक्षा से दूर रखा गया उसके ज्ञान के सभी श्रोतो को ब्लाक कर दिया गया. ऐसे में समान प्रतिस्पर्धा के तर्क सचमुच भोथरे ही हैं, आरक्षण के प्रावधान पर बात करते हुए यह मान लिया जाता है कि यह नौकरी दिलाने का साधन है जबकि आरक्षण समाज में समुचित भागीदारी के हथियार के रूप में आया था ।
      शिक्षा में भाषा के सवाल जैसे बेहद महत्वपूर्ण मुद्दे के साथ इस पुस्तक में कमलाकांत झा की पुस्तक पाठ्यपुस्तकों की राजनीति  के बहाने पाठ्यपुस्तकों की राजनीति पर प्रीति जी विस्तार से बात करती हैं । नयी नहीं है भारतीयों के साथ बदसलूकी लेख में अगर वे अमेरिका की दादागिरी तथा उसकी शक्ति की राजनीति की पड़ताल करती हैं तो सरबजीत के बहाने कुछ सवाल में  सरबजीत मामले पर बौराई हुई प्रतिक्रियाओं और विवेकहीन वक्तव्यों की आलोचना करती हैं ।
      इस किताब में प्रीति चौधरी ने मुसलमानों की मूलभूत समस्याओं पर बहुत गहराई से लिखा है है । जैसा की हम जानते हैं मुस्लिम समाज गरीबी, बेरोजगारी, अशिक्षा, भुखमरी,अंधविश्वास, सांप्रदायिकता इत्यादि समस्याओं से जूझ रहा है । शिक्षा में वृद्धि दर काफी धीमी है । सरकारी नौकरियों में प्रतिनिधित्व लगातार बढ़ रहा है पर यह विकास दर बहुत कम तथा चिंता जनक है । मुस्लिम समाज में स्त्री-पुरुष लिंगानुपात राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संस्थान (NSSO) के 66वें(2009-10) चक्र के आंकड़ों के अनुसार गाँवों में 1000 पुरुषों पर 921 महिलाएँ तथा शहरों में यह अनुपात 1000 पुरुषों पर 923 महिलाएँ हैं ।  जबकि सम्पूर्ण भारत के  स्त्री पुरुष का यह अनुपात 1000 पुरुषों पर गाँवों में 947  तथा शहरों में 909 महिलाएँ हैं ।”  शिक्षा, स्वास्थ्य,रोजगार स्वतंत्रता  सभी दृष्टिकोण से मुस्लिम महिलाएँ  देश की सर्वाधिक पिछड़ी हुई महिलाएँ मानी जाएंगी । पर्दा प्रथा, तीन तलाक,बाल विवाह, बहुविवाह इत्यादि चीजों ने  मुस्लिम महिलाओं का जीवन दूभर कर दिया है । एक तरफ जहाँ वे गरीबी, बेरोजगारी, अशिक्षा की मार से त्रस्त हैं वहीं धार्मिक क़ानूनों की मनमानी व्याख्या स्त्री विरोधी साबित हो रही है ।अगर भारतीय मुसलमान शिक्षा के क्षेत्र में देश के अन्य समुदायों से पीछे हैं ।  इस समुदाय में बड़े पैमाने पर फैली गरीबी और बेरोजगारी इसके लिए जिम्मेदार है ।  मुस्लिम समुदाय की वे बिरादरियाँ जिनकी आर्थिक स्थिति ठीक है, वे शिक्षा के मामले में भी आगे हैं ।  आधुनिक सोच और शिक्षा से वंचित मुस्लिम समाज का एक बड़ा तबका मुल्ला मौलवियों के प्रभाव से ग्रस्त जीवन के हर क्षेत्र में पिछड़ा हुआ है ।  सच्चर कमेटी रिपोर्ट भी बताती है कि भारतीय मुसलमान शिक्षा के मामले में लगभग हर स्तर पर पिछड़े हैं । उनकी साक्षरता दर राष्ट्रीय औसत से बहुत कम है ।  मुस्लिम समाज के इन सब समस्याओं को अपने जीवन के व्यापक अनुभवो के माध्यम से प्रीति चौधरी अपने लेख दर्द- ए- मुसलमान में अभिव्यक्त करती हैं । वो बिलकुल सच कहती हैं कि अगर भारतीय मुसलमान के दर्द को महसूस करना है तो राही मासूम रज़ा, शानी, मंजूर एहतेशाम और अब्दुल बिस्मिल्लाह के उपन्यासों में तलस करिए , कुछ फिल्म के नायकों कि चमकती तस्वीरे भारतीय मुसलमान कि वास्तविक आईना नहीं हैं ।  
      आज के इस अस्मितावादी विमर्श के दौर में अगर अस्मितावादी आंदोलनो के भटकाव को जानना है, उनके संघर्षों को सही मायने में समझना है तो देह धरे को दंड का बार बार पढ़ा जाना जरूरी है ।

पुस्तक- देह धरे को दंड – प्रीति चौधरी, साहित्य भंडार, इलाहाबाद  
 

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