Monday 20 June 2016

'एक सतत विद्रोही स्वर'.

वीरेंद्र यादव 
यह सचमुच त्रासद और अवसादकारी है कि जब फासीवाद की आहटें तेज हों और सांस्कृतिक राष्ट्रवादसब कुछ लीलने और नष्ट करने की तैय्यारी में हो तब सत्ता प्रतिष्ठान से सीधी मुठभेड़ का दमखम रखने वाले सांस्कृतिक योद्धा मुद्राराक्षस विगत 13 जून को हमारे बीच नही रहे . यूं तो विगत डेढ़-दो वर्षों से बढ़ी उम्र और बिगड़ते स्वास्थ्य के चलते वे अपने घर तक सिमट जाने को विवश थे . लेकिन अपने आखिरी दौर में भी वे देश पर मंडराते सांस्कृतिक-राजनीतिक संकट से खासे बेचैन रहते थे . मुद्राराक्षस हिन्दी बौद्धिक समाज के सर्वाधिक विद्रोही व्यक्तित्व थे . वे महज एक लेखक न होकर एक ऐसे सक्रिय सार्वजनिक बुद्धिजीवी थे जो व्यापक सामाजिक मुद्दों और हाशिये के समाज के पक्ष में एकला चलो रेका जोखिम उठाकर भी अपने प्रतिरोधी स्वर को बुलंद करते रहते थे . यह उन्ही का दमखम था कि धर्मग्रंथों का पुनर्पाठसरीखा क्रिटिक रचकर उन्होंने हिन्दुत्ववादी ताकतों को खुली बौद्धिक चुनौती दी थी .इन्ही दिनों भगत सिंह पर पुस्तक लिखकर उन्होंने भगत सिंह के होने और समसामयिक सन्दर्भों में उनकी जरूरत को शिद्दत से रेखांकित किया था . मुद्राराक्षस की वैचारिक निर्मिति में मार्क्सवाद, बौद्ध दर्शन, लोहियावाद और आम्बेडकर के चिंतन का गहरा प्रभाव था . लेकिन यह भी सच है कि वे किसी एक दार्शनिक राजनीतिक चिंतन के घेरे में कभी नही बंधे .अपने अंतिम उपन्यास अर्धवृत्तमें जहाँ उन्होंने हिन्दू कसाईबाड़ेशीर्षक अध्याय में हिंदुत्व की कपालक्रिया की है ,वहीं अगले ही अध्याय दृष्टिबाधामें उन्होंने भारतीय वामपंथ को प्रश्नांकित करने में कोई कोर कसर नही छोडी है. वे अपने सवालों और प्रहार द्वारा जिस प्रतिपक्ष की संकल्पना करते थे वह सांचेढला न होकर विकल्प की नयी संभावनाएं से युक्त होता था 
लखनऊ के निकट के एक गाँव के अकुलीन परिवार में जन्मे (1933) मुद्राराक्षस दो दशकों के कलकत्ता और दिल्ली प्रवास के बाद जब आपातकाल के उत्पीडन के चलते आकाशवाणी की नौकरी से त्यागपत्र देकर अपने गृहनगर वापस हुए तो उनका व्यक्तित्वान्तरण हो चुका था . कुलीन समृद्ध समाज और सत्ता प्रतिष्ठान द्वारा निगले जाने से बचकर अब वे अपने समाज के आंतरिक दृष्टा के रूप में भगोड़ा’,,’हम सब मंसारामऔर शांतिभंगके रचनाकार थे . अति दलित मुसहर समुदाय पर उन्होंने अपना उपन्यास दंड विधानतब लिखा था जब हिन्दी में दलित विमर्श की आमद भी न हुयी थी . यह सचमुच विडम्बनात्मक है कि साठ के दशक में पश्चिम के अराजक यौन दर्शन के प्रभाव में कलकत्ता में रहते हुए जब उन्होंने अपना उपन्यास मैडेलिनलिखा था तब डॉ.नामवर सिंह ने उन्हें पत्र लिखकर सलाह दी थी कि वे ऐसे विकृत उपन्यास न लिखें .लेकिन बाद के दौर में जब उन्होंने हाशिये के समाज को अपनी रचनात्मकता का केंद्र बनाया तब डॉ.नामवर सिंह सहित आलोचना के समूचे कुलीनतंत्र ने उनके रचना कर्म की उपेक्षा ही की . मुद्राराक्षस स्वयं न तो राजीतिक सत्ता के मुखापेक्षी हुए और न ही सहित्यिक सत्ता के .अज्ञेय, दिनकर ,धर्मवीर भारती से लेकर डॉ.नामवर सिंह तक से उन्होंने सीधी मुठभेड़ की . एक दौर में वे शीर्ष कम्युनिस्ट नेता श्रीपाद अमृत डांगे और डॉ.राम मनोहर लोहिया के वे सीधे संपर्क में रहे .पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह से लेकर विष्णुकांत शास्त्री तक कई राजनेताओं से उनकी निकट मैत्री रही लेकिन पद,प्रतिष्ठा और पुरस्कार से वे कोसों दूर रहे .कहा जा सकता है कि वे सतत सत्ता विरोधी थे .
मुद्राराक्षस हिन्दी के अकेले ऐसे लेखक थे जो जन्मना दलित न होते हुए भी दलित समाज और दलित लेखकों-बुद्धिजीवियों के बीच समान रूप से समादृत थे . आंबेडकरवादी संगठनों ने उन्हें आंबेडकर रत्नशूद्राचार्यसरीखे सम्मान से भी सम्मानित किया था . दलित समाज द्वारा सिक्कों में तौलकर उनका जन-अभिनन्दन भी किया गया था . इस सब की पृष्ठभूमि में पत्र-पत्रिकाओं में विपुल संख्या में प्रकाशित होने वाले उनके वे लेख और स्तम्भ थे जो हिंदुत्व और पूंजीवादी सत्ता संरचना के साथ साथ जातिगत-वर्णाश्रमी अभिजन व्यवस्था पर भी उग्र तीखेपन के साथ आक्रामक तेवरों से लैस होते थे . बहुसंख्यकवाद का विरोध और उर्दू की पक्षधरता वे हिन्दू धर्म के नकार व हिन्दी को ब्राह्मणवादी भाषा करार देने की जिस सीमा तक जाकर करते थे उससे अल्पसंख्यकों का विश्वास और भरोसा भी उनको प्राप्त था . यूं तो मुद्राजी लोकसभा और विधानसभा का चुनाव भी लड़े थे लेकिन मात्र प्रतीकात्मक विरोध के लिए किसी राजनीतिक लोभ-लाभ के लिए नहीं. दरअसल कभी कभी अतियों के छोर पर मुद्राराक्षस का दिखना कुलीन-वर्णाश्रमी सांस्कृतिक-राजनीतिक सत्ता संरचना के विरुद्ध ध्यानाकर्षण की जरूरत होता था . .
मुद्राजी आजीवन संघर्षशील रहे ,स्वतंत्र लेखन ही उनकी आजीविका का साधन था . देश की राजधानी में बरसों गुजारने के बाद शायद ही किसी लेखक की वापसी उसके गृहनगर हुयी हो लेकिन मुद्राजी लौटे थे . .गृहनगर में भी उन्हें आधुनिक नया शहर छोड़कर उस पुराने इलाके की गंधाती संकरी गलियों के बीच पिता के मकान में शरणागत होना पड़ा था जहाँ भद्रजन का चार पहियों पर जाना दुष्कर था . इस कोटर में रहते हुए मुद्राजी ने जिस नैतिक आभा और स्वाभिमान के साथ फुरसतिया सुखासीन समाज को कबीर की तर्ज़ पर फटकार सुनायी वह न भूतो न भविष्यत्है. वे सचमुच अलग,अकेले और अद्वितीय थे . .


No comments:

Post a Comment

जनता का डाक्टर: जिसने विभेद से भरे हुए समाज का इलाज भी जरुरी समझा

 सुनील यादव  डाक्टर शब्द का का नाम आते ही एक ऐसे प्रोफेसनल व्यक्ति का अक्स उभरता है जो खुद के लिए बना हो. चिकित्सा के क्षेत्र में चिकित्सक क...